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खूबसूरत और ख़ास परिंदे इस साल समय से पहले वतन लौट गए


TODAY
 छत्तीसगढ़  /  बिलासपुर।  छत्तीसगढ़ में इस साल फरवरी के अंत में ही मौसम एकाएक गर्म हो जाने से ठंडे देशों से आने वाले प्रवासी परिंदे समय से पहले ही अपने वतन लौटने लगे है  । अमूमन इन परिंदों की वापसी मार्च के पहले सप्ताह में शुरू होती है लेकिन इस बार आधी फरवरी से प्रवासी पक्षियों का लौटना शुरू हो गया था। प्रवासी पक्षियों के चले जाने से बिलासपुर जिले का कोपरा जलाशय और घोंघा जलाशय [कोटा] अब सूना-सूना सा दिखाई दे रहा है। हालाँकि इस माह के मध्य तक इक्का-दुक्का प्रवासी परिंदों के दिखाई पड़ जाने की उम्मीद जताई जा रही है। आपको बता दें कि सर्दी शुरू होते ही छत्तीसगढ़ के कुछ जिले प्रवासी परिंदों की मेज़बानी के लिए आतुर नज़र आते हैं। बिलासपुर और दूसरे अन्य ज़िलों के अधिकाँश जलाशय रंग बिरंगे प्रवासी परिंदों से गुलजार हो जाते हैं। दूर देशों से हजारों किलोमीटर की लंबी उड़ान भर कर हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी यहां हर साल आते हैं। इन पक्षियों में बार हेडेड गूज सबसे खूबसूरत और ख़ास है। इन पक्षियों के आने का सिलसिला नवंबर के मध्य से शुरू होता है। करीब तीन महीने तक यहां प्रवास करने के बाद मार्च में ये परिंदे अपने वतन लौट जाते हैं। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें -


- सबसे खूबसूरत और ख़ास 

धरती से करीब 29 हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ सकने की क्षमता रखने वाले बार हेडेड गूज [Bar-headed goose] की वापसी का समय है। यह एक प्रवासी पक्षी है जो सर्दियों के मौसम में भारत के लगभग सभी हिस्सों में देखा जा सकता है। भारत में अपने प्रवास के दौरान दलदली क्षेत्रों में, खेती के आस-पास वाली जगहों, पानी व घास के नजदीक, झीलों, जोहड़ों व पानी के टैंकों में देखे जा सकते है। ये एक समूह में रहते है। यह रिकार्ड 29 हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ान भर कर तिब्बत, कजाकिस्तान, रूस, मंगोलिया से छत्तीसगढ़ के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचे बार हेडेड गूज अब वापसी की उड़ान भर रहें हैं। ये पक्षी एक दिन में 1600 किमी की उड़ान भरने की क्षमता रखते हैं। बार हेडेड गूज के सिर और गर्दन पर काले निशान के साथ इनका रंग पीला ग्रे होता है। सिर पर दो काली सलाखों के आधार पर सफेद पंख होते हैं। इनके पैर मजबूत और नारंगी रंग के होते हैं। इनकी लंबाई 68 से 78 सेमी, पंखों का फैलाव 140 से 160 सेमी, वजन दो से तीन किलोग्राम  होता है। मई के अंत में प्रजनन शुरू होता है। ये अपना घोंसला खेत के टीले या पेड़ पर बनाते हैं। एक बार में तीन से आठ अंडे देते हैं। 27 से 30 दिनों में अंडे से बच्चे बाहर निकलते हैं। दो महीने के बच्चे उड़ान भरने लगते हैं।  


-कैमरे में भी कैद हुए परिंदे 

छत्तीसगढ़ राज्य के मशहूर वाइल्डलाइफ फोटोजर्नलिस्ट सत्यप्रकाश पांडेय ने इस साल प्रवास पर आये विभिन्न प्रजाति के पक्षियों ख़ासकर कॉमन क्रेन और बार हेडेड गूज की सैकड़ों तस्वीरें कैमरे की नज़र से भी देखी। सत्यप्रकाश पांडेय ने रायपुर, दुर्ग के अलावा बिलासपुर संभाग के विभिन्न जलाशयों का रुख किया जहाँ स्थानीय और प्रवासी पक्षियों की कइयों प्रजाति की तस्वीरें खींची हैं। राज्य के वाइल्डलाइफ़ फोटोग्राफर सत्यप्रकाश पांडेय ने बिलासपुर जिले के कोटा स्थित घोंघा जलाशय में 10 मार्च को बार हेडेड गूज का सबसे बड़ा झुण्ड न सिर्फ देखा बल्कि उन्हें वीडियो और तस्वीरों में भी समेटा। 






सत्यप्रकाश ने बार हेडेड गूज का सबसे बड़ा झुण्ड घोंघा जलाशय में देखा जिसमें संख्या 300 से अधिक बताई गई है। उन्होंने बताया कि बार हेडेड गूज के वतन वापसी की इस साल बिलासपुर जिले में सबसे पहली तस्वीर भी उन्होंने 6 मार्च को कोपरा जलाशय में खींची थी। कोपरा और घोंघा जलाशय में इस पुरे सीजन में अब तक उन्होंने अलग-अलग झुंडों के आंकड़े मिलाकर करीब 900 से अधिक राजहंस देखे हैं। 

अगर 'गिद्ध' खत्म हुए तो खतरे में पड़ जाएगी ज़िंदगी ...

[TODAY छत्तीसगढ़ ]  कथा-कहानियों में मृत्यु के प्रतीक माने जाने वाले गिद्ध आज खुद मौत के मुंह में खड़े हैं, उन्हें संरक्षण की दरकार है । ख़ुशी इस बात की है कि Egyptian vulture छत्तीसगढ़ राज्य के विभिन्न हिस्सों में अब दिखाई देते है लेकिन संख्या नहीं के बराबर है। पिछले तीन-चार साल से बिलासपुर जिले की सरहद में अलग-अलग जगहों पर दिखाई पड़े सफ़ेद गिद्ध [Egyptian vulture] वैसे तो अपने लौट आने का संदेश दे चुके हैं लेकिन उनके पुनरुत्थान के लिए फौरन कोई कदम नहीं उठाया जाता तो ये पुनः विलुप्त होने से महज एक कदम दूर हैं।
बिलासपुर जिले के ग्राम मोहनभाठा में कल [20 अक्टूबर 19] को सफ़ेद गिध्दों का परिवार दिखाई पड़ा जिसमें दो वयस्क के साथ बच्चे भी हैं । सफेद गिद्धों की वापसी को लेकर पक्षी मित्र या फिर संबंधित अमला कितना गंभीर है ये किसी यक्ष प्रश्न से कम नहीं लेकिन पर्यावरण संतुलन में अपनी सहभागिता के लिए सफेद गिद्ध लौट आये हैं।  TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें 
सफ़ेद गिद्ध अपने अन्य प्रजाति के पक्षियों की तरह मुख्यतः लाशों का ही सेवन करता है लेकिन यह अवसरवादी भी होता है और छोटे पक्षी, स्तनपायी और सरीसृप का शिकार कर लेता है। अन्य पक्षियों के अण्डे भी यह खा लेता है और यदि अण्डे बड़े होते हैं तो यह चोंच में छोटा पत्थर फँसा कर अण्डे पर मारकर तोड़ लेता है। दुनिया के अन्य इलाकों में यह चट्टानी पहाड़ियों के छिद्रों में अपना घोंसला बनाता है लेकिन भारत में इसको ऊँचे पेड़ों पर, ऊँची इमारतों की खिड़कियों के छज्जों पर और बिजली के खम्बों पर घोंसला बनाते देखा गया है।
यह जाति आज से कुछ साल पहले अपने पूरे क्षेत्र में पर्याप्त आबादी में पायी जाती थी। 1990 के दशक में इस जाति का 40% प्रति वर्ष की दर से 99% पतन हो गया। इसका मूलतः कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक (diclofenac) है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती है। जब यह दवाई खाया हुआ पशु मर जाता है और उसको मरने से थोड़ा पहले यह दवाई दी गई होती है और उसको सफ़ेद गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते हैं और वह मर जाता है। अब नई दवाई मॅलॉक्सिकॅम meloxicam आ गई है और यह गिद्धों के लिये हानिकारक भी नहीं हैं।
गिद्धों को प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है। वे बड़ी तेजी और सफाई से मृत जानवर की देह को सफाचट कर जाते हैं और इस तरह वे मरे हुए जानवर की लाश में रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया और दूसरे सूक्ष्म जीवों को पनपने नहीं देते। लेकिन गिद्धों के न होने से टीबी, एंथ्रेक्स, खुर पका-मुंह पका जैसे रोगों के फैलने की काफी आशंका रहती है। इसके अलावा चूहे और आवारा कुत्तों जैसे दूसरे जीवों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इन्होंने बीमारियों के वाहक के रूप में इन्हें फैलाने का काम किया। आंकड़े बताते हैं कि जिस समय गिद्धों की संख्या में कमी आई उसी समय कुत्तों की संख्या 55 लाख तक हो गई। इसी दौरान (1992-2006) देश भर में कुत्तों के काटने से रैबीज की वजह से 47,300 लोगों की मौत हुई।
कहते हैं कि मवेशियों के इस्तेमाल के लिए डिक्लोफिनेक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन अब भी ऐसी दवाएं इस्तेमाल की जा रही हैं जो गिद्धों के लिए जहरीली हैं। जल्द से जल्द इन पर भी रोक लगाने की जरूरत है। इनमें से कुछ हैं एसीक्लोफेनाक, कारप्रोफेन, फ्लुनिक्सिन, केटोप्रोफेन। हालांकि, दवा कंपनियां इन पर प्रतिबंध का जोरशोर से विरोध करेंगी जैसा डिक्लोफिनेक के समय किया था। लेकिन अगर प्रकृति का संतुलन गड़बड़ाने से बचाना है तो देर सबेर ही सही यह कदम उठाना होगा। 

ज़िंदगी बेहाल : प्राकृतिक जल स्त्रोत सूखे, पशु-पक्षियों के जीवन पर संकट के बादल

[TODAY छत्तीसगढ़] / इन दिनों गर्मीं से ज़िंदगी बेहाल है, प्रचंड गर्मी और तपिश के ऊपर नौतपा का कहर लगातार जारी है। गर्मी शुरू होते ही जलसंकट की भयावह तस्वीरें अलग-अलग शक्लों में सामने आने लगती हैं। गर्मी शुरू होने के साथ ही एक तरफ इंसानी आबादी में पानी के लिए हाहाकर मचता है तो दूसरी तरफ जीव-जंतु व पशु-पक्षियों के हलक सूखने लगते हैं। गर्मी के मौसम में जंगल के प्राकृतिक स्रोतों के सूख जाने के कारण वन्य प्राणियों के जीवन पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। जो कुछ जल स्रोत बचे हुए हैं, वे भी जल्दी ही सूखने की कगार पर हैं। ऐसे में वन्य प्राणी अपनी प्यास बुझाने अब गांवों की ओर रुख कर रहे हैं। इसके कारण वन्य प्राणियों पर गांवों के आवारा कुत्तों एवं लोगों द्वारा हमले भी किये जा रहे हैं।
बिलासपुर जिले का हाल भी कुछ ऐसा ही है, लगातार गिरता जल स्तर साल दर साल पानी के संकट को बढ़ाता जा रहा है। जिले के अधिकाँश तालाब, पोखरा व अन्य प्राकृतिक जल स्रोतों में पानी की जगह अब धूल उड़ रही है। शहर से लगे वन क्षेत्रों में भी पानी के प्राकृतिक स्त्रोत सूख चुके हैं। ऐसे में पानी की तलाश में जंगली जीव जंतु बाहर निकल कर गांवों की तरफ जाने लगे हैं। वहीँ पक्षियों का पलायन जारी है। मूक वन्यप्राणी एक-एक बून्द की तलाश में जल स्त्रोत की तरफ भटकते देखे जा सकते हैं।
प्रकृति की अनमोल देन पानी को मनुष्य ने मनमाने तरीके से दोहन किया। आज चारों तरफ से जल संकट का हाहाकार सुनाई देने लगा है। इससे शहरी और ग्रामीण आबादी तो जूझ ही रही हैं, इसका खामियाजा अब जंगलों में रहने वाले बेजुबानों को भी भुगतना पड़ रहा है। हालात इतने बुरे हैं कि वन्यप्राणियों को अब अपने पीने के पानी की तलाश में लम्बी–लम्बी दूरियाँ तय करना पड़ रही है। इतना ही नहीं कई बार ये पानी की तलाश में जंगलों से सटी बस्तियों की तरफ निकल आते हैं। ऐसे में या तो जानवर गाँव वालों या उनके बच्चों पर हमला कर देते हैं या लोग इनसे डरकर इन पर हमला भी कर देते हैं। गर्मी के मौसम में वन्यप्राणियों के शिकार की घटनाये भी बढ़ जाती हैं। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें 
बिलासपुर से लगा कोपरा जलाशय हो या फिर सीपत क्षेत्र में खोंदरा का जंगल। अचानकमार अभ्यारण्य की तरफ देखें या फिर पेंड्रा-मरवाही का वन क्षेत्र। बलौदा बाज़ार का अर्जुनी महराजी, बारनवापारा सभी जगह जल संकट दिखाई पड़ता है । वन विभाग अभ्यारण्य के अलावा कुछ क्षेत्रों में टैंकर के माध्यम से पानी के संकट से वन्यप्राणियों को राहत देने की बात करता जरूर है लेकिन धरातल पर वन्यप्राणी और पक्षी सिर्फ पानी की तलाश में भटकते दिखाई पड़ते हैं। इस हालात के लिए काफी हद तक विभागीय अमला जिम्मेदार है, बारिश के पानी को प्राकृतिक जल स्त्रोतों में बचाने के कोई कारगर प्रयास नहीं होते। गर्मी की शुरुवात के पहले जल संकट से निपटने के प्रयास ना इंसानी आबादी में दिखाई देती है ना जंगल में, लिहाजा जिनका कंठ सूखा है वो चिल्ला रहें हैं और जो बोल नहीं सकते वो नम जमीन पर पानी की पूर्ति के इन्तजार में बैठे हैं। 

'रोज़ी स्टर्लिंग' हमारी मेहमान है, इन्हें पत्थर से ना मारें

[TODAY छत्तीसगढ़] / प्रवासी पक्षी "रोज़ी स्टर्लिंग" इस बार बिलासपुर शहर के बीच डेरा जमाए हुए हैं.पक्षी प्रेमियों,फोटोग्राफर और राह चलते लोगों की भीड़ शाम होते-होते सीपत मार्ग स्थित विज्ञान महाविद्यालय के समीप इकट्ठी होने लगती है.घंटा डेढ़ घंटा की आसमानी कलाबाज़ियों के बाद बमुश्किल कुछ मिनट में सभी पक्षी ऊँची-ऊँची घास में विलुप्त सी हो जाती हैं, सुबह होते ही ये फिर से ऊँची उड़ान के लिए छोटे-छोटे झुण्ड में निकल पड़ती हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों से शरारती तत्वों ने इन मेहमानों के साथ दुर्व्यवहार करना शुरु कर दिया है। पटाखे फोड़कर और उनके रहने की जगह घास को नष्ट करने की कोशिश की जा रही थी, इतना ही नहीं कुछ शरारती तत्वों ने उनके झुण्ड पर पत्थर मारने से भी गुरेज नहीं किया लिहाजा इस संदर्भ में प्रशासन का ध्यान आकर्षित करने हेतु नेचर क्लब, मेरी आवाज़ सुनो और डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ. के प्रतिनिधियों ने मंगलवार को मुख्य वन संरक्षक, कलेक्टर, आई.जी. प्रदीप गुप्ता, डी.एफ़.ओ. और पुलिस अधीक्षक से मिलकर एक ज्ञापन सौंपा ताकि इन मेहमान परिंदों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
 इस संबंध में स्थानीय विधायक शैलेश पांडेय को भी सूचित किया गया है। डीएफओ संदीप बलगा ने आश्वस्त किया है की शहर के बीच जितने भी दिन गुलाबी मैना प्रवास पर है उसकी सुरक्षा के इंतजाम किये जाएंगे। इधर बिलासपुर रेंज के आई.जी. प्रदीप गुप्ता ने इस मामले में बेहद संवेदनशीलता दिखाई और तत्काल सरकंडा थाना के अधिकारी से बातचीत कर पक्षियों को अनावश्यक परेशान करने वाले शरारती तत्वों को जागरूकता के लिहाज से समझाइश देने की बात कही गई। इसके बाद कुछ पुलिस अधिकारियों के साथ मिलकर प्रवासी पक्षियों के संभावित ठिकानों की तरफ जाकर लोगों को मेहमान परिंदों के विषय में जानकारी देकर उन्हें अपील की गई की घर आये मेहमान को अनावश्यक परेशान ना होने दें। सरकंडा क्षेत्र के लोगों का इस विषय में रुख सहयोगात्मक दिखा, पक्षियों के ठहरने वाले स्थानों के पास रहने वालों ने भरोसा दिलाया की जब तक विदेशी मेहमान [पक्षी] हैं तब तक किसी को भी शरारत करते देख उन्हें मना किया जाएगा। पुलिस प्रशासन के सहयोगात्मक रवैये के चलते कुछ पक्षी प्रेमियों ने लोगों को रोजी स्टार्लिंग पक्षियों के महत्व और पारिस्थितिक तंत्र में उनकी भूमिका पर जागरूक किया। 
               प्रवासी पक्षियों के संरक्षण को लेकर प्रशासनिक दफ्तरों तक ज्ञापन देने वालों में पूर्व विधायक चंद्रप्रकाश बाजपेयी, प्रथमेश मिश्रा, सत्यप्रकाश पांडेय, WWF के सीनियर फील्ड ऑफिसर [बिलासपुर] उपेंद्र दुबे, शुभम साहू, जेपी अग्रवाल, सुनील जायसवाल, अभिप्रीत बाजपेयी, शशांक पांडेय समेत कई पर्यावरण और पक्षी प्रेमी शामिल रहे।



फिर आ जा रे अंगना में नन्ही गौरैया..

[TODAY छत्तीसगढ़] / "कभी घर आंगन से लेकर चौपाल और चौबारे को अपनी चीं-चीं से गुलजार करने वाली गौरैया अब दुर्लभ हो गई है। अपनी चहचहाहट से सुबह का सन्नाटा तोड़ने और शाम को अंधियारे तक साथ रहने वाली नन्हीं गौरैया अब शहर से लेकर गांवों तक यदा-कदा ही दिखती है। छोटे आकार की इस खूबसूरत पक्षी का कभी इंसानों के घरों में बसेरा हुआ करता था परंतु आहार और आवासों की कमी, कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल एवं मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें इसके अस्तित्व के लिए खतरा बन गईं। इसके चलते गौरैया आज संकटग्रस्त पक्षी की श्रेणी में आ गई है।"
दशकों पूर्व तक गांवों के कच्चे मकानों की धन्नियों, छप्परों और खाली पड़े गड्ढों में रहने वाली गौरैया (हाउस स्पैरो) लोगों के परिवार का एक हिस्सा थी। घर के आंगन से लेकर अहातों में चीं-चीं कर फुदकती हुई गौरैया को देखकर बच्चों का बचपन बीतता था। ज्यादातर मनुष्यों की बस्ती के आस-पास घोसले बनाने वाली नन्हीं गौरैया की संख्या आज काफी घट गई है। बढ़ते शहरीकरण और कंकरीट के जंगल ने गौरैया के रहने की जगह छीन ली है। आज लोगों के आंगन, घरों के आस-पास ऐसे घने पेड़ पौधे नहीं हैं। जिन पर यह चिड़िया अपना आशियाना बना सके। न ही हमारे घरों में रोशनदान या छतों पर ही कोई ऐसी सुरक्षित जगहें हैं, जहां यह रह सकें। पहले घरों के आंगन, बाहर दरवाजे के पास अनाज सूखने के लिए फैलाये जाते थे।
शहरी और ग्रामीण इलाकों में गौरैया की छह प्रजातियां पाई जाती हैं। हाउस स्पैरो, स्पैनिश स्पैरो, ¨सड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो इनमें हाउस स्पैरो को गौरैया कहा जाता है। 
आज विश्व गौरैया दिवस है और यह हर साल 20 मार्च को मनाया जाता है. यह दिवस दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जा रहा है, बेहद अफ़सोस जनक है की आज भी पक्षियों को संरक्षित करने के लिए जागरूकता जैसे औपचारिक कार्यक्रमों की जरूरत पड़ती है। हालांकि ये औपचारिकता साल में एक दिन यानी आज के दिन कुछ जगहों पर देखी जा सकती है। आम जनमानस, खासकर शहरी इलाकों में रहने वाले याद करें कि उन्होंने आखरी बार गौरैया को कब देखा था ?  एक समय में यह प्रत्येक घर के आंगन में चहकती दिखाई दे जाती थी, लेकिन अब इसकी आवाज कानों तक नहीं पड़ती है. गौरैया की घटती संख्या को लेकर यह दिवस मनाए जाने लगा और साल 2010 में पहली बार पुरे विश्व में गौरैया दिवस मनाया गया .
एक रिपोर्ट्स के अनुसार गौरैया की संख्या में करीब 70 फीसदी तक कमी आ गई है. इस दिवस का उद्देश्य गौरैया चिड़िया का संरक्षण करना है. कुछ वर्षों पहले आसानी से दिख जाने वाली गौरैया तेजी से विलुप्त हो रही है. इनकी विलुप्ति के कारण कई हैं लेकिन उसके समुचित समाधान के कोई ठोस कदम सामने अब तक नहीं आ सके हैं। देश की राजधानी दिल्ली में तो गौरैया इस कदर दुर्लभ हो गई है कि उसे खोज पाना मुमकिन नहीं लगता, शायद इसलिए साल 2012 में दिल्ली सरकार ने गौरैया को राज्य-पक्षी घोषित कर दिया.
आपको बता दें कि ब्रिटेन की 'रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस' ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को 'रेड लिस्ट' में डाला है. खास बात यह है की यह कमी शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में लगातार देखी गई है. पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के अनुसार गौरैया की आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है.
गौरतलब है कि गौरेया 'पासेराडेई' परिवार की सदस्य है, लेकिन कुछ लोग इसे 'वीवर फिंच' परिवार की सदस्य मानते हैं. इनकी लम्बाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है तथा इनका वजन 25 से 32 ग्राम तक होता है. एक समय में इसके कम से कम तीन बच्चे होते हैं. गौरेया अधिकतर झुंड में ही रहती है. भोजन तलाशने के लिए गौरेया का एक झुंड अधिकतम दो मील की दूरी तय करता है. 
एक गुजारिश आपसे, गौरैयों को इस तरह बचा सकते हैं -
1. गर्मी के दिनों में अपने घर की छत पर एक बर्तन में पानी भरकर रखें।
2. गौरैया को खाने के लिए कुछ अनाज छतों और पार्कों में रखें।
3. कीटनाशक का प्रयोग कम करें।
4. अपने वाहन को प्रदूषण मुक्त रखें।
5. हरियाली बढ़ाएं, छतों पर घोंसला बनाने के लिए कुछ जगह छोड़ें और उनके घोंसलों को नष्ट न करें।

कोपरा में विदेशी मेहमान 'बार हेडेड गूज', देखिये तस्वीरें

[TODAY छत्तीसगढ़]  / बिलासपुर शहर के बीच इस बरस जहां गुलाबी मैना की आमाद को लेकर पक्षी और पर्यावरण मित्र खुश नज़र आ रहें हैं वहीँ शहर के कइयों लोग उन पक्षियों का एयरशो देखने मौके पर शाम होते ही पहुँचने लगे हैं। ठीक उसी तरह लम्बे इंतज़ार के बाद कोपरा जलाशय में पिछले दस दिन से बार हेडेड गूज पक्षियों का समूह आकर्षण का बड़ा केंद्र बना हुआ है। शुरूआती दौर में ये मेहमान परिन्दें करीब 13 से 15 की संख्या में दिखाई दे रहे थे लेकिन अब ये २५ से अधिक की संख्या में कोपरा की मेजबानी का हिस्सा बने हुए हैं। गौरतलब है कि पिछले वर्ष भी यहां बार हेडेड गूज पक्षी नजर आये थे लेकिन संख्या इस बार अधिक बताई जा रही है । इस बार 25 से 27 पक्षी देखे जा रहे है।बार हेडेड गूज मंगोलिया, तिब्बत, रूस आदि के पठारीय भू-भाग से शीतकालीन प्रवास पर भारत आते है। इन पक्षियों का औसतन वजन करीब 2-4 किलो होता है तथा 71-76 सेमी लम्बे होते है। यह पक्षी हिमालय की ऊंचाई से ज्यादा ऊपर उड़ते हुए यहां पहुंचते है। गूज शाकाहारी पक्षी है तथा तालाब या फिर जलाशय के सूखने पर उगी हुई घास खाते है।इन दिनों बिलासपुर के कोपरा समेत छत्तीसगढ़ के विभिन्न जलाशयों में इनकी मौजूदगी पक्षी प्रेमियों को खूब लुभा रही है। बार हेडेड गूज पक्षी सेंन्ट्रल एशियन फ्लाई-वे से भारत में शीतकालीन प्रवास पर आते है तथा प्रवासी पक्षियों के संरक्षण को लेकर कई देशों के बीच हो रखी संधि के तहत बहुउद्देश्यीय योजना में बार हेडेड गूज भी शामिल है। कोपरा आइये, इनके दीदार कीजिये क्यूंकि कुछ दिनों के बाद ये अगले बरस तक इंतज़ार की उम्मीद दिलाकर लौट जायेंगे। 

'रोजी स्टर्लिंग' की मेजबानी के लिए बिलासा नगरी तैयार



[TODAY छत्तीसगढ़] /  रोजी स्टर्लिंग ने एक बार फिर से बिलासपुर के पक्षी मित्रों को मेजबानी का मौक़ा दिया है। इस बार बेलमुुंडी(सकरी) में तालाब के किनारे पड़ाव डालने की बजाय वे सीधे शहर में ही डेरा जमा चुके हैं। रोजी स्टर्लिंग यानी गुलाबी मैना की लयबद्ध उड़ान का एयरशो शाम होते ही शहर के वाशिंदों और पक्षी मित्रों को लुभाने लगा है। इनकी उपस्थिति से शहर की फिजां बदल सी गई है। रोजी स्टर्लिग छोटे आकार का परदेसी पंछी है। हजारों की संख्या में जब यह एक साथ उड़ान भरते हैं, तो ये आपस में नहीं टकराते। समन्वय की अनूठी मिसाल पेश करने वाले ये पंछी अपने खूबसूरत नृत्य और कलाबाजियों के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। 
यूरोप से आने वाली रोजी स्टर्लिग विशाल समूहों में रहने वाली नन्ही चिड़िया है। ये आसमान में एकसाथ जब उड़ती हैं तो ऐसा लगता है, जैसे सब मिलकर लयबद्ध नृत्य कर रही हों। घंटों कलाबाजियों के बाद जब ये पेड़ों पर आराम करने बैठते हैं, तो वृक्ष पर पत्तों की बजाय सिर्फ चिड़ियां ही चिड़िया दिखाई देती हैं। हजारों की संख्या में रोजी स्टर्लिंग पहली बार 2013 में बेलमुंडी आए थे। स्वभाव से बेहद संवेदनशील ये पक्षी किसी भी तरह का खतरा होने पर अपना स्थान बदल देते हैं। इस बरस गुलाबी मैना ने बिलासा की नगरी में अपना आशियाँ बनाया है। सीपत रोड स्थित विज्ञान महाविद्यालय के पास इनकी आमद सुबह और शाम देखी जा सकती है।  
               
  

स्वागत कीजिये, छत्तीसगढ़ में 'स्पून बिल' आये हैं

               
[TODAY छत्तीसगढ़] / सर्दियों के मौसम में छत्तीसगढ़ में कई तरह के प्रवासी-अप्रवासी पक्षी बतौर मेहमान आते हैं। राज्य के कइयों जलाशय मेहमान परिंदों और दुर्लभ पक्षियों की मेजबानी से गुलजार दिखाई दे रहें है। बिलासपुर जिले का कोपरा जलाशय हो या फिर रायपुर, दुर्ग, बेमेतरा जिले में स्थित वैटलैंड। सभी जगह किसी ना किसी प्रजाति के मेहमान परिंदे आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। ऐसे में चम्मच जैसी चोंच वाले स्पून बिल का राज्य में दिखाई देना पक्षी प्रेमियों के लिए कौतुहल का विषय है । 
चम्मच जैसी चोंच वाले स्पून बिल छत्तीसगढ़ में बेमेतरा जिले के गिधवा, भिलाई समेत कई अन्य जगहों पर इसके पहले भी देखे गए हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग-बेमेतरा को जोड़ने वाले मार्ग पर स्थित एक जलाशय में चम्मच जैसी चोंच वाले स्पून बिल इन दिनों अच्छी खासी संख्या में देखे जा रहें हैं। स्पून बिल, स्टोर्क प्रजाति के होते हैं और लगभग 18 इंच ऊंचे होते है। यह अमुमन फ्लेमिंगों, सारस जैसे पक्षियों के झुण्ड के बीच ही रहना पसंद करते हैं। स्पून बिल जलाशय के समीप ही पेड़ों पर रहते हैं। जानकार बताते हैं स्पून बिल जिसे हिन्दी में चमचा या डाबिल कहते हैं, पालतू बतख से कुछ बडी होती है, लगभग 18 इंच । इसकी टाँगे और गर्दन लम्बी होती है और रंग एक दम सफेद होता है। इसकी चोंच बहुत ही सुस्पष्ट और काफी पीली चौडी तथा चपटी होती है। इसकी चोंच का सामने वाला सिरा एक स्पेटुला या चपटे चमचे के आकार का होता है। प्रजनन काल में इसके सर पर एक मोरछलनुमा पीली कलगी और गर्दन के आगे नीचे भाग में पीला लम्बा धब्बा उभर आता है।यह चिडिया प्राय: अकेली या 15-20 के समूह में या सारसों या दलदल में रहने वाली अन्य चिडियों के साथ रहना पसंद करती है। यह पक्षी वैसे तो भारत में निवास करती है किन्तु शरद ॠतु में बाहर से भी अन्य स्पून बिल पक्षी के आ जाने से इनकी संख्या बढ ज़ाती है।


स्पून बिल दलदल, झीलों, नदियों के कीचड वाले किनारों पर रहते हैं। यह सुबह-शाम भोजन की तलाश में खूब मेहनत करता है और दोपहर में दलदली किनारों पर आराम कर लेता है। यह अपने भोजन के ठिकाने तक पहुँचने से पहले इकहरी तिरछी कतार में, अथवा अंग्रेजी के वी के आकार में धीरे-धीरे पंख लहराता उडता रहता है। उडते समय इसकी गर्दन और टाँगे तनी रहती हैं। ये बहुत ऊँचाई पर उडते हैं। इनका खाना मेंढक और उनके टेडपोल, घोंघें (मोलस्क जाति के जीव) और पानी के कीडे और कुछ मुलायम वनस्पति होते हैं। इनका पूरा झुंड उथले पानी में घुस जाता है ये अपनी गर्दन आगे और अधखुली चोंच टेढी क़रके, चोंच की नोक से कीचड उलट-पुलट करती इधर-उधर घूमते हैं। यह बोलने के नाम पर हल्का सा गुर्राते-से हैं। यह झील के आस-पास पनकौओं, सारसों, बगुलों के साथ पेड पर तिनकों का चबूतरा नुमा घोंसला बनाते हैं। ये एक बार में 3 अण्डे देते हैं जो रंग में मटमैले सफेद कहीं कहीं गहरे बारीक कत्थई धब्बे लिये होते हैं। इनका नीडन काल जुलाई से नवम्बर के बीच होता है। [तस्वीरें / 10 फरवरी 2019] 

'कोपरा कॉलिंग', पक्षी संरक्षण के प्रयास शुरू, CCF - DFO पहुंचें मौके पर

[TODAY छत्तीसगढ़] / देश-विदेश से आने वाले मेहमान पक्षियों समेत 150 से अधिक प्रजातियों के पक्षियों को पनाह देने वाला "कोपरा' जलाशय, गांव और उसके आसपास का हिस्सा जल्द ही छत्तीसगढ़ के नक़्शे में अलग पहचान बनाने जा रहा है। जिले,  खासकर बिलासपुर के पक्षी प्रेमियों और छायाकारों की कोशिशों को कोपरा से नई उम्मीदें हैं।  आज शनिवार सुबह मुख्य वन संरक्षक, डीएफओ समेत वन अमले के कई अफसर कर्मचारी और WWF, नेचर क्लब के पदाधिकारियों समेत कई बर्ड वाचर कोपरा पहुंचें। मुख्य वन संरक्षक अरुण पांडेय ने कोपरा जलाशय का बारीकी से मुआयना करने के बाद पक्षी जानकारों से आवश्यक जानकारी जुटाई। उन्होंने कोपरा पहुँचने वाले प्रवासी-अप्रवासी पक्षियों के संबंध में विस्तार से जाना उसके बाद कोपरा के संरक्षण को लेकर आवश्यक दिशा-निर्देश मौके पर ही मातहत अधिकारीयों, कर्मचारियों को दिए। 
    आज 2 फ़रवरी को विश्व नमभूमि दिवस के अवसर पर बिलासपुर के निकट कोपरा जलाशय में पक्षी दर्शन एवं उनके संरक्षण संवर्धन की दिशा में सार्थक प्रयास शुरू हुआ । शनिवार को कोपरा जलाशय के लिए नई उम्मीदों की किरण लेकर सूर्योदय हुआ। सुबह करीब-करीब 6 बजे ही WWF के सीनियर प्रोजेक्ट ऑफिसर उपेन्द्र दुबे, अनुराग शुक्ला, नेचर क्लब के पदाधिकारी सौरभ तिवारी,   पक्षी विशेषज्ञ विवेक यशवंत जोगलेकर, शुभदा जोगलेकर, वन्यजीव छायाकार सत्यप्रकाश पांडेय के अलावा गुरुघासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय के वानिकी विभाग के छात्र कोपरा पहुंचें। दरअसल आज सुबह मुख्य वन संरक्षक अरुण पांडेय, डीएफओ संदीप बल्गा कोपरा पहुंचकर जलाशय की भौगोलिक स्थिति के साथ-साथ वहां आने वाले मेहमान और स्थाई पक्षियों के संबंध में जानकारी चाह रहे थे ताकि कोपरा जलाशय के संरक्षण और उसे पक्षी विहार के रूप में विकसित किये जाने की दिशा में काम किया जा सके। सीसीएफ ने कोपरा जलाशय को हर छोर से देखा, उसके बाद उसे व्यवस्थित तरीके से विकसित करने की दिशा में विधिवत कार्ययोजना बनाकर जल्द से जल्द काम शुरू करने के निर्देश मातहत अधिकारीयों को दिए। कोपरा जलाशय का मुआयना करने के बाद वन अफसर ने राजस्थान के भरतपुर बर्ड सेंचुरी की तुलना करते हुए कहा की कोपरा में पक्षी संरक्षण को लेकर अनेक सम्भावनाये हैं जिसे गंभीरता से पूरा किया जाएगा। 
मौके पर यह निर्णय लिया गया की कोपरा जलाशय को व्यवस्थित पक्षी विहार बनाने और जलाशय को संरक्षित करने को लेकर जल्द ही ग्रामीणों और क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ पक्षी प्रेमियों के साथ एक बैठक करके और भी सुझाव लिए जाएंगे। सीसीएफ अरुण पांडेय के मुताबिक़ आने वाले एक सप्ताह के भीतर आवश्यक काम शुरू कर दिया जाएगा, साथ ही कोपरा में आने वाले पक्षियों के संबंध में प्रचार-प्रसार भी शुरू होगा ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग कोपरा पहुंचें। 
एक नज़र कोपरा पर -
बिलासपुर जिला मुख्यालय से करीब 13 किलोमीटर दूर सकरी-पेंड्रीडीह बाईपास पर स्थित 'कोपरा' जलाशय एक बार फिर देश-विदेश के पक्षियों की अस्थाई शरणस्थली बन चुका है। मौसम के बदलते ही जलाशय में प्रवासी-अप्रवासी पक्षी जुटने लगे हैं जबकि सिंचाई के लिए छोड़े गए पानी के बाद जलाशय में अब केवल 40 फीसदी ही पानी बचा है। शीतकालीन पक्षियों के पहुँचने का सिलसिला वैसे तो नवम्बर प्रारम्भ होते ही शुरू हो गया था लेकिन अभी बड़ी संख्या और विभिन्न प्रजाति के पक्षियों का कोपरा में आना बाकी है। उम्मीद है कोपरा जल्द ही एक बार फिर असंख्य और विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों के कलरव से आबाद होगा। कोपरा में फिलहाल प्रवासी पक्षियों में नार्दन पिनटेल जो अपने आप में बेहद खूबसूरत, खासकर नर पक्षी है वो सैकड़ों की संख्या में आ चुके हैं। वहीँ हिंदी साहित्य में वर्णित सुरखाब जिसे पक्षी प्रेमी रूडी सेल्ङ्ग के नाम से जानते हैं वो भी अच्छी-खासी तादात में पहुँच चुकी है। पक्षी प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र बने सुरख़ाब के बारे में किवदंती है की वे जोड़े में रहते हैं और किसी एक की मृत्यु के बाद अकेले ही रहना पसंद करते हैं। इसके अलावा रेड क्रस्टेड पोचर्ड, ओस्प्रे, गढ़वाल, यूरेशियन कूट, ग्रे और परपल हेरॉन, ब्लेक हेडेड आइबिस, ग्रेट कारमोरेंट, लिटिल ग्रेब, प्लोवर  समेत अन्य प्रजाति के सैकड़ों पक्षी स्थानीय प्रवास पर कोपरा पहुंचे है।  ओस्प्रे  [Osprey] एक ऐसा बाज जो मछली का शिकार करता है, मछली पकड़ने में माहिर ये बाज पिछले साल से कोपरा में देखा जा रहा है।







लाल मुनिया : प्रजनन के समय लाल हो जाती है

[TODAY छत्तीसगढ़] / लाल मुनिया संपूर्ण भारत में पाई जाती है। इसे रेड अवाडवत, टाइगर फींच, स्टॉबरी फींच व वैक्सबील आदि नाम से भी जाना जाता है। पुराने समय में इस पक्षी को अहमदाबाद से दुनिया के दूसरे हिस्सों में निर्यात किया गया था। इस वजह से अहमदाबाद से इसका साधारण नाम अवाडवर पड़ा। नर व मादा दोनों के शरीर पर सफेद चित्ते होते है। इनकी चमकीली लाल चोंच, चमड़े के रंग के पंजे, आंखे काली व लाल भूरी होती है। इनका पिछला हिस्सा लाल रंग का होता है, लेकिन नर पक्षी प्रजनन के समय लगभग पूर्ण रूप से लाल रंग का हो जाता है, जिस पर सफेद चित्ते तथा आंख के पास काली पट्टी होती है।
ये पक्षी आमतौर पर पानी वाली जगहों, घास के मैदानों, गन्ने के खेतों के आस-पास व जलाशयों के किनारे उगी बड़ी घास के अंदर रहते है। जब ये बड़ी घास, सरकंडा आदि में बैठे रहते है और आस-पास किसी इंसानी आहट को देख ये तेजी से आसमान की तरफ हल्की चहचाहट के साथ उड़ान भर देते है। इन पक्षियों का मुख्य भोजन घास, बीज और अनाज है। वैसे जानकार बताते हैं ये कभी-कभी कीट व कीड़े खाते हुए भी देखे गए है।

" मुनिया एक पक्षी है जो भारत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, फिलिपीन्स तथा अफ्रीका 
का देशज है। इसका आकार गौरैया से कुछ छोटा होता है। यह छोटे छोटे झुंडों
 में घास के बीच खाने निकलती है। खेतों में भूमि पर गिरे बीजों को खाती है।
 मंद-मंद कलरव करती है। यह छोटी झाड़ियों या वृक्षों में 5-10 फुट
 की उँचाई पर घोसला बनाती है। इसकी चार पाँच उपजातियाँ
 हैं: श्वेतपृष्ठ मुनिया, श्वेतकंठ मुनिया, कृष्णसिर मुनिया, बिंदुकित (spotted)
 मुनिया तथा लाल मुनिया। "

                
नाचती है लाल मुनिया - 
इस पक्षी के प्रजनन का समय जून से अक्टूबर माह तक होता है। प्रजनन के समय मादा को आकर्षित करने के लिए नर पक्षी का रंग पूरा लाल हो जाता है। ये पक्षी हवा में उड़ते हुए तिनका लेकर नाचते है। प्रजनन समय के बाद नर पक्षी का रंग भी लगभग मादा पक्षी जैसा ही दिखता है। ये आमतौर पर एक बड़े समूह में रहते है, लेकिन प्रजनन के समय जोड़ा बनने पर यह समूह से अलग होकर घोंसला बनाता है। घोंसले जमीन से एक मीटर की ऊंचाई पर छोटी झाड़ियों, बड़ी घास, सरकंडा आदि में बनाते है। घोंसला घास से बनाया जाता है तथा इसके अंदर घास के मुलायम रेशे व पंखों को रखते है ताकि अंडों व चूजों को नुकसान न पहुंचे। मादा पक्षी चार से छह अंडे देती है। यह भी देखा जा सकता है कि मादा पक्षी के अंडे देने के बाद भी नर पक्षी घोंसले पर घास के तिनके लगाते रहते है। इस पक्षी की संख्या काफी कम हो रही है, जिसका मुख्य कारण इसके प्राकृतिक वास का घटना है। तालाब, बड़े जलाशयों के सिकुड़ने से इसके आस-पास आने वाली घास, सरकंडे व पटीरा आदि कम हो रहा है। इन पक्षियों को भी अब संरक्षण की दरकार है।


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