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'पृथ्वी दिवस या अर्थ डे' सिर्फ एक दिन क्यों ?

[TODAY छत्तीसगढ़] / "महात्मा गाँधी ने कहा था कि प्रकृति में इतनी ताकत होती है कि वह हर मनुष्य की 'जरुरत' को पूरा कर सकती है लेकिन पृथ्वी कभी भी मनुष्य के 'लालच' को पूरा नही कर सकती है।"
विश्व पृथ्वी दिवस है, गांधी की वो बात याद आई लेकिन उनके कथन को यथार्थ पर देखें तो चारो तरफ सिर्फ और सिर्फ 'लालच' दिखाई देता है। पृथ्वी दिवस की स्थापना अमेरिकी सीनेटर गेलोर्ड नेल्सन ने पर्यावरण शिक्षा के रूप की थी। वर्ष 1970 से प्रारम्भ हुए इस दिवस को आज पूरी दुनिया के 195 से अधिक देश मनाते हैं। वर्तमान में पृथ्वी दिवस की गतिविधियों में पूरी दुनिया में लगभग 1 अरब से अधिक लोग हर साल भाग लेते हैं। पृथ्वी दिवस एक वार्षिक आयोजन है, जिसे 22 अप्रैल को दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के समर्थन में आयोजित किया जाता है। इस तारीख के समय उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद का मौसम रहता है। 22 अप्रैल 1970 को आयोजित पहले पृथ्वी दिवस में 20 मिलियन अमेरिकी लोगों ने भाग लिया था जिसमे हर समाज, वर्ग और क्षेत्र के लोगों ने भाग लिया था। इस प्रकार यह आन्दोलन आधुनिक समय के सबसे बड़े पर्यावरण आन्दोलन में बदल गया था। 
"पृथ्वी दिवस या अर्थ डे" शब्द को जुलियन कोनिग 1969 ने दिया था। इस नए आन्दोलन को मनाने के लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया, इसी दिन केनिग का जन्मदिन भी होता है। उन्होंने कहा कि "अर्थ डे" "बर्थ डे" के साथ ताल मिलाता है, इसलिए उन्होंने 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाने का सुझाव दिया था। पृथ्वी बहुत व्यापक शब्द है जिसमें जल, हरियाली, वन्यप्राणी, प्रदूषण और इससे जु़ड़े अन्य कारक भी हैं। धरती को बचाने का आशय है इसकी रक्षा के लिए पहल करना, न तो इसे लेकर कभी सामाजिक जागरूकता दिखाई गई और न राजनीतिक स्तर पर कभी कोई ठोस पहल की गई। धरती को बचाने का आशय है इन सभी की रक्षा के लिए ठोस पहल करना लेकिन इसके लिए किसी एक दिन को ही माध्यम बनाया जाए, शायद यह उचित नहीं है ? हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके बचाव के लिए कुछ न कुछ उपाय करते रहना होगा ।
पॉलीथीन पृथ्वी के लिए सबसे घातक है, फिर भी हम इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। पृथ्वी दिवस 2018 की थीम भी इसी “प्लास्टिक को ख़त्म करने” पर आधारित थी जबकि इस वर्ष 2019 के पृथ्वी दिवस की थीम "Protect Our Species" है। इस ख़ास दिन पर हमको एक बार फिर चिंतन करने की जरूरत है। तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी पेड़ को काटना और नदियों, तालाबों को गंदा करना इंसान के दैनिक जीवन का हिस्सा बना हुआ है जिस पर प्रभावी लगाम की जरूरत है। अगर गंभीरता से विचार करें तो हमें विश्व का मानव संसाधन पर्यावरण जैसे मुद्दों के प्रति कम जागरूक दिखाई देगा। पृथ्वी के प्रति मानव की शोषण धारित प्रवृत्ति धरती को विनाश के रास्ते पर ले जा रही है। इसके पीछे वन और पर्यावरण सुरक्षा कानूनों का शिथिल होना भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है।
वैसे व्यंग्य करने वाले लोग वायु प्रदुषण को "समृद्धि की गंध" कहते हैं। अगर हर देश में वनों का इसी तरह से अंधाधुंध विनाश होता रहा अर्थात जंगलों को उजाड़कर कंक्रीट के जंगल बनते रहे, उद्योग लगते रहे और विश्व के नेता और उद्योगपति अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों को मौजमस्ती का अड्डा समझते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब यह प्रथ्वी फिर से आग का गोला बन जाएगी और सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

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