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यौवन पर इठलाती प्रकृति, करीब जाने से पहले ज़रा वीडियो को देख लीजियेगा ....


TODAY छत्तीसगढ़  /  अपने यौवन पर इठलाती प्रकृति का श्रींगार बस देखते ही बनता है। कुदरत का यह अनुपम सौंदर्य इन दिनों बिलासपुर जिले के कोटा से बेलगहना मार्ग पर स्थित ग्राम औरापानी में देखा जा सकता है।
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[औरापानी जाने से पहले ज़रा इस वीडियो को ध्यान से देख लीजियेगा, जहां रास्ता नहीं हम वहां भी कुछ इस तरह से पहुंचें और कुदरत के हसीं नज़ारों को कैमरे में समेटकर लौट आये। परेशानियों की राह में उछलते कीचड़ ने हमारे सफर को रोमांच से भर दिया ....]
                                         
बिलासपुर जिला मुख्यालय से औरापानी की दुरी करीब-करीब 50 किलोमीटर है। बिलासपुर से रतनपुर-बेलगहना होकर या फिर बिलासपुर से कोटा होकर भी इस जगह पर पहुंचा जा सकता है। कोटा से बेलगहना या फिर दूसरे मार्ग से सेमरिया तक पहुँचने के बाद एक रास्ता जंगल के भीतर के लिए जाता है जो सीधे औरापानी तक ले जाता है। बारिश के मौसम में करीब 3 किलोमीटर का कच्चा रास्ता काफी तकलीफदायक होता है। 

पर्यटकों को अपनी ओर खींचता 'खूंटाघाट' , देखिये तस्वीरें -


TODAY छत्तीसगढ़  /  बिलासपुर जिले में इस साल अच्छी बारिश होने से रतनपुर स्थित खूंटाघाट जलाशय का वेस्टवियर एक बार फिर से छलकने लगा है। कुदरत के अनुपम सौंदर्य को देखने के लिए रोज सैकड़ों पर्यटक खूंटाघाट पहुँच रहें हैं जबकि वर्तमान समय में इंसान कोरोना वायरस के खतरे से लड़ रहा है और बिलासपुर जिले के अधिकाँश हिस्सों में सम्पूर्ण लॉकडाउन चल रहा है। लॉकडाउन के चलते खूंटाघाट के प्राकृतिक सौंदर्य को देखने वाले पर्यटकों की संख्या पिछले सालों की तुलना में भले ही कम नज़र आती हो मगर पर्यटक पहुँचकर प्राकृतिक आभा का खुलकर दीदार कर रहें हैं ।
जलाशय के भीतर एक हिस्से में महाकाल [शंकर] का प्राचीन मंदिर है जो बाँध में पानी भरने से गुंबद तक डूब जाता है। इस साल भी मंदिर पूरा डूबा हुआ है।
खूटाघाट जलाशय बिलासपुर जिला मुख्यालय से करीब 42 किलोमीटर दूर है वहीँ रतनपुर से जलाशय की दुरी करीब 10 किमी है।  चारो तरफ ऊंची-नीची पहाड़ियों के बीच स्थित यह एक सुंदर बांध और जलाशय है। बिलासपुर-अंबिकापुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित होने के नाते पर्यटक यहां आसानी से पहुँच सकते हैं। बताया जाता है कि यह मूल रूप से एक झील थी, जिसका निर्माण अंग्रेजों द्वारा कराया गया था। जानकारी मुताबिक खारुन नदी पर बने इस बाँध का निर्माण वर्ष 1920-1930 के मध्य कराया गया था जो बिलासपुर जिले अलावा आस-पास के किसानों के लिए बेहद उपयोगी है।   TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें -
जलाशय का नाम खूंटाघाट पड़ने के पीछे भी एक कहानी जुडी हुई है। बताते हैं जब बांध का निर्माण कराया गया तो डुबान के जंगल को काटा नहीं गया । समय के साथ पेड़ों का अस्तित्व खत्म हो गया लेकिन पानी की निचली सतह में उसके ठूंठ बच गए  जिसे आम बोलचाल में खूंटा कहा जाता है।

हाशिए पर खड़ा घुमंतू समाज इस त्रासदी के बाद और कितना पिछड़ जाएगा ?



TODAY छत्तीसगढ़  /  ये एक ऐसे समाज की तस्वीर है जो निरंन्तर घूमते रहते हैं, एक शहर से दूसरे शहर । इस गांव से उस गांव। इनकी एक रंग-बिरंगी संस्कृति और जीवन शैली है लेकिन इस दौर में इस समुदाय के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। पहले से ही हाशिए पर खड़ा घुमंतू समाज इस त्रासदी के बाद और कितना पिछड़ जाएगा, सवाल बना हुआ है । 


गुजराज के कच्छ से आये रैबारी समाज के महेंद्र , परिवार के 19 सदस्यों के साथ इन दिनों रतनपुर-बेलगहना मार्ग पर एक खेत में शरण लिए हुए हैं। एक दिन पहले ही नवागांव [बेमेतरा] से यहाँ पहुंचें हैं । लॉकडाउन के चलते इन्हें करीब दो महीने तक नवागाँव के बाहर एक खेत में ही शरण लेनी पड़ी। संक्रमणकाल में मिली कुछ रियायतों के बाद सफ़र फिर से शुरू हुआ है। 65 वर्षीय महेंद्र बताते हैं कि ऊँट, भेड़-बकरियों को लेकर पिछले तीन दशक से छत्तीसगढ़ के विभिन्न इलाकों में आ रहे हैं। कुछ बच्चों ने तो इसी राज्य में जन्म भी लिया है । महेंद्र कहते हैं कि ये साल अच्छा नहीं रहा। कोरोना महामारी ने भूखों मरने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है, खुद के खाने का जैसे-तैसे इंतजाम कर भी लें तो रेवड़ यानी अपने मवेशियों को कहाँ से खिलाएं ?
लॉकडाउन के चलते अपने घरों को लौटने को मज़बूर प्रवासी मज़दूरों की सड़कों पर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा पूरे देश ने देखी लेकिन ऐसे ही कई परिवार हैं जो घूमंतु समदाय से जुड़े हैं वो भी कई अलग-अलग राज्यों में फंस गए हैं और अब वे अपने इलाके में वापसी करना चाहते हैं। बेलगहना-केंदा के रास्ते मध्यप्रदेश के अनूपपुर की ओर निकला ये काफ़िला गाँव की बाहरी सीमा से गुजरता है, गाँव में कई स्थानों पर पुलिस और ग्रामीणों की प्रताड़ना का शिकार ऐसे कइयों परिवार संकट के सबसे बुरे दिनों को काट रहे हैं। इन लोगों के पास कोई सरकारी सहायता भी नहीं पहुंच रही और नाही स्थानिय लोग इन्हें अपना मानकर मदद कर रहे हैं। मवेशियों के साथ-साथ खुद भूख से लड़ रहे इन परिवारों का आरोप है की मदद तो दूर कई जगहों पर पुलिस और वन विभाग के कुछ लोग डरा-धमकाकर खाने के लिए बकरियाँ ले लेते हैं, कुछ जगह पर केवल रुपयों की मांग होती है। क्या करें, कैसे करें समझ नहीं आता। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें
ऊंट पालक महेंद्र के बेटे जगदीश जिनकी उम्र फिलहाल 24 बरस है उन्होंने छत्तीसगढ़ में ही जन्म लिया, वे बताते हैं की गर्मियों मे वहां [कच्छ, गुजरात] का इलाका पूरी तरह सूख जाता है इसलिए हम लोग अपने मवेशियों को लेकर हरियाणा, पंजाब, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कुछ आस-पास के राज्यों की ओर निकल जाते हैं। वहां हमें चारा और गुजारे के लिए कुछ काम भी मिल जाता है। जब वहां अगस्त के आखिर या सितंबर की शुरुआत में मौसम थोड़ा ठीक-ठाक हो जाता है, बारिश होने लगती है, तो हम वहां अपने मवेशियों के साथ अपने टोलों में वापस लौट जाते हैं।
आपको बता दें कि राजस्थान और गुजरात में पशुपालन का व्यवसाय रायका-रैबारी, बागरी ओर बावरिया समाज से जुड़े हुए लोग करते हैं। ये समाज सालों से यही काम कर रहा हैं। भारत में ऊंट पालने का काम ये सभी जातियां करती हैं किन्तु इनकी ब्रीडिंग रायका- रैबारी लोग ही करवाते हैं। ये ब्रीडिंग राजस्थान के मारवाड़ के साथ-साथ गुजरात के कच्छ में भी होती है। कहते हैं ऊंट रेगिस्तान का जहाज है तो बकरी गरीब की गाय है। भेंड़-बकरी को थोड़ा सा चराकर कभी भी दूध निकाला जा सकता है। मरुभूमि में गरीब व्यक्ति के पोषण का आधार भेंड़-बकरी ही है जो उसके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी है।
एक जानकारी के मुताबिक़ रेनके कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में 98% घुमंतू बिना जमीन के रहते हैं। इनमें 57% झोंपड़ियों में और 72% लोगों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज तक नहीं हैं। 94% घुमंतू बीपीएल श्रेणी में नहीं हैं। ऐसे में इन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ मिलना असंभव है। ऐसे में इस समुदाय के लिए सरकार को अलग से योजनाएं लानी होंगी नहीं तो इन लोगों पर काफी प्रतिकूल असर होगा।

300 साल पुराना बूढ़ा बरगद, हजारों शाखाएँ कई कहानियाँ समेटे हैं

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से कोटा मार्ग पर नेवरा-भरनी के बीच स्थित फ़ार्म हाउस में है ये बूढ़ा बरगद, गुजरे जमाने की कई कहानियाँ अपने भीतर समेटे है।

TODAY छत्तीसगढ़  /   छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से कोटा रोड पर एक निजी स्वामित्व वाली भूमि में सैकड़ों वर्ष पुराना एक विशाल बरगद का पेड़ है। पेड़ की हजारों शाखाओं को देखकर उसके उम्रदराज होने का पता चलता है। एक अनुमान के मुताबिक़ इस विशाल बरगद के पेड़ की उम्र करीब-करीब 300 साल होगी। अगर इस पेड़ को देश के सबसे बड़े और पुराने बरगद के पेड़ों में से एक माना जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालांकि इस बूढ़े बरगद को हेरिटेज ट्री का दर्जा प्राप्त नहीं है और ना ही इसे संरक्षित करने के लिए किसी सरकारी उपाय की जरूरत। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें
यह विशालकाय पेड़ देखकर ऐसा लगता है मानो पूरा जंगल हो। बूढ़े बरगद की सैकड़ों शाखाओं से कई दूसरी जटाएं अब जड़ का रूप ले चुकी हैं। इस कारण ये पेड़ आज भी बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक़ इस पेड़ की सैकड़ा से भी ज्यादा बरह यानी प्रॉप जड़ें (जमीन में घुसकर तने का रूप ले चुकी पेड़ की शाखाओं से निकली जड़ें, जिन्हें आमतौर पर जटाएं कहते हैं) हैं। दरअसल, बरगद के पेड़ की शाखाओं से जटाएं पानी की तलाश में नीचे जमीन की ओर बढ़ती हैं। वे बाद में जड़ के रूप में पेड़ को पानी और सहारा देने लगती है।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से कोटा मार्ग पर नेवरा-भरनी के बीच स्थित फ़ार्म हाउस की देख रेख करने वाले जगदीश यादव का कहना है कि उसके दादा जी ने भी इस वट वृक्ष की कहानियां अपने पुरखों से सुनी थी । जगदीश के मुताबिक वो चौथी पीढ़ी है। उनके एक अनुमान के मुताबिक यह बरगद 300 साल पुराना होगा। 

अगर 'गिद्ध' खत्म हुए तो खतरे में पड़ जाएगी ज़िंदगी ...

[TODAY छत्तीसगढ़ ]  कथा-कहानियों में मृत्यु के प्रतीक माने जाने वाले गिद्ध आज खुद मौत के मुंह में खड़े हैं, उन्हें संरक्षण की दरकार है । ख़ुशी इस बात की है कि Egyptian vulture छत्तीसगढ़ राज्य के विभिन्न हिस्सों में अब दिखाई देते है लेकिन संख्या नहीं के बराबर है। पिछले तीन-चार साल से बिलासपुर जिले की सरहद में अलग-अलग जगहों पर दिखाई पड़े सफ़ेद गिद्ध [Egyptian vulture] वैसे तो अपने लौट आने का संदेश दे चुके हैं लेकिन उनके पुनरुत्थान के लिए फौरन कोई कदम नहीं उठाया जाता तो ये पुनः विलुप्त होने से महज एक कदम दूर हैं।
बिलासपुर जिले के ग्राम मोहनभाठा में कल [20 अक्टूबर 19] को सफ़ेद गिध्दों का परिवार दिखाई पड़ा जिसमें दो वयस्क के साथ बच्चे भी हैं । सफेद गिद्धों की वापसी को लेकर पक्षी मित्र या फिर संबंधित अमला कितना गंभीर है ये किसी यक्ष प्रश्न से कम नहीं लेकिन पर्यावरण संतुलन में अपनी सहभागिता के लिए सफेद गिद्ध लौट आये हैं।  TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें 
सफ़ेद गिद्ध अपने अन्य प्रजाति के पक्षियों की तरह मुख्यतः लाशों का ही सेवन करता है लेकिन यह अवसरवादी भी होता है और छोटे पक्षी, स्तनपायी और सरीसृप का शिकार कर लेता है। अन्य पक्षियों के अण्डे भी यह खा लेता है और यदि अण्डे बड़े होते हैं तो यह चोंच में छोटा पत्थर फँसा कर अण्डे पर मारकर तोड़ लेता है। दुनिया के अन्य इलाकों में यह चट्टानी पहाड़ियों के छिद्रों में अपना घोंसला बनाता है लेकिन भारत में इसको ऊँचे पेड़ों पर, ऊँची इमारतों की खिड़कियों के छज्जों पर और बिजली के खम्बों पर घोंसला बनाते देखा गया है।
यह जाति आज से कुछ साल पहले अपने पूरे क्षेत्र में पर्याप्त आबादी में पायी जाती थी। 1990 के दशक में इस जाति का 40% प्रति वर्ष की दर से 99% पतन हो गया। इसका मूलतः कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक (diclofenac) है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती है। जब यह दवाई खाया हुआ पशु मर जाता है और उसको मरने से थोड़ा पहले यह दवाई दी गई होती है और उसको सफ़ेद गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते हैं और वह मर जाता है। अब नई दवाई मॅलॉक्सिकॅम meloxicam आ गई है और यह गिद्धों के लिये हानिकारक भी नहीं हैं।
गिद्धों को प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है। वे बड़ी तेजी और सफाई से मृत जानवर की देह को सफाचट कर जाते हैं और इस तरह वे मरे हुए जानवर की लाश में रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया और दूसरे सूक्ष्म जीवों को पनपने नहीं देते। लेकिन गिद्धों के न होने से टीबी, एंथ्रेक्स, खुर पका-मुंह पका जैसे रोगों के फैलने की काफी आशंका रहती है। इसके अलावा चूहे और आवारा कुत्तों जैसे दूसरे जीवों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इन्होंने बीमारियों के वाहक के रूप में इन्हें फैलाने का काम किया। आंकड़े बताते हैं कि जिस समय गिद्धों की संख्या में कमी आई उसी समय कुत्तों की संख्या 55 लाख तक हो गई। इसी दौरान (1992-2006) देश भर में कुत्तों के काटने से रैबीज की वजह से 47,300 लोगों की मौत हुई।
कहते हैं कि मवेशियों के इस्तेमाल के लिए डिक्लोफिनेक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन अब भी ऐसी दवाएं इस्तेमाल की जा रही हैं जो गिद्धों के लिए जहरीली हैं। जल्द से जल्द इन पर भी रोक लगाने की जरूरत है। इनमें से कुछ हैं एसीक्लोफेनाक, कारप्रोफेन, फ्लुनिक्सिन, केटोप्रोफेन। हालांकि, दवा कंपनियां इन पर प्रतिबंध का जोरशोर से विरोध करेंगी जैसा डिक्लोफिनेक के समय किया था। लेकिन अगर प्रकृति का संतुलन गड़बड़ाने से बचाना है तो देर सबेर ही सही यह कदम उठाना होगा। 

'पृथ्वी दिवस या अर्थ डे' सिर्फ एक दिन क्यों ?

[TODAY छत्तीसगढ़] / "महात्मा गाँधी ने कहा था कि प्रकृति में इतनी ताकत होती है कि वह हर मनुष्य की 'जरुरत' को पूरा कर सकती है लेकिन पृथ्वी कभी भी मनुष्य के 'लालच' को पूरा नही कर सकती है।"
विश्व पृथ्वी दिवस है, गांधी की वो बात याद आई लेकिन उनके कथन को यथार्थ पर देखें तो चारो तरफ सिर्फ और सिर्फ 'लालच' दिखाई देता है। पृथ्वी दिवस की स्थापना अमेरिकी सीनेटर गेलोर्ड नेल्सन ने पर्यावरण शिक्षा के रूप की थी। वर्ष 1970 से प्रारम्भ हुए इस दिवस को आज पूरी दुनिया के 195 से अधिक देश मनाते हैं। वर्तमान में पृथ्वी दिवस की गतिविधियों में पूरी दुनिया में लगभग 1 अरब से अधिक लोग हर साल भाग लेते हैं। पृथ्वी दिवस एक वार्षिक आयोजन है, जिसे 22 अप्रैल को दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के समर्थन में आयोजित किया जाता है। इस तारीख के समय उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद का मौसम रहता है। 22 अप्रैल 1970 को आयोजित पहले पृथ्वी दिवस में 20 मिलियन अमेरिकी लोगों ने भाग लिया था जिसमे हर समाज, वर्ग और क्षेत्र के लोगों ने भाग लिया था। इस प्रकार यह आन्दोलन आधुनिक समय के सबसे बड़े पर्यावरण आन्दोलन में बदल गया था। 
"पृथ्वी दिवस या अर्थ डे" शब्द को जुलियन कोनिग 1969 ने दिया था। इस नए आन्दोलन को मनाने के लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया, इसी दिन केनिग का जन्मदिन भी होता है। उन्होंने कहा कि "अर्थ डे" "बर्थ डे" के साथ ताल मिलाता है, इसलिए उन्होंने 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाने का सुझाव दिया था। पृथ्वी बहुत व्यापक शब्द है जिसमें जल, हरियाली, वन्यप्राणी, प्रदूषण और इससे जु़ड़े अन्य कारक भी हैं। धरती को बचाने का आशय है इसकी रक्षा के लिए पहल करना, न तो इसे लेकर कभी सामाजिक जागरूकता दिखाई गई और न राजनीतिक स्तर पर कभी कोई ठोस पहल की गई। धरती को बचाने का आशय है इन सभी की रक्षा के लिए ठोस पहल करना लेकिन इसके लिए किसी एक दिन को ही माध्यम बनाया जाए, शायद यह उचित नहीं है ? हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके बचाव के लिए कुछ न कुछ उपाय करते रहना होगा ।
पॉलीथीन पृथ्वी के लिए सबसे घातक है, फिर भी हम इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। पृथ्वी दिवस 2018 की थीम भी इसी “प्लास्टिक को ख़त्म करने” पर आधारित थी जबकि इस वर्ष 2019 के पृथ्वी दिवस की थीम "Protect Our Species" है। इस ख़ास दिन पर हमको एक बार फिर चिंतन करने की जरूरत है। तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी पेड़ को काटना और नदियों, तालाबों को गंदा करना इंसान के दैनिक जीवन का हिस्सा बना हुआ है जिस पर प्रभावी लगाम की जरूरत है। अगर गंभीरता से विचार करें तो हमें विश्व का मानव संसाधन पर्यावरण जैसे मुद्दों के प्रति कम जागरूक दिखाई देगा। पृथ्वी के प्रति मानव की शोषण धारित प्रवृत्ति धरती को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इसके पीछे वन और पर्यावरण सुरक्षा कानूनों का शिथिल होना भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है।
वैसे व्यंग्य करने वाले लोग वायु प्रदुषण को "समृद्धि की गंध" कहते हैं। अगर हर देश में वनों का इसी तरह से अंधाधुंध विनाश होता रहा अर्थात जंगलों को उजाड़कर कंक्रीट के जंगल बनते रहे, उद्योग लगते रहे और विश्व के नेता और उद्योगपति अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों को मौजमस्ती का अड्डा समझते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब यह प्रथ्वी फिर से आग का गोला बन जाएगी और सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

सुपर मॉम : 29 शावक जन्म देने वाली 'कॉलरवाली'

[TODAY छत्तीसगढ़] / पेंच नेशनल पार्क सतपुड़ा की पहाड़ियों के दक्षिणी भाग में स्थित है। इस स्थान का नामकरण पेंच नदी के कारण हुआ है जो कि पेंच नेशनल पार्क के साथ-साथ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। यह पार्क मध्य प्रदेश की दक्षिणी सीमा में महाराष्ट्र के पास स्थित है। महाराष्ट्र सरकार द्वारा इसे 1983 में नेशनल पार्क घोषित किया गया और 1992 में इसे अधिकारिक रूप से भारत का उन्नीसवा टाइगर रिजर्व घोषित किया गया। इस नेशनल पार्क में हिमालयी प्रदेशों के लगभग 210 प्रजातियों के पक्षी आते हैं। अनेक दुर्लभ जीवों और प्रवासी पक्षियों की मेजबानी करने वाला पेंच नेशनल पार्क तेजी से पर्यटकों को अपनी ओर खींच रहा है। पेंच राष्ट्रीय उद्यान [मध्यप्रदेश] की मशहूर बाघिन 'कॉलरवाली' की ये तस्वीर कई मायनों में ख़ास है। 27 दिसंबर 2018 को चार शावकों को जन्म देने के बाद वो कल पहली बार कैमरे में कैद हुई है। ये दावा नेशनल पार्क के प्रबंधन का है। 
अब जरा 'कॉलरवाली' की खासियत भी जान लीजिये, ये सम्भवतः विश्व की पहली ऐसी बाघिन है जिसने आठवीं बार शावकों को जन्म दिया है। दिसंबर में चार शावकों को जन्म देने से पहले तक इस बाघिन के नाम 25 शावकों को जन्म देने का रिकार्ड है। इस बार की संख्या मिला दें तो 29 शावकों को जन्म देने वाली शायद ये पहली बाघिन है। उम्र दराज [14 साल] 'कॉलरवाली' बाई को चार शावकों के साथ इसी माह  [12 अप्रैल 19 ] चंद पर्यटकों की भीड़ में मैंने भी कैमरे में कैद किया। इसके पहले इन चार बच्चों के साथ 'कॉलरवाली' की तस्वीर सामने नहीं आई थी। 'सुपर मॉम' के नाम से प्रसिद्ध 'कॉलरवाली' बाघिन का जन्म सितंबर 2005 में हुआ था। T - 15 यानी 'कॉलरवाली' को 11 मार्च 2008 में सुरक्षा के लिहाज रेडियो कॉलर लगाया गया था, तभी से इस बाघिन को 'कॉलरवाली' के नाम से पुकारा जाने लगा। मई 2008 में 'कॉलरवाली' पहली बार माँ बनी, उसने 3 शावकों को जन्म दिया। उसके बाद 2009, 2010 में तीसरी बार माँ बनी। मई 2012 में 3 शावकों को जन्म देकर चौथी बार माँ बनने का गौरव हासिल किया। 2013 में पांचवीं बार फिर 2015 में लगातार 6 वीं बार माँ बनकर 'कॉलरवाली' ने 4 शावकों को जन्म दिया। अप्रैल 2017 में 'कॉलरवाली' सातवीं बार माँ बनी और तीन बच्चों को जन्म देकर 25 शावक जन्म देने का रिकार्ड बनाया। इस बार की संख्या मिलाकर इस 'सुपर मॉम' के नाम 29 शावक जन्म देने का रिकार्ड विभागीय दस्तावेज में दर्ज हो गया है। जानकार बताते हैं की बेहद चालाक और फुर्तीली 'कॉलरवाली' ने इसके पहले यानी 25 में से 21 शावकों को सुरक्षित तरीके से वयस्क किया है। इस बार भी वो अपने शावकों को लेकर सतर्क है और जल्दी उन्हें लेकर सामने नहीं आ रही है। 

फिर आ जा रे अंगना में नन्ही गौरैया..

[TODAY छत्तीसगढ़] / "कभी घर आंगन से लेकर चौपाल और चौबारे को अपनी चीं-चीं से गुलजार करने वाली गौरैया अब दुर्लभ हो गई है। अपनी चहचहाहट से सुबह का सन्नाटा तोड़ने और शाम को अंधियारे तक साथ रहने वाली नन्हीं गौरैया अब शहर से लेकर गांवों तक यदा-कदा ही दिखती है। छोटे आकार की इस खूबसूरत पक्षी का कभी इंसानों के घरों में बसेरा हुआ करता था परंतु आहार और आवासों की कमी, कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल एवं मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें इसके अस्तित्व के लिए खतरा बन गईं। इसके चलते गौरैया आज संकटग्रस्त पक्षी की श्रेणी में आ गई है।"
दशकों पूर्व तक गांवों के कच्चे मकानों की धन्नियों, छप्परों और खाली पड़े गड्ढों में रहने वाली गौरैया (हाउस स्पैरो) लोगों के परिवार का एक हिस्सा थी। घर के आंगन से लेकर अहातों में चीं-चीं कर फुदकती हुई गौरैया को देखकर बच्चों का बचपन बीतता था। ज्यादातर मनुष्यों की बस्ती के आस-पास घोसले बनाने वाली नन्हीं गौरैया की संख्या आज काफी घट गई है। बढ़ते शहरीकरण और कंकरीट के जंगल ने गौरैया के रहने की जगह छीन ली है। आज लोगों के आंगन, घरों के आस-पास ऐसे घने पेड़ पौधे नहीं हैं। जिन पर यह चिड़िया अपना आशियाना बना सके। न ही हमारे घरों में रोशनदान या छतों पर ही कोई ऐसी सुरक्षित जगहें हैं, जहां यह रह सकें। पहले घरों के आंगन, बाहर दरवाजे के पास अनाज सूखने के लिए फैलाये जाते थे।
शहरी और ग्रामीण इलाकों में गौरैया की छह प्रजातियां पाई जाती हैं। हाउस स्पैरो, स्पैनिश स्पैरो, ¨सड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो इनमें हाउस स्पैरो को गौरैया कहा जाता है। 
आज विश्व गौरैया दिवस है और यह हर साल 20 मार्च को मनाया जाता है. यह दिवस दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जा रहा है, बेहद अफ़सोस जनक है की आज भी पक्षियों को संरक्षित करने के लिए जागरूकता जैसे औपचारिक कार्यक्रमों की जरूरत पड़ती है। हालांकि ये औपचारिकता साल में एक दिन यानी आज के दिन कुछ जगहों पर देखी जा सकती है। आम जनमानस, खासकर शहरी इलाकों में रहने वाले याद करें कि उन्होंने आखरी बार गौरैया को कब देखा था ?  एक समय में यह प्रत्येक घर के आंगन में चहकती दिखाई दे जाती थी, लेकिन अब इसकी आवाज कानों तक नहीं पड़ती है. गौरैया की घटती संख्या को लेकर यह दिवस मनाए जाने लगा और साल 2010 में पहली बार पुरे विश्व में गौरैया दिवस मनाया गया .
एक रिपोर्ट्स के अनुसार गौरैया की संख्या में करीब 70 फीसदी तक कमी आ गई है. इस दिवस का उद्देश्य गौरैया चिड़िया का संरक्षण करना है. कुछ वर्षों पहले आसानी से दिख जाने वाली गौरैया तेजी से विलुप्त हो रही है. इनकी विलुप्ति के कारण कई हैं लेकिन उसके समुचित समाधान के कोई ठोस कदम सामने अब तक नहीं आ सके हैं। देश की राजधानी दिल्ली में तो गौरैया इस कदर दुर्लभ हो गई है कि उसे खोज पाना मुमकिन नहीं लगता, शायद इसलिए साल 2012 में दिल्ली सरकार ने गौरैया को राज्य-पक्षी घोषित कर दिया.
आपको बता दें कि ब्रिटेन की 'रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस' ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को 'रेड लिस्ट' में डाला है. खास बात यह है की यह कमी शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में लगातार देखी गई है. पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के अनुसार गौरैया की आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है.
गौरतलब है कि गौरेया 'पासेराडेई' परिवार की सदस्य है, लेकिन कुछ लोग इसे 'वीवर फिंच' परिवार की सदस्य मानते हैं. इनकी लम्बाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है तथा इनका वजन 25 से 32 ग्राम तक होता है. एक समय में इसके कम से कम तीन बच्चे होते हैं. गौरेया अधिकतर झुंड में ही रहती है. भोजन तलाशने के लिए गौरेया का एक झुंड अधिकतम दो मील की दूरी तय करता है. 
एक गुजारिश आपसे, गौरैयों को इस तरह बचा सकते हैं -
1. गर्मी के दिनों में अपने घर की छत पर एक बर्तन में पानी भरकर रखें।
2. गौरैया को खाने के लिए कुछ अनाज छतों और पार्कों में रखें।
3. कीटनाशक का प्रयोग कम करें।
4. अपने वाहन को प्रदूषण मुक्त रखें।
5. हरियाली बढ़ाएं, छतों पर घोंसला बनाने के लिए कुछ जगह छोड़ें और उनके घोंसलों को नष्ट न करें।

गिद्धों की संख्या बढ़ाने में कान्हा प्रबंधन के प्रयास कारगर

[TODAY छत्तीसगढ़] / ये पुरानी दुनिया का गिद्ध है जो नई दुनिया के गिद्धों से अपनी सूंघने की शक्ति में भिन्न हैं। यह मध्य और पश्चिमी से लेकर दक्षिणी भारत तक पाया जाता है। प्रायः यह खड़ी चट्टानों के श्रंग में अपना घोंसला बनाता है, परन्तु राजस्थान में यह अपना घोंसला पेड़ों पर बनाते हुये भी पाये गये हैं। दूसरे गिद्धों की भांति यह भी अपमार्जक या मुर्दाख़ोर होता है और ऊँची उड़ान भरकर इंसानी आबादी के नज़दीक या फिर जंगलों में मुर्दा पशु को ढूंढ लेते हैं और उनका आहार करते हैं। इनके चक्षु बहुत तीक्ष्ण होते हैं और काफ़ी ऊँचाई से यह अपना आहार ढूंढ लेते हैं। यह प्रायः समूह में रहते हैं। White Rumped Vulture का सर गंजा होता है, उसके पंख बहुत चौड़े तथा पूँछ के पर छोटे होते हैं। इसका वज़न 5.5 Kg से 6.4 Kg होता है। इसकी लंबाई 80-103 से. मी. तथा पंख खोलने में 1.96 से 2.38 मी. की चौड़ाई होती है।
यह जाति आज से दो दशक पहले तक काफी संख्या में पायी जाती थी लेकिन 1990 के दशक में इस जाति का 95% से 98% पतन हो गया है। इसका मूलतः कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक (diclofenac) है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती है। जब यह दवाई खाया हुआ पशु मर जाता है और उसको मरने से थोड़ा पहले यह दवाई दी गई होती है और उसको गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते हैं और वह मर जाता है।
आज  गिद्धों का प्रजनन बंदी हालत में किया जा रहा है। इसका कारण यह है कि खुले में यह विलुप्ति की कगार में पहुँच गये हैं। शायद इनकी संख्या बढ़ जाये। गिद्ध दीर्घायु होते हैं लेकिन प्रजनन में बहुत समय लगाते हैं। गिद्ध प्रजनन में 5 वर्ष की अवस्था में आते हैं। एक बार में एक से दो अण्डे देते हैं लेकिन अगर समय खराब हो तो एक ही चूजे को खिलाते हैं। यदि परभक्षी इनके अण्डे खा जाते हैं तो यह अगले साल तक प्रजनन नहीं करते हैं। यही कारण है कि भारतीय गिद्ध अभी भी अपनी आबादी बढ़ा नहीं पा रहा है। लेकिन देश के कुछ स्थानों से गिद्धों की संख्या बढ़ाने की दिशा में कारगर कदम उठाये गए हैं। 
छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व के औरापानी में भी इनके संरक्षण को लेकर प्रयास जारी है। छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती राज्य मध्यप्रदेश के कान्हा नेशनल पार्क और बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में इनकी संख्या अच्छी खासी है। कान्हा के जानकारों की माने तो वहां 50 से अधिक की संख्या में White Rumped Vulture  हैं जिनकी संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है। 
तस्वीरें / White Rumped Vulture कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से इसी माह ली गई हैं - 

कोपरा में विदेशी मेहमान 'बार हेडेड गूज', देखिये तस्वीरें

[TODAY छत्तीसगढ़]  / बिलासपुर शहर के बीच इस बरस जहां गुलाबी मैना की आमाद को लेकर पक्षी और पर्यावरण मित्र खुश नज़र आ रहें हैं वहीँ शहर के कइयों लोग उन पक्षियों का एयरशो देखने मौके पर शाम होते ही पहुँचने लगे हैं। ठीक उसी तरह लम्बे इंतज़ार के बाद कोपरा जलाशय में पिछले दस दिन से बार हेडेड गूज पक्षियों का समूह आकर्षण का बड़ा केंद्र बना हुआ है। शुरूआती दौर में ये मेहमान परिन्दें करीब 13 से 15 की संख्या में दिखाई दे रहे थे लेकिन अब ये २५ से अधिक की संख्या में कोपरा की मेजबानी का हिस्सा बने हुए हैं। गौरतलब है कि पिछले वर्ष भी यहां बार हेडेड गूज पक्षी नजर आये थे लेकिन संख्या इस बार अधिक बताई जा रही है । इस बार 25 से 27 पक्षी देखे जा रहे है।बार हेडेड गूज मंगोलिया, तिब्बत, रूस आदि के पठारीय भू-भाग से शीतकालीन प्रवास पर भारत आते है। इन पक्षियों का औसतन वजन करीब 2-4 किलो होता है तथा 71-76 सेमी लम्बे होते है। यह पक्षी हिमालय की ऊंचाई से ज्यादा ऊपर उड़ते हुए यहां पहुंचते है। गूज शाकाहारी पक्षी है तथा तालाब या फिर जलाशय के सूखने पर उगी हुई घास खाते है।इन दिनों बिलासपुर के कोपरा समेत छत्तीसगढ़ के विभिन्न जलाशयों में इनकी मौजूदगी पक्षी प्रेमियों को खूब लुभा रही है। बार हेडेड गूज पक्षी सेंन्ट्रल एशियन फ्लाई-वे से भारत में शीतकालीन प्रवास पर आते है तथा प्रवासी पक्षियों के संरक्षण को लेकर कई देशों के बीच हो रखी संधि के तहत बहुउद्देश्यीय योजना में बार हेडेड गूज भी शामिल है। कोपरा आइये, इनके दीदार कीजिये क्यूंकि कुछ दिनों के बाद ये अगले बरस तक इंतज़ार की उम्मीद दिलाकर लौट जायेंगे। 

स्वागत कीजिये, छत्तीसगढ़ में 'स्पून बिल' आये हैं

               
[TODAY छत्तीसगढ़] / सर्दियों के मौसम में छत्तीसगढ़ में कई तरह के प्रवासी-अप्रवासी पक्षी बतौर मेहमान आते हैं। राज्य के कइयों जलाशय मेहमान परिंदों और दुर्लभ पक्षियों की मेजबानी से गुलजार दिखाई दे रहें है। बिलासपुर जिले का कोपरा जलाशय हो या फिर रायपुर, दुर्ग, बेमेतरा जिले में स्थित वैटलैंड। सभी जगह किसी ना किसी प्रजाति के मेहमान परिंदे आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। ऐसे में चम्मच जैसी चोंच वाले स्पून बिल का राज्य में दिखाई देना पक्षी प्रेमियों के लिए कौतुहल का विषय है । 
चम्मच जैसी चोंच वाले स्पून बिल छत्तीसगढ़ में बेमेतरा जिले के गिधवा, भिलाई समेत कई अन्य जगहों पर इसके पहले भी देखे गए हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग-बेमेतरा को जोड़ने वाले मार्ग पर स्थित एक जलाशय में चम्मच जैसी चोंच वाले स्पून बिल इन दिनों अच्छी खासी संख्या में देखे जा रहें हैं। स्पून बिल, स्टोर्क प्रजाति के होते हैं और लगभग 18 इंच ऊंचे होते है। यह अमुमन फ्लेमिंगों, सारस जैसे पक्षियों के झुण्ड के बीच ही रहना पसंद करते हैं। स्पून बिल जलाशय के समीप ही पेड़ों पर रहते हैं। जानकार बताते हैं स्पून बिल जिसे हिन्दी में चमचा या डाबिल कहते हैं, पालतू बतख से कुछ बडी होती है, लगभग 18 इंच । इसकी टाँगे और गर्दन लम्बी होती है और रंग एक दम सफेद होता है। इसकी चोंच बहुत ही सुस्पष्ट और काफी पीली चौडी तथा चपटी होती है। इसकी चोंच का सामने वाला सिरा एक स्पेटुला या चपटे चमचे के आकार का होता है। प्रजनन काल में इसके सर पर एक मोरछलनुमा पीली कलगी और गर्दन के आगे नीचे भाग में पीला लम्बा धब्बा उभर आता है।यह चिडिया प्राय: अकेली या 15-20 के समूह में या सारसों या दलदल में रहने वाली अन्य चिडियों के साथ रहना पसंद करती है। यह पक्षी वैसे तो भारत में निवास करती है किन्तु शरद ॠतु में बाहर से भी अन्य स्पून बिल पक्षी के आ जाने से इनकी संख्या बढ ज़ाती है।


स्पून बिल दलदल, झीलों, नदियों के कीचड वाले किनारों पर रहते हैं। यह सुबह-शाम भोजन की तलाश में खूब मेहनत करता है और दोपहर में दलदली किनारों पर आराम कर लेता है। यह अपने भोजन के ठिकाने तक पहुँचने से पहले इकहरी तिरछी कतार में, अथवा अंग्रेजी के वी के आकार में धीरे-धीरे पंख लहराता उडता रहता है। उडते समय इसकी गर्दन और टाँगे तनी रहती हैं। ये बहुत ऊँचाई पर उडते हैं। इनका खाना मेंढक और उनके टेडपोल, घोंघें (मोलस्क जाति के जीव) और पानी के कीडे और कुछ मुलायम वनस्पति होते हैं। इनका पूरा झुंड उथले पानी में घुस जाता है ये अपनी गर्दन आगे और अधखुली चोंच टेढी क़रके, चोंच की नोक से कीचड उलट-पुलट करती इधर-उधर घूमते हैं। यह बोलने के नाम पर हल्का सा गुर्राते-से हैं। यह झील के आस-पास पनकौओं, सारसों, बगुलों के साथ पेड पर तिनकों का चबूतरा नुमा घोंसला बनाते हैं। ये एक बार में 3 अण्डे देते हैं जो रंग में मटमैले सफेद कहीं कहीं गहरे बारीक कत्थई धब्बे लिये होते हैं। इनका नीडन काल जुलाई से नवम्बर के बीच होता है। [तस्वीरें / 10 फरवरी 2019] 

सिपाही बुलबुल, कुर्बानी या बलिदान भावना का प्रतीक

[TODAY छत्तीसगढ़] / बुलबुल, शाखाशायी गण के पिकनोनॉटिडी कुल का पक्षी है और प्रसिद्ध गायक पक्षी "बुलबुल हजारदास्ताँ" से एकदम भिन्न है। ये कीड़े-मकोड़े और फल फूल खानेवाले पक्षी होते हैं। ये पक्षी अपनी मीठी बोली के लिए नहीं, बल्कि लड़ने की आदत के कारण शौकीनों द्वारा कभी पाले जाते रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि केवल नर बुलबुल ही गाता है, मादा बुलबुल नहीं गा पाती है। बुलबुल कलछौंह भूरे मटमैले या गंदे पीले और हरे रंग के होते हैं और अपने पतले शरीर, लंबी दुम और उठी हुई चोटी के कारण बड़ी सरलता से पहचान लिए जाते हैं। विश्व भर में बुलबुल की कुल 9700 प्रजातियां पायी जाती हैं। इनकी कई जातियाँ भारत में पायी जाती हैं, जिनमें "गुलदुम (red vented) बुलबुल" सबसे प्रसिद्ध है।

  • गुलदुम (red vented) बुलबुल,
  • सिपाही (red whiskered) बुलबुल,
  • मछरिया (white browed) बुलबुल,
  • पीला (yellow browed) बुलबुल तथा
  • काँगड़ा (whit checked) बुलबुल।
ऊपर तस्वीरों में जो बुलबुल दिखाई पड़ रही है वो (red whiskered) यानी सिपाही बुलबुल है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी क्रान्तिकारी व उर्दू शायर पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ने भारत में बहुतायत में पायी जाने वाली प्रजाति सिपाही बुलबुल को प्रतीक के रूप में प्रयोग करते हुए अनेकों गज़लें लिखी थीं। उन्हीं में से एक गज़ल वतन के वास्ते का यह मक्ता बहुत लोकप्रिय हुआ था:
क्या हुआ गर मिट गये अपने वतन के वास्ते।
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते॥
जैसा कि चित्र दीर्घा में दिये गये फोटो से स्पष्ठ है सिपाही बुलबुल ( Red whiskered Bulbul) की गर्दन में दोनों ओर कान के नीचे लाल निशान होते हैं जो कुर्बानी या बलिदान भावना का प्रतीक है। इसीलिये गज़ल में बुलबुल शब्द प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है।

साल का पहला दिन, कानन चिड़ियाघर में उमड़ा जनसैलाब

[TODAY छत्तीसगढ़] / साल 2019 के पहले दिन यानी आज एक जनवरी को हर इंसान ने अपने-अपने तरीके से दिन की शुरुवात की। हजारों लोग पहले मंदिर पहुंचे तो हजारों-हजार लोग जंगल, आस-पास के पर्यटन  स्थलों में जमा हुए। मंगलवार को नए साल के पहले दिन कानन चिड़िया घर में जश्न मनाने वालों का हुजूम देखा गया। कानन मिनी जू में आज हजारों की संख्या में पर्यटक भ्रमण करने पहुंचे । सुबह 9 बजे से सैलानियों का आना कानन में शुरू हो गया जो शाम 4 बजे तक अनवरत जारी रहा। हर साल की तरह इस बार भी नया साल मनाने वालों के लिए कानन चिड़िया घर पहली पसंद बना रहा। एक अनुमान के मुताबिक़ इस बार पिछले साल की तुलना में अधिक सैलानी नया साल का जश्न मनाने पहुंचें। विभागीय आंकड़ों के अनुमान पर गौर करें तो करीब 25 हजार से अधिक पर्यटकों ने आज कानन चिड़िया घर पहुंचकर नए साल के पहले दिन को यादगार बनाया। 
                 
बिलासपुर जिला मुख्यालय से करीब 9 किलोमीटर की दुरी पर कानन चिड़िया घर में हर साल की तरह इस बार भी नए साल का जश्न मनाने वालों का हुजूम उमड़ा, शहर के अलावा जिले के विभिन्न हिस्सों से सैलानी परिवार सहित कानन पहुंचे। यहां मौजूद वन्य  दीदार, पक्षियों के दर्शन और प्रकृति के सौंदर्य को महसूस करते हजारों पर्यटकों का  कैसे बीता उन्हें पता ही चला। जमकर उत्साह-उमंग के बीच कानन में नए साल का पहला दिन यादगार मनाने पहुंचे बेमेतरा के दिनेश कश्यप ने कहा सब कुछ अच्छा है, कानन से बढ़िया कोई पिकनिक स्पॉट नहीं हो सकता लेकिन सफेद बाघ को नहीं देख पाने का मलाल है। दरअसल कुछ ही समय पहले सफ़ेद बाघ विजय की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी। इधर मुंगेली से आये कीरित टंडन ने कहा वो जब भी छुट्टी बिताने का जी करता है कानन ही आते हैं। गुजरात में रहने वाली प्रियंबदा डोरिया इसी साल शादी होकर बिलासपुर आई है, कानन एक बार पहले भी आ चुकी थी लेकिन आज का जनसैलाब देखकर वो हैरान थी।  कहा उनके अहमदाबाद में कमला नेहरू चिड़िया घर है लेकिन  सैलानी घूमने नहीं आते। 
           इधर हजारों सैलानियों को संभालने के लिए जू प्रबंधन ने पुख्ता इंतजाम का दावा जरूर किया था लेकिन भीतर में तमाम अव्यवस्थाओं की झलकियां देखने को मिली ।  वैसे इस बार भी कानन प्रबंधन ने पार्किंग से लेकर एंट्री और टिकट काउंटर की अतिरिक्त सुविधा मुहैया कराई थी । इस साल कानन पहुँचने वाले पर्यटकों को नए वन्यप्राणी तो देखने नहीं मिले लेकिन वर्तमान में मौजूद वन्यप्राणियों की तस्वीर बने बैनर लगाकर छह अलग- अलग सेल्फी पाइंट बनाए गए थे । यह प्रयोग इस बार नया बिलकुल नया रहा, वैसे भी ये दौर सेल्फी-वेल्फी का है। 
63 वनकर्मी और 30 पुलिस कर्मी ड्यूटी में तैनात रहे - 
पर्यटकों को बेहतर व्यवस्था देने के साथ- साथ उनकी सुरक्षा भी अहम जिम्मेदारी भी है। यही वजह है कि इस बार 20 पुरुष व 10 महिला पुलिसकर्मियों को तैनात करने का निर्णय लिया गया था । इसके अलावा जू के कर्मचारियों के अतिरिक्त  63 कर्मचारियों की ड्यूटी लगाई गई थी । मुख्य सड़क पर यातायात व्यवस्था को सुचारु रखने ट्रेफिक के जवान भी मुस्तैद दिखे। 


'हुदहुद' सिर्फ एक पक्षी नहीं ..

[TODAY छत्तीसगढ़] / हुदहुद सिर्फ एक पक्षी नहीं, साल 2014 में हुदहुद दहशत और तबाही का दुसरा नाम बन चुका था । हिंदुस्तान में उस साल हर कोई हुदहुद के नाम से कांप रहा था। हुदहुद नाम के समुद्री तूफ़ान ने उन दिनों भारत के पूर्वी तटवर्तीय इलाक़ों, ख़ास तौर से आंध्र प्रदेश और ओडिशा के कुछ इलाकों में क़हर बरपाया था। दरअसल हुदहुद अरबी भाषा में हूपु नाम की चिड़िया को कहा जाता है। हुदहुद नाम ओमान में रखा गया है। हुदहुद (हुपु) इजरायल का राष्ट्रीय पक्षी भी है। दिखने में रंग-बिरंगा यह परिंदा भारत में कठफोड़वा नाम से जाना जाता है। अफ्रीका व यूरेशिया में भी यह पक्षी पाया जाता है। इस मौसम में इनकी आमदरफ्त बढ़ जाती है। इन दिनों बिलासपुर जिले समेत राज्य के कई इलाकों में इन्हे देखा जा सकता है। 

'हुदहुद' चक्रवाती तूफान - 
हुदहुद एक उष्णकटिबंधीय चक्रवाती तूफान है। यह उत्तरी हिंद महासागर में बना 2014 का अब तक का सबसे ताकतवर तूफान है। इसका नाम हुदहुद नामक एक पक्षी के नाम से लिया गया है। इसके नाम का सुझाव ओमान ने दिया।
यह 6 अक्टूबर 2014 को अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह से होते हुए 12 अक्टूबर को आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में टकराया। 12 अक्टूबर से पहले इसकी गति बढ़ते-बढ़ते 215 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुँच गई थी। हुदहुद तूफान के कारण 38  रेल यात्राओं को रद्द कर दिया गया।
7  अक्टूबर को यह उत्तरी हिंद महासागर में बना व पहली बार दिखाई दिया।
8  अक्टूबर को यह अण्डमान और निकोबार से होते हुए बंगाल की खाड़ी में गया। इसके बाद यह 8 से 11  अक्टूबर तक यहीं विकराल रूप व अपनी गति अधिक करता रहा।
11  अक्टूबर को इसके कारण ओडिशा व आंध्र प्रदेश में तेज हवा के साथ वर्षा होने लगी।
12  अक्टूबर को यह आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में 215 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से टकराया। इसी रात 11 से 12 के मध्य यह छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले से होते हुए 50 किलोमीटर की गति से पहुँचा व अगले दिन के सुबह यह चला गया। इसके बाद कई स्थानो में वर्षा हुई।
13  अक्टूबर यह छत्तीसगढ़ में 50 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से बस्तर से रायपुर संभाग की ओर गया।
14 अक्टूबर को इसके कारण दिल्ली व उत्तर प्रदेश में इसका प्रभाव दिखने लगा। 



मिटटी से सने हाथ



[TODAY छत्तीसगढ़ ]  / कोपरा गांव की चौपाल पर रोज बनती बिगड़ती इस कहानी में बच्चों ने किसान की पोटली, उसमें रखे सिक्के, झोपड़ी बनाने से शुरुआत की है। जिंदगी की हकीकतों से रु-ब-रु होते बचपन के हाथ मिटटी से सने हैं। इन्हे देखकर लगता है इन बच्चों की कृतियों में संवेदनाएं-कल्पना सजीव होने लगीं हैं । इन गरीब बच्चों ने शायद उस रामू के संघर्ष की कहानी नहीं सुनी जो अपनी मां के फटे कपड़ों को देखकर उसके लिए एक साड़ी जुटाने की आस में कड़ी मेहनत कर पैसे जमा करता है। इन्होने राजा-रानी, परियों की, शेर-चीतों की कहानियां भी शायद ना सुनी हों जिनमें कल्पनाएं, रोमांच और जीवन के कई सबक छिपे होते हैं। अपने घरौंदे को देख मिट्‌टी में उन किरदारों को रचते जाना इन बच्चों ने सीख लिया है। 

 जिंदगी की हकीकतों से रु-ब-रु होते बचपन के हाथ मिटटी से सने हैं
[तस्वीरें / बिलासपुर जिले के ग्राम कोपरा से, छत्तीसगढ़] 
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