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आसमान की शहजादियां: Amur falcon ने 6 दिन में मणिपुर से केन्या तक रिकॉर्ड उड़ान भरी


नई दिल्ली।
 TODAY छत्तीसगढ़  /  मणिपुर के घने जंगलों से सैटेलाइट टैग के जरिये निगरानी में रखे गए तीन अमूर फाल्कन ने इस साल फिर ऐसा कमाल कर दिखाया है, जिसने दुनिया भर के पक्षी वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया है। महज 150 ग्राम वज़न वाले इन छोटे परिंदों ने कुछ ही दिनों में महाद्वीप पार कर अविश्वसनीय दूरी तय की है।

सबसे आगे रही ‘अपापंग’, जिसे नारंगी टैग लगाया गया है। इस नन्ही योद्धा ने पूर्वोत्तर भारत से उड़ान भरकर महज 6 दिन 8 घंटे में 6,100 किलोमीटर की नॉन-स्टॉप यात्रा पूरी की। भारत के पूर्वी पहाड़ों से लेकर प्रायद्वीपीय भारत, अरब सागर और हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका को पार करते हुए उसने केन्या में लैंड किया। वैज्ञानिकों के मुताबिक इतनी लंबी निर्बाध उड़ान किसी छोटे शिकारी पक्षी के लिए लगभग असंभव मानी जाती है।

पीछे-पीछे पहुंची ‘अलांग’, जिसे पीला टैग मिला है और जो इन तीनों में सबसे कम उम्र की है। उसने 5,600 किलोमीटर की दूरी 6 दिन 14 घंटे में तय की। रास्ते में उसने एक रात तेलंगाना में बिताई और महाराष्ट्र में लगभग तीन घंटे का छोटा विश्राम लेकर दोबारा समुद्र पार करने उड़ चली। पहली बार लंबी दूरी की यात्रा करने वाली अलांग की सहनशक्ति ने विशेषज्ञों को भी चौंका दिया है। आखिरकार वह भी केन्या पहुंच गई।

तीसरी सदस्य ‘अहू’ (लाल टैग) ने थोड़ा उत्तरी रास्ता चुना और अरब सागर के पार जाने से पहले पश्चिमी बांग्लादेश में रणनीतिक ठहराव लिया। उसने अब तक 5,100 किलोमीटर की उड़ान 5 दिन 14 घंटे में पूरी कर ली है और इस समय सोमालिया के उत्तरी सिरे पर रुकी हुई है। अनुमान है कि वह जल्द ही अपने साथियों से केन्या के प्रसिद्ध Tsavo National Park में आ मिलेगी, जहां ये पक्षी हर साल रुकते हैं।

अमूर फाल्कन को यूँ ही “टाइनी लॉन्ग-डिस्टेंस वॉयेजर” नहीं कहा जाता। भारत से पूर्वी अफ्रीका तक इनका सालाना प्रवास, जिसमें वे सागर, रेगिस्तान और निर्जन इलाकों को पार करती हैं, दुनिया भर के पक्षी प्रेमियों और संरक्षणवादियों को लगातार प्रेरित करता है। इनकी ये यात्राएं बताती हैं कि महाद्वीपों को जोड़ने वाली प्राकृतिक प्रवासी मार्गों की रक्षा कितनी ज़रूरी है।



मैकू मठ का टूटा शिलालेख: जंगल की स्मृति पर प्रहार और समाज के टूटते विवेक का आईना


बिलासपुर। 
TODAY छत्तीसगढ़  / अचानकमार टाइगर रिज़र्व (ATR) के कोर ज़ोन में स्थित ऐतिहासिक मेकू मठ सिर्फ पत्थरों का ढेर नहीं है—यह जंगल, वन्यजीवन और उन लोगों के साहस का मौन स्मारक है, जिन्होंने इस कठिन भौगोलिक क्षेत्र में अपनी जान जोखिम में डालकर काम किया। लेकिन हाल ही में इस स्मारक के शिलालेख को तोड़ दिया गया। यह केवल एक पत्थर तोड़ने की घटना नहीं, बल्कि इतिहास, स्मृति और संवेदनशीलता पर किया गया असंवेदनशील प्रहार है।

एक शहीद वनरक्षक की विरासत

मेकू गोंड, बिंदावल वन ग्राम के एक फायर वॉचर थे—सीमित संसाधनों के बीच जंगल की रक्षा करने वाले उन अनेक अज्ञात नायकों में से एक। 10 अप्रैल 1949 को वह आदमखोर बाघिन का शिकार बने। वन विभाग ने कार्रवाई की और 13 अप्रैल 1949 को कोटा परिक्षेत्र के रेंजर एम. डब्ल्यू. के. खोखर ने उस बाघिन का सफाया किया। इस घटना की याद में यहाँ स्मारक बनाया गया। समय के साथ दूसरा स्मारक भी खड़ा किया गया। लेकिन अब नए मठ का शिलालेख किसी ने तोड़ दिया—यह कृत्य सिर्फ गलत ही नहीं, बल्कि बेहद दुखद और चिंताजनक भी है।  

कोर ज़ोन में हुई शरारत: गंभीर प्रश्नों को जन्म

यह क्षेत्र सामान्य नहीं है। अचानकमार टाईगर रिजर्व क्षेत्र का यह कोर ज़ोन है, जहाँ आज भी बाघों की उपस्थिति दर्ज की जाती है। ऐसे सुरक्षित क्षेत्र में किसी का घुसकर शिलालेख तोड़ देना सुरक्षा व्यवस्था और संवेदनशीलता दोनों पर प्रश्नचिह्न लगाता है। क्या यह महज शरारत है, या स्मारकों से असम्मान का बढ़ता चलन ? 

स्मारक—इतिहास का संरक्षक

एक समाज तभी सभ्य माना जाता है जब वह अपने इतिहास, अपने नायकों और अपनी विरासत को संजोकर रखे। मेकू मठ का शिलालेख केवल पत्थर नहीं था। वह उस व्यक्ति के साहस का प्रतीक था, जिसने वन की रक्षा करते हुए अपना जीवन आहुति कर दिया। उस स्मृति को नष्ट करना न केवल अपराध है, बल्कि हमारे सामाजिक विवेक पर भी गहरा धब्बा है। ऐसा कृत्य किसी ‘शैतानी दिमाग’ की उपज है और इससे कठोर संदेश जाना चाहिए कि इतिहास और संरक्षित क्षेत्रों से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वन विभाग और स्थानीय प्रशासन को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए, दोषियों की पहचान करके उन्हें दंडित करना चाहिए। 


टाइगर सफारी पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त रोक, सिंघवी ने फैसले को वन्यजीव संरक्षण का टर्निंग पॉइंट बताया


 रायपुर। 
TODAY छत्तीसगढ़  / सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने सोमवार 17 नवम्बर 2025 को पारित ऐतिहासिक निर्णय में देशभर के टाइगर रिज़र्व प्रबंधन, वन प्रशासन और मानव–वन्यजीव संघर्ष से जुड़े मुआवज़ा ढांचे में व्यापक बदलाव की दिशा तय कर दी है। इस निर्णय ने राज्यों पर तत्काल प्रभाव से कई महत्त्वपूर्ण सुधार लागू करने की जिम्मेदारी भी डाली है।

रायपुर निवासी वन्यजीव प्रेमी नितिन सिंघवी ने इस फैसले को “वन्यजीव संरक्षण का टर्निंग पॉइंट” बताते हुए मुख्य सचिव एवं अतिरिक्त मुख्य सचिव (वन एवं जलवायु परिवर्तन) को पत्र लिखकर आदेश के तत्काल क्रियान्वयन की माँग की है।

कोर और क्रिटिकल हैबिटेट में टाइगर सफारी पर पूर्ण प्रतिबंध

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कोर क्षेत्र और क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट में किसी भी प्रकार की टाइगर सफारी संचालित नहीं की जा सकती। बफ़र क्षेत्र में सफारी की अनुमति भी तभी होगी जब भूमि गैर-वन अथवा अविकसित/अवक्रमित वन भूमि हो और वह किसी टाइगर कॉरिडोर का हिस्सा न हो। वन्यजीव विशेषज्ञों के अनुसार यह निर्णय बाघ संरक्षण और प्राकृतिक आवागमन को सुरक्षित बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

मानव–वन्यजीव संघर्ष को ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित करने का निर्देश

अदालत ने सभी राज्यों से मानव–वन्यजीव संघर्ष को ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित करने पर तत्काल प्रभाव से कदम उठाने को कहा है। ऐसे मामलों में हर मानव मृत्यु पर 10 लाख रुपये का अनिवार्य एक्स-ग्रेशिया भुगतान किया जाएगा। यह प्रावधान विशेष रूप से हाथियों से प्रभावित क्षेत्रों के लिए राहतकारी माना जा रहा है।

टाइगर रिज़र्व प्रबंधन में सुधारों पर जोर

सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि सभी राज्य सरकारें छह महीनों के भीतर टाइगर कंज़र्वेशन प्लान (TCP) तैयार करें। इसके साथ ही—

O टाइगर रिज़र्वों में लम्बे समय से खाली पड़े पदों को शीघ्र भरा जाए,

O वेटरिनरी डॉक्टर और वाइल्डलाइफ़ बायोलॉजिस्ट के लिए अलग कैडर बनाया जाए, ताकि फील्ड स्तर पर वैज्ञानिक और पेशेवर संरक्षण कार्यों को गति मिल सके।

O फ्रंटलाइन वनकर्मियों के लिए बीमा और सुरक्षा कवच

ड्यूटी के दौरान मृत्यु या पूर्ण विकलांगता की स्थिति में किसी भी वन कर्मी अथवा दैनिक वेतनभोगी को अनिवार्य बीमा कवर प्रदान करने का आदेश दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी फील्ड स्टाफ को आयुष्मान भारत योजना में शामिल करने को भी अनिवार्य किया है।

MSP आधारित फसल मुआवज़े की माँग हुई तेज

अदालत ने राज्यों को फसल क्षति सहित मानव और मवेशियों की मृत्यु के मामलों में सरल एवं समावेशी मुआवज़ा नीति लागू करने की सलाह दी है। इसके बाद छत्तीसगढ़ में वन्यजीव प्रेमियों और सामाजिक संगठनों ने फसल क्षति मुआवज़ा MSP के आधार पर निर्धारित करने की माँग तेज कर दी है।

वर्तमान में धान की क्षति पर मात्र ₹9,000 प्रति एकड़ मुआवज़ा मिलता है, जबकि किसान को सामान्य परिस्थितियों में लगभग ₹65,000 प्रति एकड़ की प्राप्ति होती है। वन्यजीव संरक्षण से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि न्यूनतम मुआवज़े के कारण किसान फसल बचाने खेतों में जाने को मजबूर होते हैं, जहाँ हाथियों से आमने-सामने की घटनाओं में जान का जोखिम बना रहता है।

रायपुर स्थित वन्यजीव प्रेमी नितिन सिंघवी ने मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव (वन एवं जलवायु परिवर्तन) को भेजे पत्र में कहा है कि MSP आधारित मुआवज़ा लागू होने से किसान खेतों की सुरक्षा के लिए रात में जाने को विवश नहीं होंगे, जिससे संघर्ष की घटनाएँ भी कम होंगी और सरकार का आर्थिक बोझ भी अनावश्यक रूप से नहीं बढ़ेगा। यह आदेश राज्यों के लिए वन्यजीव संरक्षण और मानव सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में तत्काल और निर्णायक कदम उठाने का अवसर प्रदान करता है।

Supreme Court: मानव–वन्यजीव संघर्ष को ‘प्राकृतिक आपदा’ मानने पर राज्यों से विचार करने को कहा, टाइगर सफारी पर कड़े निर्देश


नई दिल्ली। 
TODAY छत्तीसगढ़  /  सुप्रीम कोर्ट ने मानव–वन्यजीव संघर्ष के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए सोमवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। अदालत ने सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे ऐसे मामलों को ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित करने पर गंभीरता से विचार करें, ताकि पीड़ितों को त्वरित राहत मिल सके। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसी घटनाओं में अगर किसी व्यक्ति की मौत होती है, तो परिजनों को 10 लाख रुपये का अनिवार्य मुआवजा दिया जाएगा।

मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि यह मुआवजा पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की सीएसएस–आईडब्ल्यूडीएच योजना के तहत तय मानकों के मुताबिक होगा। अदालत ने राज्यों को यह भी सुनिश्चित करने को कहा कि मुआवजा प्रक्रिया सरल, सुलभ और समयबद्ध हो।

टाइगर सफारी पर कड़े निर्देश

अदालत ने बाघ संरक्षण से जुड़े मामलों पर भी विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि कोर या सघन बाघ आवास क्षेत्रों में टाइगर सफारी की अनुमति नहीं दी जा सकती। सफारी सिर्फ बफर ज़ोन में ऐसी बंजर या गैर-वन भूमि पर स्थापित की जा सकेगी, जो बाघ गलियारे के दायरे में न आती हो। इसके साथ ही सफारी चलाने वालों को अनिवार्य रूप से एक रिस्क्यू और रिहैबिलिटेशन सेंटर भी संचालित करना होगा।

कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व पर सख्त रुख

उत्तराखंड के कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व में कथित अवैध निर्माण और बड़े पैमाने पर पेड़ कटाई की शिकायतों पर गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। राज्य सरकार को तीन महीनों के भीतर सभी अवैध संरचनाएँ गिराने और कटे हुए पेड़ों की भरपाई करने के निर्देश दिए गए हैं। फैसले के अनुसार पारिस्थितिक पुनर्स्थापना की संपूर्ण प्रक्रिया की निगरानी केंद्रीय सशक्त समिति (CEC) करेगी।

राज्यों के लिए छह महीने की समय-सीमा

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) को छह महीने के भीतर मानव–वन्यजीव संघर्ष पर मॉडल दिशानिर्देश तैयार करने का आदेश दिया है। राज्यों को इन्हें आगे छह महीनों के भीतर लागू करना होगा। अदालत ने वन, राजस्व, पुलिस, आपदा प्रबंधन और पंचायती राज विभागों के बीच बेहतर समन्वय की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

बफर क्षेत्र में प्रतिबंधित गतिविधियाँ

कोर्ट ने बफर और फ्रिंज क्षेत्रों में कई गतिविधियों पर रोक लगाने की विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों को मंजूरी दे दी। इनमें वाणिज्यिक खनन, आरा मिलें, प्रदूषणकारी उद्योग, बड़ी जलविद्युत परियोजनाएँ, खतरनाक पदार्थों का उत्पादन और कम-उड़ान वाले विमानों का संचालन शामिल है।

रिसॉर्ट्स प्रतिबंधित, रात के पर्यटन पर प्रतिबंध, शांत क्षेत्र अनिवार्य

सुप्रीम कोर्ट ने टाइगर रिजर्व के पास पर्यटन के लिए विशिष्ट निर्देश जारी किए. इसके तहत पर्यावरण के अनुकूल रिसॉर्ट्स को केवल बफर्स ​​में ही अनुमति दी जाएगी और वाहनों की वहन क्षमता लागू की जाए. रात्रि पर्यटन पर पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगी. आपातकालीन वाहनों को छोड़कर, मुख्य क्षेत्रों से गुजरने वाली सड़कें शाम से सुबह तक बंद रखी जाएं. इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि ईएसजेड सहित पूरा टाइगर रिजर्व तीन महीने के भीतर ध्वनि प्रदूषण नियमों के तहत साइलेंस जोन के रूप में अधिसूचित किया जाए.

पर्यटन पर नियंत्रण और ‘साइलेंस ज़ोन’ की घोषणा

टाइगर रिज़र्व के नजदीक पर्यटन गतिविधियों के लिए कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पर्यावरण-अनुकूल रिसॉर्ट्स सिर्फ बफर ज़ोन में ही अनुमति योग्य होंगे और गाड़ियों की वहन क्षमता का सख्ती से पालन किया जाएगा। रात्रि पर्यटन पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगा। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि पूरे टाइगर रिज़र्व क्षेत्र — जिसमें ईको-सेंसिटिव ज़ोन भी शामिल है — को तीन महीनों के भीतर साइलेंस ज़ोन के रूप में अधिसूचित किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बाघ संरक्षण को प्राथमिकता देना अनिवार्य है, और पर्यटन तभी बढ़ाया जा सकता है जब वह पर्यावरण के अनुकूल और स्थानीय पारिस्थितिकी से सामंजस्यपूर्ण हो।

Short Story: धारीदार सन्नाटा, उस दिन जंगल की चुप्पी अलग थी


TODAY
 छत्तीसगढ़  / 
जंगल के दिल में समाई वह संकरी सड़क हमेशा की तरह शांत थी—इतनी शांत कि लगता था पूरी दुनिया अपनी साँसें थामे खड़ी है। पेड़ों की लंबी छायाएँ सड़क पर जाल की तरह फैल रहीं थीं, और हवा में पत्तों, मिट्टी और धूप की मिली-जुली सुगंध तैर रही थी।

इसी रास्ते से रोज़ लौटता था चरवाहा रमू, अपनी काली, भारी भैंसों के साथ। वह इस पगडंडी के हर मोड़, हर उभार को जानता था—मानो यह रास्ता उसके भीतर ही बसा हो। भैंसें भी बिना कहे- सुने उसकी चाल को समझतीं, जैसे वर्षों की संगत ने उन्हें एक ही लय में बाँध दिया हो।

लेकिन उस दिन जंगल की चुप्पी अलग थी।

जैसे हवा कहीं थम गई हो।

जैसे कोई अनदेखी आँखें कहीं पास से देख रही हों।

और फिर, मोड़ के पास अचानक तीन धारीदार बिल्लियाँ सड़क पर प्रकट हुईं।

न शोर, न हलचल।

बस तीन सधी हुई, चिकनी आकृतियाँ—धूप में चमकती धारियों के साथ। उनके कान आगे को तने थे, पूँछें फड़कना भी भूल गई थीं, और उनकी जिज्ञासु आँखें भैंसों के झुंड पर टिकी थीं।

रमू एकदम रुक गया।

भैंसें उसके पीछे सटकर खड़ी हो गईं, जैसे किसी अदृश्य संकेत पर। उनकी साँसों की भारी गूँज उन बिल्लियों की स्थिरता के सामने एक अलग ही संगीत बना रही थी।

कुछ क्षण ऐसे बीते जो समय की पकड़ में नहीं आते—

दो अलग दुनियाएँ आमने-सामने खड़ी थीं।

एक ओर वे बिल्लियाँ—जन्मजात शिकारी—जिन्हें शायद ही कभी ऐसे शांत, संगठित जुलूस का सामना करना पड़ा होगा।

दूसरी ओर रमू और उसका झुंड—आदत, अनुशासन और एक-दूसरे पर भरोसे से बंधा परिवार।

बिल्लियाँ भैंसों को ऐसे देख रही थीं जैसे किसी पहेली को सुलझा रही हों।

क्या ये शिकार हैं?

नहीं।

क्या ये खतरा हैं?

शायद।

या फिर बस एक असामान्य दृश्य—जो जंगल की अपनी दिनचर्या में बाधा डाल रहा है।

रमू के दिल की धड़कनें गूँजने लगीं।

उसे पता था कि ये बिल्लियाँ कुछ भी कर सकती हैं—लेकिन उतना ही यह भी कि भैंसें उसे कभी अकेला नहीं छोड़ेंगी।

फिर अचानक, धूप में चमकती उनकी धारियाँ सरक गईं—चुपचाप—जंगल के घने झुरमुटों में वापस।

जैसे वे कभी आई ही न हों।

रमू ने गहरी साँस छोड़ी—एक जो राहत से भरी थी, और एक जो उन रहस्यमयी जंगल-जीवों के प्रति सम्मान से।

उसने धीरे से हाथ हिलाया, और भैंसें फिर चल पड़ीं—सड़क पर, धूप पर, और अपने रोज़ के जीवन की ओर।

सन्नाटा लौट आया, पर वह वैसा नहीं था।

उसमें अब एक कहानी थी—एक असंभव, ठहरी हुई मुठभेड़ की।

और रमू जानता था कि वह इस पल को उम्र भर याद रखेगा—जब जंगल ने एक क्षण के लिए अपने रहस्य उसके सामने खोल दिए थे। 

(साभार - @_planettiger_  credit @harsh_gate_photography)

अमरकंटक की राह में एक अनदेखा झरना — मानो प्रकृति मुझे कह रही हो, “रुककर देखो मैं यहीं हूँ सदियों से।”


 बिलासपुर।
  TODAY छत्तीसगढ़  /  अमरकंटक की ओर जाती घुमावदार सड़कें जैसे-जैसे सतपुड़ा-मैकल की गोद में उतरती हैं, हर मोड़ पर प्रकृति का एक नया रूप सामने आता है। इसी यात्रा के दौरान, कबीर चबूतरा से करीब पाँच किलोमीटर पहले, अचानकमार टाइगर रिज़र्व के बफर ज़ोन में, मुझे एक छोटा-सा झरना मिला — अनायास, लेकिन अप्रत्याशित रूप से मन मोह लेने वाला।

सड़क किनारे पत्थरों के बीच से फूटता वह निर्मल जल, मानो पहाड़ियों की धड़कनों में बहती कोई मधुर धुन हो। सूरज की किरणें जब जल पर गिरतीं, तो बूंदें सोने-सी चमक उठतीं। आसपास का वन क्षेत्र हरियाली से आच्छादित था, और पक्षियों की चहचहाहट उस सन्नाटे में जीवन भर देती थी।

स्थानीय लोग बताते हैं कि बरसात के मौसम में यह झरना अपने पूरे सौंदर्य पर होता है — तब इसका पानी उफनता हुआ नीचे की ओर बहता है, और पूरा जंगल धुंध और हरियाली से ढक जाता है। राहगीर यहां रुककर विश्राम करते हैं, तस्वीरें खींचते हैं, और कुछ पल प्रकृति के साथ बिताते हैं।

मुझे यह झरना न केवल अपनी सुंदरता से आकर्षित करता दिखा, बल्कि इसने उस गहराई का एहसास कराया जो सतपुड़ा-मैकल की पहाड़ियों में बसती है — जल, जंगल और जीवन का त्रिवेणी संगम। यही तो इस क्षेत्र की असली पहचान है।

पर्यावरण प्रेमियों का कहना है कि ऐसे कई अनदेखे स्थल इस क्षेत्र की जैवविविधता के जीवंत उदाहरण हैं, और शायद यही कारण है कि पर्यटन विभाग भविष्य में इस जगह को इको-टूरिज़्म सर्किट में शामिल करने की सोच रहा है। अमरकंटक की ओर बढ़ते हुए, उस झरने की आवाज़ देर तक मेरे कानों में गूंजती रही — मानो प्रकृति मुझे कह रही हो, “रुककर देखो, मैं यहीं हूँ, सदियों से।”

(यात्रा वृत्तांत- सत्यप्रकाश पांडेय) 

पक्षियों की शरणस्थली पर संकट: अवैध मुरुम खनन ने बढ़ाई चिंता


 बिलासपुर / 
TODAY छत्तीसगढ़  /  प्रकृति का संतुलन तब बिगड़ता है जब मनुष्य अपने अल्पकालिक लाभ के लिए पर्यावरण के दीर्घकालिक हितों को नज़रअंदाज़ कर देता है। बिलासपुर जिला मुख्यालय से केवल 23 किलोमीटर दूर स्थित मोहनभाठा, प्रवासी/स्थानीय पक्षियों के अलावा अन्य जीव जंतुओं की शरणस्थली इस समय ऐसी ही मानवजनित गतिविधियों के कारण गंभीर खतरे का सामना कर रही है। हाल ही में यहाँ अवैध मुरुम खनन का काम द्रुत गति से शुरू हो गया है, जो इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के लिए गहरे संकट का संकेत है। 

प्रवासी पक्षियों की सुरक्षित शरणस्थली

मोहनभाठा, ब्रिटिशकालीन सेना के लिए बनाई गई हवाई पट्टी और उसके आस-पास के सैकड़ों एकड़ की बंजर भूमि भले ही आज अतिक्रमणकारियों के हिस्से में हो लेकिन आज भी बहुत बड़ा क्षेत्र पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियों और वन्यजीवों के लिए अनुकूल है।  जिले के पक्षी और प्रकृति प्रेमी वर्षों से मोहनभाठा को पक्षियों की सुरक्षित शरणस्थली के रूप में जानते रहे है। 

खनन से बदल रहा है भूगोल

मोहनभाठा, अवैध मुरुम खनन से इस क्षेत्र की प्राकृतिक बनावट तेजी से नष्ट हो रही है। अवैध मुरुम उत्खनन से पक्षियों के रहवास और उनके अनुकूल परिस्थितियों पर अब भीषण संकट दिखाई दे रहा है। ग्रामीण बताते हैं कि रात करीब 9 बजे के बाद खनन के लिए जरूरी मशीन और ढुलाई के लिये हाईवा आता है। रात के अँधेरे में शुरू हुआ खनन का गोरखधंधा तड़के तक जारी रहता है। सरकारी (कभी ब्रिटिश सेना की) जमीन पर रात के अँधेरे में अवैध तरीके से मुरुम के खनन में स्थानीय जनप्रतिनिधियों के संरक्षण की बात भी दबी जुबान से कही जा रही है। ग्रामीण ऐसे माफियाओं से खौफ खाते हैं लिहाजा खुलकर विरोध करने से कतरा रहें हैं।  

    

कानूनी प्रावधानों की अनदेखी

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 तथा खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957 के तहत बिना अनुमति खनन पूरी तरह अवैध है। इसके बावजूद स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक उदासीनता और राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण यह गतिविधि खुलेआम जारी है। अवैध खनन किसी भी रूप में केवल “आर्थिक गतिविधि” नहीं होता; यह एक पारिस्थितिक अपराध है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और खनिज विनियमन अधिनियम — सभी इस तरह की गतिविधियों पर सख्त रोक लगाते हैं। फिर भी, स्थानीय प्रशासन की आँखों के सामने यह सब खुलेआम हो रहा है।

अवैध गतिविधियाँ और शिकारियों का जमावड़ा

खनन कार्य के बहाने यहाँ बाहरी लोगों की आवाजाही बढ़ गई है। स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार, रात के समय कई संदिग्ध वाहन इस क्षेत्र में घूमते हैं। पिछले कुछ समय से शिकारियों और अवैध धंधों में लिप्त लोगों का जमावड़ा यहाँ नियमित रूप से देखा जा रहा है। इसका सीधा असर पक्षियों और अन्य वन्यजीवों की सुरक्षा पर पड़ रहा है। 

अब बच्चों की सुरक्षा पर भी संकट

खनन स्थल के पास ही गाँव के बच्चे प्रतिदिन क्रिकेट और अन्य खेल खेलने के लिए इकट्ठा होते हैं। पहले यह जगह उनका खेल मैदान हुआ करती थी, लेकिन अब वहाँ बने गहरे गड्ढे स्थिति को बेहद खतरनाक बना चुके है। खेल के दौरान थोड़ी सी लापरवाही किसी गंभीर हादसे का कारण बन सकती है। ग्रामीणों का कहना है कि “जहाँ पहले बच्चे खेलते थे, वहाँ अब खाई बनती दिखाई देती है। 

जरूरी है ठोस कदम

अब वक्त है कि प्रशासन, पर्यावरण प्रेमी और स्थानीय समुदाय मिलकर इस अवैध खनन को तुरंत रोके। मोहनभाठा की प्राकृतिक विरासत की रक्षा केवल कानून से नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना और जिम्मेदारी से संभव है। पक्षियों के शोरगुल और वन्य प्राणियों की शांति तभी बचेगी जब हम विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना सीखेंगे। 

अचनाकमार टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या दोगुनी, WWF INDIA की रिपोर्ट में सामने आई खुशखबरी

 ATR:  2017 में 5 से बढ़कर 2024 में 10 बाघ

TODAY छत्तीसगढ़  /  रायपुर। बाघ संरक्षण की दिशा में छत्तीसगढ़ के लिए बड़ी उपलब्धि दर्ज हुई है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया ने “रिकवरिंग स्ट्राइप्स – अ पॉपुलेशन स्टेटस ऑफ टाइगर्स एंड देयर प्रे इन अचनाकमार टाइगर रिजर्व, छत्तीसगढ़” शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें अचनाकमार टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है।

रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में जहां अचनाकमार में केवल 5 बाघ दर्ज किए गए थे, वहीं 2024 तक यह संख्या बढ़कर 10 हो गई है। इनमें पड़ोसी बांधवगढ़ और कान्हा टाइगर रिजर्व से आए बाघ भी शामिल हैं। यह स्वस्थ परिदृश्य-स्तरीय कनेक्टिविटी का संकेत है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया के वरिष्ठ प्रोजेक्ट अधिकारी उपेंद्र दुबे ने बताया कि लगभग 15 वर्षों में पहली बार अचनाकमार में प्रजनन योग्य आयु वाले नर-मादा बाघ मौजूद हैं। संतुलित लैंगिक अनुपात और शावकों की मौजूदगी रिजर्व के लिए स्थायी जनसंख्या वृद्धि का बड़ा मोड़ साबित हो सकती है। 

कनेक्टिविटी है अहम - 

अचनाकमार का मध्य भारत में रणनीतिक स्थान इसे टाइगर कॉरिडोर नेटवर्क का अहम हिस्सा बनाता है, जो कान्हा और बांधवगढ़ जैसे बड़े टाइगर रिजर्व से जुड़ा हुआ है। यह कनेक्टिविटी बाघों की आवाजाही, आनुवंशिक विविधता और दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी है।

 सीसीएफ (वन्यजीव) व फील्ड डायरेक्टर मनोज कुमार पांडेय ने बताया कि अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धतियों से बाघों और उनके शिकार प्रजातियों की घनत्व का आकलन किया गया। “यह रिपोर्ट अचनाकमार में प्रभावी प्रबंधन और संरक्षण रणनीतियां बनाने के लिए महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है।”

सामूहिक प्रयासों का नतीजा - 

अध्ययन में शिकार प्रजातियों की मजबूत आबादी की अहमियत भी रेखांकित की गई है, क्योंकि यही बाघों की दीर्घकालिक मौजूदगी का आधार है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया और छत्तीसगढ़ वन विभाग लंबे समय से अचनाकमार में आवास प्रबंधन, वनकर्मियों के प्रशिक्षण और स्थानीय समुदायों की सहभागिता जैसे कार्यक्रम चला रहे हैं।

रिपोर्ट के निष्कर्ष इन प्रयासों की सफलता को दर्शाते हैं और यह भी साबित करते हैं कि विज्ञान-आधारित रणनीति और सतत सहयोग से ही भारत में बाघों का भविष्य सुरक्षित किया जा सकता है।


सिमिलीपाल का ब्लैक टाइगर केवल वन्य जीवन का चमत्कार नहीं है - प्रसेन्जीत


 TODAY छत्तीसगढ़  /   ये तस्वीर एक ऐसे बाघ की है, जो इतना दुर्लभ है कि पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक ही जंगल में मौजूद है। तस्वीर में दिखाई देते काले रंग के बाघ की तस्वीर एक फोटोग्राफ़र के असीम धैर्य का प्रतीक है। ओडिशा के सिमिलीपाल टाइगर रिज़र्व के घने जंगलों में, वाइल्डलाइफ फोटोग्राफ़र प्रसेन्जीत यादव ने 120 दिन इस सपने को पूरा करने में बिताए, उस जानवर की तस्वीर लेने के लिए जिसे यहाँ के लोग भी शायद ही देख पाते हों।

महीनों की खामोशी और कई असफल प्रयासों के बाद, उन्होंने आखिरकार एक स्यूडो-मेलानिस्टिक बाघ, जिसे अक्सर ब्लैक टाइगर कहा जाता है, की तस्वीर ली। यह जादुई पल अब अक्टूबर 2025 के नेशनल जियोग्राफिक के कवर पर है, और यह दुनिया में पहला अवसर है।

प्रसेन्जीत ने NatGeo को बताया:

 “ये ब्लैक टाइगर बहुत शर्मीले थे। वे मेरे कैमरा ट्रैप से दूर रहते थे और इंसानी मौजूदगी को सूंघ सकते थे। एक को देखने में मुझे दो महीने लग गए।” सिमिलीपाल, जो 2,700 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, दुनिया का एकमात्र स्थान है जहाँ ये दुर्लभ बाघ पाए जाते हैं। लगभग 30 बाघों में से, आधे से ज्यादा में एक अनोखी आनुवंशिक बदलाव होती है, जो उनके काले धारियों को जोड़कर उनका अद्भुत काला पैटर्न बनाती है।

प्रसेन्जीत यादव के लिए यह सिर्फ़ एक तस्वीर नहीं थी, बल्कि एक सपना था। उन्होंने कहा: “बारह साल पहले मैंने इस कहानी को बताने का सपना देखा था। आज, वह सपना National Geographic Magazine International के कवर पर है।”

सिमिलीपाल का ब्लैक टाइगर केवल वन्य जीवन का चमत्कार नहीं है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारे देश के जंगल इन जीवों का घर हैं और उनकी सुरक्षा हम सबकी जिम्मेदारी है। [ साभार / द बेटर इण्डिया ] {Credits: प्रसेन्जीत यादव [@prasen.yadav on IG], National Geographic}


दुर्लभ प्रवासी Caspian plover की तस्वीरें खींचने का सेन्ट्रल इंडिया में पहला रिकार्ड सत्यप्रकाश के नाम

 


TODAY छत्तीसगढ़  / बिलासपुर / अकल्पनीय मोहनभाठा, कहने को तो बंजर भूमि है मगर प्रवासी, अप्रवासी पक्षियों के अलावा अन्य जीव जंतुओं के लिए जन्नत से कम नहीं है । एक ऐसी भूमि, जो किसी को खाली हाथ नहीं लौटाती । उसी जन्नत से वाइल्डलाइफ फोटोजर्नलिस्ट सत्यप्रकाश पांडेय ने कुछ तस्वीरें खींची हैं । तस्वीर भी किसी आम पक्षी की नहीं बल्कि बेहद दुर्लभ प्रवासी कैस्पियन प्लोवर की। इस पक्षी का मोहनभाठा में दिखाई देना किसी आश्चर्य से कम नहीं, अनुकूल परिस्थितियां देखकर यह पक्षी मोहनभाठा में उतरा। 

       Caspian plover (Anarhynchus asiaticus)  इस बेहद ख़ास और दुर्लभ पक्षी का छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे मध्य भारत ( central India) में यह पहला रिकॉर्ड है जब इसे वाइल्डलाइफ फोटोजर्नलिस्ट सत्यप्रकाश पांडेय ने तस्वीरों और वीडियो में रिकार्ड किया है। इस पक्षी के बिलासपुर जिले की सरहद में उतरने की खबर जब पक्षी मित्रों के बीच  फैली तो मोहनभाठा में पक्षी प्रेमियों और फोटोग्राफरों का सुबह से देर शाम तक मजमा लगा रहा । 

 सेन्ट्रल इंडिया में दुर्लभ प्रवासी कैस्पियन प्लोवर की तस्वीरें खींचने का पहला रिकार्ड वाइल्डलाइफ फोटोजर्नलिस्ट सत्यप्रकाश पांडेय के नाम हो गया है । यह पक्षी भारत में वाक़ई बेहद दुर्लभ प्रवासी  माना जाता है। आमतौर पर यह यहाँ सिर्फ़ सर्दियों या प्रवास के दौरान थोड़े समय के लिए दिखाई देता है। भारत में इसकी रिपोर्ट बहुत ही कम होती है, इसलिए पक्षीप्रेमियों के लिए यह एक "स्पेशल साइटिंग" होती है। यह पक्षी मध्य एशिया (विशेषकर कैस्पियन सागर के आसपास, रूस, कज़ाख़िस्तान, मंगोलिया) के खुले घास के मैदानों और स्टेपीज़ (steppes) में पाया जाता है। सर्दियों में यह अफ्रीका (पूर्वी और दक्षिणी भाग) तथा भारतीय उपमहाद्वीप तक प्रवास करता है।


 अब तक भारत में -  इस दुर्लभ प्रवासी पक्षी को दिल्ली (Delhi),  गोवा (Goa), महाराष्ट्र (Maharashtra), पुडुचेरी (Pondicherry), तमिलनाडु, केरल, मुंबई क्षेत्र (Uran, Navi Mumbai) और गुजरात (Little Rann of Kutch, Surendranagar) 2007, और 2025 में रिकार्ड किया गया है।

CHHATTISGARH: मोहनभाठा में गोह का शिकार, वन्यप्रेमी की शिकायत पर 8 आरोपी गिरफ्तार

  


 TODAY छत्तीसगढ़  / बिलासपुर / जिले का मोहनभाठा, एक ऐसा चारागाह जहां भूमि का अवैध अधिग्रहण । शिकारियों की बेखौफ चहलकदमी । मुरूम का अवैध उत्खनन । पेड़ों की कटाई के साथ साथ असामाजिक तत्वों की सुरक्षित पनाहगाह । कुछ समय पहले तक पर्यावरण और पक्षी प्रेमी इसे पक्षियों की स्वर्ग स्थली मानते थे, साथ कुछ अन्य जीव जंतुओं के रहवास का गढ़ । मोहनभाठा जिसने अपने भीतर जैव विविधता की सम्पन्नता को समेट रखा था वो अब सिमटने की कगार पर है । ज़मीन खोरों के साथ साथ शिकारियों का खुलेआम यहां बढ़ता दखल सब कुछ नष्ट करने पर तुला है ।  जिला प्रशासन सरकारी योजनाओं का पायजामा सिलने में व्यस्त है और वन विभाग को जैव विविधता के अलावा पक्षियों की सम्पन्नता दफ्तर में रखी फाइलों में दिखाई दे जाती है । 

       मोहनभाठा में कल (गुरुवार, 19 जून 2025) दोपहर 1 बजकर 40 मिनट पर तीन लड़के दिखाई पड़े, एक के हाथ में डंडा, दूसरा के पास सब्बल और तीसरे की पीठ पर बोरी । कम उम्र लेकिन बंजर भूमि पर कुछ तलाशती नजरों को हमने पहले पढ़ा फिर उनकी हरकतों को देख हमारा (साथ में प्राण चढ्ढा) शक गहराया । पास जाकर हमने बातचीत का सिलसिला शुरू किया, कुछ ही देर में उन्हें हमसे किसी तरह का खतरा न होने का यकीन हो गया । उन्होंने बताया कि वे कोटा के पास नवागांव के रहने वाले हैं । गोह की तलाश में भटक रहे हैं । बोरे में दो गोह को पकड़ रखा है, कहने पर उन्होंने बाहर निकालकर दिखाया भी । इन मासूम से दिखाई देने वाले जीव हत्यारों की करतूत को उजागर करने के लिए तस्वीर जरूरी थी, लिहाजा जैसा हमने चाहा वैसा साक्ष्य तस्वीर की शक्ल में जुटा लिया । अब तक हमको सिर्फ इसी एक गिरोह की ख़बर थी, पूछने पर उन्होंने बताया इसे मारकर खाते हैं और इसका कुछ अंग दवा वगैरह के काम आता है । गोह की चमड़ी के भी बाजार में खरीददार है । 

आपको बता दें कि मॉनिटर लिज़ार्ड छिपकलियां वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत संरक्षित प्रजातियां हैं और अनुसूची I (एक) के तहत वर्गीकृत हैं। अधिनियम के अनुसार मॉनिटर छिपकली को मारना, पकड़ना या फिर उसकी बिक्री एक संज्ञेय अपराध है।  

      इन लोगों से बातचीत के दौरान तस्वीर लेना जितनी प्राथमिकता थी उतनी ही जरूरत इस गिरोह को पकड़वाने की । मैने बिलासपुर DFO को मोबाईल पर संपर्क करना चाहा, नंबर बंद मिला । इसके बाद CCF बिलासपुर श्री मिश्रा को, नंबर इंगेज । इसके बाद मैने तत्काल WWF के उपेन्द्र दुबे जी को सूचना देकर संबंधितों तक ख़बर भेजने को कहा ।  इस बीच इस गिरोह की मौजूदगी यहीं रही, हम इनसे अभी नज़र हटा भी नहीं पाये थे कि दूसरा गिरोह दिखाई दे गया । इसमें भी अवयस्क लड़के तीन की संख्या में । पीठ पर बोरी, सब्बल, फावड़ा और डंडा । हमने फिर वही कहानी दोहराई, इनके पास कुल तीन गोह थी । हम मामले की गंभीरता को समझ रहे थे लेकिन जिस विभाग को गंभीरता दिखानी थी वो चैन की बंसी बजा रहा था । मौके पर हमने छह आरोपी और पांच गोह (जिंदा हालत में) मिलने की बात फिर से उपेंद्र जी को बताई, उन्होंने बताया सभी को सूचना दे दी गई है । 

        हमने करीब डेढ़ घंटे तक उन शिकारियों पर न सिर्फ नजर बनाए रखी बल्कि वन अमले के आने की बाट भी जोहते रहे । वन विभाग की टीम (तखतपुर वन परिक्षेत्र) पूरे ढाई घंटे बाद आई लेकिन शिकारी तब तक अपना काम करके इलाका छोड़ चुके थे । मौके पर तखतपुर रेंज अफसर के अलावा दस से अधिक की संख्या में वन अफसर, कर्मचारी पहुंचे  लेकिन पहुंचने वालों ने सूचना की गंभीरता को न समझा और ना ही उन्हें विलंब से आने का कोई अफसोस रहा । हमने उन शिकारियों की तस्वीरें, उनसे हासिल जानकारी उन्हें मुहैय्या करा दी । 

       इन सबके बीच एक बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि ये शिकारी आखिर कब से इस इलाके में सक्रिय है ? इन शिकारियों के पीछे कोई बड़ा गिरोह या नेटवर्क तो तस्करी का काम नहीं कर रहा ? वन विभाग की टीम सैकड़ों बार की शिकायतों के बावजूद मोहनभाठा का रुख क्यूं नहीं करती ? जिला प्रशासन आखिर भूमि के अवैध अतिक्रमण पर खामोश क्यूं है ? आखिर मुरूम के अवैध उत्खनन को यहां किसका संरक्षण है ?

अब जरा इस गोह के बारे में भी जान लीजिए ....

गोह (Monitor lizards) का नाम आते ही शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है और मस्तिष्क में बड़ी भयानक जहरीली छिपकली की डरावनी तस्वीर कौंध जाती है। गोहेरा, घ्योरा, गोह, विषखोपड़ी आदि नामों से जाना जाने वाला यह प्राणी बेहद शर्मीला सरीसृप है। यह एक बड़ी छिपकली के परिवार से आता है जिसे ‘मोनिटर लिज़र्ड’ कहते हैं।

 भारत में गोह (Monitor lizards) की चार प्रजातियां मिलती हैं बंगाल गोह, पीली गोह, जल गोह और रेगिस्तानी गोह। पीली गोह पूर्वी राज्यों और पश्चिम बंगाल में पाई जाती है। यह पानी के पास दिखाई देती है व पेड़ पर नहीं चढ़ सकती। जल गोह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी छिपकली है जो आसाम, पश्चिम बंगाल एवं अंडमान के जलीय इलाकों में होती है और पेड़ों पर चढ़ने में माहिर है। रेगिस्तानी गोह राजस्थान के रेतीले इलाकों में रहती है।

जहरीली नहीं है कोई भी प्रजाति - 

अधिकतर नजर आने वाली नस्ल ‘बंगाल गोह’ है जो लगभग समस्त भारत में मिलती है। गोह के छोटे बच्चों को ‘गोहेरा’ कहते हैं। यह विष रहित सरीसृप है। दरअसल भारत में कोई भी छिपकली की प्रजाति विषैली नहीं है। गोह के मुंह में तो विषदंत भी नहीं होते। वयस्क गोह का वजन पांच से सात किलो, लम्बाई डेढ़ से दो मीटर और उम्र 20-22 वर्ष तक होती है। गोह तकरीबन हर तरह के वातावरण में रह सकती है। आप इसे रेगिस्तान, पहाड़, नदी नालों व जंगलों में देख सकते हैं। गोह की त्वचा सख्त है जो इसे शिकारियों, चट्टानों और कंटीले इलाकों में नुकसान से बचाती है। गोह के बारे में अंधविश्वास ऐसे-ऐसे भी हैं कि इसके मांस और पूंछ के तेल के सेवन से शक्ति और पौरुष मिलता है। 

इन्सानों को नहीं काटते - 

गोह (Monitor lizards) घात लगाकर हमला करने के बजाय पीछा करके शिकार करते हैं। गोह बहुत तेज़ दौड़ते हैं। गोह रात में सोते हैं और दिन में शिकार करते हैं। ये भोजन की उपलब्धता के अनुसार अपनी सीमा बदल लेते हैं। गोह आंखें नहीं झपकती और उनकी दृष्टि बहुत तेज़ होती है। गोह कभी इन्सानों को नहीं काटते। काटने के मामले तभी होते हैं जब लोग इसे पकड़ने या मारने का प्रयास करते हैं।

क्यों है विलुप्त होने की कगार पर - 

एक जानकारी के लिहाज से हम कह सकते हैं कि आज भारत में गोह (Monitor lizards) प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं। कारण हैं मनुष्य का लालच, अंधविश्वास, और कुदरती निवास का हनन। खाल से बहुमूल्य चमड़ा, मांस से बीमारियों का इलाज एवं खून और हड्डियों से कामोत्तेजक औषधि। पर सबसे अधिक बिकता है इस अभागे प्राणी के नर जननांग। अंधविश्वास है कि नर गोह के जननांग को सुखा कर चांदी के डिब्बे में रखने से घर में लक्ष्मी आती है। इसको ‘हथा जोड़ी’ नाम से पेड़ की जड़ बता कर बेचा जाता है। यह करोड़ों का गोरखधंधा है। वन्य जीव हत्यारों ने साज़िश के तहत यह भ्रांति फैलाई गई कि गोह जहरीले हैं व इसके काटते ही तुरन्त मृत्यु हो जाती है। बाकी काम गोह की शक्ल, चाल और सांप जैसी लम्बी चिरी हुई नीली जीभ पूरा कर देती है। वास्तव में ये जीभ के जरिये सूंघते हैं। वहीं गोह की खाल का इस्तेमाल ‘सेरजस’ (बोडो सारंगी) और ‘डोटारस’ (असम, बंगाल एवं पूर्वी राज्यों के वाद्य यंत्र) और ‘कंजीरा’ को बनाने में भी किया जाता है। ढोलक भी इसके चमड़े से बनते हैं।

संकट की वजह गलत धारणा - 

विश्व में बनने वाले हाथ घड़ी के पट्टे का व्यापार 2500 करोड़ सालाना है जिसमें 90 फीसदी गोह और बाकी छिपकलियों के चमड़े से बनते हैं। औसतन भारत में एक वर्ष में पांच लाख गोह मारी जाती हैं। गलत धारणा के शिकार एक निर्दोष प्राणी का ऐसा हाल निंदनीय है। वहीं राजस्थान के ऊंट पालक ऊंटों को कथित मजबूत बनाने के लिए उन्हें गोह का रस पिलाते हैं। लोग नहीं जानते कि यह जीव जैव विविधता का प्रहरी है व खेतों से कीड़े-मकोड़े आदि खाकर अनाज बचाते हैं।

प्राचीन संस्कृतियों में गोह - 

प्राचीन काल से ही गोह (Monitor lizards) और मनुष्यों का घनिष्ठ संबंध रहा है। बहुत सी संस्कृतियों में गोह को विशिष्ट महत्व प्राप्त है। दक्षिण भारत के विख्यात मीनाक्षी मंदिर में देवी मीनाक्षी का मुख्य प्रतीक गोह है। इसका सिर खतरे से सुरक्षा प्रदान करता है, शरीर लंबे जीवन और समृद्धि का प्रतीक है। कई मूर्तियों में गोह को देवी पार्वती के वाहन के रूप में भी दर्शाया गया है। अल्लीपुरम में स्थित वेंकटेश्वर मठ के पुराने मंदिर में भगवान मलयप्पा स्वामी का गोह अवतार स्थापित है। बैंकॉक के एक थाई बौद्ध मंदिर में गौतम सिद्धार्थ के अवतार का एक अद्भुत चित्रण जल गोह के सिर से सुशोभित है। आइए जनजागरूकता के जरिये अपने अस्तित्व से जूझते इस निर्दोष, निरीह एवं किसान मित्र जीव को बचाएं।

सफ़रनामा, सत्यप्रकाश के साथ : मैं मुसाफिर हूँ, मेरी सुबह कहीं शाम कहीं ...

ये यायावर पशुपालक आज यहाँ कल कहीं और... ।  बीते 11 नवम्बर को मेरे जिले (बिलासपुर) की सरहद से करीब 130 किलोमीटर दूर ग्राम तरच (मध्यप्रदेश) के घुमावदार मोड़ पर इन यायावरों से मेरा अचानक आमना-सामना हुआ। हम काले हिरणों की शरण स्थली, कारोपानी जा रहे थे और ये उसी रास्ते से 24 किलोमीटर का सफर और तय कर छत्तीसगढ़ की सीमा में प्रवेश करने वाले थे। अक्सर इनके काफ़िले को देखकर मैं रुक जाता हूँ, जिज्ञासा इनको जी भरकर देखने की और लालच कुछ तस्वीरों का।

 हर साल की तरह इस बरस भी हजारों मील की दूरी क़दमों से नाप देने वाले यायावर अपने अस्थाई ठिकानों को लौट रहे थे । उस मोड़ पर इनको देख मैंने कार रोकी और सड़क किनारे रुका, ये चलते रहे। कुछ तस्वीरों के बाद चलते-चलते मेरी बात उस युवा से हुई जिसके कदमों के पीछे ऊंटों का रेला कदमताल कर रहा था । बातचीत की औपचारिकता में पता चला कि काफ़िल राजस्थान से मई माह के अंतिम सप्ताह में चला है। राजस्थान के जोधपुर से 65 किलोमीटर दूर भेंलड़ गाँव के रहने वाले तेजसिंग कुनबे के अगवा हैं, उन्होंने बताया उनके सूबे में पशुओं के चारों का संकट दशकों पुरानी समस्या है लिहाज हर साल गर्मी की शुरुआत होते ही वे दूसरे राज्यों की ओर निकल पड़ते हैं। 

        तेजसिंह कहते हैं उनके जैसे सैकड़ों परिवार हैं जो हर बरस देश के दूसरे प्रांतों का रुख करते हैं । राजस्थानी जहाज ऊँट, भेड़, कुत्तों के बीच जिंदगी जीने की तमाम जरूरतों के साथ सैकड़ों किलोमीटर का सफर पैदल तय करते हैं । ये यायावर पूरी जिंदगी सफ़र पर होते हैं जो प्रकृति के रौद्र रूप और उसके सौंदर्य को काफी करीब से देखते और भोगते हैं । पशुचारा की आड़ में व्यवसाय पर निकले ये लोग शिक्षा से कोसो दूर होते हैं । हालांकि अशिक्षा इनके व्यवसाय में आड़े नहीं आती । 

        आपको बता दें कि राजस्थान और गुजरात में पशुपालन का व्यवसाय रायका-रैबारी, बागरी ओर बावरिया समाज से जुड़े हुए लोग करते हैं। ये समाज सालों से यही काम कर रहा हैं। भारत में ऊंट पालने का काम ये सभी जातियां करती हैं किन्तु इनकी ब्रीडिंग रायका- रैबारी लोग ही करवाते हैं। ये ब्रीडिंग राजस्थान के मारवाड़ के साथ-साथ गुजरात के कच्छ में भी होती है। कहते हैं ऊंट रेगिस्तान का जहाज है तो बकरी गरीब की गाय है। भेंड़-बकरी को थोड़ा सा चराकर कभी भी दूध निकाला जा सकता है। मरुभूमि में गरीब व्यक्ति के पोषण का आधार भेंड़-बकरी ही है जो उसके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी है। 

              जानकार ये भी बताते हैं सैकड़ों भेड़ और ऊँट लेकर हजारों मील सफ़र तय करने वाले ये लोग रंगमंच की वो कठपुतलियां हैं जिनकी डोर दूर देश में बैठे इनके आकाओं के पास होती है । इनको तो बस चलते जाना है... बस चलते जाना । रास्ता कब ख़त्म होगा ये जानने की ख्वाहिश में पीढियां गुजर गई । 

ऊंट से सीखें जीवन जीने की कला - 

ऊंट रेगिस्तान का जहाज कहलाता है. कठोर वातावरण में भी जिंदगी जीने का हुनर रखने वाला ये जीव हमें जीवन के कई अनमोल पाठ सिखाता है. 

 O रेगिस्तान की भीषण गर्मी और पानी की कमी को सहने वाला ऊंट हमें संयम और कठिन परिस्थितियों में धैर्य रखना सिखाता है.

O ऊंट अपने शरीर में वसा का संचय करके लंबे समय तक भोजन और पानी के बिना रह सकता है. यह हमें दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित करने और उन्हें पाने के लिए संसाधनों का समझदारी से इस्तेमाल करने की सीख देता है.

O रेगिस्तान के कठिन रास्तों पर चलने वाला ऊंट हमें कठिन परिश्रम और दृढ़ निश्चय का महत्व समझाता है.

O ऊंटों का एक समूह मिलकर चलता है. यह हमें सहयोग और टीम वर्क के बल पर किसी भी चुनौती का सामना करने की सीख देता है.

O ऊंट रेगिस्तान के सीमित संसाधनों में ही अपना जीवन यापन कर लेता है. यह हमें सादगी से जीना और संतुष्ट रहना सिखाता है.

O रेगिस्तान के बदलते तापमान और वातावरण में रहने वाला ऊंट हमें परिस्थिति के अनुसार खुद को ढालना सिखाता है.

O ऊंट अपने चौड़े पैरों से रेत में आसानी से चल सकता है. यह हमें समस्याओं का समाधान खोजने और चुनौतियों से पार पाने की सीख देता है.

O रेगिस्तान में भटकते हुए भी ऊंट पानी की तलाश जारी रखता है. यह हमें धैर्य न खोने और आशा बनाए रखने का पाठ देता है.

O ऊंट भारी सामान ले जाने में सक्षम है. यह हमें शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनने की सीख देता है.

O ऊंट आमतौर पर शांत और मिलनसार स्वभाव का होता है. यह हमें दूसरों के साथ सद्भाव से रहने का पाठ देता है.

O ऊंटों की चराई से रेगिस्तान की मिट्टी मजबूत होती है, जिससे मरुस्थलीकरण रुकता है. यह हमें पर्यावरण संरक्षण के महत्व का बोध कराता है.

O ऊंट पालने वाले समुदाय रेगिस्तान में रहने के लिए सदियों से अनूठ तरीके अपनाते आए हैं. यह हमें पारंपरिक ज्ञान के सम्मान का पाठ देता है.

O ऊंट रेगिस्तान में कम पानी और भोजन में ही अपना गुजारा कर लेता है. यह हमें आत्मनिर्भर बनने और संसाधनों का प्रबंधन करने की सीख देता है.

O ऊंट रेगिस्तान में लगातार चलता रहता है. यह हमें जीवन में निरंतर प्रगति करते रहने और सीखने का पाठ देता है.

CHHATTISGARH : सीमा विवाद में फंसी हाथी की मौत, क्या हम सभी हाथी की मौत में दोषी नहीं हैं ?

बिलासपुर जिले के तखतपुर क्षेत्र में करंट की चपेट में आकर मरा हाथी शावक 

(सत्यप्रकाश पांडेय) /  क्या वन्यप्राणियों के खिलाफ़ क्रूरता बढ़ी है ? हम पक्के तौर पर ये कह सकते हैं कि हाँ, क्रूरता का ग्राफ और तरीका दोनों बदला है । इन सबके बीच जिम्मेदारियों से भागने का तरीका भी बदला है, वन्यप्राणियों के शिकार और उनकी अकाल मौत पर अक्सर जिम्मेदार अफसरों की बयानबाजी गैर जिम्मेदारी का ठोस सबूत भी देती है। इंसानी क्रूरता का शिकार वन्यप्राणी सीमा बंधन को नहीं समझता, भूख और सुरक्षित रहवास के लिये भटकता वन्यजीव अक्सर मौत के मुहाने पर खड़ा दिखाई देता है या फिर मौत उसके हिस्से आती है। इन सबके बीच संवेदनहीन अफसरों के बयान कइयों बार सवाल भी खड़े करते है, अफ़सोस अहंकार की गर्मी से तपते ऐसे वन अफसरों को आपने कभी वन्यप्राणियों की मौत पर झूठा मातम मनाते भी नहीं देखा होगा। इन तमाम बदलाव के बीच इस दौर जो सबसे बड़ा बदलाव आया है वो ये कि अब इस तरह की क्रूरता को कैमरे में कैद किया जा रहा है और सोशल मीडिया पर लगातार शेयर किया जा रहा है। 

    छत्तीसगढ़ में हाथियों की मौजूदगी और उनकी बड़ी आबादी को लेकर कोई संशय नहीं है। राज्य में हाथियों की उपस्थिति के इतिहास को खंगाले तो यहां के जंगलों से उनका रिश्ता सैकड़ों साल पुराना नज़र आयेगा। ऐसे में छत्तीसगढ़ में हाथियों की घर वापसी से जंगल के अफसर परेशान हो सकते है। राज्य में हाथी-मानव द्वन्द के तरीके और कारणों पर सालों से काम भी चल रहा है। इन सालों में हाथी और इंसानी मौत के आंकड़े कुछ ऊपर नीचे हो सकते हैं लेकिन एक दशक में कोई ठोस कार्य योजना जिसका सकारात्मक परिणाम धरातल पर दिखाई देता हो ऐसा अब तक नज़र नहीं आया। राज्य में हाथी कभी करंट की चपेट में आकर मरे तो कभी जहर या फिर गढ्ढों में गिरकर अकाल मौत का शिकार बने। 

             पिछले दस दिनों में छत्तीसगढ़ और उसकी सीमा से सटे राज्य मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में कुल 15 हाथी मारे गये। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ और बिलासपुर जिले में चार हाथी करंट की चपेट में आने से मरे। इन चार हाथियों की मौत के कारण एक हैं, वजह अलग-अलग। रायगढ़ जिले के घरघोड़ा वन क्षेत्र में करंट से जिन तीन हाथियों की मौत हुई वो बिजली विभाग और वन विभाग की संयुक्त लापरवाही का नतीजा थी। 

             बिलासपुर जिले के तखतपुर क्षेत्र के टिन्गीपुर इलाके में पिछले दिनों जिस नर हाथी शावक का शव बरामद हुआ वो भी करंट लगने से मरा। यहां शिकार के लिए बिजली का तार बिछाया गया था, जिसमें दल से भटका हुआ हाथी फंसा और काल के गाल में समा गया। असल तमाशा हाथी की मौत के बाद शुरू हुआ, अफसरों ने कहा जिस जगह हाथी का शव मिला वो राजस्व के हिस्से में आता है। हाथी का शव जिस खेत में था, वहां से कुछ दूर चलें तो अचानकमार टाईगर रिजर्व की सीमा शुरू होती हैं। दूसरी तरफ वन विकास निगम का इलाका है, बचा हिस्सा बिलासपुर वन मंडल और राजस्व विभाग की मिल्कियत। 

             हाथी की मौत के बाद मचे हाहाकार से भयभीत चंद वन अफसर अपनी जिम्मेदारियों से भागते दिखे। एक वन्यप्राणी की अकाल मौत पर गाल बजाते वन अफसरों ने लाश को न सिर्फ सीमा विवाद में फंसाया बल्कि मिडिया को दिये बयानों के माध्यम से उन्होंने अपनी संवेदनहीनता का खुलकर परिचय भी छपवाया। मीडिया बयानों के मुताबिक़ -

"अधिकारियों के पास बड़ा क्षेत्र होता है, इसलिए पूरे क्षेत्र की निगरानी उनके द्वारा संभव नहीं है। इसलिए जिनकी जैसी जवाबदारी है वैसी ही कार्यवाही होगी।"    - प्रभात मिश्रा, सीसीएफ बिलासपुर 

"मृतक और अन्य हाथियों का दल अचानकमार टाइगर रिजर्व में विचरण करते रहते थे, जिस पर विभाग के कर्मचारी लगातार निगरानी करते थे। कुछ दिन पहले ही पांच हाथियों में से एक हाथी घूमते हुए मुंगेली और निगम के एरिया में पहुंच गया, जिसकी सूचना निगम को भी दी गई थी। हमारा एरिया नहीं होने की वजह से कुछ नहीं कर पाए। इसके बाद 31 अक्टूबर की रात को हाथी के गुम होने और उसके मौत की सूचना मिलते ही जानकारी बिलासपुर वन मंडल को दी गई। हमारे सूचना के बाद ही बिलासपुर वन मंडल की टीम ने मौके पर पहुंचकर मृतक हाथी के मामले में जांच शुरु की है।"    _ गणेश यूआर, डिप्टी डायरेक्टर, एटीआर      

"पांच हाथियों के दल से एक हाथी जब बिछड़ा था तो इसकी सूचना सभी को देनी चाहिए थी, लेकिन किसी ने भी सूचना देना उचित नहीं समझा। इसके बाद हाथी का शव तखतपुर ब्लाक के टिंगीपुर में मिला, जो बिलासपुर वन मंडल का क्षेत्र नहीं है। यह क्षेत्र वन विकास निगम और एटीआर के बीच राजस्व का है, जिसके बाद मौके पर पहुंचकर हाथी का शव पोस्टमार्टम कराने के बाद अंतिम संस्कार करने के उपरांत बिसरा रिपोर्ट जबलपुर भेजी जा रही है। इस मामले में दो को गिरफ्तार किया गया है, जिनसे पूछताछ हो रही है।"  _ सत्यदेव शर्मा, डीएफओ, वन मंडल बिलासपुर   

इन बयानों को पढ़कर आप अफसरों की कार्यशैली और कार्यक्षेत्र का दायरा बखूबी समझ सकते हैं। यहां ये बताना लाजिमी होगा कि पिछले कुछ महीनों से अचानकमार टाईगर रिजर्व क्षेत्र में पाँच हाथियों का दल लगातार विचरण कर रहा है। उसी दल से बिछड़ा एक शावक इंसानी क्रूरता का शिकार बन गया। 

कृषि भूमि और खनन प्रथाओं के लिए वन्यजीवों के आवासों पर लगातार अतिक्रमण हो रहा है। राज्य के हसदेव का कटता जंगल प्रत्यक्ष प्रमाण है। परिणामस्वरूप होने वाले उपभोग से बेजुबान वन्यजीवों के लिए कोई जगह नहीं बचती, जिन्हें मानव बस्तियों में घुसने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं पता। ऐसे में प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने की हर कड़ी में इंसान और उसकी बदनियती छिपी हुई है। जानवरों के प्रति इस क्रूरता को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। हाथी को समस्या का नाम देने वालों से पूछा जाना चाहिये कि क्या हम सभी हाथी की मौत में दोषी नहीं हैं ?

अब बाघ की तस्वीरें सोशल साइट्स पर अपलोड हुई तो खैर नहीं - NTCA

 गोंदिया  /  यूं तो बाघ हर किसी के आकर्षण का विषय है. जंगल में सफारी पर नमा जाने के बाद बाघों को देखकर पर्यटकों की खुशी सातवें आसमान पर पहुंच जाती है. उनकी तस्वीरें खींचकर सोशल मीडिया पर अपलोड की जाती हैं. जिससे शिकारियों व को बाघों की लोकेशन मिलती है और उससे बाघों के शिकार का डर रहता है. अतः सुरक्षा की दृष्टि से व्याघ्र प्रकल्प में बाघों का नामकरण व उनके स्थान की घोषणा करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. हालाँकि NTCA के दिशा निर्देशों को ताक पर रखकर पर्यटकों से ज्यादा तस्वीरें देश के विभिन्न टाईगर रिजर्व के गाईड और ड्राईवर पोस्ट करते हैं। ऐसा करने से उनका व्यापार बढ़ता है लेकिन उनकी आर्थिक मजबूती के पीछे बाघ असुरक्षित और अक्सर खतरे में होता है। 

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने बाघों के नामकरण के लिए नियम बनाए हैं. इसके मुताबिक किसी बाघ का नाम C-1, C-2, T-1, T-2 रखे जाने की उम्मीद है. जिन बाघों का कोई नाम नहीं होता उनकी पहचान कोडवर्ड से की जाती है. जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क सहित देश के विभिन्न अभ्यारण्य एनटीसीए नियमों का पालन करते हैं. जारी पत्रक के मुताबिक अब किसी भी बाघ का नामकरण नहीं किया जाएगा और किसी भी बाघ की पहचान नाम से नहीं की जाएगी. 

अगर कोई बाघों का नाम बताता है तो सबूत मिलने पर संबंधित के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. इसी के तहत यह फैसला लिया गया है. साथ ही सोशल मीडिया में फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और अन्य साइट्स से पर्यटकों और वन्यजीव प्रेमियों से जुड़े बाघों के नाम हटाने के निर्देश दिए गए हैं. साथ ही पर्यटकों को सोशल मीडिया पर बाघों की तस्वीरें और लोकेशन दिखाने पर भी रोक लगा दी गई है. प्रशासन के नियमों का उल्लंघन करने पर रिसॉर्ट, होम स्टे मालिक, टूरिस्ट गाइड और जिप्सी चालक समेत विभाग के कर्मचारी या गाइड के खिलाफ निलंबन के साथ स्थायी प्रतिबंध का आदेश दिया जाएगा. सभी गाइड, जिप्सी चालकों, रिसॉर्ट मालिकों के साथ होम स्टे प्रदाताओं को नियमों की जानकारी देते हुए एक पत्रक भेजा गया है.

"सोशल मीडिया और खासतौर पर फेसबुक और वाॅट्स एप्प पर बाघों की तस्वीरों के लगातार वाइरल होने पर नेशनल टाइगर कंनसर्वेशन एथोरिटी (एनटीसीए) ने आपत्ति जताई है। पिछले कुछ सालों में बाघों की तस्वीरों को सोशल साइट्स पर शेयर करने का चलन बढ़ा है।  इस पर ध्यान देते हुए बाघों की सुरक्षा के लिये काम कर रही सर्वोच्च संस्थान एनटीसीए ने देशभर के सभी चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डनों को पत्र लिखकर अपने इलाकों में खासतौर पर अपने स्टाफ को इस तरह की तस्वीरों को शेयर करने से मना करने को कहा है।पत्र में एनटीसीए ने कहा है कि इस पिछले कुछ समय से बाघों की जंगलों में तस्वीरें और कैमरा ट्रेप में कैद तस्वीरें सोशल मीडिया में शेयर करती देखी गई हैं। ये बाघों की सुरक्षा के लिये हानिकारक है क्योंकि इनसे शिकारियों को बाघों की लोकेशन का अंदाजा लग सकता है।"

नाम लोकप्रिय होने पर शिकारी हो जाते हैं सक्रिय मानवीय कारणों से बाघों या अन्य वन्यजीवों की वनों की कटाई से उन जीवों को लाभ की बजाय अधिक नुकसान होता है. यह वन्यजीवों पर मानवीय भावनाओं को थोपता है. लोग बाघों को पालतू जानवर मानते हैं और वे बाघों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करते हैं. ये सब खतरनाक हो सकता है. इसके अलावा, यदि बाघों का नाम अधिक लोकप्रिय हो जाता है, तो शिकारियों के गिरोह सक्रिय हो जाते हैं और उन्हें पकड़ने की योजना बनाते हैं. कई बाघों का नाम वन्यजीव प्रेमियों द्वारा रखा गया है जो नियमित सफारी लेते हैं. इसमें माया, छोटी, मटकासुर, तारा, माधुरी, सोनम, शर्मिली, जूनाबाई, सूर्या आदि नाम चर्चा में थे .


400 किमी चलकर ATR आई बाघिन : सिर्फ बाघों का आवास नहीं, टाईगर कॉरिडोर्स को भी बचाना होगा - रजनीश सिंह


 बिलासपुर /
  TODAY छत्तीसगढ़  /  मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में स्थित पेंच नेशनल पार्क की एक बाघिन नए ठिकाने की तलाश में छत्तीसगढ़ राज्‍य के अचानकमार टाइगर रिजर्व पहुंच गई है. साल 2022 के अखिल भारतीय बाघ ऑकलन के दौरान यह बाघिन सिवनी पेंच नेशनल पार्क के कर्माझिरी और घाटकोहका परिक्षेत्र में लगे कैमरों में दर्ज हुई थी. दो साल बाद यह बाघिन की लोकेशन अचानकमार टाइगर रिजर्व में पाई गई है.

भारतीय वन्‍यजीव संस्‍थान टाइगर सेल के वैज्ञानिकों ने अचानकमार टाइगर रिजर्व के द्वारा उपलब्‍ध कराए गए बाघिन के फोटोग्राफ का मध्‍य भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों के टाइगर के डॉटाबेस से मिलान कर किया. जिसमें पेंच टाइगर रिजर्व की बाघिन से धारियों के मिलान के आधार पर पुष्टि की गई. अचानकमार प्रबंधन ने बताया कि यह बाघिन अचानकमार टाइगर रिजर्व में 2023 शीत ऋतु के पहले से ही देखी जा रही है.

पेंच से चलकर अचानकमार टाईगर रिजर्व पहुँची बाघिन, रास आ रही ATR की आबो हवा 

यह खबर सभी वन्‍यजीव प्रेमियों के लिए हर्ष और गौरव का क्षण हैं. क्‍योंकि बाघिन ने लगभग 400 किमी से अधिक की दूरी तय करके अपने नए आवास में गई है. यह खोज इस दृष्टि से भी महत्‍वपूर्ण है कि इससे आमजन को कॉरीडोर के संरक्षण की आवश्‍यकता और महत्‍व को समझाने में मदद मिलेगी.

माना जा रहा है कि बीच का एक साल वह कान्हा के जंगल में रही होगी। जिसने एक-दो और 10 नहीं बल्कि पूरे 400 किमी का सफर तय कर यहां पहुंची है। इस बाघिन ने मध्य प्रदेश के पेंच टाइगर रिजर्व से 2022 में अपना सफर शुरु किया था और 2023 में इसे अचानकमार टाइगर रिजर्व में देखा गया और तब से ये बाघिन अचानकमार टाइगर रिजर्व में विचरण कर रही है। अचानकमार टाइगर रिजर्व में इसकी तस्वीर सबसे पहले शीतऋतु की गणना के दौरान सामने आई।

दूसरे टाइगर रिजर्व से अचानकमार टाइगर रिजर्व में बाघों का आना बेहतर संकेत है। अभी बिलासपुर से कान्हा को बाघ कारीडोर माना जा रहा था। लेकिन, इसका दायरा बढ़कर पेंच तक पहुंच गया। अचानकमार के अलावा भी ओडिशा, महाराष्ट्र के टाइगर रिजर्व से भी छत्तीसगढ़ में बाघ पहुंच रहे हैं। वन विभाग को अब कारीडोर पर बेहतर काम करना होगा।

इस मामले में पेंच टाईगर रिजर्व के डिप्टी डायरेक्टर रजनीश सिंह से बातचीत हुई, रजनीश सिंह का कहना है - 

"बाघों की फितरत होती है आवास और जीवन साथी की तलाश में अक्सर वे बहुत दूर-दूर तक सफर कर लेते हैं। करीब 400 किमी चलकर पेंच से अचानकमार टाईगर रिजर्व पहुँची बाघिन इस बात को बल देती है कि सिर्फ बाघों का आवास बचाने से काम नहीं चलेगा, टाईगर कॉरिडोर को भी बड़ी जिम्मेदारी के साथ बचाकर सुरक्षित रखना होगा। बाघ और पृथ्वी को बचाने के लिए कॉरिडोर्स का सुरक्षित रहना बहुत जरुरी है। पेंच से कान्हा और कान्हा से अचानकमार टाइगर कॉरिडोर के रास्ते ही ये बाघिन वहां पहुँची होगी। "

देवताओं के धरती पर आगमन का संकेत देता है 'कांस का फूल'


 बिलासपुर / 
 TODAY छत्तीसगढ़  /  मॉनसून अब अपने समापन की ओर है तथा जल्द ही शरद ऋतु का आगमन होने वाला है. मौसम में आने वाले परिवर्तन को लेकर एक तरफ जहां तमाम तरह के उपकरणों से मौसम विभाग मौसम का पूर्वानुमान लगाता है, वहीं ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग बिना कोई उपकरण के मौसम का अंदाजा लगा लेते हैं. इन दिनों चारों तरफ कांस के फूल खिले हैं, जिसको देखकर यह कहा जाने लगा है कि मानसून का मौसम समाप्त होने वाला है और शरद ऋतु की शुरुआत हो गई है.

दरअसल, कांस के फूल खिलने का मतलब मानसून का जाना और शरद ऋतु के आगमन का संदेश होता है. इसकी चर्चा महाकवि कालिदास से लेकर आदि कवि तुलसीदास तक ने की है. इतना ही नहीं इस फूल के बारे में रविंद्र नाथ टैगोर और काजी नज़रुल इस्लाम ने भी अपनी कविताओं में इसका जिक्र किया है.

कांस के फूल खिलने का मतलब केवल मौसम में परिवर्तन ही नहीं होता है, बल्कि इससे देवताओं के धरती पर आगमन का संकेत भी मिलता है. पश्चिम बंगाल में कांस के फूलों को काफी शुभ माना गया है तथा शारदीय नवरात्र में इसका इस्तेमाल भी किया जाता है. स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि इस फूल के खिलने का मतलब आसमान में सफेद बादल के समान होता है. तथा इसके खिलने से यह समझा जाता है कि हमारा पर्यावरण धरती पर देवताओं का इंतजार कर रहा है.

कवि तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में इस फूल के बारे में यह लिखा है कि “फूले कास सकल महि छाई, जनु वर्षा कृत प्रकट बुढ़ाई”. इसका मतलब यह होता है कि शरद ऋतु के आगमन से पहले चारों तरफ कांस के फूल का खिलना यह बताता है कि बरसात का मौसम अब बुजुर्ग हो गया है.

 महाकवि कालिई दुल्हन के परिधानदास ने अपनी रचना ऋतुश्रृंगार में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए लिखा है कि “फूले हुए कासों के निराले परिधान, साज नूपुर पहन मतवाले हंस गण के”. कालिदास ने कांस के फूलों को न से तुलना की है. वहीं कभी रविंदर नाथ टैगोर ने अपनी रचना “शापमोचन” में भी कांस के फूलों के सौंदर्य का वर्णन किया है.

प्रकृति की यात्रा पर निकले विदेशी मेहमान प्यास बुझाने और थकान मिटाने मोहनभाठा में उतरे


 बिलासपुर /  
TODAY छत्तीसगढ़  /  मोहनभाठा, आज (06 सितम्बर 2024) के ख़ास मेहमान यूरेशियन कर्ल्यू या कॉमन कर्ल्यू कैमरे का मुख्य आकर्षण रहे। दिन भर की तलाश के बाद अचानक जैकपॉट लगा, 16 की संख्या में एक साथ Eurasian Curlew मैदान में उतरे। मैंने इसके पहले साल 2020 में Eurasian Curlew को मोहनभाठा के इसी मैदान में 8 की संख्या में रिकार्ड किया है।  कहते हैं ना उम्मीदें जब पूरी हो जायें तो बांछे खुद-ब-खुद खिल उठती हैं। मेरे साथ आज कुछ ऐसा ही हुआ। ये बाते और पक्षियों की तस्वीरें खींचने वाले वाइल्डलाइफ फोटो जर्नलिस्ट सत्यप्रकाश पांडेय ने कहीं। उन्होंने इस खूबसूरत और आकर्षक विदेशी मेहमान की कुछ तस्वीरों साथ इंटरनेट से हासिल की गई जानकारी भी साझा की है   .... 

यूरेशियन कर्ल्यू या कॉमन कर्ल्यू (न्यूमेनियस अर्क्वेटा) बड़े परिवार स्कोलोपेसिडे में एक वेडर है। यह यूरोप और एशिया में प्रजनन करने वाले कर्ल्यू में सबसे व्यापक रूप से फैला हुआ है। यूरोप में, इस प्रजाति को अक्सर "कर्ल्यू" के रूप में संदर्भित किया जाता है, और स्कॉटलैंड में इसे "व्हाउप" के रूप में जाना जाता है। 

यूरेशियन कर्ल्यू अपनी सीमा में सबसे बड़ा वेडर है, जिसकी लंबाई 50-60 सेमी (20-24 इंच) है, जिसका पंख फैलाव 89-106 सेमी (35-42 इंच) है और शरीर का वजन 410-1,360 ग्राम (0.90-3.00 पाउंड) है। यह मुख्य रूप से भूरे रंग का होता है, जिसकी पीठ सफ़ेद, पैर भूरे-नीले और बहुत लंबी घुमावदार चोंच होती है। नर और मादा एक जैसे दिखते हैं, लेकिन वयस्क मादा में चोंच सबसे लंबी होती है। आम तौर पर एक यूरेशियन कर्ल्यू या कई कर्ल्यू के लिंग को पहचानना संभव नहीं है, क्योंकि उनमें बहुत भिन्नता होती है; हालाँकि, संभोग करने वाले जोड़े में नर और मादा को अलग-अलग पहचानना आम तौर पर संभव है। परिचित आवाज़ ज़ोर से कर्लू-ऊ होती है।

कर्ल्यू की अधिकांश सीमा में एकमात्र समान प्रजाति यूरेशियन व्हिम्ब्रेल (न्यूमेनियस फेओपस) है। व्हिम्ब्रेल छोटा होता है और इसमें चिकनी वक्र के बजाय एक मोड़ के साथ एक छोटी चोंच होती है। फ्लाइंग कर्ल्यू अपने सर्दियों के पंखों में बार-टेल्ड गॉडविट्स (लिमोसा लैपोनिका) से मिलते जुलते हो सकते हैं; हालाँकि, बाद वाले का शरीर छोटा होता है, थोड़ी ऊपर की ओर उठी हुई चोंच होती है, और पैर जो उनकी पूंछ की नोक से बहुत आगे तक नहीं पहुँचते हैं। यूरेशियन कर्ल्यू के पैर लंबे होते हैं, जो एक विशिष्ट "बिंदु" बनाते हैं।

यात्रा संस्मरण : वन्य प्राणियों की बहुलता से सम्पन्न बारनवापारा पर्यटकों के साथ-साथ वाइल्ड प्रेमियों के आकर्षण का बड़ा केंद्र


 बिलासपुर।
  TODAY छत्तीसगढ़  /  (सत्यप्रकाश पांडेय )  जब जंगल का व्यक्ति, जंगल और वन्यप्राणी को अपनी प्रतिष्ठा बना ले तो यक़ीन मानिये उस पूरे इलाके की समृद्धि, सम्पन्नता और वैभव का आलोक दूर तक फैला नज़र आता है। छत्तीसगढ़ राज्य के नक़्शे में अपनी अलग पहचान बना चुकी बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी बदलते वक्त के साथ काफी बदली-बदली सी नज़र आती है। यहाँ नेपाल ठाकुर जैसे जिप्सी (मालिक) चालक और दीपक यादव जैसे कई कुशल मार्गदर्शक (गाईड) हैं जो प्रत्येक पर्यटक को जंगल के इतिहास, भूगोल और वहाँ मौजूद वन्यप्राणियों के बारे में विस्तार से बताते हैं । मैं और वाइल्डलाइफ में सिद्धहस्त श्री प्राण जी चढ्ढा ने पिछले दो दिनों तक इस सेंचुरी की ख़ाक छानी और जितना अधिक हो सका ज्ञान, तस्वीर साथ लेकर घर लौटे।  

 बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी राज्य में तेंदुओं के लिये अलग पहचान बनाती दिखाई देती है। यहाँ अलग-अलग क्षेत्र में 50 से अधिक तेंदुए हैं जो सफारी के दौरान पर्यटकों के आकर्षण और रोमांच का बड़ा हिस्सा हैं। इसके अलावा नील गाय, भालू, साम्भर, चीतल, ब्लैक बक, गौर, वुल्फ, जंगली सुअर, गोल्डन जैकाल आसानी से बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं।  

              बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी में तेंदुए की बढ़ती संख्या के पीछे की मुख्य वजह सोन कुत्तों की कमी होना है। करीब एक दशक पहले तक इस सेंचुरी में वाइल्ड डॉग (सोन कुत्ता) का आतंक था। बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी में जंगली हाथियों की मौजूदगी भी है जो वन के अलावा वन्यप्राणियों की सुरक्षा का बड़ा कवच है। यह सेंचुरी आज की स्थिति में वन और वन्यप्राणियों के अलावा पक्षियों, तितलियों, कीट-फतिंगों की विभिन्न प्रजातियों से भरी पड़ी है। इस सेंचुरी में एक वक्त ऐसा भी रहा जब शिकारियों के खौफ से न सिर्फ वन्यप्राणी छिपे रहते थे बल्कि वन महकमें के तात्कालीन अफसरों और कर्मियों की हवाइयाँ उड़ी रहती थी। बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी कभी सिर्फ ऐशगाह के नाम से जानी जाती थी, अब यहां के वन्यप्राणी और स्वच्छ आबो-हवा पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है। बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी प्रबंधन ने पर्यटकों की बुनियादी जरूरतों का विशेष ख्याल रखा है। यहां के म्यूजियम में बलौदाबाजार में मिलने वाले विभिन्न स्टोन, बारनवापारा में पाएं जाने वाले पशु-पक्षियों का जीवंत चित्रण एवं जानकारी उपलब्ध है, जो बच्चों एवं आने वाले सैलानियों के लिए आकर्षक एवं ज्ञानवर्धक है।  मुख्य चौक में नया पर्यटक सुविधा केंद्र बनाया गया है, जिससे यहां आने वाले पर्यटकों को सभी जानकारियां मिल जाएगी।

 बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी में आकाश से बातें करते  ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को देखिये, फिर आँख बंद करके क्षेत्र से गुजरने वाली जीवनदायनी दो नदियां बालमदेही और जोंक का कल-कल स्वर महसूस कीजिये।  बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी  की भौगोलिक संरचना प्रत्येक प्राणी, वन्यप्राणी के लिहाज से अनुकूल है। इस अभ्यारण्य में मैदानी और छोटे-बड़े पठारी इलाकों के बीच अनेक वनस्पति, औषधीय पौधों के अलावा सागौन, साजा, बीजा, लेंडिया, हल्दू, सरई, धौंरा, आंवला, अमलतास, कर्रा जैसे छोटे-बड़े वृक्ष दिखाई देते हैं।   

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'उस गाँव में पक्षियों को लेकर ना फिर वैसी भीड़ जुटी ना मेले लगे'

( रिपोर्ट / सत्यप्रकाश पांडेय )
बिलासपुर।  TODAY छत्तीसगढ़  /   बेमेतरा जिले के दुर्ग वन मंडल का गिधवा-परसदा, जिसे पक्षी विहार के रूप में भी कुछ लोग जानते हैं। साल 2021 में पहली बार पक्षियों के लिये गाँव में मेला सजा। गाँव में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, उनके मंत्री-संतरी और नौकरशाह बड़ी संख्या में पहुँचें। गिधवा-परसदा, जहाँ हर साल सैकड़ों की संख्या में प्रवासी परिंदे पहुँचते हैं उसे राज्य के नक्शे में अलग पहचान देने का शोर मचाया गया। पक्षी मेले के मंच से आते शोर में रोजगार और रोजगार के अवसर का भरोसा पाकर ग्रामीण सपनों की दीवार चुनने लगे। अफ़सोस,  उस दिन के बाद से आज तलक गाँव में पक्षियों को लेकर ना वैसी भीड़ जुटी ना मेले लगे। ग्रामीणों को रोजगार के अवसर की तलाश, तलाश बनकर ही रह गई। कुछ बेरोजगारों को उम्मीद थी रोजगार मिलेगा, जिन्हें बतौर वालेंटियर काम मिला उन्हें इतना भी मानदेय नहीं मिलता कि वे घर चला सकें। कुछ बातें उसी गिधवा गाँव से जहाँ लोगों को आज भी 'उस मेले में कही गई बातें याद हैं।'   

बता दें कि देश-दुनिया के अलग-अलग प्रजातियों के पक्षियों को पनाह देने वाले गिधवा-परसदा में छत्तीसगढ़ का पहला पक्षी महोत्सव का आयोजन साल 2021 में 31 जनवरी से 2 फरवरी तक तीन दिनों तक किया गया था । जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। गिधवा में 150 प्रकार के पक्षियों का अनूठा संसार है। पक्षी मेला, इको टूरिज्म के विकास और स्थानीय रोजगार की दृष्टि से गिधवा-परसदा में आयोजन किया गया ।

तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने गिधवा-परसदा क्षेत्र में पक्षी जागरूकता एवं प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना का बड़ा ऐलान किया था,  इसके लिये भवन निर्माण का काम प्रगति पर है। गिधवा-परसदा में तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ये भी कहा था की राज्य के समस्त वेटलैंड का संरक्षण एवं प्रबंधन छत्तीसगढ़ राज्य जैव विविधता बोर्ड करेगा। एकाध जगह छोड़ दें तो इस दिशा में धरातल पर ठोस काम होता कहीं दिखाई नहीं पड़ता। 

 ‘गिधवा-परसदा पक्षी विहार’ को विश्व स्तरीय पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किये जाने की बात कही गई थी । भरोसा यह भी दिलाया गया कि छत्तीसगढ़ के इस पक्षी विहार को अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र में स्थापित करने के लिए हर संभव कदम उठाए जाएंगे। पक्षी विज्ञानियों, प्रकृति प्रेमियों और यहां आने वाले सैलानियों के लिए विभिन्न सुविधाएं विकसित की जाएंगी।

यहाँ करीब 100 एकड़ में फैले पुराने तालाब के अलावा परसदा में भी 125 एकड़ के जलभराव वाला जलाशय है। यह क्षेत्र प्रवासी पक्षियों का अघोषित अभयारण्य माना जाता है। सर्दियों की दस्तक के साथ अक्टूबर से मार्च के बीच यहां यूरोप, मंगोलिया, बर्मा और बांग्लादेश से पक्षी पहुंचते हैं। जलाशय की मछलियां, गांव की नम भूमि और जैव विविधता इन्हें काफी आकर्षित करती है। गिधवा परसदा के अलावा एरमशाही,कूंरा और आसपास के छोटे-बड़े तालाब इन पक्षियों की शरणस्थली हैं। 

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वायर टेल्ड स्वैलो, एक खूबसूरत परिंदा जो चिकनी मिट्टी से घोंसला बनाता है

 वायर टेल्ड स्वैलो को स्थानीय भाषा में अबाबील भी कहते है। स्वैलो की यह प्रजाति सारे भारत में पाई जाती है। हिमालय में यह लगभग तीन हजार मीटर तक की ऊंचाई तक देखे जा सकते है। भारत में यह एक स्थानीय पक्षी है, लेकिन सर्दियों में ये पक्षी स्थानीय प्रवास भी करते है। इस पक्षी के शरीर का ऊपरी हिस्से का रंग चमकीला नीला, शरीर का नीचे का हिस्सा दूधिया सफेद व सिर का ऊपरी हिस्सा गहरा बादामी रंग का होता है। इसकी आंख की पुतली गहरी भूरी, चोंच व पंजे काले रंग के होते है। इसके पंख लंबे व पीछे की तरफ बढ़े हुए दिखते है।

TODAY छत्तीसगढ़  / वायर टेल्ड स्वैलो [Wire-tailed swallow ] को स्थानीय भाषा में अबाबील भी कहते है। स्वैलो की यह प्रजाति सारे भारत में पाई जाती है। हिमालय में यह लगभग तीन हजार मीटर तक की ऊंचाई तक देखे जा सकते हैं भारत में यह एक स्थानीय पक्षी है, लेकिन सर्दियों में ये पक्षी स्थानीय प्रवास भी करते हैं। इस पक्षी के शरीर का ऊपरी हिस्से का रंग चमकीला नीला, शरीर का नीचे का हिस्सा दूधिया सफेद व सिर का ऊपरी हिस्सा गहरा बादामी रंग का होता है। इसकी आंख की पुतली गहरी भूरी, चोंच व पंजे काले रंग के होते हैं। इसके पंख लंबे व पीछे की तरफ बढ़े हुए दिखते हैं। 
इसकी पूंछ के दो पंख लंबे व पीछे की तरफ बढ़े हुए तार की तरह लंबे हो जाते हैं, जिसके कारण ही इसका नाम वायर टेल्ड पड़ा है। नर व मादा लगभग एक जैसे दिखते हैं। मादा की पूंछ के तारनुमा पंखों की लंबाई नर पक्षी से कम होती है। ये पक्षी जोड़े या एक छोटे समूह में रहते हैं। ये पक्षी मुख्यत: खुले क्षेत्रों, खेलों, नहरों व झीलों के आस-पास रहना पसंद करते है। सुबह व शाम के समय ये एक समूह में पानी के आसपास तारों पर बैठे दिखाई देते हैं। 

ये तेज उड़ान भरते हैं और हवा में उड़ने के दौरान ही कीट-पतंगों को खाते रहते हैं। ये तार से बार-बार उड़ान भरते हैं और उड़ते हुए कीट पतंगों को खाकर वापस आकर बैठ जाते हैं। जब ये पानी के ऊपर उड़ते हैं तो इनकी उड़ान काफी नीची होती है। इसका मुख्य कारण पानी की सतह पर उड़ते कीट होते हैं। ये उड़ान के दौरान ही पानी भी पी लेते है। इन पक्षियों के प्रजनन का समय मार्च से सितंबर तक होता है। ये पक्षी एक ही साथी के साथ जोड़ा बनाते हैं। नर व मादा मिलकर अपना घोंसला गीली चिकनी मिट्टी से बनाते हैं। घोंसला एक कपनुमा आकार का होता है। दोनों मिलकर झील व नहरों आदि के किनारों से चिकनी मिट्टी अपनी चोंच में उठा कर लाते हैं। इनके घोंसले आमतौर पर दीवारों या पुल आदि के नीचे बने होते हैं। घोंसले की सुरक्षा को देखते हुए आमतौर पर सीधी खड़ी दीवारों पर छत के पास बनाते है। मादा तीन से चार अंडे देती है। एक ही घोंसले की जगह को बार-बार प्रयोग कर में लेते हैं। नर व मादा मिलकर चूजों को पालते है। प्रजनन के दौरान नर पक्षी मधुर आवाज निकालते हैं। 
तस्वीरें / सत्यप्रकाश पांडेय, वाइल्डलाइफ फोटोजर्नलिस्ट [छत्तीसगढ़] 

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