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सिर्फ दिलचस्प बातें नहीं हैं, काफी कुछ सीखने को है 'चींटियों' में

TODAY छत्तीसगढ़  / एकजुटता, कड़ी मेहनत और ईमानदारी के साथ सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वाहन को दर्शाती इस तस्वीर को देखकर काफी कुछ सीखा जा सकता है । तस्वीर कहती है कुदरत का भी दिल है, या यूँ कह लीजिये इन चीटियों के भीतर भी एक खूबसूरत दिल है। आकार लेता आशियाँ दिल की शक्ल अख्तियार कर चुका है, काम जारी है। मिट्टी के ढेले और कंकड़ उठाकर यहां-वहां ले जाती चीटियों को वक्त निकालकर देखियेगा। गैर जिम्मेदार और निकम्मे इंसानों को इन चीटियों से कुछ सीखना होगा। इस भीड़ में सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारी का अहसास है, कौन सा कंकड़ किस जगह ज़माना है इन कुशल कारीगरों को पता है।


एक जानकारी के मुताबिक चीटियों के बारे में कुछ दिलचस्प बातें हैं जो बताती हैं कि दुनिया भर में चींटियों की 10,000 से ज्यादा प्रजातियां मौजूद हैं. आकार में ये 2 से 7 मिलीमीटर के बीच होती हैं. सबसे बड़ी चींटी कार्पेंटर चींटी कहलाती है. उसका शरीर करीब 2 सेंटीमीटर बड़ा होता है. एक चींटी अपने वजन से 20 गुना ज्यादा भार ढो सकती है. कीटों में चींटी का दिमाग सबसे तेज माना जाता है. इसमें करीब 250,000 मस्तिष्क कोशिकाएं होती हैं. TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें 



रानी चींटी सबसे बड़ी होती है. इसका अहम काम अंडे देना है, यह हजारों अंडे देती है. नर चींटे का शरीर छोटा होता है. यह रानी चींटी को गर्भवती करने के कुछ दिन बाद मर जाता है. अन्य चींटियों का काम खाना लाना, बच्चों की देखरेख करना, और कालोनीनुमा घर बनाना है. साथ ही रक्षक चींटियों का काम घर की हिफाजत करना होता है. असल में चींटियां सुन नहीं सकतीं क्योंकि उनके कान नहीं होते. हालांकि ये जीव ध्वनि को कंपन से महसूस कर सकते हैं. आसपास की आवाज को सुनने के लिए ये घुटने और पांव में लगे खास सेंसर पर निर्भर करते हैं. चींटियों के दो पेट होते हैं. एक में खुद के शरीर के लिए खाना होता है और दूसरे में कालोनी में रहने वाली दूसरी चींटियों के लिए खाना होता है.

मुंगई माता की पूजा का साक्षी बनते जंगली भालू, अंधविश्वास या आस्था ?

                                         
TODAY छत्तीसगढ़  / उन जानवरों के सामने मैं निःशब्द हूँ क्यूंकि मैं एक इंसान हूँ, अक्सर शहर के जंगलों में मुझे जानवर नज़र आतें है इंसान की शक्ल में घूमते हुए शिकार को ढूंढते और झपटते हुए.. फिर नोचते और खाते हुए। ये ख्याल मेरे जहन में उस वक्त आया जब मैं छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में मुंगई माता के मंदिर में हर रोज होने वाली एक अप्रत्याशित घटना का साक्षी बना। 
  वैसे तो इस देश में चमत्कारों और आध्यात्मिक शक्तियों की वजह से कई मंदिर प्रसिद्ध हैं लेकिन छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में मुंगई माता का मंदिर हर रोज होने वाली एक घटना के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर में केवल इंसान ही पूजा नहीं करते हैं बल्कि हर रोज जंगली भालुओं का पूरा परिवार पहाड़ी रास्ते से नीचे उतरकर माता के दर्शन के लिए मंदिर की चौखट तक पहुंचता है।  मुंगई माता के मंदिर में जहां हर रोज सैकड़ों भक्त अपनी मनोकामना लेकर पहुंचते हैं, वहीँ दिन ढलते ही चार भालुओं का परिवार हर रोज मुंगई माता की पूजा का साक्षी बनता है।  मुंगई माता के दरबार में भक्तों की भीड़ के बीच जंगली भालुओं के परिवार की मौजूदगी निश्चित तौर पर कौतुहल का बड़ा कारण  है।  
रायपुर से सरायपाली मुख्य मार्ग पर स्थित मुंगई माता का मंदिर भले ही प्राचीनतम इतिहास से सरोकार ना रखता हो लेकिन जंगली भालुओं और इंसानी रिश्तों के बीच  होती प्रगाढ़ता के लिए जरूर सदियों तक जाना जाएगा। महासमुंद जिले के ग्राम बावनकेरा [रायपुर से सरायपाली मुख्य मार्ग ] में मुंगई माता मंदिर के पुजारी टिकेश्वर दास वैष्णव बताते हैं कि पांच भालू का परिवार पास की पहाड़ी में सालों से रह रहा है, करीब दो बरस पहले परिवार का एक सदस्य यानी एक भालू सड़क हादसे में मारा गया। अब भालुओं के परिवार में नर-मादा के अलावा दो बच्चे हैं, चार सदस्यों का यह परिवार पिछले दो दशक से शाम के वक्त माँ की आरती में शरीक होने रोज पहाड़ से नीचे उतरकर मंदिर में आता है। मंदिर आने वाले भालुओं ने कभी किसी भक्त या आसपास के इंसानों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है, हाँ कई बार लोगों की गैर वाज़िब हरकतें जंगली भालुओं को नागवार जरूर गुजरती हैं। उस वक्त भालू इंसान पर अपना गुस्सा दिखाने के लिए जरूर कुछ दूर दौड़ाता है मगर आज तक किसी इंसान पर इन भालुओं ने प्राणघातक हमला नहीं किया। मंदिर के पुजारी बताते हैं भालू नारियल, रेवड़ियां और बिस्किट्स खूब चाव से खाते हैं, इतना ही नहीं हर मौसम में उन्हें ठंडा माज़ा [कोलड्रिंक्स] खूब भाता है।      
वैसे छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में ही बागबहरा तहसील मुख्यालय से महज पांच किलोमीटर दूर चंडी देवी का मंदिर है, वहां भी सालों से भालुओं का परिवार शाम की पूजा के वक्त मंदिर पहुंचता है। राज्य के महासमुंद जिले का मुंगई माता का मंदिर दुसरा ऐसा मंदिर है जहां वन्यप्राणी आस्था की शक्ल में इंसानों के इतने करीब हैं। 
माता के दरबार में बिना किसी मनोकामना के हर रोज पेट पूजा के लिए पहुँचने वाले आस्थावान जंगली भालुओं को सुरक्षा और संरक्षण की दरकार है जिसे लेकर जिले का वन महकमा बेहद असंवेदनशील दिखाई देता है। यह मंदिर नेशनल हाइवे पर है, मंदिर प्रांगण के इर्द-गिर्द किसी तरह का सुरक्षा घेरा नहीं है। इन जंगली भालुओं के करीब हर वो इंसान पहुँचना और उसे अपने हाथ से खिलाना-पिलाना चाहता है जो वहां मौजूद है, ऐसे में किसी भी दिन अनहोनी या फिर बड़ी घटना से इंकार नहीं किया जा सकता। आस्था के नाम पर सालों से चल रही इस अप्रत्याशित घटना में सावधानी और सतर्कता बेहद जरूरी है।

'हम अमेठी का नाम बदनाम नही होने देंगे'


[TODAY छत्तीसगढ़] / कांग्रेस का तीर्थ स्थल कही जाने वाली अमेठी इस बार विकास के नए आयाम गढ़ने को लेकर काफी पशोपेश में नज़र आई । एक तरफ बदलाव के बहाने विकास की नई किरण निकल आने की लालसा दिखाई पड़ी तो दूसरी तरफ इतिहास बदल जाने के भय से मन अशांत था । कांग्रेस की जिस अमेठी में बाहरी प्रांत के पार्टी नेताओं को घुसकर प्रचार-प्रसार की इजाज़त नही थी वहाँ इस बार देश के दूसरे हिस्सों के बड़े-छोटे नेताओं ने न सिर्फ राहुल गांधी के पक्ष में प्रचार किया बल्कि खुद को अमेठी में पाकर पुण्य लाभ मिल जाने का सौभाग्य हासिल किया । इन सबके बीच सबसे अहम और अफसोसजनक जो बात रही वो ये कि अमेठी अपना इतिहास दोहराना तो चाहती है मगर बतौर प्रधानमंत्री राहुल गांधी की बजाय उन्हें नरेंद्र मोदी से बेहतर विकल्प दिखाई नही पड़ता । हाँ, इस देश का ये पहला लोकसभा क्षेत्र होगा जिसके मतदाता खुलकर कहते है 'हम अमेठी का नाम बदनाम नही होने देंगे' ... अमेठी फिर अपना इतिहास दोहराएगी, इस भरोसे के साथ मतदाताओं ने कल ईवीएम में राहुल गाँधी और स्मृति ईरानी के भाग्य को ईवीएम में बंद कर दिया है ।  
आपको बता दें साल 2014 का चुनाव भी राहुल गांधी ने मोदी लहर में यहीं से जीता था. हालांकि बीजेपी से लड़ने आईं स्मृति ईरानी ने ठीकठाक टक्कर दी थी . बड़े जोरशोर से लड़ने आए आम आदमी पार्टी के नेता डॉ. कुमार विश्वास यहां चौथे नंबर रहे जबकि बीएसपी प्रत्याशी धर्मेन्द्र तीसरे नंबर थे. इस चुनाव में राहुल गांधी को 408651 वोट मिले थे वहीं बीजेपी प्रत्याशी स्मृति ईरानी को 300748 वोट मिले थे. कुमार विश्वास को मात्र 25 हजार और बीएसपी को 57716 वोट मिले थे. मतगणना के दिन इस सीट पर एक मौका ऐसा भी आया जब स्मृति ईरानी ने सबको चौंकाते हुए राहुल गांधी को पीछे छोड़ दिया था. इस बार भी मुकाबला संघर्षपूर्ण है लेकिन जनता का मन टटोलने पर जो जवाब मिलता है उससे नतीजे राहुल गांधी के पक्ष में जाता दिखाई दे रहा है। 
 वैसे राहुल गांधी इस बार अमेठी के अलावा वायनाड से भी चुनाव मैदान में हैं, उनके दो जगह से चुनाव लड़ने को लेकर भी काफी चर्चा होती रही, सियासी जमात के लोग खासकर विपक्ष लगातार राहुल के वायनाड से चुनाव लड़ने को लेकर बयानबाजी करता रहा। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सोमवार को अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी में मतदान के दौरान मौजूद नहीं रहे. अमेठी से राहुल 2004, 2009 और 2014 में चुनाव जीत चुके हैं. राहुल के विरुद्ध चुनाव लड़ रहीं भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कांग्रेस अध्यक्ष को लापता सांसद करार दिया और कहा कि मौजूदा सांसद ने मतदान के दिन भी क्षेत्र का दौरा नहीं किया.  उन्होंने पत्रकारों से कहा कि राहुल ने चुनाव के दिन अमेठी के लोगों को धोखा दिया है.  स्मृति ने कहा, "मैं नहीं जानती थी कि वह इतने घमंडी हो सकते हैं कि अमेठी में मतदान के दिन भी नहीं आएंगे."  जबकि राहुल गांधी ने मतदान से ठीक एक दिन पहले अपने संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं को एक पत्र लिखकर कहा, 'अमेठी मेरा परिवार है। मेरा अमेठी परिवार मुझे हिम्‍मत देता है कि मैं सच्‍चाई के साथ खड़ा रहूं, मैं गरीब-कमजोर लोगों की पीड़ा सुन सकूं और उनकी आवाज उठा सकूं और सबके लिए एक समान न्‍याय का संकल्‍प ले सकूं। आपने मुझे जो प्‍यार की सीख दी थी, उसके आधार पर मैंने पूरे देश को उत्‍तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक जोड़ने की कोशिश की है।' 

जनता की नाराजगी - 
देश की वीवीआईपी सीटों में शुमार अमेठी की जनता अपने सांसद राहुल गांधी से खासी नाराज़ भी दिखाई देती है लेकिन उस नाराजगी के बावजूद वो गांधी परिवार का साथ नहीं छोड़ना चाहती। अमेठी लोकसभा क्षेत्र में आम जनमानस की राय का जिक्र करें तो वे अपने सांसद [राहुल गांधी] से नहीं मिल पाते। उनका मानना है की कड़ी सुरक्षा घेरे से घिरे सांसद क्षेत्र के कुछ लोगों की भीड़ से ही घिरे रहते हैं। जनता छोटी-बड़ी समस्याओं को लेकर अपने सांसद तक नहीं जा सकती जबकि अमेठी के कुछ पुराने लोग उनके पिता स्वर्गीय राजीव गांधी के कार्यकाल को याद करते हुए कहते हैं कि 'जब वे प्रधानमंत्री थे तब दिल्ली के दरबार में प्रत्येक सप्ताह अमेठी के लोगों के लिए मिलने का वक्त तय हुआ करता था, अपने क्षेत्र की जनता से मिलकर वे उनकी समस्याओं को सुनते और उसके निराकरण की दिशा में काम भी किया करते थे लेकिन राहुल गाँधी में वो बात नहीं है।' आमजनता के इस ख्यालात को सुनकर सांसद बदलने के सवाल पर जो जवाब है वो जाहिर तौर पर चौकाने वाला है।  अमेठी की अधिकाँश जनता इस बात को सहजता से स्वीकारती है कि देश-विदेश में अमेठी को पहचान सिर्फ गांधी परिवार की वजह से मिली है। शायद तमाम नाराजगी इसी बात को सोचकर दूर हो जाती है। शायद जनता की इसी नाराज़गी को राहुल गांधी ने समझकर वायनाड जाने का फैसला लिया हो ? खैर इस बार राहुल गांधी की राह में दिखाई देते काँटों को उनकी बहन और कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने दूर करने की काफी कोशिश की है। उनकी बहन और कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने अमेठी लोकसभा क्षेत्र में ना सिर्फ सघन जनसम्पर्क किया बल्कि हर आम-ओ-ख़ास को बताया गया की अमेठी की जनता गांधी परिवार का हिस्सा है, गांधी परिवार को अमेठी की जनता ने ही बनाया है।  

   अमेठी लोकसभा सीट: 
अमेठी लोकसभा सीट उत्तर प्रदेश (यूपी) की 80 लोकसभा सीटों में से एक हैं. ये अमेठी और रायबरेली जिले की पांच विधानसभा सीटों को मिलाकर बनी है. चार विधानसभा सीटें अमेठी जिले की हैं और एक सीट रायबरेली जिले की है. अमेठी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत 4 तहसील और 5 विधान सभा क्षेत्र आते हैं । इन 5 विधान सभा क्षेत्रों में तिलोई, सलोन, जगदीशपुर, गौरीगंज और अमेठी हैं जिसमें सलोन और जगदीशपुर अनुसूचित जाति के लिए अरक्षित है। देश में 1951-52 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए थे, तब अमेठी लोकसभा का कोई वजूद नहीं था तब ये इलाका सुल्तानपुर दक्षिण लोकसभा सीट में आता था। यहां से तब कांग्रेस के बालकृष्ण विश्वनाथ केशकर चुनाव जीते थे। इसके बाद 1957 में मुसाफिरखाना लोकसभा सीट अस्तित्व में आई, जो इस वक्त अमेठी जिले की एक तहसील है, तब कांग्रेस के बी वी केशकर यहां के सांसद बने थे। साल 1967 के आम चुनाव में अमेठी लोकसभा अस्तित्व में आई, नई सीट पर कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी को अमेठी का पहला सांसद बनने का गौरव मिला, वो 1971 में भी यहां से एमपी चुने गए। 1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने राजा रणंजय सिंह के बेटे संजय सिंह को प्रत्याशी बनाया लेकिन उस वक्त देश में जनता पार्टी लहर थी, संजय सिंह चुनाव हार गए और भारतीय लोकदल के रविन्द्र प्रताप सिंह सांसद चुने गए, तब पहली बार चुनावों में इस सीट पर कांग्रेस हारी थी।

अमेठी लोकसभा सीट का इतिहास
देश में 1951-52 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए. तब अमेठी लोकसभा का कोई वजूद नहीं था. तब ये इलाका सुल्तानपुर दक्षिण लोकसभा सीट में आता था. यहां से तब कांग्रेस के बालकृष्ण विश्वनाथ केशकर चुनाव जीते थे.
1957 में मुसाफिरखाना लोकसभा सीट अस्तित्व में आई. जो इस वक्त अमेठी जिले की एक तहसील है. कांग्रेस के बी वी केशकर फिर से यहां के सांसद बने.
1962 के लोकसभा चुनाव में राजा रणंजय सिंह मुसाफिरखाना लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर सांसद बने. राजा सिंह अमेठी राजघराने के 7वें राजा था. रणंजय सिंह वर्तमान राज्यसभा सांसद संजय सिंह के पिता थे.
1967 के आम चुनाव में अमेठी लोकसभा अस्तित्व में आई. नई सीट पर कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी को अमेठी का पहला सांसद बनने का गौरव मिला. लेकिन उनकी जीत को भारतीय जनसंघ के गोकुल प्रसाद पाठक ने काफी मुश्किल कर दिया था. उन्हें चुनाव में मात्र 3,665 वोटों के अन्तर से जीत मिली.
1971 में फिर से कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी अमेठी से सांसद चुने गए. लेकिन इस बार जीत का अन्तर 75,000 से ज्यादा था.
1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने राजा रणंजय सिंह के बेटे संजय सिंह को प्रत्याशी बनया. उस वक्त देश में जनता पार्टी लहर थी, संजय सिंह चुनाव हार गए और भारतीय लोकदल के रविन्द्र प्रताप सिंह सांसद चुने गए. पहली बार चुनावों में इस सीट पर कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था.
1980 के चुनाव से कांग्रेस ने सत्ता के साथ-साथ इस सीट पर भी वापसी की. इस सीट से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी ने चुनाव लड़ा और जीतकर सांसद चुने गए. इस सीट पर पहली बार नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य चुनाव लड़ा. 23 जून 1980 को संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत हो गई.
1981 में हुए उपचुनाव में इंदिरा गांधी के बड़े बेटे राजीव गांधी अमेठी से सांसद चुने गए.
अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिसंबर 1984 में लोकसभा के चुनाव हुए. राजीव गांधी एक बार फिर अमेठी से प्रत्याशी बने. संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी पति की विरासत पर दावा करने के निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतरीं लेकिन मेनका को सिर्फ 50,000 वोट मिले. राजीव गांधी 3 लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से चुनाव जीते और साबित किया कि नेहरू-गांधी परिवार के असली वारिस वही हैं.
1989 और 1991 के लोकसभा चुनावों में राजीव गांधी फिर से अमेठी से कांग्रेस के टिकट पर सांसद बने. 1989 में राजीव गांधी ने जनता दल के प्रत्याशी और महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी को हराया.
1991 में मई-जून के महीनों में लोकसभा चुनाव हुए थे. 20 मई को पहले चरण की वोटिंग हुई. 21 मई को राजीव गांधी प्रचार करने तमिलनाडु गए जहां उनकी हत्या कर दी गई. 1991 में अमेठी लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ जिसके बाद कांग्रेस के सतीश शर्मा सांसद चुने गए.
1996 में सतीश शर्मा फिर से सांसद चुने गए.
1998 में बीजेपी ने कांग्रेस से बीजेपी में आए अमेठी राजघराने के वारिस संजय सिंह को चुनाव लड़ाया. संजय सिंह चुनाव जीत गए और सतीश शर्मा चुनाव हार गए. ये दूसरा मौका था जब इस सीट पर कांग्रेस को हार मिली.
1999 में राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी चुनाव मैदान में ऊतरीं और अमेठी की सांसद बनीं. बीजेपी से चुनाव मैदान में ऊतरे संजय सिंह चुनाव हार गए.
2004 में अमेठी से राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी पहली बार सांसद चुने गए. राहुल 3 लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीते. समाजवादी पार्टी ने यहां अपना प्रत्याशी नहीं उतारा.
2009 में राहुल गांधी फिर से सांसद चुने गए. इस बार जीत का अन्तर 3,50,000 से भी ज्यादा का रहा. समाजवादी पार्टी ने फिर से अपना प्रत्याशी नहीं उतारा.
2014 में राहुल गांधी इस सीट से लगातार तीसरी बार सांसद चुने गए. लेकिन इस बार राहुल गांधी की जीत का अंतर 1,07,000 वोटों का ही रह गया. बीजेपी ने राज्यसभा सांसद स्मृति ईरानी को यहां से मैदान में उतारा था. वहीं, आम आदमी पार्टी (आप) के कुमार विश्वास भी यहां से चुनाव लड़े थे. ईरानी ने 3 लाख से ज्यादा वोट हासिल कर राहुल को कड़ी टक्कर दी जबकि कुमार विश्वास की जमानत जब्त हो गई थी. समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर अपना प्रत्याशी नहीं ऊतारा था.

'वो बार-बार गाँव और शहरी इलाकों की सरहद तक आते रहेंगे'

[TODAY छत्तीसगढ़] / छत्तीसगढ़ में 'भीड़तंत्र' के आक्रोश का हिस्सा बन रहे 'गजराज' आज भी अपनी जमीन तलाशते नज़र आ रहें हैं। वन भूमि और जंगल के भीतर तक बढ़ती मानवीय दखलअंदाजी ने एक तरीके से हाथियों के रहवास को पूरी तरह से अस्तव्यस्त कर दिया है, लिहाजा हाथी जंगल से निकलकर भोजन-पानी की तलाश में आबादी वाले क्षेत्रों के करीब तक पहुँचने को मजबूर हैं। हाथी-मानवद्वन्द के बीच खतरे में दोनों ही हैं लेकिन इस पूरे मामले में शासन-प्रशासन की कोई ठोस कार्ययोजना अब तक धरातल पर कारगर होती दिखाई नहीं पड़ती। राज्य के हाथी प्रभावित इलाकों में जानोमाल के खतरे से उबरने के लिए शासन-प्रशासन ने कई तरह के प्रयोग भी किये हैं लेकिन आज भी हाथी भूख-प्यास मिटाने और सुरक्षित रहवास के लिए दर-बदर भटकता दिखाई पड़ता है। हाथी के आचरण से अनभिज्ञ ग्रामीण आज भी उन्हें अशांत करने में जुटे हुए हैं। ग्रामीणों को जागरूक करने के प्रशासनिक दावों के ढोल में पोल देखना हो तो उन इलाकों का रुख एक बार जरूर कीजिये जहां अशांत और उत्तेजित हाथी सुरक्षित ठिकानों की तलाश में चिंघाड़ रहा है। 
छत्तीसगढ़ का हाथी प्रभावित इलाका महासमुंद हाथी-मानवद्वन्द के बीच चल रहे संघर्ष को लेकर अक्सर सुर्ख़ियों में रहा है। महानदी तट से लगे हुए इस इलाके में पिछले कुछ वर्षों से हाथियों की बढ़ती आमदरफ्त ने एक तरफ ग्रामीणों को ख़ौफ़ के साये में जीने को मजबूर कर रखा है वहीँ किसान अपनी फसलों को लेकर चिंतित देखे जा सकते हैं। इधर विभागीय अमला हाथियों की जंगल में क्षेत्रवार मौजूदगी को लेकर हाका करवाने की कोरी औपचारिकता कर रहा है। जंगल और उससे लगे इलाकों में जिंदगी के लिए संघर्ष जारी है, चाहे वो हाथी हो या फिर ग्रामीण। छत्तीसगढ़ का सरगुजा, रायगढ़, जशपुर, कोरबा  और रायपुर संभाग के कई इलाकों में हाथी मौजूद हैं। इन क्षेत्रों से हर साल कई हाथियों और अनेक ग्रामीणों के मौत की खबरे निकलकर सामने आती रही हैं। 
महानदी पर बने समोदा बराज के आस-पास पिछले दो सप्ताह से करीब 20 हाथियों का दल मौजूद है जिसमें पिछले दिनों हाथी के दो बच्चों की मौत पानी में डूबने की वजह से हो चुकी है। अब भी 18 हाथी कुछ बच्चों के साथ महानदी के बीच में एक टापूनुमा जगह पर देखे जा रहें हैं। पानी की जरूरत के बाद जब भोजन की तलाश में वे महानदी को पार कर किनारे के हिस्से में आना चाहते हैं तो ग्रामीण उन्हें पटाखों की धमक से डराकर पत्थरों से मार रहें हैं। नतीजतन महानदी के बीच मौजूद हाथियों का झुण्ड बाहर निकलने के लिए परेशान दिखाई देता है। महानदी के दोनों छोर पर ग्रामीण धान के अलावा अन्य फसल लगाकर उसकी सुरक्षा को लेकर गंभीर है लेकिन उस जिम्मेदारी और गंभीरता के निर्वहन में फसलों के मालिकान हाथियों की भूख से मुंह मोड़ते दिखाई दे रहें है जबकि हाथियों से होने वाले फसल नुकसान की क्षतिपूर्ति विभाग करता है। इस मामले में मौके पर कुछ ग्रामीणों के मन की बात टटोलने पर मालूम हुआ कि वे फसल नुकसान के एवज में मिलने वाली क्षतिपूर्ति राशि से संतुष्ट नहीं है साथ ही उन्हें उसके लिए काफी भटकना पड़ता है। शायद यही वजह रही है की पिछले साल महासमुंद इलाके के किसान और ग्रामीणों ने हाथियों से हो रहे नुकसान को लेकर एक बड़ा प्रदर्शन भी किया था। 
इसे विडंबना ही कहेंगे कि अब विभाग 'हाथी' के गले में घंटी बाँधने की कार्ययोजना को मूर्तरूप देने जा रहा है ताकि प्रभावित इलाकों में उनकी मौजूदगी की टनटनाहट लोगों को सुनाई पड़ सके। इसके पहले भी कइयों प्रयास किये गए। नुक्कड़ नाटक, जागरूकता फैलाने को लेकर कइयों आयोजन-प्रयोजन, कुमकी हाथियों की मदद, ड्रोन के जरिये हाथियों का लोकेशन, रेडियों पर हर रोज 'हमर हाथी-हमर गोठ' और क्रिकेटर विनोद कुंबले का सन्देश जन-जन तक फैलाया जा रहा है लेकिन ये सारे प्रयास सफेद हाथी ही साबित हुए । इस पुरे मामले में सिर्फ विभाग को जिम्मेदार ठहराना भी कुछ हद तक गलत होगा लेकिन हाथी को लेकर योजनाकारों की अब तक रणनीतियां गलत ही साबित हुई हैं। 
कल महानदी के बीच में जिन हाथियों के झुण्ड की तस्वीरें मैं और मेरे दूसरे साथी खींच रहे थे उन्होंने उनकी उस बेचैनी को ना सिर्फ महसूस किया बल्कि मौके पर तमाशबीन बने ग्रामीणों से गुजारिश भी की कि वे हाथियों पर पटाखे जलाकर ना फेंके, ना ही उन्हें पत्थर या दूसरी किसी वस्तु से मारें। इस दौरान हम हाथियों के बीच करीब 3 घंटे रहे, मौके पर कोई भी विभागीय खैरख्वाह हमें दूर तलक नज़र नहीं आया। हाथियों के घर से जब तक इंसानी कौतुहल का शोर खत्म नहीं होगा, जब तक उनकी भूख-प्यास मिटने के पर्याप्त इंतजाम जंगल में मौजूद नहीं होंगे वे बार-बार गाँव और शहरी इलाकों की सरहदों तक आते रहेंगे। संघर्ष जारी है, आगे भी बना रहेगा ... 
[तस्वीरें / महानदी से कल 14 अप्रैल 2019 को ली गई हैं ]

"हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा पैदा करने वाले लोग अयोध्या के नहीं"

[TODAY छत्तीसगढ़] / पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक नगरी, जो बहुसंख्यक भारतीय हिंदुओं की आस्था का बड़ा केंद्र है, जहां लोग मोक्ष की कामना लिए पहुँचते हैं जिसकी तरफ लोग हाथ उठाकर कसमें खाते हैं, जहां भगवान को मनुष्य मानकर उनकी सेवा की जाती है, जहां पूरे नगर में रामकथाएं और रामधुन गूंजती हैं, उस नगर को दुनिया 'अयोध्या' के नाम से जानती है. स्थानीय लोग कहते हैं ‘अयोध्या उपेक्षा और राजनीति का शिकार हो गई। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने अयोध्या को हमेशा देश और दुनिया में चर्चा का केंद्र बनाये रखा। अदालती फैसले के इंतज़ार में थक चुके स्थानीय लोगों के साथ-साथ मैं भी सोचता हूँ अगर ये विवाद ना होता तो क्या अयोध्या उतनी ही चर्चित होती ? शायद नहीं, इसका जवाब स्थानीय लोग देते हैं। वे कहते हैं आस्था के शोर में लोगों की जरूरतें, सुविधाएँ सब सरकारी फाइलों में दफन हैं।
अयोध्या राज घराने से ताल्लुक रखने वाले शैलेंद्र जी मिश्र ने हमें बताया, हम हिन्दू हैं, गर्व होता है। जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के पक्षधर शैलेन्द्र ने बताया भगवान राम की नगरी अयोध्या उपेक्षा और राजनीति का शिकार है। देश की राजनैतिक पार्टियों में किसी ने 'राम' को जरूरत के हिसाब और अपने नफे-नुक़सान के लिए इस्तेमाल किया तो कोई राम से दुरी बनाकर मतलब साधता दिखा। इस आम चुनाव में भी कुछ ऐसा ही है, अफ़सोस होता है तमाम शोर-शराबों के बावजूद इस बार 'राम' फिर से हाशिये पर है ।
प्रधानमंत्री कभी आये ही नहीं
अयोध्या के गिरिजेश गोस्वामी कहते हैं 'अयोध्या जिसे राजनीतिक हलकों में बीजेपी की 'प्राणवायु' समझा जाता है वहां नरेंद्र मोदी कभी नहीं आये। शिकायत भरे लहजे में गोस्वामी जी बोले 'नरेंद्र मोदी बनारस से लेकर मगहर तक चले गए। दुनिया भर में घूम-घूम कर मंदिर, मस्जिद और मज़ार पर सजदा कर आये लेकिन अयोध्या से पता नहीं क्या बेरुख़ी है उन्हें ? ' दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिर्फ़ प्रधानमंत्री रहते कभी अयोध्या नहीं आए ऐसा भी नहीं है। उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी अयोध्या यात्रा से परहेज रखा। यही नहीं, लोकसभा चुनाव के दौरान और ढाई बरस पहले हुए विधान सभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में हुई दर्जनों जनसभाओं में उन्होंने कहीं भी अयोध्या या राम मंदिर का कोई ज़िक्र नहीं किया। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान तो एक जनसभा में उन्होंने ये कहकर एक तरह से राम मंदिर को पार्टी की प्राथमिकताओं से ही लगभग ख़ारिज कर दिया कि 'पहले शौचालय, फिर देवालय।' हालांकि पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा के चुनावी संकल्प पत्र में 'राम' हैं मगर इस बार 'राष्ट्र' सबसे ऊपर है।
सिर्फ हिंदू नहीं है बल्कि उसमें मुसलमान भी
अयोध्या के ही दीपक मिश्र कहते हैं, ‘अयोध्या में राम कथा की सालों पुरानी एक परंपरा है, यहां नाट्य कला आज भी ज़िंदा है। यहां की पारम्परिक लोक कलाएं हैं, जिसमें किसी भी तरह की सांप्रदायिकता की कोई चेष्टा नज़र नहीं आती है। उसे अयोध्या से अलग नहीं किया जा सकता। अयोध्या की जो धार्मिकता है वह सिर्फ हिंदू नहीं है बल्कि उसमें मुसलमान भी हैं। उसमें तमाम अन्य जातियों के लोग भी हैं। अयोध्या बहुत उदार सांस्कृतिक, धार्मिक और पारम्परिक धरातल है, जो लोग इसे राजनीतिक रंग देते हैं उन्हें ये याद रखना होगा की रामलीला के विकास में मुग़लों की भी बड़ी भूमिका रही है। अयोध्या की जीवनदायनी सरयू नदी इन दिनों सुखी हुई हैं, घाट गंदगी से पटे हैं। सरकार स्वच्छता का नारा लिखकर सफाई व्यवस्था दुरुस्त होने का दम्भ भर रही है।
हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा पैदा करने वाले लोग अयोध्या के नहीं
यहां हनुमान गढ़ी और उसके आसपास की सड़कों पर दोनों तरफ़ दुकानें हैं। चूड़ियों की दुकानें, सिंदूर-चंदन, मूर्तियों के अलावा धार्मिक साहित्य और पूजन सामग्री की दुकानें सजी हैं। इसी हनुमानगढ़ी से पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने रोड शो किया और कांग्रेस के लिए सियासी जमीन तलाश की। अयोध्या भले ही ख्याति में हिंदू तीर्थ है लेकिन मंदिरों में हर जाति के महंत हैं वहीं सड़कों पर हर जाति धर्म के दुकानदार। अयोध्या के हनुमानगढ़ी में यूसुफ मियां की चूड़ियों की दुकान है। वे कहते हैं ‘अयोध्या हमारी जन्मभूमि है, हम यहीं पैदा हुए - यहीं पले-बढ़े बड़े। अयोध्या से हमारी रोज़ी-रोटी चलती है। हमें तो आज तक कोई परेशानी नहीं है। वे मानते हैं हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा पैदा करने वाले लोग अयोध्या के नहीं हैं।
पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सियासी मिज़ाज की नब्ज टटोलते हुए जब अलग-अलग लोकसभा क्षेत्रों में घूम रहा था तो लगा बिना अयोध्या गए यात्रा अधूरी रह जायेगी। 29 मार्च को मैंने अयोध्या का रुख किया, मैं लखनऊ की तरफ़ से नवाबगंज होते हुए अयोध्या की ओर बढ़ रहा था। कटरा बाज़ार पार करते ही शफ़्फ़ाक रेत की चादरों के बीच बहती सरयू नदी ने हमारा स्वागत किया। एक पतली मगर स्वच्छ धार जो दिल्ली की काली पड़ चुकी यमुना से हज़ार गुना साफ़। एक तरफ़ आस्थावानों के नहाने के लिए घाट और दूसरी तरफ़ दूर तक फ़ैले तट पर बना श्मशान घाट । 'राम' की नगरी को मैंने करीब से देखा और समझने की कोशिश की । गलियों से गुजरती गलियां, खंडहर हो चुकीं कइयों इमारतों में जिंदगी बसर करते लोगों को रामलला पर भरोसा है। मगर रामराज्य कब आएगा अनुराग तिवारी नहीं जानते लेकिन रिक्शा खींचते रसूल मियाँ कहते हैं 'अयोध्या' में भाईचारा है।
       [TODAY छत्तीसगढ़] / भारत में पानी की समस्या के विकराल रूप के छोटे से मुखड़े की कुछ तस्वीरें आपके सामने हैं। विश्व युद्ध की नौबत तो नहीं आई, गृह युद्ध अब ये हकीकत है। अगर आप सोच रहें हैं की पानी की समस्या सरकारी है और सरकार उसे दूर करेगी तो आप सौ फ़ीसदी गलत हैं। अगर आप ये सोच रहें हैं की टैंकर और सैकड़ों गैलनों की कतारों से पानी की समस्या का समाधान कर लेंगे तो आप तीन सौ फ़ीसदी गलत हैं। हर हाथ को काम देती ये तस्वीरें भारत के किसी बियाबान की नहीं हैं, बल्कि 'सबका साथ-सबका विकास' को दर्शाती ये तस्वीरें बिलासपुर जिला मुख्यालय से महज 10 किलोमीटर दूर ग्राम  खैराडीह की हैं। हर उम्र-वर्ग के हाथ में डिब्बा देखकर आपको भ्रम हो सकता है, आस-पास रोजगार चलने का। आश्चर्य तब होता है जब हकीकत सामने आती है। 
     तखतपुर विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा ग्राम खैराडीह कोपरा जलाशय के किनारे बसा एक छोटा सा गाँव हैं,  जिसकी आबादी करीब साढ़े चार सौ है। गाँव में रहने वालों को वोट देने का अधिकार तो है लेकिन मूलभूत सुविधाओं को पाने का हक नहीं। खैराडीह में कई पीढ़ियों ने जल संकट को देखा है, संघर्ष आज भी जारी है। 'दिया तले अन्धेरा' इस कहावत को चरितार्थ होते इस गाँव में किसी भी वक्त देखा जा सकता है। पानी की समस्या से निजात पाने वैसे तो कई बोर गाँव में दिखाई देते हैं लेकिन उनमें से अधिकाँश पानी नहीं उगलते, जो बचे हैं उनका पानी किसी काम लायक नहीं। गाँव के हेण्डपम्प से निकलता पानी ना प्यास बुझा पाता है ना उससे पेट की आग बुझाने का सामान पक पाता है। लिहाजा भूख-प्यास मिटाने के लिए पानी का इंतज़ाम करने गाँव के लोग कोपरा जलाशय पहुँचते हैं। गाँव में किसी के घर शादी हो या फिर दूसरे मांगलिक काम मेहमानों की खातिरदारी का इंतज़ाम भी कोपरा का पानी ही करता है।     
पैदल-साइकिल या फिर मोटरसाइकिल में टंगे डिब्बों का रंग और आकार अलग हो सकता है मगर एक ही समस्या के समाधान के लिए उन्हें घर से लेकर निकले लोग बताते हैं बारिश और सर्दी में फिर भी राहत है मगर गर्मी के शुरू होते ही आँखों के सामने त्रासदी की एक भयावह हकीकत दिखाई पड़ने लगती है। गाँव में पानी के संकट को लेकर कइयों बार स्थानीय जनप्रतिनिधियों और कलेक्टर से शिकायत करने की बात कहने वाले ग्रामीण बताते हैं ' जब तक कोपरा जलाशय में पानी है तब तक प्यास और भूख मिटाने का इंतज़ाम हो रहा है। जलाशय में पानी ना होने की स्थिति में टैंकर से पानी मंगवाना पड़ता है। जल संकट के उस दौर में सकरी नगर पंचायत में कइयों बार गुहार लगानी होती है तब कहीं गांव तक टैंकर पहुंचता है। कोपरा जलाशय के इर्द-गिर्द का नज़ारा प्रवासी पक्षियों के साथ आयातित लोगों को हैरत में डाल सकता है लेकिन स्थानीय पक्षियों के अलाव लोगों को बेजुबान समस्या का दर्द मालुम है। खैराडीह के दिलीप यादव दिन में तीन दफा खुद पानी लेने जलाशय पहुँचते हैं। उन्होंने गर्मी में जल संकट के जिस हालात को बताया वो इंसानी रिश्तों में दरार डालने वाला था। बताते हैं गर्मी में जब कोपरा पूरी तरफ से सूख जाता तब पानी के लिए यहां-वहां भटकना पड़ता है। सकरी से पानी का टैंकर जैसे ही गाँव की सरहद में पहुंचता है तमाम रिश्ते दरकने लगते हैं और रुकते ही बिखर जाते हैं। 
दशकों से पानी के संकट से जूझते खैराडीह के लोगों की समस्याओं से निकलकर आती आवाज से कोई राजनैतिक नारा नहीं टपकता, समस्या बरसों पुरानी हो चली है इसलिए डिब्बा थामें लोगों को दर्द का ज्यादा अहसास नहीं होता।  ग्रामीण बताते हैं वे सियासत के फरेबी चेहरे और प्रशासन की उदासीनता से वाकिफ हैं इसलिए उन्होंने इस त्रासदी को भगवान भरोसे छोड़ दिया है,  देखते हैं इस खबर के जरिये ग्रामीणों की सालों पुरानी समस्या का कोई स्थाई हल निकल पाता है या फिर जिंदगी की कुछ जरूरी जरूरतों को पूरा करने का काम का भविष्य में भी कोपरा ही करता रहेगा।   
[TODAY छत्तीसगढ़] /  पद्मश्री पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी अब इस दुनिया में नहीं रहे। शुक्रवार की सुबह बिलासपुर एक निजी अस्पताल में उन्होने अंतिम सांस ली। पंडित श्यामलाल के खोने से पूरा साहित्य, पत्रकारिता जगत के अलावा  बिलासपुर स्तब्ध है। पिछले कुछ दिनों से पद्मश्री श्यामलाल चतुर्वेदी  वेंटीलेटर पर थे। आज सुबह उन्होेने करीब आठ बजकर 40 मिनट पर अंतिम सांस ली । छत्तीसगढ़ के प्रख्यात साहित्यकार और राजभाषा आयोग के पहले अध्यक्ष रहे पद्मश्री पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी ने अपने जीवनकाल में समाज को काफी कुछ दिया, उन्होंने हमेशा सामाजिक सरोकार और जनहित के मसलों पर मुखर होकर अपनी बात रखी। वे जनसत्ता और नवभारत टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार पत्रों के प्रतिनिधि रहे। सन 1940-41 से उन्होंने  लेखन आरंभ किया। उनका कहानी संग्रह ‘भोलवा भोलाराम’ और  उनकी रचनाओं में ‘बेटी के बिदा’ काफी प्रसिद्ध हुई। 

         
                                                           
                                                             - सत्यप्रकाश पांडेय - 
[TODAY छत्तीसगढ़ ] /  "ये वही जंगल है जहां मैं पैदा हुआ, पला-बढ़ा। इसकी उबड़-खाबड़ देह पर दौड़ता रहा, सैकड़ों बार गिरा पर इसने हमेशा संभाला-दुलार किया। इस मिटटी, इसकी कोख में पनप रही वनस्पतियों और पेड़-पौधों ने मुझसे कभी कुछ माँगा नहीं सिर्फ दिया ही है। इसके अनंत आँचल में समाये असंख्य जीव-जंतु मेरे सच्चे मित्र है। उनकी रक्षा के लिए मैं प्रतिबद्ध हूँ, शरीर पर खाकी रहे ना रहे लेकिन मैं जंगल और जंगल के जीव-जंतुओं को बचाने के लिए अपने प्राण भी दे दूँ तो शायद जंगल के ममत्व का कर्ज अदा नहीं कर सकूंगा "
                                                            इस दौर में ये पढ़कर आपको थोड़ा अटपटा लग रहा होगा, भ्रष्टाचार-बेईमानी और फरेब करने वालों की दौड़ में एक शख्स ऐसा भी है जिसे जंगल को माँ कहते हुए फक्र होता है। 'संदीप सिंह' ये नाम है उस वन अफसर का जो कहता 'मैं कौन हूँ .... मै उन अनाम वन सिपाहीयों में से एक वन का सिपाही हूँ जिसे कम ही लोग जानते-समझते हैं । मैंने और मेरे जैसे असंख्य सिपाहियों ने खाकी वर्दी पहन रखी है, उस प्रकृति माॅ के रक्षार्थ जो हम सभी जीवों की जननी है। वह प्रकृति माॅ जो पूरे विश्व की पालनहार है । एक सिपाही वर्दी पहनता है समाज और देश के रक्षार्थ, हम वन सिपाहीयों ने खाकी पहनी है विश्व रक्षार्थ । मैंने शपथ ली है कि मैं अपने कार्यकाल में ही नहीं अपितु जीवनकाल में इस प्रकृति माॅ की रक्षार्थ खड़े रहूँगा जिससे इस देश का ही नहीं अपितु विश्व का कल्याण हो, कयोकि हवा के रूप में वनों से जो प्राण वायु निकल कर बहती है वह  विश्व के कल्याण के लिए बहती हैं । 
                         'संदीप सिंह' अचानकमार टाइगर रिजर्व के सुरही रेंज के अफसर हैं, जंगल और जंगल के जानवरों के प्रति इनकी दीवानगी कहू तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी क्यूंकि इन्होने अपने दिमाग में लिखी बात को हाथ पर 'सेविंग वाइल्ड टाइगर्स' के रूप में गुदवा रखा है। शायद ही कोई ऐसा वन अफसर हो जो वन्य जीवन के प्रति अपने समर्पण भाव को शरीर के अंग पर ता-उम्र के लिए गुदवा ले। पूछने पर संदीप बताते हैं की पिता स्वर्गीय बैजनाथ सिंह जंगल विभाग के ही मुलाजिम थे, ये नौकरी उन्हें उनकी मृत्यु के बाद मिली है। चूँकि पिताजी वन महकमें का हिस्सा थे लिहाजा पैदा होने से लेकर आज तलक जंगल से बिछड़कर बाहर कहीं जाने का मौक़ा ही नहीं मिला। वो बताते हैं एक बार कोशिश की और मिलिट्री की सेवा ज्वाइन भी कर ली लेकिन जिंदगी को जंगल की कमी खलने लगी, कुछ महीनों के बाद मिलिट्री की सेवा छोड़कर घर लौट आये। 'संदीप सिंह' के पिता राज्य के बस्तर इलाके में पदस्थ रहे, संदीप ने उस जंगल में बचपन और जवानी बिताई है जो आज लाल आतंक का गढ़ माना जाता है। इन्होने 2004 में वन सेवा की शासकीय नौकरी ज्वाइन की, अपनी चौदह साल की सेवा में इस वन अफसर ने कई उतार-चढ़ाव भी देखे हैं ।  
                             

कांकेर में रहने वाले 'संदीप सिंह' कहते हैं की जंगल के सिस्टम को समझना बेहद जरूरी है, वन के दुश्मन दशकों से पर्यावरण और पुरे इको सिस्टम को बिगाड़ने में लगे हुए हैं लेकिन आज वन सेवा और उससे बाहर के असंख्य ऐसे वन योद्धा हैं जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कर्तव्य पथ पर अपने प्राणों की परवाह किये बगैर वन की रक्षा में मुस्तैद हैं।   हाथ पर गुदे 'सेविंग वाइल्ड टाईगर्स' के सवाल पर संदीप मुस्कुरा कर कहते हैं आज देश भर में बाघ संरक्षण के लिए प्रयास जारी हैं, उनकी लगातार कम होती संख्या निश्चित रूप से चिंता का विषय बनी हुई है। उन्होंने बताया की जंगल में रहने वाली आदिवासियों की विभिन्न जनजातियां शरीर पर अपनी-अपनी मान्यता और सभ्यता के अनुरूप गोदना गुदवाती है चूँकि मेरा जीवन भी जंगल की गोद में पला-बढ़ा है और परिवार ने जंगल के हर मिजाज को करीब से देखा समझा है लिहाजा मैंने हाथ पर उस बाघ को बचाने की अपील करता गोदना गुदवा रखा है जो मानव प्राणी के लिए ही ख़ास नहीं बल्कि इस प्रकृति के इको सिस्टम को संतुलित करने में सबसे अहम् भूमिका निभाता है। संदीप ने अपने जीवन के लक्ष्य को एकदम स्पष्ट रखा है, वन सेवा में रहते और वन सेवा के बाद भी सिर्फ और सिर्फ वन्य जीवन के लिए लड़ते रहना उनका मूल लक्ष्य है, इसके लिए चाहे जिस विषम परिस्थिति से गुजरना पड़े।   
इस वन योद्धा की बातों को सुनकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इंसान में अगर कर्तव्यनिष्ठा हो तो उसे अपने ऊपर पूरा विश्वास रहता है । वह कभी ऐसा नहीं सोचता कि दूसरे उसके बारे में क्या सोच रहे होंगे। वह तो बस अपने कार्य की गुणवत्ता को बड़ी सावधानी से कायम रखने की कोशिश करता है। मनुष्य की जिंदगी में बदलाव तभी मुमकिन है, जब वह पूरी तत्परता से हर काम को निबटाए। 

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आदिवासियों को अशिक्षा के अन्धकार से बाहर धकेलता एक संत

                                                       "न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
                                                    ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए" 
                     
    [TODAY छत्तीसगढ़ ] /  खादी के कुरते-पायजामे में लिपटे गौर वर्ण के  'दिल्ली वाले साब'... कौन नहीं जानता इस नाम को ! जिसने ये नाम नहीं सुना उसने फिर त्याग, समर्पण और इंसानियत की उस सजीव आत्मा के दीदार नहीं किये। जी हाँ, मैं जिक्र कर रहा हूँ उस 'दिल्ली वाले साब' का जिसने जीवन के 25 बरस से ज्यादा का समय सिर्फ आदिवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और मुलभुत जरूरतों को पूरा करने में लगा दिया। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा को देखकर यकायक किसी सूफी संत या दरवेश की याद तरोताजा हो जाती है। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा, आज वे उम्र के नौ दशक से ज्यादा का सफर पूरा कर चुकें हैं लेकिन आज भी उनके भीतर जिंदगी जीने का मकसद साफ़ दिखाई पड़ता है। वैसे तो ज़िंदा सब हैं, मगर जीने के मकसद कम ही लोगों के पास हैं। फिर जो जिंदगी मिली उसे सिर्फ अपने या अपनों के लिए गुजार देना शायद कोई लक्ष्य प्राप्ति नहीं। 'दिल्ली वाले साब' जिनका आज भी एक ही लक्ष्य है, बैगा आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में आगे आएं। वो लोग विकास की मुख्य धारा से जुड़ें ताकि समाज को एक नई पहचान मिल सके, हालांकि 25 बरस आदिवासियों के बीच रहकर इस लक्ष्य को काफी हद तक डॉक्टर साहब हासिल कर चुके हैं। 
अचानकमार टाइगर रिजर्व के लमनी वन ग्राम को अपनी कर्मस्थली बना चुके डॉक्टर खैरा वानप्रस्थ जीवन जी रहें हैं। नब्बे के दशक में 'दिल्ली वाले साब' अति पिछड़े इस इलाके में आये, उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान को करीब से देखा-समझा। उन्होंने जंगल में जन्में और वहीँ ख़ाक हो जाने वाले आदिवासियों की पीड़ा महसूस की, उन्हें लगा सरकारें सिर्फ इनका विकास के नाम पर शोषण कर रहीं हैं। अशिक्षा के अन्धकार में जिंदगी बिना मकसद सिर्फ शोषण और तंगहाली का शिकार थी। डॉक्टर खैरा ने शुरुआत की, उन्होंने धीरे-धीरे आदिवासियों के बीच रहना सीखा, उनकी भाषा, उनकी जीवन शैली में वो घुलते चले गए। वैसे तो आदिवासियों के बीच जिंदगी को एक नई पहचान देने वाले डॉक्टर खैरा की निजी दास्ताँ कम संघर्षपूर्ण नही है। सन 1928 में लाहौर [पाकिस्तान] में जन्मे डॉक्टर खैरा की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा लाहौर में ही हुई। सन 1947 में भारत विभाजन का दंश झेल चुका डॉक्टर खैरा का परिवार दिल्ली आ गया। हिन्दू राव विश्विद्यालय दिल्ली से समाजशास्त्र में मास्टर डिग्री और 1971 में पीएचडी की उपाधि डॉक्टर खैरा ने हासिल की। दिल्ली विश्विद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप उन्होंने अपनी सेवाएं दी। इसी बीच सन 1965 में माता जी के निधन की खबर से डॉक्टर खैरा टूट गए, एकदम अकेले हो गए। माँ के गुजर जाने के बाद अविवाहित खैरा ने फिर जिन्दगी अकेले ही काटने की ठान ली। डॉक्टर खैरा पहली बार सन 1983 -1984 में दिल्ली विश्विद्यालय से समाजशास्त्र विभाग के छात्रों को लेकर मैकल पर्वत श्रृंखला से घिरे अचानकमार-लमनी के जंगलों में आये। यहा की सुरम्य वादियों की गूँज डॉक्टर खैरा के मन-मस्तिष्क में घर कर गई। वर्ष 1993 में सेवानिवृति के बाद डॉक्टर खैरा लमनी के जंगल में आकर अति पिछड़े आदिवासियों के बीच रहने की कोशिश में जुटे। शुरुवात के तीन बरस डॉक्टर खैरा के लिए बहुत कठिन थे, आदिवासियों के बीच एक ऐसी मानवकाया रहना शुरू कर चुकी थी जिसका मकसद, काम और बोली अशिक्षित आदिवासियों के लिए भिन्न थी। लेकिन यहाँ के आदिवासियों का भोलापन,उनकी संस्कृति में डॉक्टर खैरा धीरे-धीरे ऐसे घुले की बस यही के होकर रह गये। अब डॉक्टर खैरा वानप्रस्थी के रूप में आदिवासियों के साथ जंगल में जनचेतना का शंखनाद कर रहे है। 
आदिवासियों के शैक्षणिक और सामाजिक उन्नति के साथ उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये डॉक्टर खैरा अपनी पूरी उर्जा झोंक चुके है। उन्होंने अपने प्रयास से वनग्राम छपरवा में साल 2008 में अभ्यारण्य शिक्षण समिति की नीव रखी जहां आस-पास के करीब 8 गाँवों के आदिवासी बच्चे शिक्षा की जलती अलख में उजाले की तलाश में जुटे हैं।  खेल-खेल में पढाई, फिर झोले से खाने की चीजो को निकालकर गुरूजी सबको थोडा-थोडा हर रोज बाँटते है। जंगल में रहने वालो को आंवला,हर्रा,बहेरा और अन्य वनोषधि के अलावा फल-फूल के महत्व से रूबरू करवाना गुरूजी नही भूलते। जंगल में रहने वाले आदिवासी बच्चो के बीच शिक्षा की अनिवार्यता के मद्देनजर उनकी कोशिश होती है कि उन्हें आज के दौर और ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ प्रकृति की भी जानकारी मिले। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा का पिछले दो दशक से प्रयास है कि प्रत्येक आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षित होने के साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखें।  डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासी आज भी विकास से कोसों दूर पाषाणयुग में जी रहे है। उन्हें सरकारें केवल वोट बैंक का हिस्सा मानती हैं, डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासियों को अब तब उनके मूल अधिकारों से वंचित रखा गया है। वैसे भी डॉक्टर खैरा की माने तो बीहड़ो में संवैधानिक मूल आधिकारो की बाते सिर्फ बेमानी लगती है। करीब 25 बरस से आदिवासियों के बीच रह रहे डॉक्टर खैरा मानते है की आदिवासी ही जंगलो की सुरक्षा कर सकते है लेकिन सरकारे और वन महकमा आदिवासियों को जंगल से विस्थापन के नाम पर बाहर खदेड़ रहा है। आदिवासियों की संस्कृति और सभ्यता को सरकारें शहरी परिवेश में ले जाकर ख़त्म करना चाहती हैं। खैर, डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा की निःस्वार्थ कोशिशे अनवरत जारी है।
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               हमें मानवता को उन नैतिक जड़ों तक वापस ले जाना चाहिए जहाँ से अनुशाशन और                                   स्वतंत्रता दोनों का उद्गम हो                 -  सर्वपल्ली राधाकृष्णन
आज गूगल ने शिक्षक दिवस के ख़ास मौके पर एक एनिमेटेड डूडल डाला है जो हमें शिक्षा देता है की हम अपने गुरुओं का सदैव आदर करें, क्यूंकि हमारे जीवन का मूल आधार स्तम्भ 'शिक्षक' हैं। 
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   सियासत की कालिख से चेहरा बचाकर, कहीं सौम्यता न खराब हो जाये

                           ० सत्यप्रकाश पांडेय  

      [TODAY छत्तीसगढ़ ] /इन दिनों मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह से ज्यादा सुर्ख़ियों में ओपी चौधरी हैं, कुछ दिन पहले तक राजतंत्र के सेवक कहलाते थे, अब लोकतंत्र में ‘अपनी माटी के लोगों की सेवा’ करेंगे। रायपुर कलक्टर रहे पूर्व आईएएस अफसर ओपी चौधरी तेरह साल की अफसारशाही में ये समझ गए की ‘अपनी माटी के लोगों की सेवा’ के लिए सियासी रंग में रंगना होगा, ऐसे में उन्हें भगवा रंग कुछ ज्यादा चटकदार लगा। लोकसेवक से लोकतंत्र की सेवा करने का फैसला ओपी साहब का व्यक्तिगत है।  इस बात को सेवा छोड़ने के बाद वे कई बार कह चुके हैं, आगे भी कहते रहेंगे। हाँ वो इस बात को खुलकर कहते जरूर कहते हैं की भाजपा ही एकमात्र पार्टी है जो इस देश को नित नई उचाईयों तक ले जा सकती है, चौधरी जी के लिहाज से प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी जी ने भारत को विश्व के नक्शें में नई पहचान और ऊंचाइया दी हैं। जब उनसे पूछा जाता है की आपका लक्ष्य क्या होगा ? जवाब मिलता है, कुछ नहीं। मतलब उन्होंने बिना किसी लक्ष्य के भाजपा का दामन थामा है वो भी विकट परिस्थितियों में ? खैर बेहद सरल-सहज और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी ओपी चौधरी कम वर्षों की सेवा काल में अपनी अलग पहचान अलग कार्यशैली की वजह से रखते थे, उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य के अलावा कई रचनात्मक कार्यों को अमलीजामा पहनाया। वे इस प्रदेश के सैकड़ों युवाओं के आइडियल हैं, ऐसे में शायद वो  अपने अतीत को भुला नहीं पाए, उन्होंने अपने संघर्षों की यात्रा, परिवार की स्थिति और गाँव के लोगों की बेबसी को हमेशा अपने जहन में रखा होगा तब तो आज राज्य के उस 'बायंग' [खरसिया विधानसभा का गाँव] को राज्य के नक़्शे में अलग से चमकते हुए देखा जा रहा है। आज ओपी साहब उस घुटन से दूर खुली हवा में खुलकर सांस लेते दिखाई पड़ते हैं जहां सिस्टम में रहकर सिस्टम को सुधारने की सिर्फ बाते हुआ करती थीं। उस लाचारी से निकलकर अब वो सच मायने में खुद को अपनों के बेहद करीब पाते हैं, इसे वो कई बार कह भी चुके हैं की प्रशासनिक ओहदे पर रहकर कई बातों की मर्यादा, अनुशासन का पालन करना पड़ता था। 
                                                            कुछ दिन पहले ही भाजपा की सदस्य्ता लेने वाले  भारतीय जनता पार्टी के सच्चा सिपाही ओपी चौधरी साहब इन दिनों रायगढ़ जिले की खरसिया विधानसभा सीट के हर हिस्से में केंद्र और राज्य सरकार की विकास गाथा गाते घूम रहें है, साथ में सैकड़ों लोगों का हुजूम नए सिपाही के स्वागत सत्कार में आगे-पीछे  होता है। फूल मालाओं से लदे ओपी चौधरी कल तक सर या फिर साहब थे, आज इलाके में सबके दुलरुआ भइया, बेटा हैं। जब वे आईएएस के रुतबे, सुविधाओं को छोड़कर राजनीति का चश्मा लगाकर पहली बार गाँव पहुंचें तो अपनी माँ और माटी दोनों को शीश नवकार प्रणाम किया। हालांकि इसके पहले वो पार्टी प्रवेश की प्रकिया के दौरान कई दिग्गजों के चरण छूने की प्रेक्टिस दिल्ली से रायपुर तक कर चुके थे, वैसे भी राजनीति में एक दूसरे के पैर सम्मान के लिए नहीं छुए जाते बल्कि उन्हें खींचकर आगे बढ़ने की कोशिश होती हैं। ओपी चौधरी ने सेवाकाल के दौरान शायद एक बात और महसूस की होगी की विधायिका आज भी सर्वोच्च है, भले ही उस विधायिका में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चुनकर आये लोकतंत्र का सेवक अनपढ़ ही क्यों ना हो ? ऐसे में चौधरी साहब के शैक्षणिक स्तर का लाभ पार्टी से जुड़े प्रत्येक अशिक्षित मंत्री,नेता, कार्यकर्ता के साथ साथ क्षेत्र की जनता को जरूर मिलेगा। 
                                                           अब बात करते हैं उनके खरसिया विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने की, भाजपा में शामिल होने से पहले ही खरसिया विधानसभा क्षेत्र में इस बात की अफवाहों का बाजार गर्म था हालांकि उस समय वे लोकसेवक होने के नाते तमाम बातों को सिरे से ख़ारिज करते रहे। खारिज तो आज भी करते हैं जब उनसे ये पूछा जाता है की आप खरसिया से भाजपा के उम्मीदवार हैं ? बस इतना सुनते ही ओपी साहब खुद को भाजपा का कद्दावर नेता और सच्चा सिपाही बताकर पार्टी से आदेश मिलने के इन्तजार की बात कह जाते हैं। वो साफ़ कहते हैं पार्टी, संगठन जो जिम्मेवारी देगी उस आदेश का वो ईमानदारी से पालन करेंगे, उनका कहना है हर हाल में उनकी माटी के लोगों का विकास हो। शिक्षा, स्वास्थ्य, मुलभुत जरूरतें, सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं का लाभ हर जरुरत मंद को मिले। जब से साहब से नेता बने हैं तब से बोलचाल की शैली में भी बदलाव देखने को मिला है मसलन किस बात का जवाब देना है, किसे मुस्कुराकर टाल जाना है और किस तरह विपक्ष के बयानों पर निशाना साधना है। ये शायद पार्टी के पहले ऐसे कद्दावर नेता और सिपाही होंगे जो सदस्य्ता ग्रहण के बाद से लगातार खरसिया क्षेत्र में दौरे और सभाएं किये जा रहें हैं। चौधरी जी भले ही मत कहें पर कोई यूँ ही प्रशासनिक सेवा के सर्वोच्च पद को छोड़कर सियासत के अखाड़े में छलांग नहीं लगाता जबकि सामने 'खली' जैसा दुश्मन हो । वैसे भी इस देश की सियासत ने कई इतिहास लिखें हैं, आगे भी लिखे जायेंगे। 
          दरअसल खरसिया विधानसभा सीट आज से नहीं दशकों पहले से बड़ी ही चर्चित सीटों में शुमार रही है। अर्जुन सिंह, कुमार दिलीप सिंह जूदेव, पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी जैसे दिगज्जों ने यहां से भाग्य आजमाया है। यहां की माटी से स्वर्गीय लखीराम जी अग्रवाल जैसे भाजपा के पितृ पुरुष पैदा हुए हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ में भाजपा के बीज को अंकुरित कर विशाल और मजबूत वृक्ष बनाया है। वहीँ दूसरी तरफ कॉंग्रेस का गढ़ रही खरसिया सीट पर दशकों तक स्वर्गीय नन्द कुमार जी पटेल का कब्जा रहा अब उनकी विरासत छोटे बेटे उमेश पटेल संभाल रहें हैं हालांकि इस बार उमेश के लिए राह पहले ही आसान नहीं थी, हाँ जीत से इंकार नहीं किया जा रहा था मगर पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार जीत का अंतर कम होता। अब मैदान में उमेश जैसे सौम्य,सरल युवा चेहरे के सामने ताल ठोकते दूसरे युवा का चेहरा भी उतना ही सौम्य है। वैसे एक सर्वे के मुताबिक इस बार पटेल-अघरिया समाज में भी कुछ मनमुटाव की ख़बरें हैं, ऐसे में वोटों का ध्रुवीकरण तय है। खरसिया में बदलाव की सुगबुगाहटों के बीच विकास अहम् मुद्दा होगा। कॉंग्रेस विधायक उमेश पटेल की निष्क्रियता क्षेत्र के लोगों की जुबान पर है, आम मतदाता मानता है की जिस तरीके से उनके पिता [स्वर्गीय नंदकुमार पटेल ] से अपनापन मिलता था उसकी कमी उमेश में देखने को मिलती है, हालांकि उमेश जैसे युवा चेहरे को कांग्रेस संगठन ने काफी महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा था वो वहां भी असफल ही रहे। पिछले दिनों युवा कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर वो अपने क्षेत्र में सक्रिय हो चुके हैं। ऐसा माना जा रहा है की इस बार बेहद दिलचस्प मुकाबला होगा, हार-जीत मतदाता तय करेंगे लेकिन इस चुनाव के परिणाम दोनों ही मायनो में ओपी चौधरी के भविष्य को तय करेंगे।
                इधर ओपी जी ना-ना करते हुए अपने चुनाव प्रचार में दिलों जान से जुटे हुए हैं फिर भला वो कितनी भी संजीदगी से ये क्यों ना कहते रहें की वो भाजपा के सिर्फ सच्चे सिपाही हैं, बिना लक्ष्य भाजपा के सदस्य बने हैं ! अरे ओपी साहब घर फूंककर तमाशा कम ही लोग देखते हैं।  आपकी बेताबी, आँखों की चमक और ऊंचाइयों को पा लेने की आदत भला कहाँ छूटने वाली है। बस सियासत की कालिख से चेहरे की सौम्यता को बिगड़ने मत दीजियेगा क्यूंकि सिर्फ 'बायंग' ही नहीं छत्तीसगढ़ की जनता बड़े उम्मीद से आपकी तरफ देख रही है।   
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         किसानों को सौगात, समर्थन मूल्य के साथ मिलेगा बोनस  

             [TODAY छत्तीसगढ़ ] /   आखिरकार सरकार ने चुनाव से पहले किसानों के हित में फैसला ले ही लिया। मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में आज तय किया गया कि धान खरीद के समय धान के समर्थन मूल्य के साथ-साथ बोनस का भुगतान भी किसानों को दिया जाएगा। इसके लिए दो दिन का विशेष सत्र विधानसभा का बुलाया गया है।
      मुख्यमंत्री डॉ सिंह की अध्यक्षता में मंगलवार को राज्य कैबिनेट की बैठक हुई। बैठक में तय किया गया कि इस साल भी किसानों को बोनस दिया जाएगा। धान ख़रीदी के साथ ही धान की कीमत के साथ बोनस की राशि दी जाएगी। इसके लिए अनुपूरक बजट पेश किया जाएगा और 11-12 सितंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया जाएगा। पहले दिने दिवंगत बलरामदास टंडन को श्रदांजलि दी जाएगी। धान बोनस के लिए 24 सौ करोड़ के बजट की आवश्यकता होगी। इसके अलावा पांच सितंबर से विकास यात्रा के संबंध में भी चर्चा ही। इसमें महाराष्ट्र, यूपी, झारखंड के मुख्यमंत्री आएंगे। केंद्रीय मंत्रियों को भी इसमें आमंत्रित किया गया।
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इंजीनियरिंग व पॉलीटेक्नीक कॉलेजों में रिक्त पदों पर नियुक्ति, 

हाको ने की याचिका ख़ारिज 

     [TODAY छत्तीसगढ़ ] / छत्तीसगढ़ पीएससी ने 2015 में प्रदेश के इंजीनियरिंग व पॉलीटेक्नीक कॉलेजों में रिक्त पदों पर नियुक्ति को लेकर हाईकोर्ट की सिंगल बेंच के फैसले को सही ठहराते हुए मुख्य न्यायाधीश  की डिवीजन बेंच ने सभी अपीलें खारिज कर दी है।
               पीएससी ने 2015 में प्रदेश के इंजीनियरिंग व पॉलीटेक्नीक कॉलेजों में रिक्त पदों पर नियुक्ति के लिए प्रथम श्रेणी में बीई, बीटेक, एम टेक की डिग्री अनिवार्य की थी। इसके लिए आरती वर्मा, मुक्तेश्वरी साहू, गितेश कुमार, पूजा चंद्राकर, सौरभ सिंह समेत अन्य ने भी आवेदन किया था । इनके पास विज्ञापन की शर्तों के मुताबिक शैक्षणिक योग्यता नहीं थी। लिहाजा इनका आवेदन खारिज कर दिया गया था। इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में 27 से अधिक अभ्यर्थियों ने याचिका लगाई थी। हाईकोर्ट ने जुलाई 2017 में सभी याचिकाएं खारिज कर दी थी। जिसके खिलाफ दोबारा अपील की गई थी। मामले पर मुख्य न्यायाधीश अजय कुमार त्रिपाठी और न्यायाधीश संजय अग्रवाल की बेंच में सुनवाई हुई। जिसने हाईकोर्ट की  सिंगल बेंच के फैसले को सही ठहराते हुए सभी अपीलें खारिज कर दी है। लेकिन साथ ही कहा है कि राज्य सरकार तकनीकी कॉलेजों में तत्काल टीचिंग के सभी रिक्त पदों के लिए भर्ती प्रक्रिया शुरू करे।
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      अवैध कब्जे में बने धार्मिक स्थलों की जानकारी दे सरकार -हाको  

                     
[TODAY छत्तीसगढ़ ] / छत्तीसगढ़  हाईकोर्ट ने प्रदेश के सभी शहरों में सड़क के किनारे, सार्वजनिक स्थान, उद्यान समेत किसी भी स्थानों पर अतिक्रमण कर बनाए गए धार्मिक स्थलों के संबंध में जानकारी मांगी है। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के न्यायधीश प्रशांत मिश्रा की बेंच ने इसके लिए राज्य सरकार को तीन सप्ताह का समय दिया है।
                        सुप्रीम कोर्ट की ओर से जनवरी 2018 में एक मामले पर दिए गए अंतरिम आदेश के बाद हाईकोर्ट ने मामले पर संज्ञान लेते हुए सुनवाई शुरू की है। सुप्रीम कोर्ट ने 31 जनवरी 2018 को एक मामले के साथ प्रस्तुत अंतरिम आवेदन पर सुनवाई करते हुए पूर्व में जारी किए गए आदेश का उल्लेख करते हुए कहा था कि सड़कों, सार्वजनिक स्थलों, उद्यानों व अन्य स्थानों पर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या अन्य धार्मिक स्थलों का निर्माण करने पर रोक लगा दी थी। संबंधित राज्य सरकारों को आदेश जारी करने से पहले किए गए निर्माण की समीक्षा कर जल्द से जल्द उचित निर्णय लेने के निर्देश भी दिए गए थे। 16 फरवरी को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित राज्यों को 6 सप्ताह के भीतर अवैध रूप से बनाए गए धार्मिक स्थलों को हटाने, स्थानांतरित करने या उनके नियमितीकरण के लिए ठोस नीति बनाने के निर्देश भी दिए थे।
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