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हाशिए पर खड़ा घुमंतू समाज इस त्रासदी के बाद और कितना पिछड़ जाएगा ?



TODAY छत्तीसगढ़  /  ये एक ऐसे समाज की तस्वीर है जो निरंन्तर घूमते रहते हैं, एक शहर से दूसरे शहर । इस गांव से उस गांव। इनकी एक रंग-बिरंगी संस्कृति और जीवन शैली है लेकिन इस दौर में इस समुदाय के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। पहले से ही हाशिए पर खड़ा घुमंतू समाज इस त्रासदी के बाद और कितना पिछड़ जाएगा, सवाल बना हुआ है । 


गुजराज के कच्छ से आये रैबारी समाज के महेंद्र , परिवार के 19 सदस्यों के साथ इन दिनों रतनपुर-बेलगहना मार्ग पर एक खेत में शरण लिए हुए हैं। एक दिन पहले ही नवागांव [बेमेतरा] से यहाँ पहुंचें हैं । लॉकडाउन के चलते इन्हें करीब दो महीने तक नवागाँव के बाहर एक खेत में ही शरण लेनी पड़ी। संक्रमणकाल में मिली कुछ रियायतों के बाद सफ़र फिर से शुरू हुआ है। 65 वर्षीय महेंद्र बताते हैं कि ऊँट, भेड़-बकरियों को लेकर पिछले तीन दशक से छत्तीसगढ़ के विभिन्न इलाकों में आ रहे हैं। कुछ बच्चों ने तो इसी राज्य में जन्म भी लिया है । महेंद्र कहते हैं कि ये साल अच्छा नहीं रहा। कोरोना महामारी ने भूखों मरने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है, खुद के खाने का जैसे-तैसे इंतजाम कर भी लें तो रेवड़ यानी अपने मवेशियों को कहाँ से खिलाएं ?
लॉकडाउन के चलते अपने घरों को लौटने को मज़बूर प्रवासी मज़दूरों की सड़कों पर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा पूरे देश ने देखी लेकिन ऐसे ही कई परिवार हैं जो घूमंतु समदाय से जुड़े हैं वो भी कई अलग-अलग राज्यों में फंस गए हैं और अब वे अपने इलाके में वापसी करना चाहते हैं। बेलगहना-केंदा के रास्ते मध्यप्रदेश के अनूपपुर की ओर निकला ये काफ़िला गाँव की बाहरी सीमा से गुजरता है, गाँव में कई स्थानों पर पुलिस और ग्रामीणों की प्रताड़ना का शिकार ऐसे कइयों परिवार संकट के सबसे बुरे दिनों को काट रहे हैं। इन लोगों के पास कोई सरकारी सहायता भी नहीं पहुंच रही और नाही स्थानिय लोग इन्हें अपना मानकर मदद कर रहे हैं। मवेशियों के साथ-साथ खुद भूख से लड़ रहे इन परिवारों का आरोप है की मदद तो दूर कई जगहों पर पुलिस और वन विभाग के कुछ लोग डरा-धमकाकर खाने के लिए बकरियाँ ले लेते हैं, कुछ जगह पर केवल रुपयों की मांग होती है। क्या करें, कैसे करें समझ नहीं आता। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें
ऊंट पालक महेंद्र के बेटे जगदीश जिनकी उम्र फिलहाल 24 बरस है उन्होंने छत्तीसगढ़ में ही जन्म लिया, वे बताते हैं की गर्मियों मे वहां [कच्छ, गुजरात] का इलाका पूरी तरह सूख जाता है इसलिए हम लोग अपने मवेशियों को लेकर हरियाणा, पंजाब, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कुछ आस-पास के राज्यों की ओर निकल जाते हैं। वहां हमें चारा और गुजारे के लिए कुछ काम भी मिल जाता है। जब वहां अगस्त के आखिर या सितंबर की शुरुआत में मौसम थोड़ा ठीक-ठाक हो जाता है, बारिश होने लगती है, तो हम वहां अपने मवेशियों के साथ अपने टोलों में वापस लौट जाते हैं।
आपको बता दें कि राजस्थान और गुजरात में पशुपालन का व्यवसाय रायका-रैबारी, बागरी ओर बावरिया समाज से जुड़े हुए लोग करते हैं। ये समाज सालों से यही काम कर रहा हैं। भारत में ऊंट पालने का काम ये सभी जातियां करती हैं किन्तु इनकी ब्रीडिंग रायका- रैबारी लोग ही करवाते हैं। ये ब्रीडिंग राजस्थान के मारवाड़ के साथ-साथ गुजरात के कच्छ में भी होती है। कहते हैं ऊंट रेगिस्तान का जहाज है तो बकरी गरीब की गाय है। भेंड़-बकरी को थोड़ा सा चराकर कभी भी दूध निकाला जा सकता है। मरुभूमि में गरीब व्यक्ति के पोषण का आधार भेंड़-बकरी ही है जो उसके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी है।
एक जानकारी के मुताबिक़ रेनके कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में 98% घुमंतू बिना जमीन के रहते हैं। इनमें 57% झोंपड़ियों में और 72% लोगों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज तक नहीं हैं। 94% घुमंतू बीपीएल श्रेणी में नहीं हैं। ऐसे में इन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ मिलना असंभव है। ऐसे में इस समुदाय के लिए सरकार को अलग से योजनाएं लानी होंगी नहीं तो इन लोगों पर काफी प्रतिकूल असर होगा।
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