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सफ़रनामा, सत्यप्रकाश के साथ : मैं मुसाफिर हूँ, मेरी सुबह कहीं शाम कहीं ...

ये यायावर पशुपालक आज यहाँ कल कहीं और... ।  बीते 11 नवम्बर को मेरे जिले (बिलासपुर) की सरहद से करीब 130 किलोमीटर दूर ग्राम तरच (मध्यप्रदेश) के घुमावदार मोड़ पर इन यायावरों से मेरा अचानक आमना-सामना हुआ। हम काले हिरणों की शरण स्थली, कारोपानी जा रहे थे और ये उसी रास्ते से 24 किलोमीटर का सफर और तय कर छत्तीसगढ़ की सीमा में प्रवेश करने वाले थे। अक्सर इनके काफ़िले को देखकर मैं रुक जाता हूँ, जिज्ञासा इनको जी भरकर देखने की और लालच कुछ तस्वीरों का।

 हर साल की तरह इस बरस भी हजारों मील की दूरी क़दमों से नाप देने वाले यायावर अपने अस्थाई ठिकानों को लौट रहे थे । उस मोड़ पर इनको देख मैंने कार रोकी और सड़क किनारे रुका, ये चलते रहे। कुछ तस्वीरों के बाद चलते-चलते मेरी बात उस युवा से हुई जिसके कदमों के पीछे ऊंटों का रेला कदमताल कर रहा था । बातचीत की औपचारिकता में पता चला कि काफ़िल राजस्थान से मई माह के अंतिम सप्ताह में चला है। राजस्थान के जोधपुर से 65 किलोमीटर दूर भेंलड़ गाँव के रहने वाले तेजसिंग कुनबे के अगवा हैं, उन्होंने बताया उनके सूबे में पशुओं के चारों का संकट दशकों पुरानी समस्या है लिहाज हर साल गर्मी की शुरुआत होते ही वे दूसरे राज्यों की ओर निकल पड़ते हैं। 

        तेजसिंह कहते हैं उनके जैसे सैकड़ों परिवार हैं जो हर बरस देश के दूसरे प्रांतों का रुख करते हैं । राजस्थानी जहाज ऊँट, भेड़, कुत्तों के बीच जिंदगी जीने की तमाम जरूरतों के साथ सैकड़ों किलोमीटर का सफर पैदल तय करते हैं । ये यायावर पूरी जिंदगी सफ़र पर होते हैं जो प्रकृति के रौद्र रूप और उसके सौंदर्य को काफी करीब से देखते और भोगते हैं । पशुचारा की आड़ में व्यवसाय पर निकले ये लोग शिक्षा से कोसो दूर होते हैं । हालांकि अशिक्षा इनके व्यवसाय में आड़े नहीं आती । 

        आपको बता दें कि राजस्थान और गुजरात में पशुपालन का व्यवसाय रायका-रैबारी, बागरी ओर बावरिया समाज से जुड़े हुए लोग करते हैं। ये समाज सालों से यही काम कर रहा हैं। भारत में ऊंट पालने का काम ये सभी जातियां करती हैं किन्तु इनकी ब्रीडिंग रायका- रैबारी लोग ही करवाते हैं। ये ब्रीडिंग राजस्थान के मारवाड़ के साथ-साथ गुजरात के कच्छ में भी होती है। कहते हैं ऊंट रेगिस्तान का जहाज है तो बकरी गरीब की गाय है। भेंड़-बकरी को थोड़ा सा चराकर कभी भी दूध निकाला जा सकता है। मरुभूमि में गरीब व्यक्ति के पोषण का आधार भेंड़-बकरी ही है जो उसके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी है। 

              जानकार ये भी बताते हैं सैकड़ों भेड़ और ऊँट लेकर हजारों मील सफ़र तय करने वाले ये लोग रंगमंच की वो कठपुतलियां हैं जिनकी डोर दूर देश में बैठे इनके आकाओं के पास होती है । इनको तो बस चलते जाना है... बस चलते जाना । रास्ता कब ख़त्म होगा ये जानने की ख्वाहिश में पीढियां गुजर गई । 

ऊंट से सीखें जीवन जीने की कला - 

ऊंट रेगिस्तान का जहाज कहलाता है. कठोर वातावरण में भी जिंदगी जीने का हुनर रखने वाला ये जीव हमें जीवन के कई अनमोल पाठ सिखाता है. 

 O रेगिस्तान की भीषण गर्मी और पानी की कमी को सहने वाला ऊंट हमें संयम और कठिन परिस्थितियों में धैर्य रखना सिखाता है.

O ऊंट अपने शरीर में वसा का संचय करके लंबे समय तक भोजन और पानी के बिना रह सकता है. यह हमें दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित करने और उन्हें पाने के लिए संसाधनों का समझदारी से इस्तेमाल करने की सीख देता है.

O रेगिस्तान के कठिन रास्तों पर चलने वाला ऊंट हमें कठिन परिश्रम और दृढ़ निश्चय का महत्व समझाता है.

O ऊंटों का एक समूह मिलकर चलता है. यह हमें सहयोग और टीम वर्क के बल पर किसी भी चुनौती का सामना करने की सीख देता है.

O ऊंट रेगिस्तान के सीमित संसाधनों में ही अपना जीवन यापन कर लेता है. यह हमें सादगी से जीना और संतुष्ट रहना सिखाता है.

O रेगिस्तान के बदलते तापमान और वातावरण में रहने वाला ऊंट हमें परिस्थिति के अनुसार खुद को ढालना सिखाता है.

O ऊंट अपने चौड़े पैरों से रेत में आसानी से चल सकता है. यह हमें समस्याओं का समाधान खोजने और चुनौतियों से पार पाने की सीख देता है.

O रेगिस्तान में भटकते हुए भी ऊंट पानी की तलाश जारी रखता है. यह हमें धैर्य न खोने और आशा बनाए रखने का पाठ देता है.

O ऊंट भारी सामान ले जाने में सक्षम है. यह हमें शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनने की सीख देता है.

O ऊंट आमतौर पर शांत और मिलनसार स्वभाव का होता है. यह हमें दूसरों के साथ सद्भाव से रहने का पाठ देता है.

O ऊंटों की चराई से रेगिस्तान की मिट्टी मजबूत होती है, जिससे मरुस्थलीकरण रुकता है. यह हमें पर्यावरण संरक्षण के महत्व का बोध कराता है.

O ऊंट पालने वाले समुदाय रेगिस्तान में रहने के लिए सदियों से अनूठ तरीके अपनाते आए हैं. यह हमें पारंपरिक ज्ञान के सम्मान का पाठ देता है.

O ऊंट रेगिस्तान में कम पानी और भोजन में ही अपना गुजारा कर लेता है. यह हमें आत्मनिर्भर बनने और संसाधनों का प्रबंधन करने की सीख देता है.

O ऊंट रेगिस्तान में लगातार चलता रहता है. यह हमें जीवन में निरंतर प्रगति करते रहने और सीखने का पाठ देता है.

आंसू, गम, गुस्‍सा : करवा चौथ पर अधूरी वीडियो कॉल... गांदरबल में आतंक के दर्द की 4 कहानियां

जम्‍मू-कश्‍मीर के गांदरबल में हुए आतंकी हमले के जख्‍म शायद ही कभी भर पाएं. इस हमले में जिन सात घरों को उजाड़ा है, वहां इस समय मातम पसरा हुआ है. इनके परिवारजनों की आंखों में आंसू हैं, तो मन में आतंकियों के प्रति गुस्‍सा.
 नई दिल्‍ली /  TODAY छत्तीसगढ़  /  जम्‍मू-कश्‍मीर के गांदरबल में हुए आतंकी हमले में कई घर उजड़ गए. इस हमले में 7 लोगों की मौत हो गई. इन सात घरों में इस समय मातम पसरा हुआ है. परिवारजनों का रो-रोकर बुरा हाल है. किसी की आंखों में आंसू हैं, तो किसी की आंखों में आतंकियों के लिए गुस्‍सा. इन्‍हें जो घाव मिला है, वो कभी भर नहीं पाएगा. आतंकियों ने दिन भी करवा चौथ का चुना, जब सुहागन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं. हमले में मारे गए शशि अबरोल की पत्‍नी रुचि ने चांद निकलने के बाद पति को वीडियो कॉल किया, लेकिन फोन नहीं उठा, सिर्फ घंटी बजती रही.

चांद दिखने पर किया वीडियो कॉल, लेकिन...दर्द की पहली कहानी

जम्‍मू के तालाब तिल्‍लो के रहने वाले शशि अबरोल की पत्‍नी रुचि ने करवाचौथ का व्रत रखा था. आर्किटेक्‍ट पति गांदरबल में एक प्रोजेक्‍ट साइट पर काम करने के लिए गए थे. उनका शाम को घर आ पाना संभव नहीं था. ऐसे में रुचि ने शाम को मंदिर में पूजा करने के लिए जाने से पहले पति से बात की थी. शशि ने पत्‍नी से वादा किया था कि वह चांद निकलने पर वीडियो कॉल करेंगे. आसमान में चांद निकला, लेकिन शशि अबरोल का फोन नहीं आया. शशि ने जब वीडियो कॉल किया, तब भी शशि अबरोल ने फोन नहीं उठाया. रुचि को लगा कि किसी काम में व्‍यस्‍त होंगे. कुछ समय बाद फिर रुचि ने फोन किया, लेकिन फिर घंटी बजती रही. रात 12 बजे तक रुचि अपने पति को फोन करती रही, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. 12 बजे के बाद फोन बंद हो गया. सुबह खबर आई कि शशि अबरोल की आतंकी हमले में मौत हो गई है. इसके बाद शशि अबरोल के घर में जो मातक छाया, वो अब भी नजर आता है. रुचि और उनकी 8 साल की बेटी का रो-रोकर बुरा हाल है. बेटी मां के आंखों से आंसू पोंछती है और कहती है- मम्‍मी मत रोना..., लेकिन मासूम की आंखों से भी आंसू रुक नहीं रहे हैं. 

फोन पर बताया- मुझे गोली लगी है.... दर्द की दूसरी कहानी

पंजाब के बटाला के रहने वाले 40 वर्षीय गुरमीत अपनी पत्‍नी चरनजीत के साथ बात कर रहे थे. पत्‍नी ने करवाचौथ का व्रत रखा था और शाम का समय था. गुरमीत भी काम खत्‍म कर चुका था. दोनों बातें कर रहे थे, तभी चरनजीत को पटाखे चलाने की आवाज फोन से आने लगी. चरनजीत ने गुरमीत से पूछा कि ये आवाजें कैसी आ रही हैं? गुरमीत ने बताया कि ऐसा लग रहा है कि साइट पर आतंकियों ने हमला कर दिया है. ये पटाखों की नहीं गोलियों के चलने की आवाज है. इसके बाद गुरमीत से मुंह से एक चीख की आवाज आई. चरनजीत ने पूछा- क्‍या हुआ..? गुरमीत ने बताया कि हाथ में गोली लगी है, फोन रखो. इसके बाद फोन बंद हो गया. चरनजीत ने सोचा नहीं होगा कि पति गुरमीत से ये उनकी आखिरी बातचीत है. इसके बाद वह कभी पति से बात नहीं कर पाएंगी. चरनजीत का अब रो-रोकर बुरा हाल है, वह बार-बार उस फोन कॉल का जिक्र कर रही हैं.

पिता शाहनवाज गए, बेटे का ख्‍वाब रह गया अधूरा- दर्द की तीसरी कहानी

कश्‍मीर के बड़गाम जिले के डॉ. शाहनवाज अब इस दुनिया में नहीं रहे. इसके साथ ही उनके बेटे मोहसिन का ख्‍वाब भी टूट गया है. शाहनवाज अपने बेटे मोहसिन को आइएएस ऑफिसर बनाना चाहते थे. पिता की मौत पर बेटे मोहसिन के आंखू थम नहीं रहे हैं. वह बोले, 'पिता के साथ मेरा ख्‍वाब भी टूट गया है. मैं आइएएस बनना चाहता था. पिता इसके लिए बहुत मेहनत करते थे. कई बार मैं उनसे कहता था कि इतनी मेहनत क्‍यों करते हैं, थोड़ा आराम भी कर लिया कीजिए. इस पर वह कहते थे- एक बार तुम आइएएस अधिकारी बन जाओ, इसके बाद मैं आराम करूंगा.' मोहसिन कहते हैं कि अब मेरा ख्‍वाब कभी पूरा नहीं होगा, क्‍योंकि इसे पूरा करने वाला ही चला गया है. मोहसिन में घर में भी मातम छाया हुआ है. परिवार के लोगों को रो-रोकर बुरा हाल है. गांदरबल में हुए आतंकी हमले में डॉ. शाहनवाज की भी मौत हो गई है.   

मेरे पापा कब आएंगे...?- दर्द की चौथी कहानी

गांदरबल के आतंकी हमले में मारे गए शशि अबरोल की एक 8 साल की बेटी है. वह बार-बार अपनी दादी से पूछ रही थी- पापा कब आएंगे. मां और दादी ने जब उसे समझाया कि उसके पापा अब कभी नहीं आएंगे, आतंकियों ने उसके पापा को मार दिया है, तो उसकी आंखों में आंसू और चेहरे पर गुस्‍सा था. उसने कहा, "आतंकवादी बहुत बुरे हैं, उन्‍होंने मेरे पापा को मार डाला." आतंकवादी कौन होते हैं, शायद अभी इस मासूम को पता भी नहीं होगा. लेकिन आतंकियों ने जो दर्द इस मासूम को दिया है, उसे वह शायद कभी नहीं भुला पाएंगी. पापा को याद करते हुए इसके आंसू थम नहीं रहे हैं. 

जम्मू-कश्मीर के गांदरबल जिले के गगनगीर इलाके में आतंकियों ने बीते रविवार रात को एक डॉक्टर समेत 7 लोगों की हत्या कर दी थी. आतंकी हमले में बिहार के तीन मजदूरों की मौत हुई है, जिनकी पहचान फहीमन नासिर (सेफ्टी मैनेजर), मोहम्मद हनीफ और कलीम के तौर पर हुई है. इस आतंकी हमले में 5 मजदूर भी जख्मी हुए हैं. वहीं, गांदरबल आतंकी हमला की जांच अब एनआईए करेगी. (साभार / तिलकराज NDTV)

खुद पर सज़ा की तलवार और कर्मचारियों पर सौगातों की बौछार ...

      

मुखिया यूं तो तीन शब्दों का छोटा सा संगठन है, लेकिन मुखिया की चिंताएं बहुत बड़ी होती हैं| मुखिया एक छाते की तरह होता है, जो बारिश में पूरे परिवार पर तन जाता है | मुखिया तूफ़ान में उम्मीद की नाव होता है, जिसमें परिवार बचा रहता है| जिस मुखिया के साथ उसका परिवार एकजुट होकर हर दुःख दर्द में खड़ा रहता है, वह परिवार एक मिसाल बनकर रह जाता है | लेकिन दुखों की बारिश में छाते की तरह तना कोई मुखिया तब बहुत उदास और हैरान होता है, जब सुखों की धूप में मदमस्त परिवार के लोग उसे भूलकर खुले आकाश में लोप हो जाते हैं, परंतु एक ज़िम्मेदार मुखिया अगली बारिश के लिए चिंतित रहता है| मैं आपका ध्यान हिमाचल प्रदेश सचिवालय सेवाएं संगठन के अध्यक्ष संजीव शर्मा की तरफ आकर्षित करना चाहता हूँ |

(हिमाचल के एक नौजवान नेता संजीव शर्मा के लिए प्रकाश बादल 'खामखा' की आदरांजलि)

मैं कौन.. आप सभी लोग जानते हैं.. मैं खामखा.. खामखा का मतलब तो आप जानते ही होंगे.... संजीव शर्मा को मैं अधिक समय से नहीं जानता.. लेकिन थोड़े समय में बहुत अधिक जान गया हूँ.... एक नौजवान नेता.. जिसे सचिवालय के कर्मचारियों ने बार-बार आकर कहा.. की सरकार के समक्ष आवाज़ उठाए.... संजीव शर्मा ने सबसे पहले अपनी ज़िम्मेदारी का परिचय देते हुए एक अद्भुत पहल की कि वो प्रदेश के मुख्यमंत्री के समक्ष शपथ लेंगे कि कर्मचारी हितों में वो सरकार और सचिवालय के कर्मचारियों बीच एक सशक्त पुल बनाएंगे.. एक खुशी का माहौल था.. एक तरफ नव निर्वाचित मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू थे, जिहोंने ओपीएस लागू कर हिमाचल के कर्मचारियों को प्रफुल्लित किया था, दूसरी तरफ संजीव शर्मा अपने अनुभवों और संकल्पों के साथ कर्मचारियों का प्रतिनिधत्व करते हुए खड़े | आर्थिक संकट की बात कहकर यह पहली बार हुआ था कि कर्मचारियों ने अपने लंबित डीए की घोषणा न होने के बाद भी निराशा महसूस नहीं की, क्योंकि सरकारी वित्तीय बोझ को कर्मचारी बखूबी समझ सकते थे | संजीव शर्मा एक ज़िम्मेदार मुखिया की तरह डटे रहे | लगभग पच्चीस वर्षों की सरकारी नौकरी में कर्मचारी संगठनों को अपनी मांगों और वर्चस्व के लिए लड़ते हुए देखा है | लेकिन समय के साथ-साथ महत्वाकांक्षी और दिशाविहीन होते कर्मचारी संगठनों के बीच संजीव शर्मा को किसी उम्मीद की तरह देखा जा सकता है,निर्भय और निष्कपट होकर अपने परिवार के दुःख दर्द को बयान करते हुए | एक तरफ कुकरमुत्तों की तरह अपने-अपने स्वार्थों के लिए बन रहे संगठन हैं, जो मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे हैं, दूसरी ओर कर्मचारियों के हक़ हुकूक के लिए चिंतित संजीव शर्मा | अब नेता कौन है, यह आप तय करें| मैं सचिवालय सेवाएं संगठन या सचिवालय के सभी संगठनों में सिर्फ संजीव का नाम इसलिए ले रहा हूँ कि एक अध्यक्ष में पूरा संगठन समाहित होता है, और एक सजग संगठन की शक्ति को एक कुशल अध्यक्ष ही कार्यान्वित कर सकता है | इसलिए जब मैं संजीव शर्मा का नाम लूं तो सचिवायल के सभी कर्मचारी और सचिवालय के सभी संगठन खुद को इसमें शामिल समझें | मुख्यमंत्री के चक्कर काटते नेताओं और कुकरमुत्तों की तरह बनते कर्मचारी संगठनों से क्या ये सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर उनका एजेंडा क्या है | अगर उनका एजेंडा वही है जो संजीव शर्मा का एजेंडा है, तो वो एक नया संगठन बनाने के बजाए संजीव शर्मा के साथ क्यों नहीं जुड़ जाते |

हिमाचल में गठित दो-तीन कर्मचारी महासंघों का गठन किस आधार पर हो रहा है ? एक कर्मचारी संगठन दूसरे से बात क्यों नहीं करता और सबका एक ही अध्यक्ष क्यों नहीं होता | मतलब सीधा है, सत्तासीन सरकार के आगे-पीछे घूमने की ललक रखने वाले तथाकथित कर्मचारी नेता अपना स्वार्थ तो साध सकते हैं परंतु कर्मचारियों की आवाज़ नहीं बन पाते | मैं मुद्दे की बात पर आता हूँ | सचिवायल के प्रांगण का वो बूढा पेड़ (शायद चिनार का पेड़) सभी सुखों-दुखों का गवाह है, उस आन्दोलन के बिगुल का भी गवाह क्यों नहीं होगा.. जिसकी शुरूआत संजीव शर्मा की दहाड़ से हुई थी. इस दहाड़ में पूरा सचिवालय शामिल था.. एक कोने से दूसरे कोने तक कर्मचारियों का सैलाब | सब संजीव की वाहवाही कर रहे थे | यह भी पहली बार हुआ था कि सचिवालय के कर्मचारियों ने एक और पहल कर दी कि दो-दो तीन तीन कर्मचारी महासंघों की स्वघोषणा के वावजूद एक भी महासंघ कर्मचारियों की समस्याओं को लेकर मुखर नहीं हुआ तो संजीव ने सचिवालय से प्रदेश भर के कर्मचारियों की आवाज़ उठाई | यह एक नेता की दूरदर्शिता का प्रमाण है कि कर्मचारी सचिवालय का हो या किसी दूर दराज क्षेत्र का, कर्मचारी, कर्मचारी होता है। दूसरी ओर कर्मचारियों में परम्परागत तरीके से फूट डालने की नीयत लिए सरकार की तरफ से केवल उन्हीं संगठनों को बुलाया जाना, जो कहीं भी किसी विरोध में नहीं थे, भी यह स्पष्ट करता है कि कर्मचारियों को अलग-अलग टुकड़ों में बांटा जा रहा है | बावजूद इसके संजीव बेपरवाह डटे रहे.. कर्मचारियों के लिए चिंतन उनके चेहरे पर स्पष्ट देखा जा सकता है |

कोई कर्मचारी संगठन इतना हौसला नहीं कर सका कि अकेले राजाओं और वजीरों के भालों के बीच में दहाड़ते संजीव के साथ खड़ा हो | परन्तु संजीव अकेला खड़ा रहा और वजीरों और राजाओं के भाले बेअसर होकर लौट गए।| सचिवालय कर्मचारियों की भी दाद देनी होगी कि चट्टान की तरह सामने खड़े रहे और सरकार को गुमराह कर रहे वजीरों को तुरंत प्रभाव से एक-एक करके फिजूलखर्ची कम करने के आदेश करने पड़े| कमर्चारियों में असंतोष पैदा करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए गए.. कर्मचारियों को उकसाने के लिए कई तरह की भड़काऊ टिप्पणियाँ की गईं, ताकि संजीव और उसकी टीम के खिलाफ प्रिविलेज मोशन जैसी दमनकारी भभकी से न केवल संजीव को, बल्कि पूरे कर्मचारियों को डराया जा सके | परन्तु संजीव नाम का अर्थ खंगालने पर पता चला कि संजीव उसी कुम्भ राशि से सम्बन्ध रखने वाला ऊर्जावान नौजवान है, जिसके अराध्य देव शनि और हनुमान हैं... शनि और हनुमान जहाँ संजीव में साहस और शौर्य भरते हैं, वहीं यह भी ज्ञात रहे कि शास्त्रों के अनुसार संजीव नाम का संचालन सूर्य के सातवें ग्रह यूरेनस द्वारा किया जाता है | ऐसे में जहाँ संजीव को शनि और हनुमान की शक्तियां क्रांतिकारी बनाती हैं, वहीं यूरेनस का परिसंचालन उन्हें शीतल, शांत, सूझ-बूझ और ठहराव से भर देता है | इसी का प्रमाण है की संजीव के हौसले ने कर्मचारियों को वो हक़ एक महीने में ही दिला दिए, जिन्हें सरकार 6 मास में देने की बात कह रही थी | इस का श्रेय संजीव को कोई दे न दे, एक कर्मचारी के नाते मैं तो अपना सर झुका कर उन्हें देता हूँ | प्रदेश के मुख्यमत्री श्री सुखविंदर सुक्खू जहाँ कर्मचारियों के दुःख दर्द को समझने वाले प्रतीत होते दिखाई दिए, वहीं संजीव से उनके द्वारा दूरी बनाने का कारण समझ नहीं आया। क्या माननीय मुख्यमंत्री उस शपथ ग्रहण कार्यक्रम को भी भूल बैठे जहां संजीव ने मुख्यमंत्री से आशीष लिया था? बताया यह भी जाता है कि मुख्यमंत्री के करीब बैठी शीर्ष लेकिन कमज़ोर नौकरशाही सरकार को गुमराह करने और खुद की मौज मनवाने में सफल तो रही है, लेकिन कर्मचारियों के हकों को लेकर इस लचर नौकरशाही ने मुख्यमंत्री की आंखों में मात्र धूल झोंकी है..

मुझे लगता है कि प्रदेश की नौकरशाही में ओंकार शर्मा जैसे ख्रांट तेज तर्रार और उन जैसे अनेक कतारबद्ध प्रशासनिक अधिकारियों को मोर्चे पर न लाया जाना भी इस दयनीय स्थिति का एक मुख्य कारण हो सकता है | ( मैं ओंकार शर्मा को न तो व्यक्तिगत तौर पर जानता, न ही मैं उनसे सहानुभूति रखता हूँ, लेकिन उनके कामों और प्रशासनिक कार्यकुशलता का अवलोकन ज़रूर करता रहा हूँ ) विषय से न भटकता हुआ मैं सफलता के उन्माद में मस्त संजीव शर्मा की टीम को 15 अक्टूबर को उसी बूढ़े पेड़ के नीचे देख रहा था, जहाँ जनरल हाउस में उपस्थित न होकर अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे सचिवालय के आधे कर्मचारी 4 प्रतिशत डीए मिलने को लेकर ऐसी टिप्पणी कर रहे थे कि ‘चलो कुछ तो मिला’ लेकिन सचिवालय का वो प्रांगण खाली था, जहाँ आन्दोलन के पहले दिन पाँव धरने की जगह भी नहीं थी और सीटियों और नारों की गूंज के कारण बूढ़े पेड़ ने अपने कानों पर उंगलियां रख दीं थी और वह बुजुर्ग इस सारे प्रकरण का सशक्त गवाह बना लेकिन यह बूढा पेड़ संजीव को शीतल छाया का आशीर्वाद देता रहा। कर्मचारियों की निराशाजनक उपस्थिति के बाद संजीव की दहाड़ अब उनकी आवाज़ में नहीं उनकी आँखों में चमक रही थी | खुद की नौकरी पर प्रिविलेज मोशन जैसी सख्त सज़ा के मंडराते ग्रहण के बावजूद लाखों पेंशनरों और कर्मचारियों की झोली में खुशी भरने वाले संजीव शर्मा को अकेला छोड़ देने की बजाए उन्हें बचाए रखने तथा और ताकतवर बनाने की ज़रुरत है | मैं संजीव का कद्रदान इसलिए भी हो गया कि उनकी शेर जैसी आँखों के पिछले कोर में अपने परिवार और बच्चों के भविष्य की चिंता भी है, परंतु वो बेफिक्र और बिंदास होकर कर्मचारियों के हकों के लिए लड़ रहे हैं.. बूढ़े चिनार के साथ l ऐसे नेता का साथ हम बेशक छोड़ दें.. लेकिन ईश्वर हमेशा ऐसे जुझारू के साथ रहता है...... संजीव शर्मा तक मेरी शुभकामनाएं पहुंचे और मेरी यह अनुभूति भी कि वो एक ज़िम्मेदार मुखिया हैं.. और उन्होंने अपनी भूमिका को बड़ी ज़िम्मेदारी और हौसले के साथ निभाया है... मुझे संजीव शर्मा के अध्यक्ष होने पर गर्व है, मैं भी ऐसा ही बनना चाहता हूं । मुझे संजीव इकबाल साजिद साहब के इस शेर की तरह लगते हैं :- सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा


सिर्फ पुलिस परिवार से जुर्म भयानक नहीं है, पूरे प्रदेश में कानून-व्यवस्था भयानक...

 
छत्तीसगढ़ के सरगुजा के सूरजपुर जिले में जो हुआ है, वैसा हिन्दुस्तान के किसी भी दूसरे राज्य में सुनाई नहीं पड़ा। एक पेशेवर मुजरिम-गुंडे नौजवान को जिलाबदर किया गया था, लेकिन वह दौलत और राजनीतिक पहुंच की अपनी ताकत के साथ कानून के खिलाफ काम करते रहा। उसके जुर्म के धंधे पर कार्रवाई करती पुलिस को पिछले दो-तीन दिनों में ही उसने कड़ाही में खौलता तेल फेंककर जलाया, गाड़ी से कुचलने की कोशिश की, और एक हेडकांस्टेबल के घर पहुंचकर उसकी बीवी और बेटी को तलवार से मार डाला, और लाशों को ले जाकर बाहर खेतों में फेंक दिया। अब तक हिन्दुस्तान में कई जगहों पर यह तो सुनाई पड़ा था कि कार्रवाई करने वाली पुलिस, या दूसरे अफसर को मार दिया, लेकिन यह कहीं सुनाई नहीं पड़ा था कि पुलिस के परिवार के साथ ऐसा भयानक और खूंखार जुर्म किया गया हो। इसी छत्तीसगढ़ के दूसरे सिरे पर बस्तर के इलाके में नक्सली भी कई किस्म की हिंसा करते हैं, पुलिस-मुखबिरी की तोहमत लगाकर वे अपनी फर्जी जनसुनवाई करके कुछ लोगों को मार भी डालते हैं, लेकिन किसी पुलिस परिवार के साथ नक्सलियों ने भी आज तक ऐसा नहीं किया है जो कि एक राजनीतिक दल, कांग्रेस से रिश्ते का सार्वजनिक दावा करते हुए कबाड़ और दूसरे किस्म के धंधे करने वाले इस नौजवान ने किया है। इस एक घटना से छत्तीसगढ़ में चले आ रहे जुर्म के लंबे सिलसिले की फिल्म आंखों में कौंध जाती है, और ऐसा लगता है कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था खत्म सी हो गई है। 

प्रदेश के बहुत ताकतवर गृहमंत्री विजय शर्मा उपमुख्यमंत्री भी हैं, उनका अपना गृहजिला कवर्धा पिछले महीने भर में जितने किस्म की हिंसक अराजकता देख चुका है, वैसा शायद ही कभी उस जिले में, या किसी एक जिले में हुआ हो। अभी कुछ महीनों के भीतर छत्तीसगढ़ के एक दूसरे जिले, बलौदाबाजार-भाटापारा में जिस तरह सतनामी समाज के एक प्रदर्शन के बाद वहां के कलेक्टर और एसपी के दफ्तरों को जलाया गया, वैसा भी देश में कभी किसी और जगह पर नहीं हुआ था। इन बड़ी घटनाओं के बीच, और आगे-पीछे छत्तीसगढ़ में हिंसक और जानलेवा जुर्म, बलात्कार और गैंगरेप जैसे मामले इस हद तक बढ़े हुए दिख रहे हैं कि जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। जादू-टोने की तोहमत लगाकर लोगों को थोक में मार डालने के मामले हो रहे हैं, और पशु व्यापारियों को गाय तस्कर बताकर खुलेआम मार डाला जा रहा है, और पुलिस ऐसे मामले को हल्का बनाने में जुटी हुई दिखती है। यह भी पहली बार ही हुआ है कि त्यौहारों पर जब पुलिस को अधिक चौकस रहना चाहिए, उसे कांवडिय़ों की आरती उतारने, और उन पर फूल बरसाने का हुक्म दिया गया, और फिर इस भक्तिभाव के वीडियो बनाकर उसे पुलिस के सबसे महान काम की तरह प्रचारित किया गया। 

अचानक ही पूरे प्रदेश में जिस तरह बड़े पैमाने पर चाकूबाजी की वारदातें हो रही हैं, तरह-तरह के गैंगवॉर हो रहे हैं, उससे भी आम जनता दहशत में है। हालत यह है कि हर किस्म के हिंसक जुर्म में अब नाबालिग भी शामिल मिल रहे हैं, इससे लगता है कि मुजरिम बनने की औसत उम्र अब घटती चली जा रही है, और लोग बालिग बाद में बनते हैं, संगीन जुर्म पहले करते हैं। महिलाओं, नाबालिग बच्चियों, और छोटे बच्चों के खिलाफ, बूढ़े मां-बाप के खिलाफ हिंसक और जानलेवा जुर्म अंधाधुंध हो रहे हैं। हम यह तो नहीं कहते कि हर किस्म की निजी हिंसा पुलिस के रोकने लायक रहती है, लेकिन जिस तरह प्रदेश में सरकारी नशे के कारोबार के अलावा अवैध शराब, गैरकानूनी गांजा, और बहुत खतरनाक गैरकानूनी दूसरा सूखा नशा बढ़ते चल रहा है, उससे भी निजी हिंसा बढ़ती जा रही है। 

राज्य के बड़े शहरों में करोड़पति कारोबारियों के जो महंगे ठिकाने तकरीबन पूरी रात गैरकानूनी धंधा करते हुए नशा बेच रहे हैं, वह पुलिस की भागीदारी के बिना तो मुमकिन नहीं दिखता। दूसरी तरफ कबाड़ के जैसे कारोबार से मिली आर्थिक और राजनीतिक ताकत से कल सूरजपुर में जो अभूतपूर्व और असाधारण हिंसा हुई है, वैसा कारोबार भी पुलिस की भागीदारी के बिना नहीं चल सकता। इस प्रदेश में महादेव ऑनलाईन सट्टे का जो रिकॉर्डतोड़ आकार का माफिया साम्राज्य चल रहा था, उसमें भी प्रदेश के दर्जनों नेताओं, और अफसरों के करोड़पति और अरबपति बनने की चर्चा है। कोयले के कानूनी धंधे पर एक गैरकानूनी रंगदारी टैक्स, शराब का पूरी तरह से अवैध कारोबार, और कई दूसरे किस्म के माफिया अंदाज के काम, इन सबने छत्तीसगढ़ को देश का एक सबसे बड़ा मुजरिम और भ्रष्ट राज्य बनाकर रख दिया है। जुर्म के धंधे में कमाई इतनी बड़ी है कि उसकी हिस्सेदारी बड़े-बड़े नेताओं, और अफसरों की नीयत खराब कर देती है। आज जब हम यह बात लिख रहे हैं, उसी वक्त छत्तीसगढ़ में कई जगहों पर रेत की अवैध खुदाई का संगठित माफिया काम कर रहा है, और करोड़ों की मशीनों और गाडिय़ों को जोतकर चलने वाला यह धंधा नेताओं और अफसरों से सेटिंग के बिना चलना मुमकिन नहीं रहता। 

लेकिन इन तमाम बातों के बीच भी सूरजपुर की कल की घटना एक बहुत बड़े माफिया अंदाज की हिंसा है जो कि पुलिस की पूरी ताकत को एक चुनौती है, और पुलिस के बेकसूर परिवार के साथ सबसे भयानक दर्जे की हिंसा है। आधी-पौन सदी पहले इटली और अमरीका में माफिया की जो खबरें बाहर आती थीं, उनमें ऐसा होता था कि अदालत में मुजरिम को सजा दिलाने की कोशिश कर रहे सरकारी वकील, या जांच कर रहे पुलिस अफसर, या गवाह के परिवार का ऐसा कत्ल किया जाए। लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसी दूसरी घटना याद नहीं पड़ती कि एक पुलिस कर्मचारी के ड्यूटी करने से खफा होकर एक संगठित अपराधी उसके परिवार को इतने वीभत्स और हिंसक तरीके से मार डाले। फिलहाल तो यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि जिस पर इन हत्याओं का शक है, और जो फरार है, वह कांग्रेस के छात्र संगठन से जुड़ा हुआ है या नहीं। अभी तो सबसे जरूरी यह है कि इसे जल्दी से जल्दी पकड़ा जाए, और कड़ी से कड़ी सजा दिलाई जाए। राज्य सरकार को, और खासकर पुलिस महकमे को यह देखना चाहिए कि किस तरह प्रदेश के पुलिस परिवारों के एक संगठन के संयोजक उज्जवल दीवान ने एक वीडियो बनाकर यह घोषणा की है पुलिस-परिवार का कत्ल करने वाले को पकडऩे वाले को 50 हजार रूपए नगद, और अगर उसे मुठभेड़ में मारा जाता है तो उस पर एक लाख रूपए नगद ईनाम संगठन देगा। यह राज्य सरकार के लिए आत्ममंथन का एक बड़ा मौका है कि कार्यकाल का एक साल पूरा होने के पहले ही पूरे प्रदेश में कानून-व्यवस्था जिस तरह खत्म हो जाने का अहसास प्रदेश के लोगों को हो रहा है, उसमें सरकार की कैसे सुधार की जिम्मेदारी बनती है। इसी सूरजपुर से एक दूसरी खबर आई है कि एक स्कूली छात्रा के साथ गैंगरेप की रिपोर्ट भी दर्ज नहीं की जा रही थी, और सरगुजा के सबसे बड़े कांग्रेस नेता, और पूर्व उपमुख्यमंत्री टी.एस. सिंहदेव की दखल के बाद दो दिन बाद रिपोर्ट दर्ज की गई। अगर यह नौबत सचमुच है, तो सरकार को बाकी तमाम काम छोडक़र प्रदेश में कानून-व्यवस्था पर लंबा विचार करना चाहिए। 

प्रतिस्पर्धा की दौड़ में जान गंवाते बच्चे - डॉ. संजय शुक्ला

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के कोटा शहर में छात्रों के बढ़ते आत्महत्या के मामलों से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि बच्चों द्वारा किए जा रहे खुदकुशी के लिए कोचिंग सेंटर्स नहीं बल्कि अभिभावकों का दबाव जिम्मेदार है।अदालत ने कहा कि माता-पिता अपने बच्चों से उनकी क्षमता से ज्यादा उम्मीद लगा लेते हैं फलस्वरूप बच्चे प्रतिस्पर्धा के दबाव में आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। अदालत ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर भी टिप्पणी किया है। गौरतलब है कि देश के कोचिंग हब कोटा में मेडिकल और जे‌ई‌ई के दाखिला परीक्षाओं की तैयारी में लगे छात्रों के खुदकुशी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक अकेले इस  शहर में बीते दस सालों में कोचिंग लेने वाले लगभग 150 से ज्यादा छात्रों ने खुदकुशी की है। इस साल 2023 में अब तक 23 छात्रों ने आत्महत्या कर लिया है जो बीते 8 सालों के दौरान सर्वाधिक है। कोटा पुलिस के अनुसार साल 2015 में 17, साल 2016 में 16,साल 2017 में 7, साल 2018 में 20 तथा 2019 में 8 छात्रों द्वारा खुदकुशी के मामले दर्ज किए गए थे। 

                बहरहाल यह आंकड़े अपने माता -पिता के "स्टेटस टैग" बरकरार रखने के जद्दोजहद में जान देने वाले उन बच्चों के अभिभावकों के लिए नसीहत है जो अपनी अपेक्षाओं और जिद्द का जबरिया बोझ बच्चों पर लाद रहे हैं। भारत युवा राष्ट्र है जहां युवाओं की आबादी पूरी दुनिया में सर्वाधिक है लेकिन विचलित करने वाली बात यह कि इस जनसंख्या का बड़ा हिस्सा निराशा और अवसाद से ग्रस्त होकर खुदकुशी के लिए विवश हो रहा है। दुखद यह  कि उस भारत की तस्वीर है जिसके युवा पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 'एनसीआरबी' के अनुसार देश में आत्महत्या के कुल मामलों में 40 फीसदी संख्या 18 से 35 साल के युवाओं की है। अलबत्ता छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं केवल कोटा शहर में ही नहीं हो रही है बल्कि देश के अनेक आईआईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में भी ऐसी घटनाएं लगातार हो रही है।जानकारी के मुताबिक बीते आठ बरसों में आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों में 35 छात्रों ने आत्महत्या की है।एनसीआरबी के रिपोर्ट के मुताबिक छात्रों की आत्महत्या का आंकड़ा 2021से हर साल 13 हजार के उपर बना हुआ है और यह 4 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। साल 2017 से 2021के बीच छात्रों आत्महत्या के मामले में 32 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।अपनी मेहनत, काबिलियत और कठिन इम्तिहान के जरिए इन संस्थानों में दाखिला लेने वाले प्रतिभाएं जिनके सामने देश और विदेश में आकर्षक नौकरियों की कतार है वे जिंदगी का जंग क्यों हार रहे हैं ? इस सवाल का हल सरकार और समाज को ढूंढना ही होगा। आखिरकार यह देश के सबसे बड़े वर्कफोर्स से जुड़ा मसला है। 

छात्रों द्वारा किए जा रहे खुदकुशी के आंकड़े सिर्फ एक संख्या भर नहीं है बल्कि यह इकलौते संतान वाले परिवारों के लिए दुख का पहाड़ है। मनोविज्ञानियों की मानें तो अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के दौर में अधिकांश छात्र अवसाद और कुंठा से घिर रहे हैं। अभिभावकों की इच्छा पर कोचिंग फैक्ट्री में दाखिला लेने वाले छात्र भावनात्मक सहयोग और संवाद के अभाव में मौत को गले लगा रहे हैं। अलबत्ता हाल के बरसों में बेरोजगार युवाओं के भी खुदकुशी के आंकड़े बढ़े हैं। छात्रों द्वारा किए जा रहे आत्महत्या के कारणों पर गौर करें तो इसके लिए मुख्य रूप से गलाकाट प्रतिस्पर्धा, बच्चों से अभिभावकों की बढ़ती अपेक्षा,शिक्षा में असमानता, भाषा की अड़चन, संसाधनों की कमी, सिलेबस का बोझ, फैकल्टी के साथ संवाद में कमी, मनोविज्ञानियों की अनुपलब्धता,जातिगत व लैंगिक भेदभाव और आर्थिक व सामाजिक विषमता, बेरोजगारी , पारिवारिक समस्या और नशाखोरी जैसी परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। गौरतलब है कि बीते दो दशक के दौरान प्रोफेशनल कोर्सेज में गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ी है वहीं महानगरों से लेकर छोटे शहरों में इन कोर्सेज में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थान भी बड़ी संख्या में खुले हैं। भारत में कोचिंग अब एक उद्योग का स्वरूप ले चुका है जिसका बाजार लगभग साढ़े पांच लाख करोड़ का है।

    राजस्थान के कोटा शहर की पहचान पूरे देश में कोचिंग राजधानी के तौर पर है जहां विभिन्न हिस्सों से छात्र मेडिकल और इंजीनियरिंग कोर्सेज में दाखिला का अरमान लेकर यहां आते हैं। आंकड़ों के मुताबिक कोटा के विभिन्न संस्थानों में रिकॉर्ड दो लाख छात्र नामांकित हैं और दाखिला परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। इस बीच विचारणीय है कि कुछ अभिभावक अपने 'स्टेटस टैग' बरकरार रखने और कुछ अपने बच्चों को यह टैग हासिल करवाने के लिए यहां की भीड़ में छोड़ जाते हैं।विडंबना है कि अभिभावक अपने बच्चों की प्रतिभा और अभिरूचियों की आंकलन की जगह अपनी अपेक्षाओं को उनके उपर लाद रहे हैं। जबरिया अपेक्षाओं का बोझ लादे बच्चे अनजान शहर और परिवेश में अपने आपको ढाल नहीं पा रहे हैं फलस्वरूप परीक्षा में असफल होने और पालकों के अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाने के के डर और आत्मग्लानि में बच्चे अवसाद ग्रस्त होकर खुदकुशी कर रहे है। बेहतर होगा कि अभिभावक अपने बच्चों को पर्याप्त समय दें तथा अपनी अपेक्षाएं लादने के बजाय बच्चे के हुनर और योग्यता को प्रोत्साहित करें।

      मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक आत्महत्या के लिए अवसाद यानि डिप्रेशन सबसे बड़ा कारण है। सामान्य तौर पर खुद मनोरोगी और अभिभावक या परिजन मानसिक रोग के लक्षणों और कारणों से अनजान रहता है। पढ़ने वाले बच्चों के मामले में अभिभावकों की जवाबदेही है कि वे अपने बच्चों में अवसाद के लक्षण को तुरंत पहचानें और मनोरोग विशेषज्ञों से परामर्श लें। आमतौर पर अवसाद के मुख्य लक्षण बार- बार  गुस्सा या दुखी होकर रोना, झूठ बोलना, अपराध बोध, असंतुष्टि, पारिवारिक और सामाजिक गतिविधियों में अरूचि, अनिद्रा या बहुत नींद आना, बेचैनी,वजन घटना या बढ़ना, एकाग्रता का आभाव, अकेले रहना और बार-बार खुदकुशी के बारे में ख्याल आना है। अवसाद के उपचार में काउंसिलिंग, पारिवारिक और भावनात्मक लगाव, खेल और मनोरंजन गतिविधियों में शामिल होना, मादक पदार्थों का त्याग और व्यायाम, योग, ध्यान और प्रार्थना जैसे उपाय कारगर हैं।

छात्रों में बढ़ रहे खुदकुशी के मामलों पर कोचिंग संस्थानों को भी बहुत ज्यादा सजग और संवेदनशील होने की आवश्यकता है। सरकार को इन संस्थानों में अनिवार्य रूप से काउंसलर्स की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए जरूरी उपाय सुनिश्चित करना चाहिए इसके अलावा संस्थान की जवाबदेही है कि वे बच्चों के साथ निरंतर संवाद करे और जिन बच्चों में अवसाद के लक्षण मिल रहे हैं उनके संबंध में अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए अभिभावकों को सूचित करें। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में जिंदगी का जंग हारने के पीछे एक अहम कारण हमारी स्कूली शिक्षा भी है जिस पर सरकार को गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा। देश में शिक्षा में व्यापक असमानता है जो अमीरी और गरीबी के बीच बंटी हुई है। एक ओर बदहाल सरकारी स्कूल हैं जहां शिक्षा से संबंधित मानव संसाधन और बुनियादी सुविधाओं का आभाव ह वहीं दूसरी ओर साधन संपन्न पांच सितारा निजी स्कूल हैं जहां के बच्चे आज की प्रतिस्पर्धा के लिए पहले से ही तैयार हैं। सरकार और समाज को शिक्षा के इस असमानता को दूर करना चाहिए ताकि आर्थिक तंगी के चलते गरीब बच्चों के मेधा का क्षरण न हो। किसी भी राष्ट्र और समाज के लिए उसकी सबसे बड़ी पूंजी "छात्र" होते हैं जिस पर उसका वर्तमान और भविष्य निर्भर होता है। अभिभावकों और परिवार की जवाबदेही है कि वह देश के इस भविष्य के साथ  निरंतर संवाद स्थापित करे और उनके समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनें ताकि कोई भी छात्र जिंदगी का जंग न हारे। 


'राजधानी के मुर्दा वोटरों को चुल्लू भर पानी दिया जाए'

 


छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का मतदान पूरा हो जाने पर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उनमें सबसे ही हैरान करने वाले आंकड़े राजधानी रायपुर के हैं। यहां की चार सीटों पर 55 से 60 फीसदी के बीच वोट डले हैं। इनमें से कुल एक विधानसभा सीट ने 60 फीसदी वोट देखे हैं। इन चारों सीटों को पिछले कुछ चुनावों से देखें, तो 2008, 2013, 2018 से भी खासे कम वोट इन सीटों पर पड़े हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो सबसे सुविधा-संपन्न शहर है, वहां पर ऐसी दुर्गति क्यों हो रही है कि आधा किलोमीटर के भीतर मतदान केन्द्र होने पर भी वोटर घर बैठे हुए हैं। हर किसी के पास गाडिय़ां हैं, लेकिन वोट डालने नहीं जा रहे हैं। कहने के लिए इन चारों सीटों पर कहीं हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे थे, तो कहीं ब्राम्हण और गैरब्राम्हण के। कहीं म्युनिसिपल के मुद्दों को लेकर नाराजगी थी, तो अखबारों के दो- चार पेज हर दिन इस शहर की बदहाली से भरे रहते थे। ऐसे में लोगों को या तो सत्ता पलट के लिए, या किसी नए उम्मीदवार को जिताने के लिए अधिक संख्या में बाहर आकर वोट डालने थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब नक्सली हिंसा और सुरक्षाबलों की भारी मौजूदगी वाले, जंगलों में बसे बस्तर के गांवों के लोगों ने बड़ी संख्या में वोट डाले हैं। कई जगहों पर तो राजधानी रायपुर से डेढ़ गुना तक वोट डले हैं। और वोटरों की जागरूकता के लिए होने वाले तमाम कार्यक्रम इसी राजधानी रायपुर से शुरू होते हैं, लेकिन वोटर इस बार जिस हद तक उदासीन थे, उससे इस शहर के उम्मीदवारों और पार्टियों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। चुनाव तो हर पांच बरस में होते ही रहते हैं, इसलिए जिन जगहों पर वोट इतने कम पड़े हैं, उनके बारे में चुनाव आयोग, सरकार, पार्टियों, और प्रेस को भी सोचना चाहिए कि आगे क्या किया जा सकता है? ऐसे सीमित वोटों का मतलब तो यह भी निकलेगा कि बहुत मामूली वोटों से लोग जीत जाएंगे। ऐसी भला क्या वजह हो सकती है कि इसी राजधानी रायपुर से लगे हुए धरसीवां में यहां से करीब डेढ़ गुना वोट डले, लगे हुए आरंग में डेढ़ गुना वोट डले, और लगे हुए अभनपुर में डेढ़ गुना से ज्यादा वोट डले, ऐसा कैसे हो सकता है? कैसे राजधानी की इन चार सीटों के मतदाता पिछले किसी भी चुनाव के मुकाबले कम दिलचस्पी रखें, और आसपास की लगी हुई और तमाम सीटों से भी कम दिलचस्पी रखें! इसकी वजहें पता लगानी चाहिए, क्योंकि इन्हीं के बारे में पैसा, मुर्गा, दारू, सब कुछ बांटने की ढेर-ढेर खबरें भी थीं। यह एक रहस्य है, और वार्ड स्तर पर किसी को इसका अध्ययन करना चाहिए कि पिछले चुनाव से इस चुनाव तक मतदान केन्द्रों पर क्या फर्क पड़ा है, और क्यों फर्क पड़ा है।


सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को उनकी औकात समझाई


भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यों की सरकार अलग से चुनी जाती है, और वहां पर संवैधानिक मुखिया, यानी राज्यपाल केन्द्र सरकार की तरफ से भेजे जाते हैं। ऐसे में बहुत से मौके आते हैं जब राज्य सरकार की विचारधारा अलग रहती है, और एक अलग विचारधारा की केन्द्र सरकार अपने एजेंट की तरह काम करने वाले राज्यपाल भेजती है। नतीजा यह होता है कि कई राज्यों में निर्वाचित राज्य सरकार के साथ मनोनीत राज्यपाल के अंतहीन टकराव चलते रहते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट में दो राज्यों के ऐसे ही मामले सुने गए, और पंजाब के साथ-साथ तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ वहां की सरकारें गई थीं, और सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के रूख और फैसलों पर भारी फिक्र भी जताई है, और भारी नाराजगी भी जताई है। उन्होंने राज्यपालों को सड़क की जुबान में कहें, तो उनकी औकात याद दिलाई, और कहा कि वे मनोनीत व्यक्ति हैं, और उन्हें निर्वाचित सरकारों से इस किस्म का टकराव नहीं लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब के गवर्नर बनवारी लाल पुरोहित को कहा कि वे पंजाब विधानसभा से पारित विधेयकों को तत्काल मंजूर करें जिन्हें कि उन्होंने कई महीनों से अटका रखा है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने पंजाब और तमिलनाडु दोनों के राज्यपालों के बर्ताव पर कहा कि वे लोग आग से खेल रहे हैं, और अगर ऐसा ही रहा तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था ही खतरे में पड़ जाएगी। अदालत ने इन्हें कहा कि वे निर्वाचित विधानसभा की ओर से मंजूर विधेयकों को दबाकर न बैठें, यह एक गंभीर मामला है, और इसे मंजूर करने में देर न करें। उन्होंने कहा कि पंजाब में जो हो रहा है उससे हम खुश नहीं हैं। पंजाब सरकार ने राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर की थी. और कहा था कि गवर्नर जो कर रहे है वह असंवैधानिक है, और उसके चलते सारे प्रशासनिक काम अटक गए है। पंजाब सरकार की तरफ से खड़े हुए वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि शिक्षा और वित्तीय मामलों के सात विधेयकों को जुलाई में गवर्नर को भेजा गया था, और जो अब तक अटके हुए हैं।

सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने जिस तरह से इन दो राज्यपालों की आलोचना की है, उसे पूरे देश के लिए देखा जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा से पारित आरक्षण विधेयक को राज्यपाल ने महीनों से रोक रखा है, राजभवन करीब पौन साल से इस पर बैठा हुआ है, और ऐसे ही कई मामले देश भर में जगह- जगह हैं। राज्यपाल विधानसभा के पारित विधेयकों को अंतहीन रोके रखने को अपना हक मानते हैं और वे केन्द्र सरकार के एजेंट की तरह काम करते हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में यह देखा हुआ है कि किस तरह राज्यपाल सतापलट में औजार बन जाते हैं, और कहीं राज्यपाल तो कहीं विधानसभा अध्यक्ष लोकतंत्र की पटरी से उतारने के लिए ओवरटाईम करने लगते है। पंजाब से परे तमिलनाडु में भी मोदी सरकार के मनोनीत राज्यपाल ने 12 विधेयकों पर सहमति रोककर रखी हुई है, और विधेयकों के अलावा भी कई दूसरे फैसले राज्यपाल के पास मंजूरी या सहमति के लिए पड़े हुए हैं। हमारे पुराने पाठकों को याद होगा कि हम कई बार इस बात को उठा चुके हैं कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजभवन नाम की संस्था पूरी तरह से

गैरजरूरी हो गई है, और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। राज्यपाल लोकतंत्र में किसी भी तरह की संवैधानिक जरूरत नहीं रह गए हैं, और ये पूरी तरह से केन्द्र की सत्ता के हाथ के कभी औजार बने रहते है, तो कभी हथियार बने रहते हैं। बहुत से राज्यपालों की हालत लोहे के मोटे-मोटे टुकड़े लेकर राज्य सरकार की ट्रेन को पटरी से उतारने में लगी दिखती है। इनकी जरूरत देले भर की नहीं है, और ये अपने आपको निर्वाचित सरकार से ऊपर साबित करने में लगे रहते हैं। लोगों को याद होगा कि पश्चिम बंगाल में भी राज्यपाल ममता बैनर्जी की सरकार को नीचा दिखाने के लिए, उसकी फजीहत करने के लिए रात-रात जागकर काम करते थे, जबकि राज्यपाल को किसी तरह के ओवरटाइम की पात्रता नहीं रहती। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, क्योंकि राजभवन सरकार पर एक बोझ भी रहते हैं। राज्य सरकार एक तरफ तो अगर केन्द्र में विपक्षी सरकार है, तो उससे ही जूझते रहती है, और दूसरी तरफ प्रदेश की राजधानी में राजभवन में बैठे हुए राज्यपाल की साजिशी और हमलों को झेलते रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत अच्छा किया है जी राज्यपालों को यह समझा दिया कि वे मनोनीत है और निर्वाचित सरकारें ही जनता की असली प्रतिनिधि रहती है।

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जीत थियेटर की हार : द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

सिनेमा और सिनेमा हाल अब अतीत की यादें होते जा रहे हैं. मल्टीप्लेक्स थियेटरों ने पुराने सिनेमागृहों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया है. हमारे शहर की पुरानी टाकीजें या तो खड़ी-खड़ी खंडहर हो रही हैं या हास्पिटल और मार्केटिंग आर्केड में तब्दील हो रही हैं. जिस मनोहर, श्याम, लक्ष्मी, प्रताप, बिहारी, श्री गंगा, शिव, सत्यम, बलराम आदि टाकीजों में नाचती-गाती फ़िल्में लगा करती थी, वहां सन्नाटा पसरा हुआ है या तोड़-फोड़ मची हुई है. 

हमारे शहर में एक सुसज्जित टाकीज, जीत थियेटर, जिसमें उच्चस्तरीय फ़िल्में प्रदर्शित हुआ करती थी. साफ़-सफाई एकदम फर्स्ट क्लास, मेंटीनेंस गजब. इस थियेटर का उद्घाटन २८ अप्रैल १९८९ को हुआ था, मनोजकुमार की फिल्म 'क्लर्क' के प्रदर्शन के साथ. यहीं पर फिल्म 'हम आपके हैं कौन' १४ महीने और फिल्म 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' ९ महीनों तक चली. 

इस थियेटर को मुंशीराम उपवेजा ने बनवाया था. मुंशीराम फर्श से अर्श तक उठने वाले प्रेरणादायक व्यक्ति रहे हैं, अभी भी हैं.  मुंशीराम का इतिहास रोचक है, मोहल्ला तारबाहर में एक चतुर खिलाड़ी लड़कपन की उम्र में आया, रहने नहीं, दूकान चलाने, वह भी राशन की। सीएमडी कालेज में पढ़ता, पढ़ता क्या था, नेतागिरी करता था। बातें करने और बातें बनाने में बेमिसाल। इलेक्शन जीतना हो या परीक्षा देना हो, वह सफलता के लिए किये गए हर उपाय को जायज़ मानता था। राशन की दूकान और मनमोहक भाषण के भरोसे उसकी तरक्की होती गई और एक दिन वह बिलासपुर की नगरपालिका का 'डिप्टी मेयर' बन गया। 

मुंशीराम ने अपनी योग्यता का चौतरफा उपयोग किया और अब उस पर माँ लक्ष्मी की 'किरपा' बरस रही थी. उसने बिलासपुर का सबसे शानदार थियेटर 'जीत' को बनाया। 

अब वह बिक गया, वहां कोई मार्केटिंग काम्प्लेक्स बनने वाला है इसलिए यह प्यारा थियेटर अब तोड़ा जा रहा है. उसमें चलने वाले घन की आवाज उस हर सिनेमा प्रेमी के दिल में टकरा रही है जिसने इस थियेटर में शान से बैठकर एक से एक फ़िल्में देखी थी. मेरे फेसबुक मित्र Ritesh Sharma ने मुझे आज फोन पर यह दुखद खबर दी तो मैं उस शानदार थियेटर को जमींदोज होते हुए देखने गया, सच में, दिल दुःख गया. 

'कल चमन था, आज इक सहरा हुआ,

देखते ही देखते ये क्या हुआ ?' 

कोई नहीं चलाता, पर तीर चल रहे हैं ..!

 TODAY छत्तीसगढ़  / बिलासपुर / अति सक्रियता कभी-कभी कैसे, खुद के खिलाफ ही मुश्किलें खड़ी कर देती है,  बिलासपुर में शहर विधायक  शैलेश पांडेय की सियासी दिनचर्या देखकर इसका अनुमान लगाया जा सकता है। बिलासपुर की जनता और बिलासपुर के मसलों को लेकर बीते ढाई सालों में उनकी अति सक्रियता ही उनके खुले और छिपे राजनीतिक विरोधियों के लिए लाइलाज पेट दर्द की वजह बनते जा रही है। अपने निर्वाचन के तत्काल बाद से बिलासपुर के मसलों को लेकर अपने ढाई साल की विधायकी के दौरान उन्होंने जैसा जुझारूपन दिखाया है उसे देखते हुए कोई और शहर होता तो लोग उन्हें हाथों हाथ उठा लेते। 

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कोविड-19 के संक्रमण की शुरुआत से लेकर पहली और दूसरी लहर के दौरान बिलासपुर शहर में अगर कोई जनप्रतिनिधि बिना एक दिन भी घर में बैठे आम जनता से निरंतर संपर्क में रहकर उनके दुख दर्द में सहभागी होता रहा है तो बिलासपुर में ऐसी दो शख्सियतें ही निरंतर सक्रिय दिखाई देती रही हैं। जिनमें एक बिलासपुर विधायक  शैलेश पांडेय और दूसरे नगर निगम के महापौर रामशरण यादव। श्री पांडेय पहली लहर में खुद भी कोरोना की चपेट में आकर 15 दिनों का पृथकवास झेल चुके हैं। लगभग ऐसा ही हाल महापौर रामशरण यादव का रहा है। जहां तक विधायक शैलेष पाण्डेय की बात है, बावजूद इसके वे स्वयं और उनकी पूरी टीम भी कोरोना संक्रमण से जार जार हो रही बिलासपुर की जनता की सेवा में पूरे समर्पित ढंग से लगी रही। नियमित रूप से कोविड-19 अस्पताल और सिम्स जाना, वहां मरीजों के साथ ही चिकित्सकों की दिक्कतों को भी समझना, विस्तरों और ऑक्सीजन की कमी की जानकारी लेना और प्रशासन तथा स्वास्थ्य विभाग के साथ कदम से कदम मिलाकर उन्हें दूर करने की ईमानदार कोशिश करना। बिलासपुर विधायक की दिनचर्या का एक अंग बन चुका था। कोविड व सिम्स अस्पताल के निरंतर निरीक्षण तथा कोविड-19 के मरीजों, उनके उपचार में लगे बिलासपुर के सभी चिकित्सकों और चिकित्सालयों से निरंतर संपर्क बनाए रखने का काम श्री पांडेय करते रहे है। कोविड-19 की पहली और दूसरी लहर के दौरान अपवाद स्वरूप चंद दिनों को छोड़कर आईजी कार्यालय के पास स्थित उनका शासकीय निवास एक दिन भी बंद नहीं रहा है। वे स्वयं और उनके कार्यकर्ता तथा स्टाफ वहां पहुंचने वालों के दुख दर्द को सुनने और उसका निराकरण करने का काम किसी परिजन की तरह लो प्रोफाइल में रहकर करते रहे। प्रथम लहर में श्री पांडेय ने ऐसे लोगों की भी जमकर चिंता की, जिनके घर में कोविड-19 के कारण थोपे गए लॉक डाउन की वजह से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तक मुश्किल हो गया था। ऐसे सभी लोगों को शासकीय मशीनरी की मदद से और अपनी ओर से भी राशन पानी की व्यवस्था करते हूए पूरे शहर ने अपने विधायक को लगातार देखा है। उनकी यह सक्रियता भी लोगों को पची नहीं और उनके घर राशन पानी के लिए जमी भीड़ को संक्रमण फैलाने का कारण मानकर विधायक के खिलाफ पुलिस कार्यवाही करने तक की कोशिशें की गई।

कोविड-19 की जानलेवा पहली और उससे अधिक खतरनाक दूसरी लहर के दौरान 1 दिन भी घर पर बैठकर नहीं रहने वाले शैलेश पांडेय ने बिलासपुर शहर में अरपा नदी पर प्रस्तावित एक जोड़ा एनीकट सहित विकास और निर्माण से जुड़े हर कार्य पर अपनी पूरी नजर बनाए रखी। इसका ही परिणाम है कि कोविड-19 की खतरनाक काली छाया के बावजूद बिलासपुर में विकास और निर्माण कार्यों की गति जरा-बहुत, धीमी जरूर हुई होगी मगर ऐसे सभी कार्यों की निरंतरता बनाए रखकर उन्हें बंद नहीं होने दिया। स्वास्थ्य विभाग, जिला प्रशासन, लोक निर्माण, नगर निगम और सिंचाई विभाग के अधिकारियों ने भी एक टीम की तरह विधायक की मंशा और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की चाहत को जमीन पर साकार करने में कोई कसर नहीं रखी।

बिलासपुर कि यह बेहद खतरनाक तासीर रही है कि यहां के बड़े लोगों को या कहें कृमी लेयर वाले लोगों को "दूसरों की कमीज अपनी कमीज से अधिक उजली" देखते ही पेट दर्द शुरू हो जाता है। जाहिर तौर पर शहर विधायक पर एक के बाद एक लगातार चलाए जा रहे तीर, इसका ही दुष्परिणाम है।

चंद दिनों पूर्व श्रीकांत वर्मा मार्ग पर  ब्लॉक के कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा कथित रूप से ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही के साथ किया गया दुर्व्यवहार और बदसलूकी का जिक्र किए बिना हमारी बात, अधूरी ही रहेगी। यह ठीक है कि पार्टी के एक नेता होने के नाते शहर विधायक को अपने समर्थक ब्लॉक कांग्रेस अध्यक्ष के बचाव में सामने आना ही था। खासकर उस परिस्थिति में जब उनके विरोधी इस घटना को लेकर, पीठ पीछे ही सही उनके खिलाफ आक्रामक होने का एक अवसर मानकर खुश हो रहे हों। लेकिन यहां शहर विधायक को बिलासपुर पुलिस पर भरोसा कर उनसे पूरे मामले की निष्पक्ष जांच का आग्रह करना था और साथ ही ट्रैफिक पुलिस के जवान से कथित बदसलूकी करने वाले अपने समर्थक को कड़े शब्दों में तिरस्कृत भी करना था। लेकिन ऐसा नहीं होने के कारण उनके विरोधियों को इस मामले की आग में घी डालने का मौका मिलता रहा। 

बहरहाल, सार्वजनिक जीवन की इन सारी अनिवार्य झंझंटों के बावजूद उन्हें बिलासपुर की जनता और यहां के मसलों के लिए ठीक वैसे ही सक्रिय रहना चाहिए जैसा बीते ढाई साल में वे रहे हैं। लेकिन आने वाले समय  के लिए उन्हें अपने समर्थकों और पार्टी जनों को स्पष्ट ताकीद करनी चाहिए कि वे ऐसा कुछ भी ना करें, जिससे प्रशासन और वे (विधायक) एक दूसरे के सामने खड़े होने को मजबूर हो जांए। वही अपनी पार्टी में "अति उत्साह सर्वत्र वर्जयेत" वाला अनुशासन ही हर स्तर पर लागू करने पर विचार करना होगा। यह बिलासपुर का सौभाग्य है कि इस समय शहर के लोगों को ऐसा विधायक और प्रशासन तथा पुलिस के अफसर मिले हैं,जो जनता की सेवा, सुरक्षा, विकास और कल्याण में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। अंत में बस इतना ही की शैलेष पाण्डेय ने ये जरूरी ऐतिहात नहीं बरते तो बिलासपुर शहर में खुद उनके लिए और पार्टी के लिए भी मुश्किलें खड़ी होती जाएंगी। 

चिराग- सिर पर बांधिए गमछा और निकल पड़िए बिहार की सड़कों पर ...

 चिराग पासवान ने अपने चाचा पशुपति नाथ पारस के नाम उस चिट्ठी का खुलासा किया है जो उन्होंने होली यानी तीन महीने पहले लिखी थी. यदि इस चिट्ठी को आप पढ़ेंगें तो आपको मालूम हो जाएगा कि आखिर लोक जनशक्ति पार्टी में चल क्या रहा था. अभी तक जो लोग कह रहे थे कि चिराग की वजह से लोजपा बिहार में हारी है वह सच नहीं है. चिराग के अनुसार मेरे राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर आप नाराज़ हुए, यही नहीं जब प्रिंस को बिहार का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तब आप नाराज़ हुए. जब नीतीश कुमार मुझ पर हमला कर रहे थे तब भी आप खामोश बने रहे. जब मैंने बिहार में विधानसभा चुनाव के दौरान चुनाव में रणनीति बनाने में आर्थिक मदद में सहयोग की बात कही तब भी आप खामोश रहे. यहां तक कि आपने चुनाव के दौरान एक भी विधानसभा क्षेत्र का दौरा नहीं किया. आपने हमेशा मेरी निंदा की, पार्टी के प्रति नकारात्मक रहे लेकिन अभी भी पार्टी के साथ काम करना चाहें तो करें नहीं करना चाहें तो ना करें.

यानी चिराग पासवान ने दूध का दूध पानी का पानी कर दिया. अब लोजपा टूट गई है और दो दल बन जाएंगे. एक जदयू के साथ रहेगा जिसका बाद में नीतीश कुमार अपनी पार्टी में विलय करा लेगें. और एक लोजपा चिराग के साथ रहेगी जिसके पास पासवान वोट बैंक भी रहेगा. मगर इस राजनैतिक घटना की पृष्ठभूमि में भी जाना जरूरी है और वो ये है. लोक जनशक्ति पार्टी का इस तरह से टूट कर बिखरना या कहें पशुपति नाथ पारस का अपने मरहूम भाई की पार्टी पर कब्जा कर लेना यह साबित करता है कि राजनीति में सत्ता सबसे बड़ी चीज है. जिस रामविलास पासवान पर जीवन भर यह आरोप लगता रहा कि उन्होंने लोजपा बनाया ही अपने परिवार के लिए है और उन्होंने भी अपने भाईयों को राजनीति में आगे बढाने में खोई कोर कसर नहीं छोडा. पारस बिहार के खगड़िया जिले के अलौली से करीब 35 सालों तक विधायक रहे. यहां पर ये भी बता दूं कि इसी इलाके में रामविलास पासवान का गांव सहरबन्नी भी आता है. फिर रामविलास पासवान के छोटे भाई रामचंद्र पासवान भी सांसद बने. अब उनके गुजर जाने के बाद उनके पुत्र प्रिंस सांसद हैं. इतना सब बताने का मकसद ये है कि पासवान के 6 फीसदी वोटों के अलावा दलित वोटरों पर रामविलास की पकड़ बनी रही. 

अब बात करते हैं कि आखिर पारस ने लोजपा पर कब्जा कैसे किया तो अब यह जग जाहिर हो गया है कि इसके रणनीतिकार नीतीश कुमार हैं जो बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग के हमले से बौखलाए हुए थे. नीतीश कुमार ने एक तरह से लोजपा तोड़ कर चिराग के साथ-साथ बीजेपी से भी बदला ले लिया. क्योंकि बिहार चुनाव के दौरान कहा जा रहा था कि चिराग बीजेपी की शह पर ये सब कर रहे हैं. अब लोजपा के पांच सांसदों के साथ जदयू के 21 सांसद हो जाएंगें और बीजेपी के पास 17 सांसद. नीतीश कुमार ने अपने दल के चुनावी निशान तीर से कई शिकार किए हैं. 

अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि चिराग पासवान के पास विकल्प क्या हैं. उनके पास काफी विकल्प हैं. सबसे बड़ी बात है कि उनके पास उम्र है राजनीति करने के लिए. नीतीश कुमार 70 साल के हो चुके हैं और संभवत: अपनी अंतिम पारी खेल रहे हैं. रामविलास पासवान रहे नहीं और लालू यादव बीमार हैं. अब बिहार में युवाओं का बोलबाला होना है. आप मानें ना मानें आपके पास यही विकल्प है एक तरफ तेजस्वी और चिराग पासवान तो दूसरी तरफ बीजेपी और जदयू में उभरने वाला कोई नया नेतृत्व. कहना मुशिकल है कि क्या होगा मगर चिराग पासवान को चाहिए कि वो दिल्ली का मोह त्यागें और बिहार की गलियों और सड़कों पर निकल चलें. पदयात्रा करें. ठीक उसी तरह जैसे जगन मोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में किया था. जगन मोहन ने तो नई पार्टी बनाई थी वो भी अपने पिताजी के गुजर जाने के बाद. राजनीति का कोई अनुभव नहीं था. मगर एक जिद थी कि साबित करके दिखाना है और फिर प्रशांत किशोर का साथ मिला और आज वो मुख्यमंत्री हैं. चिराग के पास तो पहले से बनी पार्टी है. खुद सांसद हैं. चुनाव लड़ने और लडवाने का अनुभव है. तो देर किस बात की है. चिराग पासवान सिर पर गमछा बांधिए और निकल जाईए बिहार की सड़कों पर, तब तक जब कर अपने को सफल साबित ना कर दें.

                                                      

डॉक्टर को इंसान ही रहने दें, भगवान मत बनाइये - डॉक्टर रायजादा


TODAY छत्तीसगढ़  / शशि कोन्हेर / बिलासपुर के युवा योग्य एवं प्रतिभावान,और असीम संभावनाओं वाले चिकित्सक डॉक्टर अभिजीत रायजादा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे इस समय में आई एम ए के बिलासपुर अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने अपने एक वीडियो में दिल को छू जाने वाली और दिमाग में समा जाने वाली कुछ ऐसी बातें कहीं हैं जिन्हें खारिज कतई नहीं किया जा सकता। इस वीडियो में कहीं गई, उनकी एक-एक बात ध्यान से सुनने, मनन करने और मानने लायक है। 

                                              

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हालांकि वह कहते हैं कि डॉक्टर कोई भगवान नहीं होते..! लेकिन पूरे देश और इसी तरह बिलासपुर में भी ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो उनके विचारों से इत्तेफाक न रखते हुए, अभी भी डॉक्टरों को, भगवान का ही दर्जा दिया करते हैं । डॉक्टरों को भगवान मानने का यह विचार हमें अपनी तीन चार पीढ़ियों से पारंपरिक रूप से मिला हुआ है। और इसे बदला भी नहीं जा सकता। क्योंकि लगातार कई पीढ़ियों से डाक्टरों को भगवान मानने की हमारी आदत अब हमारा संस्कार बन चुकी है। और लोग जिस तरह भगवान से,अपनी गलतियों , अपने सुख-दुख और स्वास्थ्य को लेकर दया-मया की अपेक्षा रखते हैं। कुछ वैसी ही उम्मीद, हम सब डॉक्टरों से भी लगा बैठते हैं। डॉक्टर अभिजीत रायजादा ने बहुत अच्छी-अच्छी बातें कहीं हैं। लेकिन हर किसी बात में या हर किसी कार्य में मीन-मेख निकालने वाले हम सरीखे पेशागत, छिद्रान्वेषी लोग भी समालोचना की अपनी आदतों से बाज नहीं आते। बहरहाल, डाक्टर रायजादा जी की बात से असहमत होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। लेकिन उन्होंने बस एक कमी की है.. और वह यह कि उनके विचारों में केवल और केवल चिकित्सकों का पक्ष ही रखा गया है। मरीज और उनके परिजनों की अस्पताल में इलाज के दौरान की मानसिकता पर उन्होंने शायद गौर नहीं किया है। मरीज हमेशा ही अस्पताल में या चिकित्सकों के पास पूरी तरह स्वस्थ होने की अभिलाषा में  ही जाता है। हालांकि वो यह भी यह जानता है कि जीवन और मृत्यु की तरह बेहतर स्वास्थ्य भी पूरी तरह ईश्वर की कृपा पर ही अलंबित है। लेकिन ईश्वर के तुरंत बाद अगर उसने किसी को स्थान दिया है तो वह हमारे चिकित्सक और चिकित्सा कर्मी ही हैं। लेकिन बीते कुछ सालों से चिकित्सकों और मरीजों के बीच, या कहना चाहिए चिकित्सकों और मरीजों के परिजनों के बीच भक्त और भगवान का जो मर्यादित रिश्ता बरसों से चलता आया  है, वह कुछ नाजुक होता चला जा रहा है। और ऐसा क्यों हो रहा है..?  इसकी चिंता समाज के साथ ही चिकित्सकों को भी करनी चाहिए। इस नाजुक रिश्ते को जोड़ने वाला धागा जिन कारणों से कमजोर होता जा रहा है, वह वास्तव में चिंतनीय है। चिकित्सकीय कार्य तथा इसी तरह चिकित्सक ही ईश्वर के बाद दूसरे वह शख्स रहते हैं, जिन पर लगभग हर कोई अपने जीवन की डोर मजबूत करने की उम्मीद लगा बैठता है। और इसलिए उनके मन में हर चिकित्सक के लिए एक अलग तरह का ऐसा श्रद्धा भाव, सम्मान का भाव बना रहता है, जो दूसरे किसी के लिए नहीं रहता। लेकिन, हम सबके मन में इस भाव का कैनवास जिस तरह कुछ अर्से से धुंधला हो रहा है उसकी चिंता हमारे समाज के साथ ही चिकित्सक वर्ग को भी करनी चाहिए।

पूरा देश इस बात को मान रहा है कि आज अगर भारत की तरह का 135 करोड़ की आबादी (और अमेरिका ब्रिटेन इटली जापान तथा रूस की तुलना में बहुत कम चिकित्सकीय संसाधनों) वाला देश, जान और माल...? के तमाम नुकसान के बावजूद अगर कोविड-19 जैसी जानलेवा महामारी से सुरक्षित है, तो इसके पीछे चिकित्सकों, चिकित्सा कर्मियों सरकार के नुमाइंदों,शासन के अधिकारियों, पदाधिकारियों नगर निगम के अधिकारियों और प्रशासन के अधिकारियों को ही शत-प्रतिशत श्रेय जाता है। जिस देश में टी बी और  वात-पित्त-कफ जैसी सामान्य बीमारी से भी लंबी संख्या में मौतें हो रही है, वहां कोविड-19 सरीखी महामारी से अगर (जैसे तैसे भी) हम निपट पाए हैं तो, केवल और केवल चिकित्सकों के कारण। इस पूरी जंग में चिकित्सकों ने लीडर का काम किया है। वहीं प्रशासन ने उनके पीछे पीछे उनके कहे मुताबिक व्यवस्थाएं और इंतजाम करने की अपने तई पूरी कोशिशें कीं, इसलिए ही हम कोविड-19 की दूसरी लहर पर काबू पाने जैसा,आज का दिन देख पा रहे हैं। अब ऐसे में हम अगर चिकित्सकों को भगवान मानकर उनसे बेहतर स्वास्थ्य का वरदान चाहते हैं तो उसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है। और जब हमें डॉक्टरों को भगवान मानने में अभी भी कोई एतराज नहीं है तो फिर और किसी को ऐतराज़ क्यों होना चाहिए..?

                                            

‘राष्ट्र के नाम’ संदेश बनाम ‘राष्ट्र का’ संदेश


जनता अपने प्रधानमंत्री से यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही है कि उसे उनसे भय लगता है।जनता उनसे उनके ‘मन की बात ‘, उनके राष्ट्र के नाम संदेश, चुनावी सभाओं में दिए जाने वाले जोशीले भाषण सब कुछ धैर्यपूर्वक सुन लेती है पर अपने दिल की बात उनके साथ शेयर करने का साहस नहीं जुटा पाती है । प्रधानमंत्री को जनता की यह सच्चाई कभी बताई ही नहीं गई होगी। सम्भव यह भी है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ पता करने की कोई इच्छा भी कभी यह समझते हुए नहीं ज़ाहिर की होगी कि जो लोग उनके इर्द-गिर्द बने रहते हैं वे सच्चाई बताने के लिए हैं ही नहीं.

प्रजातांत्रिक मुल्कों के शासनाध्यक्षों को आमतौर पर इस बात से काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है कि लोग उन्हें हक़ीक़त में कितना चाहते हैं ! वे अपने आपको लोगों के बीच चहाने के चोचले या टोटके भी आज़माते रहते हैं। मसलन, अमेरिकी जनता को व्हाइट हाउस के लॉन पर अठखेलियाँ करते राष्ट्रपति के श्वान के नाम, उम्र और उसकी नस्ल की जानकारी भी होगी। शासनाध्यक्ष यह पता करवाते रहते हैं कि लोग उन्हें लेकर आपस में, घरों में, पार्टियां शुरू होने के पहले और उनके बाद क्या बात करते होंगे ! यह बात तानाशाही मुल्कों के लिए लागू नहीं होती जहां किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति के हल्के से मुस्कुरा लेने भर को भी सत्ता के ख़िलाफ़ साज़िश के तौर पर देखा जाता है.

पुराने जमाने की कहानियों में उल्लेख मिलता है कि राजा स्वयं फ़क़ीर का वेष बदलकर देर शाम या अंधेरे में अपनी प्रजा के बीच घूमने निकल जाता था और उसके बीच अपने ही शासन की आलोचना करते हुए डायरेक्ट फ़ीडबेक लेता था कि उसकी लोकप्रियता किस मुक़ाम पर है। वह इस काम में किसी पेड एजेन्सी या पेड न्यूज़ वालों की मदद नहीं लेता था। हमारी जानकारी में क्या कभी ऐसा हुआ होगा कि प्रधानमंत्री ने अपने ‘डाई हार्ड’ समर्थकों के अलावा देश की बाक़ी जनता से यह पता करने की कोशिश की होगी कि वह उन्हें दिल और दिमाग़ दोनों से कितना चाहती है या कितना ख़ौफ़ खाती है?

आपातकाल के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि लोग आपस में बात करते हुए भी इस चीज़ का ध्यान रखते थे कि आसपास कोई दीवार तो नहीं है।भ्रष्टाचार का रेट भी ‘दूर दृष्टि ‘ और ‘कड़े अनुशासन’ के बीस-सूत्रीय कार्यक्रमों की रिस्क के चलते काफ़ी बढ़ गया था ।पर जनता पार्टी शासन के अल्प-कालीन असफल प्रयोग के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आईं तब तक उन्होंने अपने आपको काफ़ी बदल लिया था। उनके निधन के बाद किसी ने यह नहीं कहा कि देश को एक तानाशाह से मुक्ति मिल गई। ऐसा होता तो सहानुभूति लहर के बावजूद ‘परिवार’ के एक और प्रतिनिधि राजीव गांधी इतने बड़े समर्थन के साथ सत्ता में नहीं आ पाते। अटल जी का तो जनता के दिलों पर राज करने का सौंदर्य ही अलग था.

नायक कई मर्तबा यह समझने की ग़लती कर बैठते हैं कि जनता तो उन्हें खूब चाहती है, सिर्फ़ मुट्ठी भर लोग ही उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र में लगे रहते हैं यानी शासक के हरेक फ़ैसले में सिर्फ़ नुस्ख ही तलाशते रहते हैं। अगर यही सही होता तो दुनिया भर में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति, एक ही परिवार या एक ही पार्टी की हुकूमतें राजघरानों की तर्ज़ पर चलती रहतीं। ऐसा होता नहीं है। नायक ग़लतफ़हमी के शिकार हो जाते हैं और वर्तमान को ही भविष्य भी मान बैठते हैं.

सात जून की दोपहर जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी ट्वीट के ज़रिए लोगों को जानकारी मिली कि मोदी शाम पाँच बजे राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे तो (चैनलों को छोड़कर) जनता के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे। मसलन, प्रधानमंत्री कोरोना की पहली लहर के बाद जनता द्वारा बरती गई कोताही और उसके कारण मची दूसरी लहर की तबाही के परिप्रेक्ष्य में सम्भावित तीसरी लहर के प्रतिबंधों पर तो कुछ नहीं बोलने वाले हैं ? या फिर मौतों के आँकड़ों को लेकर चल रहे विवाद पर तो कोई नई जानकारी नहीं देंगें ? या फिर क्या वे इस बात का ज़िक्र करेंगे कि दूसरी लहर के दौरान समूचा सिस्टम कोलेप्स कर गया था और लोगों को इतनी परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। सम्बोधन में ऐसा कुछ भी व्यक्त नहीं हुआ। कुछ सुनने वालों ने राहत की साँस ली और ज़्यादातर निराश हुए। प्रधानमंत्री को शायद सलाह दी गई होगी कि दूसरी लहर उतार पर है और अब उन्हें अपनी अर्जित लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर जनता की नब्ज टटोलने के लिए उससे मुख़ातिब हो जाना चाहिए.

पीएमओ को किसी निष्पक्ष एजेन्सी की मदद से सर्वेक्षण करवाकर उसके आँकड़े प्रधानमंत्री ,पार्टी और संघ को सौंपने चाहिए कि सम्बोधनों में उनके बोले जाने का असर जनता के सुने जाने पर कितना और किस तरह का पड़ रहा है ? प्रधानमंत्री ने अपने सात जून के सम्बोधन में केवल इस बात का ज़िक्र किया कि 2014 (उनके सत्ता में आने के साल ) के बाद से देश में टीकाकरण कवरेज साठ प्रतिशत से बढ़कर नब्बे प्रतिशत हो गया है । उन्होंने यह नहीं बताया कि जनता में उनके प्रति भय अथवा नाराज़गी का कवरेज क्षेत्र भी उसी अनुपात में सात सालों में और बढ़ा है या कम हो गया है। समय बीतने के साथ ऐसा हो रहा है कि प्रधानमंत्री के मंच और और जनता के बैठने के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। दोनों ही एक-दूसरे के चेहरे के ‘भावों’ को नहीं पढ़ पा रहे हैं।अपार भीड़ की ‘अभाव’पूर्ण उपस्थिति ऐसी ख़ुशफ़हमी में डाल देती है जो परिणामों में ग़लतफ़हमी साबित हो जाती है।बंगाल में ऐसा ही हुआ। एक ‘अलोकप्रिय’ मुख्यमंत्री एक ‘लोकप्रिय’ प्रधानमंत्री को चुनौती देते हुए फिर सत्ता में क़ाबिज़ हो गई. TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें   

प्रधानमंत्री को सरकार की उपलब्धियाँ गिनाने, ,मुफ़्त के टीके और अस्सी करोड़ लोगों को दीपावली तक मुफ़्त का अनाज देने की बात करने के बजाय मरहम बाँटने का काम करना चाहिए था। जितने लोगों की जानें जाना थीं, जा चुकी है। अब जो हैं उन्हें कुछ और चाहिए। प्रधानमंत्री से इस बात का ज़िक्र छूट जाता है कि जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है जिसे कि वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं। जब वे कहते हैं कि इतनी बड़ी त्रासदी पिछले सौ सालों में नहीं देखी गई तो लोगों की उम्मीदें भी अब वैसी ही हैं जो सौ सालों में प्रकट नहीं हुईं। और उसे समझने के लिए यह जानना पड़ेगा कि उनका 2014 का मतदाता 2021 में उनके सम्बोधन को टी वी के पर्दे के सामने किसी अज्ञात आशंका के साथ क्यों सुनता है ?

अंत में : अंग्रेज़ी अख़बार ‘द टेलिग्राफ’ ने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने अपने बत्तीस मिनट के सम्बोधन में कोई छब्बीस सौ शब्दों का इस्तेमाल किया पर देश की उस सर्वोच्च अदालत के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा जिसे कि जनता अपने लिए मुफ़्त टीके का श्रेय देना चाहती है !  


                                                

बिलासपुर में पर्यावरण के हालात, फोटोजर्नलिस्ट 'अप्पू' की नज़र से

TODAY छत्तीसगढ़  / पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी। इसे 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद शुरू किया गया था। 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। पृथ्वी की सुन्दरता को बनाए रखने के लिए कुछ सकारात्मक गतिविधियों के लिए हमें पूरे सालभर कार्यक्रम के उद्देश्यों को अपने ध्यान में रखना चाहिए। खैर ये पूरी दुनिया की बात हुई।

असल मे मैं आप लोगो का ध्यान आपके अपने शहर की ओर आकर्षित करना चाहता हु। जी हां बिलासपुर। जब एक दोस्त ने खास तौर मुझे इस जगह के बारे में लिखने आग्रह किया। तो आम दिनों व आम ख़बरों की तरह ही सोच रहा था। कोरोना #Covid-19 के समय जाना नही चाहता था। फिर सोचा कि जब कोरोना संक्रमण काल मे संक्रमितों के शवों, उनके जलती चिताओं, संक्रमितों के साथ रहना कर सकता हु, तो फिर ये क्यों नही। 

                                           

  यह जगह है, तोरवा छठघाट के सामने की जहाँ #बिलासपुर #नगर #निगम द्वारा शहर का सारा कचरा फेका जा रहा है। इस जगह वृक्षा रोपड़ भी होना था, लेकिन बिलासपुर नगर निगम को यहाँ शहर का कचरा फेंकना ज्यादा सही समझा, अपने ही अधिकारियों की आदेश की अवहेलना करती नज़र आ रही है। जिस सरकारी विभाग का बोर्ड लगा है, वही विभाग वहाँ शहर का कचरा फेंक रही है। 

ज्ञात हो कि ग्राम कछार में शहर के गली, मोहोलो, वार्डो का कचरा फेंकने की व्यवस्था व उस कचरे से खाद्य बनाने व बेचने की व्यवस्था किया गया है। फिर न जाने क्यों अपने ही स्मार्ट कहे जाने वाले शहर की #पर्यावरण की दशा बिगाड़ने में विभाग क्यों तुला है। 

जब हम स्वास्थ, रेल, बस, हवाई न्यायालय के लिए लड़ सकते है। तो क्या हम अपने शहर की पर्यावरण के लिए नही लड़ सकते। क्या हमको अपने आने वाली पीढ़ी या बच्चों को स्वस्थ रखने बीड़ा उठा नही सकते। अगर इन सब के बारे में आप नहि सोचते तो एक बार इन तस्वीरों को देख कर सोचिये।

                                       

मोदी का टूटता तिलिस्म ...

" मरने वालों के आँकड़े जैसे-जैसे बढ़ रहे हैं, नदियों के तटों पर बिखरी हुई लाशों के बड़े-बड़े चित्र दुनिया भर में प्रसारित हो रहे हैं , प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का ग्राफ भी उतनी ही तेज़ी से गिर रहा है.
नरेंद्र मोदी तीस मई को अपने प्रधानमंत्री काल के सात वर्ष पूरे कर लेंगे. कहा यह भी जा सकता है कि देश की जनता प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के साथ अपनी यात्रा के सात साल पूरे कर लेगी. कोरोना महामारी के प्रकोप और लगातार हो रही मौतों के शोक में डूबा हुआ देश निश्चित ही इस सालगिरह का जश्न नहीं मना पाएगा. सरकार और सत्तारूढ़ दल के पास तो ऐसा कुछ कर पाने का वैसे भी कोई नैतिक अधिकार नहीं बचा है.

कहा जा रहा है कि मरने वालों के आँकड़े जैसे-जैसे बढ़ रहे हैं, नदियों के तटों पर बिखरी हुई लाशों के बड़े-बड़े चित्र दुनिया भर में प्रसारित हो रहे हैं , प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का ग्राफ भी उतनी ही तेज़ी से गिर रहा है. इस गिरावट को लेकर आँकड़े अलग-अलग हैं पर इतना तय बताया जाता है कि उनकी लोकप्रियता इस समय सात सालों के अपने न्यूनतम स्तर पर है. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का सर्वेक्षण करने वाली एक एजेन्सी के अनुसार ,सर्वे में शामिल किए गए लोगों में सिर्फ़ 37 प्रतिशत ही इस समय प्रधानमंत्री के कामकाज से संतुष्ट हैं ( पिछले साल 65 प्रतिशत लोग संतुष्ट थे ). भाजपा चाहे तो इसे इस तरह भी पेश कर सकती है कि मोदी के ख़िलाफ़ इतने ‘दुष्प्रचार’ के बावजूद 37 प्रतिशत जनता अभी भी उनके पक्ष में खड़ी हुई है. और यह भी कि इतने विपरीत हालात में भी इतने समर्थन को ख़ारिज नहीं किया जा सकता.

विश्व बैंक के पूर्व आर्थिक सलाहकार और ख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु के इस कथन से सहमत होने के लिए हो सकता है देश को किसी और भी बड़े पीड़ादायक अनुभव से गुजरना पड़े जिसका कि मोदी मौक़ा नहीं देने वाले हैं :’’ लगभग सभी भारतीय, जो अपने देश से प्रेम करते हैं, 2024 की उसी तरह से प्रतीक्षा कर रहे हैं जिस तरह की प्रतीक्षा उन्होंने 1947 में की थी.’’ शक है मोदी उस क्षण को कभी जन्म भी लेने देंगे. हम अपने प्रधानमंत्री की क्षमता को अगर बीते सात वर्षों में भी नहीं परख पाए हैं तो अगले तीन साल उसके लिए बहुत कम पड़ेंगे. हम उस शासन तंत्र की निर्मम ताक़त से अभी भी अपरिचित हैं जो एकाधिकारोन्मुख व्यवस्थाओं के लिए अभेद्य कवच का काम करती है.

अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता को लेकर लगातार किए जाने वाले सर्वेक्षणों में भी तब काफ़ी गिरावट दिखाई गई थी. वहाँ राष्ट्रपति चुनावों (नवम्बर 2020) के पहले तक कोरोना से दुनिया भर में सबसे ज़्यादा (पाँच लाख ) लोगों की मौतें हो चुकीं थीं. अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ गई थी. बेरोज़गारी चरम पर थी. इस सबके बावजूद बाइडन के मुक़ाबले ट्रम्प की हार केवल सत्तर लाख के क़रीब (पॉप्युलर) मतों से ही हुई थी. ट्रम्प आज भी अपनी हार को स्वीकार नहीं करते हैं. उनका आरोप हैं कि उनसे जीत चुरा ली गई. ट्रम्प फिर से 2024 के चुनावों की तैयारी में ताक़त से जुटे हैं. ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी से उन तमाम लोगों को ‘मार्गदर्शक मंडल’ में पटका जा रहा है जो उनकी हिंसक, नस्लवादी और विभाजनकारी नीतियों का विरोध करने की हिम्मत करते हैं.

एंड्रयू एडोनिस एक ब्रिटिश राजनीतिक पत्रकार हैं. उन्हें पत्रकार राजनेता भी कह सकते हैं. वे ब्रिटेन की लेबर पार्टी से जुड़े हैं और प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की सरकार में पाँच वर्ष मंत्री भी रहे हैं. उनकी कई खूबियों में एक यह भी है कि वह भारत की राजनीति पर लिखते रहते हैं. एडोनिस ने पिछले दिनों अपने एक आलेख में बड़ा ही कठिन सवाल पूछ लिया कि असली मोदी कौन है और क्या हैं ? इसके विस्तार में वे घूम-फिरकर तीन सवालों पर आ जाते हैं : मोदी अपने आपको किस देश का नेतृत्व करते हुए पाते हैं ? भारत का या किसी हिंदू भारत का ? मोदी भारत में प्रजातंत्र की रक्षा कर रहे हैं या उसका नाश कर रहे हैं ? क्या मोदी, जैसा कि वे अपने आपको एक सच्चा आर्थिक नवोन्मेषी बताते हैं, वैसे ही हैं या फिर कट्टरपंथी धार्मिक राष्ट्रवादी, जो आधुनिकीकरण को अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने का हथियार बनाकर अपने प्रस्तावित सुधारों का लाभ एक वर्ग विशेष को पहुंचाना चाहता है? एंड्रयू एडोनिस ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व को लेकर जो सवाल पूछे हैं उनसे कठिन सवाल उस समय पूछे गए थे जब वे एक दशक से अधिक समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे. उन सवालों के जवाब कभी नहीं मिले.

मोदी ने भाजपा को 1975 से 1984 के बीच की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में बदल दिया है जिसमें देवकांत बरुआ जैसे चारणों ने इंडिया को इंदिरा और इंदिरा को इंडिया बना दिया था. पिछले सात सालों में भाजपा में बरुआ के लाखों-करोड़ों क्लोन खड़े कर दिए गए हैं. स्थिति यह है कि समूची व्यवस्था पर कब्जा जमा लेने वाले इन लोगों के जीवन-मरण के लिए मोदी ऑक्सिजन बन गए हैं. इनमें सबसे बड़ी और प्रभावी भागीदारी बड़े औद्योगिक घरानों, मीडिया प्रतिष्ठानों, मंत्रियों और अधिकारियों के अपवित्र गठबंधन की है. इस गठबंधन के लिए ज़रूरी हो गया है कि वर्तमान व्यवस्था को किसी भी कीमत पर सभी तरह और सभी तरफ़ से नाराज़ जनता के कोप से बचाया जाए. लाशों को ढोते-ढोते टूटने के कगार पर पहुँच चुके लोगों से यह गठबंधन अंत में यही एक सवाल करने वाला है कि वे हिंसक अराजकता और रक्तहीन एकदलीय तानाशाही के बीच किसे चुनना पसंद करेंगे?

प्रधानमंत्री अपने सात साल के सफ़र के बाद अगर किसी एक बात को लेकर इस समय चिंतित होंगे तो वह यही हो सकती है कि हरेक नागरिक कोरोना से उपजने वाली प्रत्येक परेशानी और जलाई जाने वाली हरेक लाश के साथ उनके ही बारे में क्यों सोच रहा है ? ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ ! यह एक ऐसी एंटी-इंकम्बेन्सी है जिसमें इंडिया तो राजनीतिक विपक्ष-मुक्त है पर महामारी ने जनता को ही विपक्ष में बदल दिया है. प्रधानमंत्री जनता का दल-बदल नहीं करवा सकते. महसूस किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री इस समय काफ़ी असहज दिखाई पड़ते हैं. वे मौजूदा हालात को लेकर चाहे जितना भी भावुक दिखना चाह रहे हों, उन पर यक़ीन नहीं किया जा रहा है.

 

कोरोना से जंग लड़ने वाले 'फ्रंट लाईन' कर्म योद्धाओं को सलाम - डांगी

TODAY छत्तीसगढ़  /  कोरोना के इस जंग में एक वर्ग ऐसा भी है जिसकी तरफ बहुत ही कम लोगों का ध्यान जाता है , वह है सफाई कर्मचारी ,एंबुलेंस के ड्राइवर, श्मशान घाटों पर दिन रात मृत संक्रमित लोगों के दाह संस्कार के लिए तैनात कर्मचारी। यह वो लोग हैं जो फ्रंट लाइन में काम करते हैं। आपको यह लोग सड़क पर ,अस्पताल में , श्मशान घाट पर एवम् एंबुलेंस के पास , हॉस्पिटल के गेट पर काम करते मिल जाएंगे।  

यह वो लोग हैं जिनका सीधा सामना कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों से होता है। अस्पताल में चाहे डॉक्टर हो या नर्सिंग स्टाफ सभी लोग कोरोना से बचने के सभी उपाय जैसे पीपीपी कीट ,मास्क,दस्ताने पहने रहते हैं लेकिन हम देखते हैं कि जो हमारे सफाई कर्मचारी ,एंबुलेंस के ड्राइवर हैं जिनके पास इस तरह के सुरक्षात्मक संसाधन नहीं होने के बावजूद प्रथम पंक्ति में खड़े होकर के अपनी जान को जोखिम में डालकर दिन रात काम करते हैं उसी प्रकार हम देखते है श्मशान घाट पर शवदाह करने वाले कर्मचारी ऐसे लोग हैं जो बिना भय के निडर होकर ऐसे शवों का दाह संस्कार करते है जिनको उनके परिजनों द्वारा एक तरह से लावारिस छोड़कर चले जाते हैं।उनकी तरफ बहुत ही कम लोगों का ध्यान जाता है यह ऐसे सैनिक है जो दिखाई तो हर जगह देते हैं लेकिन उनको जितना महत्व और सम्मान मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाया । अपने जीवन को संकट में डाल कर सीमित सुरक्षात्मक संसाधनों  के अपने कार्य में जुटे रहते हैं। इन कर्मियों की तरफ किसी का ध्यान मुश्किल ही जाता है।

यह लोग साधारण से मास्क लगाकर गंभीर परिस्थिति में भी कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों के आस पास रहकर उनका ध्यान रखते हैं । कोरोना संक्रमित की  मृत्यु होने पर जब परिवार के सदस्य भी उनके हाथ लगाने से डरते हैं तब यही सफाई कर्मी शव को एंबुलेंस में रखते हैं , उनका अंतिम संस्कार के लिए भी सब लेकर जाते हैं । ये कर्मचारी बिना डरे सुबह से शाम तक लगे रहते हैं। कोरोना से संक्रमित होने से बचाने हेतु सुरक्षा के संसाधन के साथ-साथ उसे समाज में सम्मान और सहयोग भी मिलना चाहिए । सफाई कर्मी हम सभी के स्वास्थ्य के आधार स्तंभ हैं । हमारे स्वास्थ्य के लिए हर क्षेत्र को स्वच्छ बनाने के लिए दिन रात लगे रहते हैं । लेकिन विडंबना यह है कि हमारा आधुनिक समाज उनको वो सम्मानजनक स्थान नहीं देता जिसका वो  हकदार हैं। हम सबका दायित्व है कि उनके प्रति श्रद्धा रखकर उनका मनोबल बढ़ाना चाहिए । उनके साथ सम्मान जनक व्यवहार  हमको करना चाहिए। इस संकट में ये कर्मचारी जो काम कर रहे है वो सराहनीय है।  

[फेसबुक वाल से - रतनलाल डांगी, IPS अफसर हैं । वर्तमान में वे छत्तीसगढ़ के बिलासपुर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक हैं। प्रशासनिक सेवा के साथ-साथ यह अपने सामाजिक दायित्व का भी बड़ी कुशलता के साथ निर्वहन करते हैं। ]

..अब जब सावधानी से थकान होने लगी है तब


कोरोना के आंकड़ों के साथ-साथ जो दूसरी जानकारी आती है वह पॉजिटिव लोगों के पतों और नाम की वजह से यह साफ कर देती है कि वे एक ही परिवार के लोग हैं। हम रोजाना ऐसे सैकड़ों लोगों के नाम देख रहे हैं जिनमें से एक-एक घर के पांच-दस लोग भी हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक परिवार के एक चूल्हे पर पका खाना खाने वाले करीब दो दर्जन लोग अब तक पॉजिटिव हो चुके हैं। इनमें से हर किसी को अलग-अलग बाहर से संक्रमण नहीं हुआ होगा, बाहर से तो कोई एक-दो लोग ही कोरोना लाए होंगे, लेकिन इसके बाद घर के भीतर ही बाकी लोगों को इनसे संक्रमण पहुंचा होगा। इस खतरे पर हम चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि जो लोग घर के भीतर हैं, जिनका काम बाहर निकले बिना चल जा रहा है, वे लोग अपने आपको महफूज मान लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं।

जो लोग घर के बाहर जाते हैं वे लोग तो एक बार थोड़ी-बहुत सावधानी बरत भी लेते हैं, मास्क लगा लेते हैं, चीजों को बिना जरूरत छूने से परहेज कर लेते हैं, और हाथों को सेनेटाइज भी कर लेते हैं। लेकिन जब लोग परिवार के बीच घर में रहते हैं, तो बच्चे-बड़े, तमाम लोग एक-दूसरे के साथ संपर्क में आते ही हैं। जब कोरोना फैलना शुरू हुआ तभी डॉक्टरों ने इस बारे में सचेत कर दिया था कि छोटे बच्चे खतरनाक साबित हो सकते हैं क्योंकि एक कोरोना पॉजिटिव हो जाएंगे, तो भी उनमें प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहने की वजह से उनमें कोई लक्षण नहीं दिखेंगे, और वे ऐसे बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी, को संक्रमित करने का खतरा बन सकते हैं जो कि अपनी उम्र, कम प्रतिरोधक क्षमता, और कई किस्म की बीमारियों की वजह से अधिक नाजुक रहेंगे। अब यह बात परिवारों के बीच कहने-सुनने में अच्छी नहीं लगती है क्योंकि दादा-दादी, नाना-नानी को तो अपनी जिंदगी ही परिवार के छोटे बच्चों के लिए बची हुई लगती है। उन्हें वे गोद में रखते हैं, साथ खिलाते हैं, साथ सुलाते हैं, और सिर चढ़ाए रखते हैं।

आज जिस तरह थोक में अनगिनत परिवार कोरोना पॉजिटिव हो रहे हैं, उनमें परिवार के ही कुछ लोग बाहर से खतरा लाकर बाकी लोगों के लिए खतरा बने होंगे। तमाम लोगों को इस नजरिये से भी परिवार के भीतर बहुत बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है। यह कॉलम आमतौर पर विचारोत्तेजक-विचारों का है, लेकिन हम बहुत किस्म के खतरों के बारे में इसी जगह पर सावधानी सुझाने का काम भी करते रहते हैं। यह लिखा हुआ पढऩा उतना विचारोत्तेजक नहीं होगा, लेकिन यह जिंदगी के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि हम समय-समय पर ऐसे कुछ मुद्दों को इसी जगह उठाते हैं। कोरोना के बारे में घर के बाहर बरती जाने वाली सावधानियों पर तो दर्जन भर से अधिक बार हम लिख चुके हैं, लेकिन परिवार के भीतर आपस में भी लोगों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है। यह बात लिखते हुए हमें अच्छी तरह मालूम है कि देश की तीन चौथाई आबादी के पास तो ऐसी सावधानी बरतने की अधिक गुंजाइश नहीं है क्योंकि वे बहुत छोटे-छोटे घरों में रहते हैं, और वहां एक-दूसरे से परहेज की गुंजाइश बड़ी सीमित रहती है। लेकिन वहां पर भी यह सावधानी बरती जा सकती है कि एक से अधिक लोग एक वक्त में आसपास बैठकर न खाएं, क्योंकि खाते हुए मास्क तो उतरना ही है, और आपस में बातचीत करते हुए मुंह से खाने और थूक के छींटे तो उड़ते ही हैं। रसोई में एक घड़े में या एक फ्रिज में, खाने-पीने के दूसरे सामानों में हाथ लगते ही हैं। एक टॉवेल या एक नेपकिन, एक सिंक या एक नल को कई लोग छूते हैं। छोटे घरों में यह खतरा और अधिक रहता है।

आज ही एक खबर आई है कि 80 बरस से अधिक उम्र के 17 लोग एक जगह अपने एक साथी का जन्मदिन मनाने इक_ा हुए, वे लोग वैसे तो मास्क लगाए हुए थे, लेकिन उन्होंने खाते-पीते वक्त मास्क हटा दिए थे। अब ये सारे के सारे 17 बुजुर्ग कोरोना पॉजिटिव निकले हैं। अब आज ऐसे वक्त में क्यों तो इतने लोगों को किसी दावत में शामिल होना चाहिए, और क्यों एक साथ खाना-पीना चाहिए? लेकिन कोरोना को लेकर जो दहशत थी, वह अब धीरे-धीरे डर में बदली, और उसके बाद अब वह लापरवाही में बदल रही है। लोगों को लग रहा है कि डर-डरकर क्या जीना। लोग अब धीरे-धीरे साफ-सफाई, और सावधानी से थकते चले जा रहे हैं, और उसे फिजूल का मान रहे हैं। हर किसी के आसपास कुछ ऐसी मिसालें हैं कि बिना किसी बाहरी संपर्क वालों को भी कोरोना हो गया, ऐसे में सावधानी रखकर क्या फायदा? यह तर्क कुछ इसी तरह का है कि सिगरेट-तम्बाकू से परे रहने वाले लोगों को भी कैंसर हो गया है, तो फिर सिगरेट से परहेज से क्या फायदा?

ऐसे लापरवाह दौर में लोगों को बहुत अधिक सावधानी बरतने की जरूरत इसलिए भी है कि दुनिया भर के बहुत से विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि हिन्दुस्तान में कोरोना अभी और आगे बढ़ेगा। मतलब यह कि अभी तक जो खतरे नहीं आए हैं, वे खतरे और भी आ सकते हैं। अस्पतालों में बिस्तर नहीं बचे हैं,  और सच तो यह है कि अगर निजी अस्पतालों में जाने की नौबत आई, तो इस देश के 99 फीसदी लोगों की क्षमता भी पूरे परिवार के निजी इलाज की नहीं है। ऐसे में बचाव ही अकेला इलाज है, और बचाव से परे सिर्फ खतरा ही खतरा है। अपने लिए न सही तो घरबार के दूसरे लोगों के लिए, अपने दफ्तर और कारोबार के दूसरे लोगों के लिए सावधानी बरती जाए। अब जब सावधानी से थकान बढ़ती जा रही है, तो खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं, और यही वजह है कि हिन्दुस्तान में कल एक दिन में 80 हजार से अधिक कोरोना पॉजिटिव निकले, जो कि दुनिया में एक रिकॉर्ड रहा।

हम यहां कोई भी ऐसी बात नहीं लिख रहे हैं जो लोगों को खुद होकर न मालूम हो, हम बस लोगों को अधिक सावधान भर कर रहे हैं, और उन्हें अपने दायरे के बारे में सोचने कह रहे हैं कि वे संक्रमण से बचने के कौन से तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं। 
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