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सफ़रनामा, सत्यप्रकाश के साथ : मैं मुसाफिर हूँ, मेरी सुबह कहीं शाम कहीं ...

ये यायावर पशुपालक आज यहाँ कल कहीं और... ।  बीते 11 नवम्बर को मेरे जिले (बिलासपुर) की सरहद से करीब 130 किलोमीटर दूर ग्राम तरच (मध्यप्रदेश) के घुमावदार मोड़ पर इन यायावरों से मेरा अचानक आमना-सामना हुआ। हम काले हिरणों की शरण स्थली, कारोपानी जा रहे थे और ये उसी रास्ते से 24 किलोमीटर का सफर और तय कर छत्तीसगढ़ की सीमा में प्रवेश करने वाले थे। अक्सर इनके काफ़िले को देखकर मैं रुक जाता हूँ, जिज्ञासा इनको जी भरकर देखने की और लालच कुछ तस्वीरों का।

 हर साल की तरह इस बरस भी हजारों मील की दूरी क़दमों से नाप देने वाले यायावर अपने अस्थाई ठिकानों को लौट रहे थे । उस मोड़ पर इनको देख मैंने कार रोकी और सड़क किनारे रुका, ये चलते रहे। कुछ तस्वीरों के बाद चलते-चलते मेरी बात उस युवा से हुई जिसके कदमों के पीछे ऊंटों का रेला कदमताल कर रहा था । बातचीत की औपचारिकता में पता चला कि काफ़िल राजस्थान से मई माह के अंतिम सप्ताह में चला है। राजस्थान के जोधपुर से 65 किलोमीटर दूर भेंलड़ गाँव के रहने वाले तेजसिंग कुनबे के अगवा हैं, उन्होंने बताया उनके सूबे में पशुओं के चारों का संकट दशकों पुरानी समस्या है लिहाज हर साल गर्मी की शुरुआत होते ही वे दूसरे राज्यों की ओर निकल पड़ते हैं। 

        तेजसिंह कहते हैं उनके जैसे सैकड़ों परिवार हैं जो हर बरस देश के दूसरे प्रांतों का रुख करते हैं । राजस्थानी जहाज ऊँट, भेड़, कुत्तों के बीच जिंदगी जीने की तमाम जरूरतों के साथ सैकड़ों किलोमीटर का सफर पैदल तय करते हैं । ये यायावर पूरी जिंदगी सफ़र पर होते हैं जो प्रकृति के रौद्र रूप और उसके सौंदर्य को काफी करीब से देखते और भोगते हैं । पशुचारा की आड़ में व्यवसाय पर निकले ये लोग शिक्षा से कोसो दूर होते हैं । हालांकि अशिक्षा इनके व्यवसाय में आड़े नहीं आती । 

        आपको बता दें कि राजस्थान और गुजरात में पशुपालन का व्यवसाय रायका-रैबारी, बागरी ओर बावरिया समाज से जुड़े हुए लोग करते हैं। ये समाज सालों से यही काम कर रहा हैं। भारत में ऊंट पालने का काम ये सभी जातियां करती हैं किन्तु इनकी ब्रीडिंग रायका- रैबारी लोग ही करवाते हैं। ये ब्रीडिंग राजस्थान के मारवाड़ के साथ-साथ गुजरात के कच्छ में भी होती है। कहते हैं ऊंट रेगिस्तान का जहाज है तो बकरी गरीब की गाय है। भेंड़-बकरी को थोड़ा सा चराकर कभी भी दूध निकाला जा सकता है। मरुभूमि में गरीब व्यक्ति के पोषण का आधार भेंड़-बकरी ही है जो उसके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी है। 

              जानकार ये भी बताते हैं सैकड़ों भेड़ और ऊँट लेकर हजारों मील सफ़र तय करने वाले ये लोग रंगमंच की वो कठपुतलियां हैं जिनकी डोर दूर देश में बैठे इनके आकाओं के पास होती है । इनको तो बस चलते जाना है... बस चलते जाना । रास्ता कब ख़त्म होगा ये जानने की ख्वाहिश में पीढियां गुजर गई । 

ऊंट से सीखें जीवन जीने की कला - 

ऊंट रेगिस्तान का जहाज कहलाता है. कठोर वातावरण में भी जिंदगी जीने का हुनर रखने वाला ये जीव हमें जीवन के कई अनमोल पाठ सिखाता है. 

 O रेगिस्तान की भीषण गर्मी और पानी की कमी को सहने वाला ऊंट हमें संयम और कठिन परिस्थितियों में धैर्य रखना सिखाता है.

O ऊंट अपने शरीर में वसा का संचय करके लंबे समय तक भोजन और पानी के बिना रह सकता है. यह हमें दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित करने और उन्हें पाने के लिए संसाधनों का समझदारी से इस्तेमाल करने की सीख देता है.

O रेगिस्तान के कठिन रास्तों पर चलने वाला ऊंट हमें कठिन परिश्रम और दृढ़ निश्चय का महत्व समझाता है.

O ऊंटों का एक समूह मिलकर चलता है. यह हमें सहयोग और टीम वर्क के बल पर किसी भी चुनौती का सामना करने की सीख देता है.

O ऊंट रेगिस्तान के सीमित संसाधनों में ही अपना जीवन यापन कर लेता है. यह हमें सादगी से जीना और संतुष्ट रहना सिखाता है.

O रेगिस्तान के बदलते तापमान और वातावरण में रहने वाला ऊंट हमें परिस्थिति के अनुसार खुद को ढालना सिखाता है.

O ऊंट अपने चौड़े पैरों से रेत में आसानी से चल सकता है. यह हमें समस्याओं का समाधान खोजने और चुनौतियों से पार पाने की सीख देता है.

O रेगिस्तान में भटकते हुए भी ऊंट पानी की तलाश जारी रखता है. यह हमें धैर्य न खोने और आशा बनाए रखने का पाठ देता है.

O ऊंट भारी सामान ले जाने में सक्षम है. यह हमें शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनने की सीख देता है.

O ऊंट आमतौर पर शांत और मिलनसार स्वभाव का होता है. यह हमें दूसरों के साथ सद्भाव से रहने का पाठ देता है.

O ऊंटों की चराई से रेगिस्तान की मिट्टी मजबूत होती है, जिससे मरुस्थलीकरण रुकता है. यह हमें पर्यावरण संरक्षण के महत्व का बोध कराता है.

O ऊंट पालने वाले समुदाय रेगिस्तान में रहने के लिए सदियों से अनूठ तरीके अपनाते आए हैं. यह हमें पारंपरिक ज्ञान के सम्मान का पाठ देता है.

O ऊंट रेगिस्तान में कम पानी और भोजन में ही अपना गुजारा कर लेता है. यह हमें आत्मनिर्भर बनने और संसाधनों का प्रबंधन करने की सीख देता है.

O ऊंट रेगिस्तान में लगातार चलता रहता है. यह हमें जीवन में निरंतर प्रगति करते रहने और सीखने का पाठ देता है.

CHHATTISGARH : सीमा विवाद में फंसी हाथी की मौत, क्या हम सभी हाथी की मौत में दोषी नहीं हैं ?

बिलासपुर जिले के तखतपुर क्षेत्र में करंट की चपेट में आकर मरा हाथी शावक 

(सत्यप्रकाश पांडेय) /  क्या वन्यप्राणियों के खिलाफ़ क्रूरता बढ़ी है ? हम पक्के तौर पर ये कह सकते हैं कि हाँ, क्रूरता का ग्राफ और तरीका दोनों बदला है । इन सबके बीच जिम्मेदारियों से भागने का तरीका भी बदला है, वन्यप्राणियों के शिकार और उनकी अकाल मौत पर अक्सर जिम्मेदार अफसरों की बयानबाजी गैर जिम्मेदारी का ठोस सबूत भी देती है। इंसानी क्रूरता का शिकार वन्यप्राणी सीमा बंधन को नहीं समझता, भूख और सुरक्षित रहवास के लिये भटकता वन्यजीव अक्सर मौत के मुहाने पर खड़ा दिखाई देता है या फिर मौत उसके हिस्से आती है। इन सबके बीच संवेदनहीन अफसरों के बयान कइयों बार सवाल भी खड़े करते है, अफ़सोस अहंकार की गर्मी से तपते ऐसे वन अफसरों को आपने कभी वन्यप्राणियों की मौत पर झूठा मातम मनाते भी नहीं देखा होगा। इन तमाम बदलाव के बीच इस दौर जो सबसे बड़ा बदलाव आया है वो ये कि अब इस तरह की क्रूरता को कैमरे में कैद किया जा रहा है और सोशल मीडिया पर लगातार शेयर किया जा रहा है। 

    छत्तीसगढ़ में हाथियों की मौजूदगी और उनकी बड़ी आबादी को लेकर कोई संशय नहीं है। राज्य में हाथियों की उपस्थिति के इतिहास को खंगाले तो यहां के जंगलों से उनका रिश्ता सैकड़ों साल पुराना नज़र आयेगा। ऐसे में छत्तीसगढ़ में हाथियों की घर वापसी से जंगल के अफसर परेशान हो सकते है। राज्य में हाथी-मानव द्वन्द के तरीके और कारणों पर सालों से काम भी चल रहा है। इन सालों में हाथी और इंसानी मौत के आंकड़े कुछ ऊपर नीचे हो सकते हैं लेकिन एक दशक में कोई ठोस कार्य योजना जिसका सकारात्मक परिणाम धरातल पर दिखाई देता हो ऐसा अब तक नज़र नहीं आया। राज्य में हाथी कभी करंट की चपेट में आकर मरे तो कभी जहर या फिर गढ्ढों में गिरकर अकाल मौत का शिकार बने। 

             पिछले दस दिनों में छत्तीसगढ़ और उसकी सीमा से सटे राज्य मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में कुल 15 हाथी मारे गये। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ और बिलासपुर जिले में चार हाथी करंट की चपेट में आने से मरे। इन चार हाथियों की मौत के कारण एक हैं, वजह अलग-अलग। रायगढ़ जिले के घरघोड़ा वन क्षेत्र में करंट से जिन तीन हाथियों की मौत हुई वो बिजली विभाग और वन विभाग की संयुक्त लापरवाही का नतीजा थी। 

             बिलासपुर जिले के तखतपुर क्षेत्र के टिन्गीपुर इलाके में पिछले दिनों जिस नर हाथी शावक का शव बरामद हुआ वो भी करंट लगने से मरा। यहां शिकार के लिए बिजली का तार बिछाया गया था, जिसमें दल से भटका हुआ हाथी फंसा और काल के गाल में समा गया। असल तमाशा हाथी की मौत के बाद शुरू हुआ, अफसरों ने कहा जिस जगह हाथी का शव मिला वो राजस्व के हिस्से में आता है। हाथी का शव जिस खेत में था, वहां से कुछ दूर चलें तो अचानकमार टाईगर रिजर्व की सीमा शुरू होती हैं। दूसरी तरफ वन विकास निगम का इलाका है, बचा हिस्सा बिलासपुर वन मंडल और राजस्व विभाग की मिल्कियत। 

             हाथी की मौत के बाद मचे हाहाकार से भयभीत चंद वन अफसर अपनी जिम्मेदारियों से भागते दिखे। एक वन्यप्राणी की अकाल मौत पर गाल बजाते वन अफसरों ने लाश को न सिर्फ सीमा विवाद में फंसाया बल्कि मिडिया को दिये बयानों के माध्यम से उन्होंने अपनी संवेदनहीनता का खुलकर परिचय भी छपवाया। मीडिया बयानों के मुताबिक़ -

"अधिकारियों के पास बड़ा क्षेत्र होता है, इसलिए पूरे क्षेत्र की निगरानी उनके द्वारा संभव नहीं है। इसलिए जिनकी जैसी जवाबदारी है वैसी ही कार्यवाही होगी।"    - प्रभात मिश्रा, सीसीएफ बिलासपुर 

"मृतक और अन्य हाथियों का दल अचानकमार टाइगर रिजर्व में विचरण करते रहते थे, जिस पर विभाग के कर्मचारी लगातार निगरानी करते थे। कुछ दिन पहले ही पांच हाथियों में से एक हाथी घूमते हुए मुंगेली और निगम के एरिया में पहुंच गया, जिसकी सूचना निगम को भी दी गई थी। हमारा एरिया नहीं होने की वजह से कुछ नहीं कर पाए। इसके बाद 31 अक्टूबर की रात को हाथी के गुम होने और उसके मौत की सूचना मिलते ही जानकारी बिलासपुर वन मंडल को दी गई। हमारे सूचना के बाद ही बिलासपुर वन मंडल की टीम ने मौके पर पहुंचकर मृतक हाथी के मामले में जांच शुरु की है।"    _ गणेश यूआर, डिप्टी डायरेक्टर, एटीआर      

"पांच हाथियों के दल से एक हाथी जब बिछड़ा था तो इसकी सूचना सभी को देनी चाहिए थी, लेकिन किसी ने भी सूचना देना उचित नहीं समझा। इसके बाद हाथी का शव तखतपुर ब्लाक के टिंगीपुर में मिला, जो बिलासपुर वन मंडल का क्षेत्र नहीं है। यह क्षेत्र वन विकास निगम और एटीआर के बीच राजस्व का है, जिसके बाद मौके पर पहुंचकर हाथी का शव पोस्टमार्टम कराने के बाद अंतिम संस्कार करने के उपरांत बिसरा रिपोर्ट जबलपुर भेजी जा रही है। इस मामले में दो को गिरफ्तार किया गया है, जिनसे पूछताछ हो रही है।"  _ सत्यदेव शर्मा, डीएफओ, वन मंडल बिलासपुर   

इन बयानों को पढ़कर आप अफसरों की कार्यशैली और कार्यक्षेत्र का दायरा बखूबी समझ सकते हैं। यहां ये बताना लाजिमी होगा कि पिछले कुछ महीनों से अचानकमार टाईगर रिजर्व क्षेत्र में पाँच हाथियों का दल लगातार विचरण कर रहा है। उसी दल से बिछड़ा एक शावक इंसानी क्रूरता का शिकार बन गया। 

कृषि भूमि और खनन प्रथाओं के लिए वन्यजीवों के आवासों पर लगातार अतिक्रमण हो रहा है। राज्य के हसदेव का कटता जंगल प्रत्यक्ष प्रमाण है। परिणामस्वरूप होने वाले उपभोग से बेजुबान वन्यजीवों के लिए कोई जगह नहीं बचती, जिन्हें मानव बस्तियों में घुसने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं पता। ऐसे में प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने की हर कड़ी में इंसान और उसकी बदनियती छिपी हुई है। जानवरों के प्रति इस क्रूरता को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। हाथी को समस्या का नाम देने वालों से पूछा जाना चाहिये कि क्या हम सभी हाथी की मौत में दोषी नहीं हैं ?

अब बाघ की तस्वीरें सोशल साइट्स पर अपलोड हुई तो खैर नहीं - NTCA

 गोंदिया  /  यूं तो बाघ हर किसी के आकर्षण का विषय है. जंगल में सफारी पर नमा जाने के बाद बाघों को देखकर पर्यटकों की खुशी सातवें आसमान पर पहुंच जाती है. उनकी तस्वीरें खींचकर सोशल मीडिया पर अपलोड की जाती हैं. जिससे शिकारियों व को बाघों की लोकेशन मिलती है और उससे बाघों के शिकार का डर रहता है. अतः सुरक्षा की दृष्टि से व्याघ्र प्रकल्प में बाघों का नामकरण व उनके स्थान की घोषणा करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. हालाँकि NTCA के दिशा निर्देशों को ताक पर रखकर पर्यटकों से ज्यादा तस्वीरें देश के विभिन्न टाईगर रिजर्व के गाईड और ड्राईवर पोस्ट करते हैं। ऐसा करने से उनका व्यापार बढ़ता है लेकिन उनकी आर्थिक मजबूती के पीछे बाघ असुरक्षित और अक्सर खतरे में होता है। 

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने बाघों के नामकरण के लिए नियम बनाए हैं. इसके मुताबिक किसी बाघ का नाम C-1, C-2, T-1, T-2 रखे जाने की उम्मीद है. जिन बाघों का कोई नाम नहीं होता उनकी पहचान कोडवर्ड से की जाती है. जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क सहित देश के विभिन्न अभ्यारण्य एनटीसीए नियमों का पालन करते हैं. जारी पत्रक के मुताबिक अब किसी भी बाघ का नामकरण नहीं किया जाएगा और किसी भी बाघ की पहचान नाम से नहीं की जाएगी. 

अगर कोई बाघों का नाम बताता है तो सबूत मिलने पर संबंधित के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. इसी के तहत यह फैसला लिया गया है. साथ ही सोशल मीडिया में फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और अन्य साइट्स से पर्यटकों और वन्यजीव प्रेमियों से जुड़े बाघों के नाम हटाने के निर्देश दिए गए हैं. साथ ही पर्यटकों को सोशल मीडिया पर बाघों की तस्वीरें और लोकेशन दिखाने पर भी रोक लगा दी गई है. प्रशासन के नियमों का उल्लंघन करने पर रिसॉर्ट, होम स्टे मालिक, टूरिस्ट गाइड और जिप्सी चालक समेत विभाग के कर्मचारी या गाइड के खिलाफ निलंबन के साथ स्थायी प्रतिबंध का आदेश दिया जाएगा. सभी गाइड, जिप्सी चालकों, रिसॉर्ट मालिकों के साथ होम स्टे प्रदाताओं को नियमों की जानकारी देते हुए एक पत्रक भेजा गया है.

"सोशल मीडिया और खासतौर पर फेसबुक और वाॅट्स एप्प पर बाघों की तस्वीरों के लगातार वाइरल होने पर नेशनल टाइगर कंनसर्वेशन एथोरिटी (एनटीसीए) ने आपत्ति जताई है। पिछले कुछ सालों में बाघों की तस्वीरों को सोशल साइट्स पर शेयर करने का चलन बढ़ा है।  इस पर ध्यान देते हुए बाघों की सुरक्षा के लिये काम कर रही सर्वोच्च संस्थान एनटीसीए ने देशभर के सभी चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डनों को पत्र लिखकर अपने इलाकों में खासतौर पर अपने स्टाफ को इस तरह की तस्वीरों को शेयर करने से मना करने को कहा है।पत्र में एनटीसीए ने कहा है कि इस पिछले कुछ समय से बाघों की जंगलों में तस्वीरें और कैमरा ट्रेप में कैद तस्वीरें सोशल मीडिया में शेयर करती देखी गई हैं। ये बाघों की सुरक्षा के लिये हानिकारक है क्योंकि इनसे शिकारियों को बाघों की लोकेशन का अंदाजा लग सकता है।"

नाम लोकप्रिय होने पर शिकारी हो जाते हैं सक्रिय मानवीय कारणों से बाघों या अन्य वन्यजीवों की वनों की कटाई से उन जीवों को लाभ की बजाय अधिक नुकसान होता है. यह वन्यजीवों पर मानवीय भावनाओं को थोपता है. लोग बाघों को पालतू जानवर मानते हैं और वे बाघों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करते हैं. ये सब खतरनाक हो सकता है. इसके अलावा, यदि बाघों का नाम अधिक लोकप्रिय हो जाता है, तो शिकारियों के गिरोह सक्रिय हो जाते हैं और उन्हें पकड़ने की योजना बनाते हैं. कई बाघों का नाम वन्यजीव प्रेमियों द्वारा रखा गया है जो नियमित सफारी लेते हैं. इसमें माया, छोटी, मटकासुर, तारा, माधुरी, सोनम, शर्मिली, जूनाबाई, सूर्या आदि नाम चर्चा में थे .


400 किमी चलकर ATR आई बाघिन : सिर्फ बाघों का आवास नहीं, टाईगर कॉरिडोर्स को भी बचाना होगा - रजनीश सिंह


 बिलासपुर /
  TODAY छत्तीसगढ़  /  मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में स्थित पेंच नेशनल पार्क की एक बाघिन नए ठिकाने की तलाश में छत्तीसगढ़ राज्‍य के अचानकमार टाइगर रिजर्व पहुंच गई है. साल 2022 के अखिल भारतीय बाघ ऑकलन के दौरान यह बाघिन सिवनी पेंच नेशनल पार्क के कर्माझिरी और घाटकोहका परिक्षेत्र में लगे कैमरों में दर्ज हुई थी. दो साल बाद यह बाघिन की लोकेशन अचानकमार टाइगर रिजर्व में पाई गई है.

भारतीय वन्‍यजीव संस्‍थान टाइगर सेल के वैज्ञानिकों ने अचानकमार टाइगर रिजर्व के द्वारा उपलब्‍ध कराए गए बाघिन के फोटोग्राफ का मध्‍य भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों के टाइगर के डॉटाबेस से मिलान कर किया. जिसमें पेंच टाइगर रिजर्व की बाघिन से धारियों के मिलान के आधार पर पुष्टि की गई. अचानकमार प्रबंधन ने बताया कि यह बाघिन अचानकमार टाइगर रिजर्व में 2023 शीत ऋतु के पहले से ही देखी जा रही है.

पेंच से चलकर अचानकमार टाईगर रिजर्व पहुँची बाघिन, रास आ रही ATR की आबो हवा 

यह खबर सभी वन्‍यजीव प्रेमियों के लिए हर्ष और गौरव का क्षण हैं. क्‍योंकि बाघिन ने लगभग 400 किमी से अधिक की दूरी तय करके अपने नए आवास में गई है. यह खोज इस दृष्टि से भी महत्‍वपूर्ण है कि इससे आमजन को कॉरीडोर के संरक्षण की आवश्‍यकता और महत्‍व को समझाने में मदद मिलेगी.

माना जा रहा है कि बीच का एक साल वह कान्हा के जंगल में रही होगी। जिसने एक-दो और 10 नहीं बल्कि पूरे 400 किमी का सफर तय कर यहां पहुंची है। इस बाघिन ने मध्य प्रदेश के पेंच टाइगर रिजर्व से 2022 में अपना सफर शुरु किया था और 2023 में इसे अचानकमार टाइगर रिजर्व में देखा गया और तब से ये बाघिन अचानकमार टाइगर रिजर्व में विचरण कर रही है। अचानकमार टाइगर रिजर्व में इसकी तस्वीर सबसे पहले शीतऋतु की गणना के दौरान सामने आई।

दूसरे टाइगर रिजर्व से अचानकमार टाइगर रिजर्व में बाघों का आना बेहतर संकेत है। अभी बिलासपुर से कान्हा को बाघ कारीडोर माना जा रहा था। लेकिन, इसका दायरा बढ़कर पेंच तक पहुंच गया। अचानकमार के अलावा भी ओडिशा, महाराष्ट्र के टाइगर रिजर्व से भी छत्तीसगढ़ में बाघ पहुंच रहे हैं। वन विभाग को अब कारीडोर पर बेहतर काम करना होगा।

इस मामले में पेंच टाईगर रिजर्व के डिप्टी डायरेक्टर रजनीश सिंह से बातचीत हुई, रजनीश सिंह का कहना है - 

"बाघों की फितरत होती है आवास और जीवन साथी की तलाश में अक्सर वे बहुत दूर-दूर तक सफर कर लेते हैं। करीब 400 किमी चलकर पेंच से अचानकमार टाईगर रिजर्व पहुँची बाघिन इस बात को बल देती है कि सिर्फ बाघों का आवास बचाने से काम नहीं चलेगा, टाईगर कॉरिडोर को भी बड़ी जिम्मेदारी के साथ बचाकर सुरक्षित रखना होगा। बाघ और पृथ्वी को बचाने के लिए कॉरिडोर्स का सुरक्षित रहना बहुत जरुरी है। पेंच से कान्हा और कान्हा से अचानकमार टाइगर कॉरिडोर के रास्ते ही ये बाघिन वहां पहुँची होगी। "

देवताओं के धरती पर आगमन का संकेत देता है 'कांस का फूल'


 बिलासपुर / 
 TODAY छत्तीसगढ़  /  मॉनसून अब अपने समापन की ओर है तथा जल्द ही शरद ऋतु का आगमन होने वाला है. मौसम में आने वाले परिवर्तन को लेकर एक तरफ जहां तमाम तरह के उपकरणों से मौसम विभाग मौसम का पूर्वानुमान लगाता है, वहीं ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग बिना कोई उपकरण के मौसम का अंदाजा लगा लेते हैं. इन दिनों चारों तरफ कांस के फूल खिले हैं, जिसको देखकर यह कहा जाने लगा है कि मानसून का मौसम समाप्त होने वाला है और शरद ऋतु की शुरुआत हो गई है.

दरअसल, कांस के फूल खिलने का मतलब मानसून का जाना और शरद ऋतु के आगमन का संदेश होता है. इसकी चर्चा महाकवि कालिदास से लेकर आदि कवि तुलसीदास तक ने की है. इतना ही नहीं इस फूल के बारे में रविंद्र नाथ टैगोर और काजी नज़रुल इस्लाम ने भी अपनी कविताओं में इसका जिक्र किया है.

कांस के फूल खिलने का मतलब केवल मौसम में परिवर्तन ही नहीं होता है, बल्कि इससे देवताओं के धरती पर आगमन का संकेत भी मिलता है. पश्चिम बंगाल में कांस के फूलों को काफी शुभ माना गया है तथा शारदीय नवरात्र में इसका इस्तेमाल भी किया जाता है. स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि इस फूल के खिलने का मतलब आसमान में सफेद बादल के समान होता है. तथा इसके खिलने से यह समझा जाता है कि हमारा पर्यावरण धरती पर देवताओं का इंतजार कर रहा है.

कवि तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में इस फूल के बारे में यह लिखा है कि “फूले कास सकल महि छाई, जनु वर्षा कृत प्रकट बुढ़ाई”. इसका मतलब यह होता है कि शरद ऋतु के आगमन से पहले चारों तरफ कांस के फूल का खिलना यह बताता है कि बरसात का मौसम अब बुजुर्ग हो गया है.

 महाकवि कालिई दुल्हन के परिधानदास ने अपनी रचना ऋतुश्रृंगार में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए लिखा है कि “फूले हुए कासों के निराले परिधान, साज नूपुर पहन मतवाले हंस गण के”. कालिदास ने कांस के फूलों को न से तुलना की है. वहीं कभी रविंदर नाथ टैगोर ने अपनी रचना “शापमोचन” में भी कांस के फूलों के सौंदर्य का वर्णन किया है.

प्रकृति की यात्रा पर निकले विदेशी मेहमान प्यास बुझाने और थकान मिटाने मोहनभाठा में उतरे


 बिलासपुर /  
TODAY छत्तीसगढ़  /  मोहनभाठा, आज (06 सितम्बर 2024) के ख़ास मेहमान यूरेशियन कर्ल्यू या कॉमन कर्ल्यू कैमरे का मुख्य आकर्षण रहे। दिन भर की तलाश के बाद अचानक जैकपॉट लगा, 16 की संख्या में एक साथ Eurasian Curlew मैदान में उतरे। मैंने इसके पहले साल 2020 में Eurasian Curlew को मोहनभाठा के इसी मैदान में 8 की संख्या में रिकार्ड किया है।  कहते हैं ना उम्मीदें जब पूरी हो जायें तो बांछे खुद-ब-खुद खिल उठती हैं। मेरे साथ आज कुछ ऐसा ही हुआ। ये बाते और पक्षियों की तस्वीरें खींचने वाले वाइल्डलाइफ फोटो जर्नलिस्ट सत्यप्रकाश पांडेय ने कहीं। उन्होंने इस खूबसूरत और आकर्षक विदेशी मेहमान की कुछ तस्वीरों साथ इंटरनेट से हासिल की गई जानकारी भी साझा की है   .... 

यूरेशियन कर्ल्यू या कॉमन कर्ल्यू (न्यूमेनियस अर्क्वेटा) बड़े परिवार स्कोलोपेसिडे में एक वेडर है। यह यूरोप और एशिया में प्रजनन करने वाले कर्ल्यू में सबसे व्यापक रूप से फैला हुआ है। यूरोप में, इस प्रजाति को अक्सर "कर्ल्यू" के रूप में संदर्भित किया जाता है, और स्कॉटलैंड में इसे "व्हाउप" के रूप में जाना जाता है। 

यूरेशियन कर्ल्यू अपनी सीमा में सबसे बड़ा वेडर है, जिसकी लंबाई 50-60 सेमी (20-24 इंच) है, जिसका पंख फैलाव 89-106 सेमी (35-42 इंच) है और शरीर का वजन 410-1,360 ग्राम (0.90-3.00 पाउंड) है। यह मुख्य रूप से भूरे रंग का होता है, जिसकी पीठ सफ़ेद, पैर भूरे-नीले और बहुत लंबी घुमावदार चोंच होती है। नर और मादा एक जैसे दिखते हैं, लेकिन वयस्क मादा में चोंच सबसे लंबी होती है। आम तौर पर एक यूरेशियन कर्ल्यू या कई कर्ल्यू के लिंग को पहचानना संभव नहीं है, क्योंकि उनमें बहुत भिन्नता होती है; हालाँकि, संभोग करने वाले जोड़े में नर और मादा को अलग-अलग पहचानना आम तौर पर संभव है। परिचित आवाज़ ज़ोर से कर्लू-ऊ होती है।

कर्ल्यू की अधिकांश सीमा में एकमात्र समान प्रजाति यूरेशियन व्हिम्ब्रेल (न्यूमेनियस फेओपस) है। व्हिम्ब्रेल छोटा होता है और इसमें चिकनी वक्र के बजाय एक मोड़ के साथ एक छोटी चोंच होती है। फ्लाइंग कर्ल्यू अपने सर्दियों के पंखों में बार-टेल्ड गॉडविट्स (लिमोसा लैपोनिका) से मिलते जुलते हो सकते हैं; हालाँकि, बाद वाले का शरीर छोटा होता है, थोड़ी ऊपर की ओर उठी हुई चोंच होती है, और पैर जो उनकी पूंछ की नोक से बहुत आगे तक नहीं पहुँचते हैं। यूरेशियन कर्ल्यू के पैर लंबे होते हैं, जो एक विशिष्ट "बिंदु" बनाते हैं।

यात्रा संस्मरण : वन्य प्राणियों की बहुलता से सम्पन्न बारनवापारा पर्यटकों के साथ-साथ वाइल्ड प्रेमियों के आकर्षण का बड़ा केंद्र


 बिलासपुर।
  TODAY छत्तीसगढ़  /  (सत्यप्रकाश पांडेय )  जब जंगल का व्यक्ति, जंगल और वन्यप्राणी को अपनी प्रतिष्ठा बना ले तो यक़ीन मानिये उस पूरे इलाके की समृद्धि, सम्पन्नता और वैभव का आलोक दूर तक फैला नज़र आता है। छत्तीसगढ़ राज्य के नक़्शे में अपनी अलग पहचान बना चुकी बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी बदलते वक्त के साथ काफी बदली-बदली सी नज़र आती है। यहाँ नेपाल ठाकुर जैसे जिप्सी (मालिक) चालक और दीपक यादव जैसे कई कुशल मार्गदर्शक (गाईड) हैं जो प्रत्येक पर्यटक को जंगल के इतिहास, भूगोल और वहाँ मौजूद वन्यप्राणियों के बारे में विस्तार से बताते हैं । मैं और वाइल्डलाइफ में सिद्धहस्त श्री प्राण जी चढ्ढा ने पिछले दो दिनों तक इस सेंचुरी की ख़ाक छानी और जितना अधिक हो सका ज्ञान, तस्वीर साथ लेकर घर लौटे।  

 बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी राज्य में तेंदुओं के लिये अलग पहचान बनाती दिखाई देती है। यहाँ अलग-अलग क्षेत्र में 50 से अधिक तेंदुए हैं जो सफारी के दौरान पर्यटकों के आकर्षण और रोमांच का बड़ा हिस्सा हैं। इसके अलावा नील गाय, भालू, साम्भर, चीतल, ब्लैक बक, गौर, वुल्फ, जंगली सुअर, गोल्डन जैकाल आसानी से बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं।  

              बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी में तेंदुए की बढ़ती संख्या के पीछे की मुख्य वजह सोन कुत्तों की कमी होना है। करीब एक दशक पहले तक इस सेंचुरी में वाइल्ड डॉग (सोन कुत्ता) का आतंक था। बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी में जंगली हाथियों की मौजूदगी भी है जो वन के अलावा वन्यप्राणियों की सुरक्षा का बड़ा कवच है। यह सेंचुरी आज की स्थिति में वन और वन्यप्राणियों के अलावा पक्षियों, तितलियों, कीट-फतिंगों की विभिन्न प्रजातियों से भरी पड़ी है। इस सेंचुरी में एक वक्त ऐसा भी रहा जब शिकारियों के खौफ से न सिर्फ वन्यप्राणी छिपे रहते थे बल्कि वन महकमें के तात्कालीन अफसरों और कर्मियों की हवाइयाँ उड़ी रहती थी। बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी कभी सिर्फ ऐशगाह के नाम से जानी जाती थी, अब यहां के वन्यप्राणी और स्वच्छ आबो-हवा पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है। बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी प्रबंधन ने पर्यटकों की बुनियादी जरूरतों का विशेष ख्याल रखा है। यहां के म्यूजियम में बलौदाबाजार में मिलने वाले विभिन्न स्टोन, बारनवापारा में पाएं जाने वाले पशु-पक्षियों का जीवंत चित्रण एवं जानकारी उपलब्ध है, जो बच्चों एवं आने वाले सैलानियों के लिए आकर्षक एवं ज्ञानवर्धक है।  मुख्य चौक में नया पर्यटक सुविधा केंद्र बनाया गया है, जिससे यहां आने वाले पर्यटकों को सभी जानकारियां मिल जाएगी।

 बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी में आकाश से बातें करते  ऊँचे-ऊँचे वृक्षों को देखिये, फिर आँख बंद करके क्षेत्र से गुजरने वाली जीवनदायनी दो नदियां बालमदेही और जोंक का कल-कल स्वर महसूस कीजिये।  बारनवापारा वाइल्डलाइफ सेंचुरी  की भौगोलिक संरचना प्रत्येक प्राणी, वन्यप्राणी के लिहाज से अनुकूल है। इस अभ्यारण्य में मैदानी और छोटे-बड़े पठारी इलाकों के बीच अनेक वनस्पति, औषधीय पौधों के अलावा सागौन, साजा, बीजा, लेंडिया, हल्दू, सरई, धौंरा, आंवला, अमलतास, कर्रा जैसे छोटे-बड़े वृक्ष दिखाई देते हैं।   

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'उस गाँव में पक्षियों को लेकर ना फिर वैसी भीड़ जुटी ना मेले लगे'

( रिपोर्ट / सत्यप्रकाश पांडेय )
बिलासपुर।  TODAY छत्तीसगढ़  /   बेमेतरा जिले के दुर्ग वन मंडल का गिधवा-परसदा, जिसे पक्षी विहार के रूप में भी कुछ लोग जानते हैं। साल 2021 में पहली बार पक्षियों के लिये गाँव में मेला सजा। गाँव में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, उनके मंत्री-संतरी और नौकरशाह बड़ी संख्या में पहुँचें। गिधवा-परसदा, जहाँ हर साल सैकड़ों की संख्या में प्रवासी परिंदे पहुँचते हैं उसे राज्य के नक्शे में अलग पहचान देने का शोर मचाया गया। पक्षी मेले के मंच से आते शोर में रोजगार और रोजगार के अवसर का भरोसा पाकर ग्रामीण सपनों की दीवार चुनने लगे। अफ़सोस,  उस दिन के बाद से आज तलक गाँव में पक्षियों को लेकर ना वैसी भीड़ जुटी ना मेले लगे। ग्रामीणों को रोजगार के अवसर की तलाश, तलाश बनकर ही रह गई। कुछ बेरोजगारों को उम्मीद थी रोजगार मिलेगा, जिन्हें बतौर वालेंटियर काम मिला उन्हें इतना भी मानदेय नहीं मिलता कि वे घर चला सकें। कुछ बातें उसी गिधवा गाँव से जहाँ लोगों को आज भी 'उस मेले में कही गई बातें याद हैं।'   

बता दें कि देश-दुनिया के अलग-अलग प्रजातियों के पक्षियों को पनाह देने वाले गिधवा-परसदा में छत्तीसगढ़ का पहला पक्षी महोत्सव का आयोजन साल 2021 में 31 जनवरी से 2 फरवरी तक तीन दिनों तक किया गया था । जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। गिधवा में 150 प्रकार के पक्षियों का अनूठा संसार है। पक्षी मेला, इको टूरिज्म के विकास और स्थानीय रोजगार की दृष्टि से गिधवा-परसदा में आयोजन किया गया ।

तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने गिधवा-परसदा क्षेत्र में पक्षी जागरूकता एवं प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना का बड़ा ऐलान किया था,  इसके लिये भवन निर्माण का काम प्रगति पर है। गिधवा-परसदा में तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ये भी कहा था की राज्य के समस्त वेटलैंड का संरक्षण एवं प्रबंधन छत्तीसगढ़ राज्य जैव विविधता बोर्ड करेगा। एकाध जगह छोड़ दें तो इस दिशा में धरातल पर ठोस काम होता कहीं दिखाई नहीं पड़ता। 

 ‘गिधवा-परसदा पक्षी विहार’ को विश्व स्तरीय पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किये जाने की बात कही गई थी । भरोसा यह भी दिलाया गया कि छत्तीसगढ़ के इस पक्षी विहार को अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र में स्थापित करने के लिए हर संभव कदम उठाए जाएंगे। पक्षी विज्ञानियों, प्रकृति प्रेमियों और यहां आने वाले सैलानियों के लिए विभिन्न सुविधाएं विकसित की जाएंगी।

यहाँ करीब 100 एकड़ में फैले पुराने तालाब के अलावा परसदा में भी 125 एकड़ के जलभराव वाला जलाशय है। यह क्षेत्र प्रवासी पक्षियों का अघोषित अभयारण्य माना जाता है। सर्दियों की दस्तक के साथ अक्टूबर से मार्च के बीच यहां यूरोप, मंगोलिया, बर्मा और बांग्लादेश से पक्षी पहुंचते हैं। जलाशय की मछलियां, गांव की नम भूमि और जैव विविधता इन्हें काफी आकर्षित करती है। गिधवा परसदा के अलावा एरमशाही,कूंरा और आसपास के छोटे-बड़े तालाब इन पक्षियों की शरणस्थली हैं। 

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वायर टेल्ड स्वैलो, एक खूबसूरत परिंदा जो चिकनी मिट्टी से घोंसला बनाता है

 वायर टेल्ड स्वैलो को स्थानीय भाषा में अबाबील भी कहते है। स्वैलो की यह प्रजाति सारे भारत में पाई जाती है। हिमालय में यह लगभग तीन हजार मीटर तक की ऊंचाई तक देखे जा सकते है। भारत में यह एक स्थानीय पक्षी है, लेकिन सर्दियों में ये पक्षी स्थानीय प्रवास भी करते है। इस पक्षी के शरीर का ऊपरी हिस्से का रंग चमकीला नीला, शरीर का नीचे का हिस्सा दूधिया सफेद व सिर का ऊपरी हिस्सा गहरा बादामी रंग का होता है। इसकी आंख की पुतली गहरी भूरी, चोंच व पंजे काले रंग के होते है। इसके पंख लंबे व पीछे की तरफ बढ़े हुए दिखते है।

TODAY छत्तीसगढ़  / वायर टेल्ड स्वैलो [Wire-tailed swallow ] को स्थानीय भाषा में अबाबील भी कहते है। स्वैलो की यह प्रजाति सारे भारत में पाई जाती है। हिमालय में यह लगभग तीन हजार मीटर तक की ऊंचाई तक देखे जा सकते हैं भारत में यह एक स्थानीय पक्षी है, लेकिन सर्दियों में ये पक्षी स्थानीय प्रवास भी करते हैं। इस पक्षी के शरीर का ऊपरी हिस्से का रंग चमकीला नीला, शरीर का नीचे का हिस्सा दूधिया सफेद व सिर का ऊपरी हिस्सा गहरा बादामी रंग का होता है। इसकी आंख की पुतली गहरी भूरी, चोंच व पंजे काले रंग के होते हैं। इसके पंख लंबे व पीछे की तरफ बढ़े हुए दिखते हैं। 
इसकी पूंछ के दो पंख लंबे व पीछे की तरफ बढ़े हुए तार की तरह लंबे हो जाते हैं, जिसके कारण ही इसका नाम वायर टेल्ड पड़ा है। नर व मादा लगभग एक जैसे दिखते हैं। मादा की पूंछ के तारनुमा पंखों की लंबाई नर पक्षी से कम होती है। ये पक्षी जोड़े या एक छोटे समूह में रहते हैं। ये पक्षी मुख्यत: खुले क्षेत्रों, खेलों, नहरों व झीलों के आस-पास रहना पसंद करते है। सुबह व शाम के समय ये एक समूह में पानी के आसपास तारों पर बैठे दिखाई देते हैं। 

ये तेज उड़ान भरते हैं और हवा में उड़ने के दौरान ही कीट-पतंगों को खाते रहते हैं। ये तार से बार-बार उड़ान भरते हैं और उड़ते हुए कीट पतंगों को खाकर वापस आकर बैठ जाते हैं। जब ये पानी के ऊपर उड़ते हैं तो इनकी उड़ान काफी नीची होती है। इसका मुख्य कारण पानी की सतह पर उड़ते कीट होते हैं। ये उड़ान के दौरान ही पानी भी पी लेते है। इन पक्षियों के प्रजनन का समय मार्च से सितंबर तक होता है। ये पक्षी एक ही साथी के साथ जोड़ा बनाते हैं। नर व मादा मिलकर अपना घोंसला गीली चिकनी मिट्टी से बनाते हैं। घोंसला एक कपनुमा आकार का होता है। दोनों मिलकर झील व नहरों आदि के किनारों से चिकनी मिट्टी अपनी चोंच में उठा कर लाते हैं। इनके घोंसले आमतौर पर दीवारों या पुल आदि के नीचे बने होते हैं। घोंसले की सुरक्षा को देखते हुए आमतौर पर सीधी खड़ी दीवारों पर छत के पास बनाते है। मादा तीन से चार अंडे देती है। एक ही घोंसले की जगह को बार-बार प्रयोग कर में लेते हैं। नर व मादा मिलकर चूजों को पालते है। प्रजनन के दौरान नर पक्षी मधुर आवाज निकालते हैं। 
तस्वीरें / सत्यप्रकाश पांडेय, वाइल्डलाइफ फोटोजर्नलिस्ट [छत्तीसगढ़] 

... और उनकी नुमाईश से बढ़ती हरियाली !

TODAY छत्तीसगढ़  / सत्यप्रकाश पांडेय /  देश के कुछ चुनिंदा राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ भी साल के कुछ महीनों में ज्यादा ही हरा-भरा नज़र आने लगता है। राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों, शहरी सीमा और सरकारी दफ्तरों के इर्द-गिर्द हरियाली का वो आलम हर साल बस देखते ही बनता है। ऐसे में पिछले दिनों राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ''मुख्यमंत्री वृक्षारोपण प्रोत्साहन योजना" का आरम्भ कर कई गुना हरियाली बढ़ने की उम्मीद सूबे के रहने वालों को दे डाली है। साल के इन महीनों में अख़बार, चैनल [स्थानीय] और अन्य प्रचार माध्यम से भी प्रदेश में बढ़ती हरियाली का आसानी से पता लगाया जा सकता है। 

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हर साल की तरह इस बरस भी राज्य का बिलासपुर जिला और शहरी क्षेत्र पौधारोपण करने वालों के पर्यावण प्रेम को देखकर अभिभूत होने की तैयारी कर चुका है। दरअसल शहर और उसके आस-पास के इलाकों के एकायक हरे हो जाने की सही ख़बरें फेसबुक, वाट्सअप यूनिवर्सिटी पर देखि जा सकती हैं। पौधा रोपने की योजना से लेकर पौधा रोप देने तक का सारा अपडेट्स इन जगहों पर मिलेगा। लिपे-पुते चेहरों और चमकते साफ़-सुथरे कपड़ों से घिरी हरियाली अचानक प्रकृति के रक्षकों के बीच खुद को सबल पाती है। 

बिलासपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद अरुण साव पिछले दिनों एक कार्यक्रम में पौधा रोपते हुए  
अब भला इस तस्वीर को ही ले लीजिये, एक पौधा जो सियासी और सामाजिक भीड़ से घिरा हुआ है। तस्वीर में बिलासपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद हैं, कहते हैं इनका मोदी लहर में अरुणोदय हुआ। सांसद के इर्द-गिर्द पौधारोपण में हाथ बटाती भीड़ के चेहरे पर कुछ बनावटी ही सही मगर मुस्कान है, ये मुस्कान कर्तव्य बोध की है। ये मुस्कान प्रकृति के संरक्षण में निभाई गयी सहभागिता की है। ये तस्वीर सोशल साइट्स पर इन दिनों स्थानीय लोगों के बीच चर्चा में है। इस शहर को हरियर बनाने में अपना योगदान दे चुकी एक और तस्वीर, इसमें बिलासपुर शहर के महापौर रामशरण यादव के अलावा कांग्रेस से जुड़े दूसरे नेता भी हैं। कइयों ने पौधे मंगाए हैं, लगाने की तारीख़ तय होते ही मुस्कुराता चेहरा सोशल साइट्स पर संदेशात्मक शब्दों के साथ हाजिर होगा। 

बिलासपुर नगर पालिक निगम के महापौर रामशरण यादव के साथ अन्य कांग्रेसजन 

इस तरह की तस्वीरों का चलन पहले भी था, अब ज्यादा है। पहले कागजों में बढ़ाई जाने वाली हरियाली को पनपने का मौक़ा या ये कहें की प्लेटफॉर्म नहीं मिलता था। अब ढेरों प्लेटफार्म और मंच है। एक पौधा, दर्जनों लोग जीतनी जगह चाहें उतनी जगह हरियाली का संदेश दे सकते हैं।  छत्तीसगढ़ में अब तो  ''मुख्यमंत्री वृक्षारोपण प्रोत्साहन योजना" शुरू हो गई है, सुना है रोपे गए पौधों की संख्या पर ईनाम-विनाम भी मिलेगा। तैयारियां जोरो पर हैं। 

राज्य के राजपुर क्षेत्र में वन अफसरों के बीच संसदीय सचिव चितामणि महराज 

अक्सर आपने देखा होगा सबसे पहला वृक्षारोपण फेसबुक, वाट्सअप या फिर इंस्टाग्राम और ट्वीटर पर होता है। इसके बाद इन सोशल साइटस पर अचानक प्रोफ़ाइल पिक्चर में पौधे पनपते दिखाई पड़ेंगे । यकीन मानिये इन ख़ास दिनों में  फेसबुक, वाट्सअप या फिर इंस्टाग्राम और ट्वीटर पर जितनी हरियाली दिखाई देती है उतनी हरियाली पुरे जहान में नहीं होगी। इन साइट्स को देखकर एक बारगी जंगल में घूमने का एहसास भी होता है। इस बीच कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो वृक्षारोपण महाअभियान में फेसबुक के आलावा कहीं और योगदान नहीं दे पाते उनकी मौजूदगी जंगल में जंगली जानवरों जैसी प्रतीत होती है । अरे ये तो कुछ भी नहीं है, जहाँ पहले व्हाट्सएप्प पर लोग मेसेज भेज कर किसी देवी देवता की सौगंध दिया करते थे वहीं लोग इस ख़ास मौसम में आज एक पेड़ की फोटो भेज कर इसकी-उसकी सौगंध देकर तस्वीर शेयर करने को कह रहे हैं । 

बिलासपुर के कोतवाली थाना में पौधरोपण / ये तस्वीर साल 2020 की है 

अभी पौधारोपण को लेकर सरकारी आयोजन होने बाकी है, विभाग का लक्ष्य होगा। लक्ष्य पूरा भी होगा। कई जगह ऐसे सरकारी और बड़े आयोजनों के लिए पहले पेड़ों को काटा जाएगा फिर वहां पौधा रोपने वालों की भीड़ पौधा रोपने के फायदे गिनाएगी। आयोजन स्थल के आस-पास बचे हुए पौधे रंग-रोगन का शिकार होंगे, आयोजन जितना रंगीन होगा हरियाली उतना ही खुशहाली फैलाएगी। शहर में आज तक ना जाने कितने ही पेड़ NGOs, सरकारी कार्यक्रमों और कुछ पर्यावरण प्रेमियों द्वारा लगाये जा चुके हैं, वो पौधे पेड़ बने या नहीं लगाने वालों को पूछिए, जवाब नहीं मिलेगा। 

                                           

वो ख़तरे में हैं, अंतर्राष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस पर हर्षि ठाकुर की अपील


TODAY छत्तीसगढ़  / गिद्ध एक ऐसा बदसूरत पक्षी है जिसकी खानपान की आदतें पारिस्थितिकी तंत्र या ईको सिस्टम के लिए ज़रूरी हैं। हालांकि इसके लिए उसे श्रेय शायद ही दिया जाता हो। बिलासपुर में स्नातक की शिक्षा ले रही हर्षि ठाकुर पक्षियों के प्रति विशेष लगाव रखती हैं, अंतर्राष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस पर गिद्धों के बचाव और उनके संरक्षण की अपील को उन्होंने अपनी पीठ पर पेंटिंग के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है। हर्षि ठाकुर वैसे तो गिद्धों के विषय में बहुत विस्तार से नहीं जानती लेकिन उन्हें इस बात का ज्ञान है कि 'गिद्ध पर्यावरण स्वच्छता' का सबसे करीबी मित्र है। वे कहती हैं कि गिद्ध पर्यावरण के प्राकृतिक सफाईकर्मी होते हैं। ये मृत और सड़ रहे पशुओं के शवों को भोजन के तौर पर खाते हैं और इस प्रकार मिट्टी में खनिजों की वापसी की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं । इसके अलावा, मृत शवों को समाप्त कर वे संक्रामक बीमारियों को फैलने से भी रोकते हैं। वे ये भी मानती हैं कि गिद्धों की अनुपस्थिति में चूहे और आवारा कुत्तों जैसे पशुओं द्वारा रेबीज जैसी बीमारी के प्रसार को बढ़ाने की संभावना बढ़ जाएगी। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें -


ये तस्वीर आज दिन विशेष के लिए भी ख़ास मायने रखती है, प्रत्येक वर्ष सितंबर महीने का पहला शनिवार अंतर्राष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस के रूप में मनाया जाता है। दक्षिण अफ्रीका में वहां के लुप्तप्राय के पक्षी को बचने के लिए वन्यजीव ट्रस्ट और इंग्लैंड में हॉक कंजर्वेंसी ट्रस्ट द्वारा पक्षियों के संरक्षण के लिए चलाए जा रहे गिद्ध जागरूकता दिवस से विकसित हुआ है, जिन्होंने एक साथ काम करने और एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में पहल का विस्तार करने का निर्णय लिया।
पर्यावरण को साफ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध पिछले कुछ समय से जनसंख्या में गिरावट का सामना कर रहा है। पिछले 15 वर्षों में, देश की गिद्ध आबादी में 99% की गिरावट आई है। वर्तमान में भारत में लगभग 100,000 गिद्ध बचे हैं, जबकि 1980 के दशक में इनकी संख्या 4 अरब के करीब थी। इनकी जनसंख्या में गिरावट के पीछे मानव की मृत्यु और भोजन की अनुपलब्धता प्रमुख कारण है। गिद्ध की कुछ संरक्षित प्रजातियों को भी अब विलुप्त होने का सामना करना पड़ रहा है। ये पक्षी जिन शवों को खाते हैं, उससे उनके शरीर में ज़हर पहुंच रहा है। कुछ लोग मानते हैं कि जानवरों को दी जाने वाली दवाओं के कारण ऐसा हो रहा है, जबकि दूसरे लोग मानते हैं कि नियमों को ताक पर रखकर किए जा रहे शिकार के कारण इनकी संख्या घट रही है।
गिद्ध सबसे ऊंची उड़ान भरने वाला पक्षी है। इसकी सबसे ऊंची उड़ान को रूपेल्स वेंचर ने 1973 में आइवरी कोस्ट में 37,000 फीट की ऊंचाई पर रिकॉर्ड किया था, जब इसने एक हवाई जहाज को प्रभावित किया था। ये ऊंचाई एवरेस्ट (29,029 फीट) से काफ़ी अधिक है और इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी से ज़्यादातर दूसरे पक्षी मर जाते हैं। गिद्ध अलग–अलग प्रजातियों के होते हैं और औसतन भारत में इनके सबसे देशी प्रतिनिधियों का वजन 3.5 - 7.5 किलोग्राम के बीच होता है, लंबाई 75 – 93 सेमी और पंखों का फैलाव 6.3 - 8.5 फीट को होता है। भारत में पाए जाने वाले गिद्ध 7,000 फीट की ऊंचाई पर उड़ सकते हैं और एक बार में 100 किलोमीटर से भी अधिक की दूरी बहुत आसानी से तय कर सकते हैं। भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से चार विलुप्तप्राय की सूची में शामिल हैं।


थॉमसेट बताते हैं, "इसके बाद गिद्ध को लेकर हुए अध्ययनों से उनके हीमोग्लोबिन और ह्दय की संरचना से संबंधित कई ऐसी विशेषताओं के बारे में पता चला, जिनके चलते वो असाधारण वातावरण में भी सांस ले सकते हैं." गिद्ध भोजन की तलाश में एक बड़े इलाक़े पर नज़र डालने के लिए अक्सर ऊंची उड़ान भरते हैं।
छत्तीसगढ़ में भी गिद्ध संरक्षण की दिशा में काम होने की सरकारी ख़बरें आती रहीं हैं लेकिन जमीनी हकीकत और ठोस तथ्यात्मक आंकड़े अब तक सामने नहीं आ सके हैं। राज्य के मुंगेली जिले में ग्राम औरापानी में गिद्धों की मौजूदगी के बाद वन विभाग ने उनके संरक्षण की दिशा में काम शुरू किया जो सरकारी आलमारियों में कहीं दम तोड़ चुका होगा। खैर, गिद्ध के बारे में हम चाहें जैसी भी राय रखते हों, लेकिन उनके बारे में एक बात तो साफ़ है कि वो ख़तरे में हैं।

सिर्फ दिलचस्प बातें नहीं हैं, काफी कुछ सीखने को है 'चींटियों' में

TODAY छत्तीसगढ़  / एकजुटता, कड़ी मेहनत और ईमानदारी के साथ सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वाहन को दर्शाती इस तस्वीर को देखकर काफी कुछ सीखा जा सकता है । तस्वीर कहती है कुदरत का भी दिल है, या यूँ कह लीजिये इन चीटियों के भीतर भी एक खूबसूरत दिल है। आकार लेता आशियाँ दिल की शक्ल अख्तियार कर चुका है, काम जारी है। मिट्टी के ढेले और कंकड़ उठाकर यहां-वहां ले जाती चीटियों को वक्त निकालकर देखियेगा। गैर जिम्मेदार और निकम्मे इंसानों को इन चीटियों से कुछ सीखना होगा। इस भीड़ में सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारी का अहसास है, कौन सा कंकड़ किस जगह ज़माना है इन कुशल कारीगरों को पता है।


एक जानकारी के मुताबिक चीटियों के बारे में कुछ दिलचस्प बातें हैं जो बताती हैं कि दुनिया भर में चींटियों की 10,000 से ज्यादा प्रजातियां मौजूद हैं. आकार में ये 2 से 7 मिलीमीटर के बीच होती हैं. सबसे बड़ी चींटी कार्पेंटर चींटी कहलाती है. उसका शरीर करीब 2 सेंटीमीटर बड़ा होता है. एक चींटी अपने वजन से 20 गुना ज्यादा भार ढो सकती है. कीटों में चींटी का दिमाग सबसे तेज माना जाता है. इसमें करीब 250,000 मस्तिष्क कोशिकाएं होती हैं. TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें 



रानी चींटी सबसे बड़ी होती है. इसका अहम काम अंडे देना है, यह हजारों अंडे देती है. नर चींटे का शरीर छोटा होता है. यह रानी चींटी को गर्भवती करने के कुछ दिन बाद मर जाता है. अन्य चींटियों का काम खाना लाना, बच्चों की देखरेख करना, और कालोनीनुमा घर बनाना है. साथ ही रक्षक चींटियों का काम घर की हिफाजत करना होता है. असल में चींटियां सुन नहीं सकतीं क्योंकि उनके कान नहीं होते. हालांकि ये जीव ध्वनि को कंपन से महसूस कर सकते हैं. आसपास की आवाज को सुनने के लिए ये घुटने और पांव में लगे खास सेंसर पर निर्भर करते हैं. चींटियों के दो पेट होते हैं. एक में खुद के शरीर के लिए खाना होता है और दूसरे में कालोनी में रहने वाली दूसरी चींटियों के लिए खाना होता है.

यौवन पर इठलाती प्रकृति, करीब जाने से पहले ज़रा वीडियो को देख लीजियेगा ....


TODAY छत्तीसगढ़  /  अपने यौवन पर इठलाती प्रकृति का श्रींगार बस देखते ही बनता है। कुदरत का यह अनुपम सौंदर्य इन दिनों बिलासपुर जिले के कोटा से बेलगहना मार्ग पर स्थित ग्राम औरापानी में देखा जा सकता है।
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[औरापानी जाने से पहले ज़रा इस वीडियो को ध्यान से देख लीजियेगा, जहां रास्ता नहीं हम वहां भी कुछ इस तरह से पहुंचें और कुदरत के हसीं नज़ारों को कैमरे में समेटकर लौट आये। परेशानियों की राह में उछलते कीचड़ ने हमारे सफर को रोमांच से भर दिया ....]
                                         
बिलासपुर जिला मुख्यालय से औरापानी की दुरी करीब-करीब 50 किलोमीटर है। बिलासपुर से रतनपुर-बेलगहना होकर या फिर बिलासपुर से कोटा होकर भी इस जगह पर पहुंचा जा सकता है। कोटा से बेलगहना या फिर दूसरे मार्ग से सेमरिया तक पहुँचने के बाद एक रास्ता जंगल के भीतर के लिए जाता है जो सीधे औरापानी तक ले जाता है। बारिश के मौसम में करीब 3 किलोमीटर का कच्चा रास्ता काफी तकलीफदायक होता है। 

पर्यटकों को अपनी ओर खींचता 'खूंटाघाट' , देखिये तस्वीरें -


TODAY छत्तीसगढ़  /  बिलासपुर जिले में इस साल अच्छी बारिश होने से रतनपुर स्थित खूंटाघाट जलाशय का वेस्टवियर एक बार फिर से छलकने लगा है। कुदरत के अनुपम सौंदर्य को देखने के लिए रोज सैकड़ों पर्यटक खूंटाघाट पहुँच रहें हैं जबकि वर्तमान समय में इंसान कोरोना वायरस के खतरे से लड़ रहा है और बिलासपुर जिले के अधिकाँश हिस्सों में सम्पूर्ण लॉकडाउन चल रहा है। लॉकडाउन के चलते खूंटाघाट के प्राकृतिक सौंदर्य को देखने वाले पर्यटकों की संख्या पिछले सालों की तुलना में भले ही कम नज़र आती हो मगर पर्यटक पहुँचकर प्राकृतिक आभा का खुलकर दीदार कर रहें हैं ।
जलाशय के भीतर एक हिस्से में महाकाल [शंकर] का प्राचीन मंदिर है जो बाँध में पानी भरने से गुंबद तक डूब जाता है। इस साल भी मंदिर पूरा डूबा हुआ है।
खूटाघाट जलाशय बिलासपुर जिला मुख्यालय से करीब 42 किलोमीटर दूर है वहीँ रतनपुर से जलाशय की दुरी करीब 10 किमी है।  चारो तरफ ऊंची-नीची पहाड़ियों के बीच स्थित यह एक सुंदर बांध और जलाशय है। बिलासपुर-अंबिकापुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित होने के नाते पर्यटक यहां आसानी से पहुँच सकते हैं। बताया जाता है कि यह मूल रूप से एक झील थी, जिसका निर्माण अंग्रेजों द्वारा कराया गया था। जानकारी मुताबिक खारुन नदी पर बने इस बाँध का निर्माण वर्ष 1920-1930 के मध्य कराया गया था जो बिलासपुर जिले अलावा आस-पास के किसानों के लिए बेहद उपयोगी है।   TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें -
जलाशय का नाम खूंटाघाट पड़ने के पीछे भी एक कहानी जुडी हुई है। बताते हैं जब बांध का निर्माण कराया गया तो डुबान के जंगल को काटा नहीं गया । समय के साथ पेड़ों का अस्तित्व खत्म हो गया लेकिन पानी की निचली सतह में उसके ठूंठ बच गए  जिसे आम बोलचाल में खूंटा कहा जाता है।

हाशिए पर खड़ा घुमंतू समाज इस त्रासदी के बाद और कितना पिछड़ जाएगा ?



TODAY छत्तीसगढ़  /  ये एक ऐसे समाज की तस्वीर है जो निरंन्तर घूमते रहते हैं, एक शहर से दूसरे शहर । इस गांव से उस गांव। इनकी एक रंग-बिरंगी संस्कृति और जीवन शैली है लेकिन इस दौर में इस समुदाय के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। पहले से ही हाशिए पर खड़ा घुमंतू समाज इस त्रासदी के बाद और कितना पिछड़ जाएगा, सवाल बना हुआ है । 


गुजराज के कच्छ से आये रैबारी समाज के महेंद्र , परिवार के 19 सदस्यों के साथ इन दिनों रतनपुर-बेलगहना मार्ग पर एक खेत में शरण लिए हुए हैं। एक दिन पहले ही नवागांव [बेमेतरा] से यहाँ पहुंचें हैं । लॉकडाउन के चलते इन्हें करीब दो महीने तक नवागाँव के बाहर एक खेत में ही शरण लेनी पड़ी। संक्रमणकाल में मिली कुछ रियायतों के बाद सफ़र फिर से शुरू हुआ है। 65 वर्षीय महेंद्र बताते हैं कि ऊँट, भेड़-बकरियों को लेकर पिछले तीन दशक से छत्तीसगढ़ के विभिन्न इलाकों में आ रहे हैं। कुछ बच्चों ने तो इसी राज्य में जन्म भी लिया है । महेंद्र कहते हैं कि ये साल अच्छा नहीं रहा। कोरोना महामारी ने भूखों मरने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है, खुद के खाने का जैसे-तैसे इंतजाम कर भी लें तो रेवड़ यानी अपने मवेशियों को कहाँ से खिलाएं ?
लॉकडाउन के चलते अपने घरों को लौटने को मज़बूर प्रवासी मज़दूरों की सड़कों पर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा पूरे देश ने देखी लेकिन ऐसे ही कई परिवार हैं जो घूमंतु समदाय से जुड़े हैं वो भी कई अलग-अलग राज्यों में फंस गए हैं और अब वे अपने इलाके में वापसी करना चाहते हैं। बेलगहना-केंदा के रास्ते मध्यप्रदेश के अनूपपुर की ओर निकला ये काफ़िला गाँव की बाहरी सीमा से गुजरता है, गाँव में कई स्थानों पर पुलिस और ग्रामीणों की प्रताड़ना का शिकार ऐसे कइयों परिवार संकट के सबसे बुरे दिनों को काट रहे हैं। इन लोगों के पास कोई सरकारी सहायता भी नहीं पहुंच रही और नाही स्थानिय लोग इन्हें अपना मानकर मदद कर रहे हैं। मवेशियों के साथ-साथ खुद भूख से लड़ रहे इन परिवारों का आरोप है की मदद तो दूर कई जगहों पर पुलिस और वन विभाग के कुछ लोग डरा-धमकाकर खाने के लिए बकरियाँ ले लेते हैं, कुछ जगह पर केवल रुपयों की मांग होती है। क्या करें, कैसे करें समझ नहीं आता। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें
ऊंट पालक महेंद्र के बेटे जगदीश जिनकी उम्र फिलहाल 24 बरस है उन्होंने छत्तीसगढ़ में ही जन्म लिया, वे बताते हैं की गर्मियों मे वहां [कच्छ, गुजरात] का इलाका पूरी तरह सूख जाता है इसलिए हम लोग अपने मवेशियों को लेकर हरियाणा, पंजाब, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कुछ आस-पास के राज्यों की ओर निकल जाते हैं। वहां हमें चारा और गुजारे के लिए कुछ काम भी मिल जाता है। जब वहां अगस्त के आखिर या सितंबर की शुरुआत में मौसम थोड़ा ठीक-ठाक हो जाता है, बारिश होने लगती है, तो हम वहां अपने मवेशियों के साथ अपने टोलों में वापस लौट जाते हैं।
आपको बता दें कि राजस्थान और गुजरात में पशुपालन का व्यवसाय रायका-रैबारी, बागरी ओर बावरिया समाज से जुड़े हुए लोग करते हैं। ये समाज सालों से यही काम कर रहा हैं। भारत में ऊंट पालने का काम ये सभी जातियां करती हैं किन्तु इनकी ब्रीडिंग रायका- रैबारी लोग ही करवाते हैं। ये ब्रीडिंग राजस्थान के मारवाड़ के साथ-साथ गुजरात के कच्छ में भी होती है। कहते हैं ऊंट रेगिस्तान का जहाज है तो बकरी गरीब की गाय है। भेंड़-बकरी को थोड़ा सा चराकर कभी भी दूध निकाला जा सकता है। मरुभूमि में गरीब व्यक्ति के पोषण का आधार भेंड़-बकरी ही है जो उसके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी है।
एक जानकारी के मुताबिक़ रेनके कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में 98% घुमंतू बिना जमीन के रहते हैं। इनमें 57% झोंपड़ियों में और 72% लोगों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज तक नहीं हैं। 94% घुमंतू बीपीएल श्रेणी में नहीं हैं। ऐसे में इन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ मिलना असंभव है। ऐसे में इस समुदाय के लिए सरकार को अलग से योजनाएं लानी होंगी नहीं तो इन लोगों पर काफी प्रतिकूल असर होगा।

300 साल पुराना बूढ़ा बरगद, हजारों शाखाएँ कई कहानियाँ समेटे हैं

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से कोटा मार्ग पर नेवरा-भरनी के बीच स्थित फ़ार्म हाउस में है ये बूढ़ा बरगद, गुजरे जमाने की कई कहानियाँ अपने भीतर समेटे है।

TODAY छत्तीसगढ़  /   छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से कोटा रोड पर एक निजी स्वामित्व वाली भूमि में सैकड़ों वर्ष पुराना एक विशाल बरगद का पेड़ है। पेड़ की हजारों शाखाओं को देखकर उसके उम्रदराज होने का पता चलता है। एक अनुमान के मुताबिक़ इस विशाल बरगद के पेड़ की उम्र करीब-करीब 300 साल होगी। अगर इस पेड़ को देश के सबसे बड़े और पुराने बरगद के पेड़ों में से एक माना जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालांकि इस बूढ़े बरगद को हेरिटेज ट्री का दर्जा प्राप्त नहीं है और ना ही इसे संरक्षित करने के लिए किसी सरकारी उपाय की जरूरत। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें
यह विशालकाय पेड़ देखकर ऐसा लगता है मानो पूरा जंगल हो। बूढ़े बरगद की सैकड़ों शाखाओं से कई दूसरी जटाएं अब जड़ का रूप ले चुकी हैं। इस कारण ये पेड़ आज भी बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक़ इस पेड़ की सैकड़ा से भी ज्यादा बरह यानी प्रॉप जड़ें (जमीन में घुसकर तने का रूप ले चुकी पेड़ की शाखाओं से निकली जड़ें, जिन्हें आमतौर पर जटाएं कहते हैं) हैं। दरअसल, बरगद के पेड़ की शाखाओं से जटाएं पानी की तलाश में नीचे जमीन की ओर बढ़ती हैं। वे बाद में जड़ के रूप में पेड़ को पानी और सहारा देने लगती है।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से कोटा मार्ग पर नेवरा-भरनी के बीच स्थित फ़ार्म हाउस की देख रेख करने वाले जगदीश यादव का कहना है कि उसके दादा जी ने भी इस वट वृक्ष की कहानियां अपने पुरखों से सुनी थी । जगदीश के मुताबिक वो चौथी पीढ़ी है। उनके एक अनुमान के मुताबिक यह बरगद 300 साल पुराना होगा। 

'पृथ्वी दिवस या अर्थ डे' सिर्फ एक दिन क्यों ?

[TODAY छत्तीसगढ़] / "महात्मा गाँधी ने कहा था कि प्रकृति में इतनी ताकत होती है कि वह हर मनुष्य की 'जरुरत' को पूरा कर सकती है लेकिन पृथ्वी कभी भी मनुष्य के 'लालच' को पूरा नही कर सकती है।"
विश्व पृथ्वी दिवस है, गांधी की वो बात याद आई लेकिन उनके कथन को यथार्थ पर देखें तो चारो तरफ सिर्फ और सिर्फ 'लालच' दिखाई देता है। पृथ्वी दिवस की स्थापना अमेरिकी सीनेटर गेलोर्ड नेल्सन ने पर्यावरण शिक्षा के रूप की थी। वर्ष 1970 से प्रारम्भ हुए इस दिवस को आज पूरी दुनिया के 195 से अधिक देश मनाते हैं। वर्तमान में पृथ्वी दिवस की गतिविधियों में पूरी दुनिया में लगभग 1 अरब से अधिक लोग हर साल भाग लेते हैं। पृथ्वी दिवस एक वार्षिक आयोजन है, जिसे 22 अप्रैल को दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के समर्थन में आयोजित किया जाता है। इस तारीख के समय उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद का मौसम रहता है। 22 अप्रैल 1970 को आयोजित पहले पृथ्वी दिवस में 20 मिलियन अमेरिकी लोगों ने भाग लिया था जिसमे हर समाज, वर्ग और क्षेत्र के लोगों ने भाग लिया था। इस प्रकार यह आन्दोलन आधुनिक समय के सबसे बड़े पर्यावरण आन्दोलन में बदल गया था। 
"पृथ्वी दिवस या अर्थ डे" शब्द को जुलियन कोनिग 1969 ने दिया था। इस नए आन्दोलन को मनाने के लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया, इसी दिन केनिग का जन्मदिन भी होता है। उन्होंने कहा कि "अर्थ डे" "बर्थ डे" के साथ ताल मिलाता है, इसलिए उन्होंने 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाने का सुझाव दिया था। पृथ्वी बहुत व्यापक शब्द है जिसमें जल, हरियाली, वन्यप्राणी, प्रदूषण और इससे जु़ड़े अन्य कारक भी हैं। धरती को बचाने का आशय है इसकी रक्षा के लिए पहल करना, न तो इसे लेकर कभी सामाजिक जागरूकता दिखाई गई और न राजनीतिक स्तर पर कभी कोई ठोस पहल की गई। धरती को बचाने का आशय है इन सभी की रक्षा के लिए ठोस पहल करना लेकिन इसके लिए किसी एक दिन को ही माध्यम बनाया जाए, शायद यह उचित नहीं है ? हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके बचाव के लिए कुछ न कुछ उपाय करते रहना होगा ।
पॉलीथीन पृथ्वी के लिए सबसे घातक है, फिर भी हम इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। पृथ्वी दिवस 2018 की थीम भी इसी “प्लास्टिक को ख़त्म करने” पर आधारित थी जबकि इस वर्ष 2019 के पृथ्वी दिवस की थीम "Protect Our Species" है। इस ख़ास दिन पर हमको एक बार फिर चिंतन करने की जरूरत है। तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी पेड़ को काटना और नदियों, तालाबों को गंदा करना इंसान के दैनिक जीवन का हिस्सा बना हुआ है जिस पर प्रभावी लगाम की जरूरत है। अगर गंभीरता से विचार करें तो हमें विश्व का मानव संसाधन पर्यावरण जैसे मुद्दों के प्रति कम जागरूक दिखाई देगा। पृथ्वी के प्रति मानव की शोषण धारित प्रवृत्ति धरती को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इसके पीछे वन और पर्यावरण सुरक्षा कानूनों का शिथिल होना भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है।
वैसे व्यंग्य करने वाले लोग वायु प्रदुषण को "समृद्धि की गंध" कहते हैं। अगर हर देश में वनों का इसी तरह से अंधाधुंध विनाश होता रहा अर्थात जंगलों को उजाड़कर कंक्रीट के जंगल बनते रहे, उद्योग लगते रहे और विश्व के नेता और उद्योगपति अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों को मौजमस्ती का अड्डा समझते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब यह प्रथ्वी फिर से आग का गोला बन जाएगी और सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

ATR में ईंट भठ्ठे, वन अफसरों पर संदेह और सवाल

              [TODAY छत्तीसगढ़] /  अचानकमार टाईगर रिजर्व, कभी बिलासपुर जिले का हिस्सा था अब मुंगेली जिले की पहचान है। छत्तीसगढ़ राज्य का यह टाईगर रिजर्व अक्सर चर्चा और सुर्ख़ियों में रहा है। कभी बाघों की संख्या तो कभी रसूखदारों की करतूत, कभी लकड़ी की अवैध कटाई तो कभी अधिकारीयों के जंगल राज के कइयों फ़साने एटीआर को सुर्खियां दिलाते रहें हैं। इन सबके बीच एटीआर आज बर्बादी की कगार पर खड़ा है। वन्य जीवों की जगह पालतू मवेशियों का चारागाह बना एटीआर ना जाने कितने ही तरह के अवैध कार्यों की कारगुजारियों का गवाह है। एटीआर के जिम्मेदार अधिकारियों की बेरुखी कहें या उनकी मिलीभगत, हकीकत दोनों में से एक तो है तभी तो खुले आम टाइगर रिजर्व के भीतर कोर क्षेत्र में इन दिनों ईंट भठ्ठे संचालित हो रहें हैं। रिजर्व फारेस्ट के बीच ईंट बनाने का काम बिंदावल, छपरवा, अचानकमार के अलावा लमनी तक के जंगल में जगह-जगह देखा जा सकता है। आलम और बेखौफियत देखिये की कई जगहों पर सड़क किनारे ही धड़ल्ले से ईंटें बनाई जा रहीं हैं और कर्तव्य पथ पर ईमानदारी और निष्ठा की शपथ लेने वाले नज़र घुमाये उन रास्तों से गुजर जाते हैं। 
ये तस्वीरें अचानकमार टाईगर रिजर्व प्रबंधन के जिम्मेदार अफसरों की कर्तव्यनिष्ठा पर संदेह और सवाल खड़े करने के लिए काफी है। रिजर्व फारेस्ट के कोर क्षेत्र में इन दिनों धड़ल्ले से ईंट बनाने का काम चल रहा है। एटीआर के ग्राम बिंदावल में सड़क किनारे खुलेआम ग्रामीण ईंटें बना रहें हैं। बात सिर्फ एक गाँव की होती तो भी गनीमत समझिये, टाइगर रिजर्व में सड़क किनारे के अधिकाँश गाँवों में नियम-कायदों को मिटटी में सानकर ईंट का आकार दिया जा रहा है। जानकारों से इस संबंध में जब बात की गई तो उन्होंने एनटीसीए के दिशा-निर्देशों का हवाला देते हुए बताया की किसी भी टाइगर रिजर्व में इस तरह के काम, निर्माण और अन्य गतिविधियों को गैर कानूनी माना गया है।
 ऐसा नहीं है की अचानकमार टाईगर रिजर्व में पहली बार किसी तरह का गैर कानूनी काम हो रहा है, सालों बीत गए। जंगल के मूल निवासी धीरे-धीरे जंगल से बेदखल कर दिए गए, कुछ बाहरी लोग सालों पहले एटीआर में आये फिर धीरे-धीरे परिवार बढ़ता गया। दैहान वालों की बढ़ी आबादी और पालतू मवेशियों का चारागाह बना एटीआर कुछ वन अफसरों, कर्मचारियों के मुंह पर दूध, मलाई और घी मलता रहा। आलम अब ये है की एटीआर में खुलेआम जंगलराज देखा जा सकता है। रेंज के कई अफसर मुख्यालय में रहते नहीं, चंद वन कर्मियों के भरोसे अचानकमार टाइगर रिजर्व के जंगल में बाघों की गुर्राहट के किस्से शहरों में सुनाये जा रहें हैं। एटीआर में कइयों बार रेत उत्खनन, मुरुम, मिटटी खनन के दृश्य भी सामने आये हैं जिसकी शिकायत करने पर अधिकारी अक्सर पता लगाने की बात कहकर मामले को दबाते रहें हैं। लकड़ी की अवैध कटाई के सबूत की शायद किसी को दरकार नहीं होनी चाहिए क्यूंकि कुछ साल पहले का एटीआर अब बदला-बदला सा दिखाई पड़ता है। शिकार के मामले अब सामने आ रहें हैं जबकि एटीआर को कुछ अफसरों और रसूखदारों के साथ-साथ सियासतदारों के लिए शिकारगाह के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है।
अचानकमार टाइगर रिजर्व में चल रहे ईंट भठ्ठे और अन्य गैर जरूरी मामलों के संबंध में एटीआर के फील्ड डायरेक्टर से बात करनी चाही लेकिन उनसे सम्पर्क नहीं हो सका, चूँकि रिजर्व जंगल खासकर एटीआर में खुलेआम ईंट भठ्ठे के संचालन की तस्वीरें थीं लिहाजा TODAY छत्तीसगढ़  ने एआईजी सेन्ट्रल जोन NTCA हेमंत कामड़ी से बातचीत की और उन्हें पुरे मामले की जानकारी दी गई। उन्होंने इस संबंध में आवश्यक कारवाही हेतु संबंधित अधिकारी से बातचीत करने की बात कही है। 
ATR का रास्ता हाईकोर्ट के निर्देश पर फिर खुला  - 
भारत सरकार, केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय एवं राष्ट्रीय बाघ संरक्षण अधिकरण द्वारा वन्य जीव संरक्षण एक्ट 1972 के तहत 24 सितंबर 2015 को अचानकमार टाइगर रिजर्व फारेस्ट के अंदर के मार्ग का यातायात के लिए बंद करने का निर्देश जारी किया था। कलेक्टर सह जिला मजिस्ट्रेट बिलासपुर ने अधिसूचना जारी कर कोटा-अचानकमार-केंवची राजमार्ग 19 जनवरी 2017 को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए पूर्णतः बंद कर दिया। इसके अलावा रिजर्व फारेस्ट के अंदर बसे गांव में रहने वालों को भी पास बनाने के बाद ही आने-जाने का आदेश दिया। मार्ग को बंद करने के खिलाफ पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष धर्मजीत सिंह, सज्जाद खान, अविश कुमार यादव सहित अन्य ने अधिवक्ता सतीशचंद्र वर्मा के माध्यम से हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। याचिका में कहा गया कि कोटा-अचानकमार-केंवची मार्ग को बंद करना नागरिकों को संविधान धारा 19 (1) बी के तहत मिले मूलभूत अधिकार का उल्लंघन है। एटीआर के अंदर 24 गांव में रहने वालों को उनके मूलभूत अधिकार से वंचित किया जा रहा है। याचिका पर शासन की ओर से जवाब पेश कर कहा गया कि केंद्र सरकार, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण अधिकरण ने अचानकमार को नेशनल टाइगर रिजर्व फारेस्ट घोषित किया है। इस मार्ग से प्रतिदिन एक हजार से अधिक गाड़ियां गुजरती थीं। इसके कारण वन्य जीवों का प्राकृतिक रहवास प्रभावित हो रहा है। तेज रफ्तार वाहनों की चपेट में आने से प्रतिवर्ष कई वन्य जीवों की मौत होती है। वन्य जीवों को संरक्षण देने इस मार्ग को बंद किया गया है। याचिका में जस्टिस संजय के. अग्रवाल के कोर्ट में सुनवाई हुई। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि कलेक्टर सह जिला मजिस्ट्रेट को मोटर यान अधिनियम 1988 की धारा 115 के अंतर्गत कोटा-अचानकमार-केंवची राजमार्ग 8 को बंद करने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने प्रशासन को इस मार्ग को यातायात के लिए खोलने का आदेश दिया। अब यह मार्ग आमजन के आने-जाने के लिए उपयोग किया जा रहा है। कोटा-अचानकमार-केंवची राजमार्ग 8 को यातायात के लिए खोलने का आदेश 7 मार्च 2018 को दिया गया।
सिंघवी ने NTCA को लिखा पत्र  - 
छत्तीसगढ़ के वन्यजीव जानकार और प्रर्यावरण संरक्षण की दिशा में महती भूमिका निभाने वाले रायपुर निवासी नितिन सिंघवी ने एटीआर का रास्ता पुनः खोले जाने के बाद एनटीसीए के सदस्य सचिव को एक पत्र लिखकर मांग की है की शिवतराई से केंवची [एटीआर] होकर गुजरने वाली सड़क पीडब्लूडी की है जिसके निर्माण, मरम्मत, संधारण या फिर नवीनीकरण के लिए आदेश न करें। पत्र में उन्होंने WL [P] एक्ट 1972 के प्रावधानों का भी उल्लेख किया है। सिंघवी ने NTCA के सदस्य सचिव को यह पत्र कोटा-अचानकमार-केंवची राजमार्ग 8 को यातायात के लिए खोलने का आदेश 7 मार्च 2018 को हाईकोर्ट द्वारा देने के बाद 16 जुलाई 2018 को लिखा गया ।   
कोर एरिया में 19 और बफर एरिया में 5 गांव - 
अचानकमार टाइगर रिजर्व फारेस्ट का कुल क्षेत्रफल 914.017 वर्ग किलो मीटर है। इसमें 626.195 वर्ग किलो मीटर एरिया कोर जोन एवं 287.822 वर्ग किलो मीटर एरिया बफर जोन है। इसमें कोर एरिया में 19 गांव व बफर एरिया में 5 गांव बसे हैं।

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