[TODAY छत्तीसगढ़] / छत्तीसगढ़ में 'भीड़तंत्र' के आक्रोश का हिस्सा बन रहे 'गजराज' आज भी अपनी जमीन तलाशते नज़र आ रहें हैं। वन भूमि और जंगल के भीतर तक बढ़ती मानवीय दखलअंदाजी ने एक तरीके से हाथियों के रहवास को पूरी तरह से अस्तव्यस्त कर दिया है, लिहाजा हाथी जंगल से निकलकर भोजन-पानी की तलाश में आबादी वाले क्षेत्रों के करीब तक पहुँचने को मजबूर हैं। हाथी-मानवद्वन्द के बीच खतरे में दोनों ही हैं लेकिन इस पूरे मामले में शासन-प्रशासन की कोई ठोस कार्ययोजना अब तक धरातल पर कारगर होती दिखाई नहीं पड़ती। राज्य के हाथी प्रभावित इलाकों में जानोमाल के खतरे से उबरने के लिए शासन-प्रशासन ने कई तरह के प्रयोग भी किये हैं लेकिन आज भी हाथी भूख-प्यास मिटाने और सुरक्षित रहवास के लिए दर-बदर भटकता दिखाई पड़ता है। हाथी के आचरण से अनभिज्ञ ग्रामीण आज भी उन्हें अशांत करने में जुटे हुए हैं। ग्रामीणों को जागरूक करने के प्रशासनिक दावों के ढोल में पोल देखना हो तो उन इलाकों का रुख एक बार जरूर कीजिये जहां अशांत और उत्तेजित हाथी सुरक्षित ठिकानों की तलाश में चिंघाड़ रहा है।
छत्तीसगढ़ का हाथी प्रभावित इलाका महासमुंद हाथी-मानवद्वन्द के बीच चल रहे संघर्ष को लेकर अक्सर सुर्ख़ियों में रहा है। महानदी तट से लगे हुए इस इलाके में पिछले कुछ वर्षों से हाथियों की बढ़ती आमदरफ्त ने एक तरफ ग्रामीणों को ख़ौफ़ के साये में जीने को मजबूर कर रखा है वहीँ किसान अपनी फसलों को लेकर चिंतित देखे जा सकते हैं। इधर विभागीय अमला हाथियों की जंगल में क्षेत्रवार मौजूदगी को लेकर हाका करवाने की कोरी औपचारिकता कर रहा है। जंगल और उससे लगे इलाकों में जिंदगी के लिए संघर्ष जारी है, चाहे वो हाथी हो या फिर ग्रामीण। छत्तीसगढ़ का सरगुजा, रायगढ़, जशपुर, कोरबा और रायपुर संभाग के कई इलाकों में हाथी मौजूद हैं। इन क्षेत्रों से हर साल कई हाथियों और अनेक ग्रामीणों के मौत की खबरे निकलकर सामने आती रही हैं।
महानदी पर बने समोदा बराज के आस-पास पिछले दो सप्ताह से करीब 20 हाथियों का दल मौजूद है जिसमें पिछले दिनों हाथी के दो बच्चों की मौत पानी में डूबने की वजह से हो चुकी है। अब भी 18 हाथी कुछ बच्चों के साथ महानदी के बीच में एक टापूनुमा जगह पर देखे जा रहें हैं। पानी की जरूरत के बाद जब भोजन की तलाश में वे महानदी को पार कर किनारे के हिस्से में आना चाहते हैं तो ग्रामीण उन्हें पटाखों की धमक से डराकर पत्थरों से मार रहें हैं। नतीजतन महानदी के बीच मौजूद हाथियों का झुण्ड बाहर निकलने के लिए परेशान दिखाई देता है। महानदी के दोनों छोर पर ग्रामीण धान के अलावा अन्य फसल लगाकर उसकी सुरक्षा को लेकर गंभीर है लेकिन उस जिम्मेदारी और गंभीरता के निर्वहन में फसलों के मालिकान हाथियों की भूख से मुंह मोड़ते दिखाई दे रहें है जबकि हाथियों से होने वाले फसल नुकसान की क्षतिपूर्ति विभाग करता है। इस मामले में मौके पर कुछ ग्रामीणों के मन की बात टटोलने पर मालूम हुआ कि वे फसल नुकसान के एवज में मिलने वाली क्षतिपूर्ति राशि से संतुष्ट नहीं है साथ ही उन्हें उसके लिए काफी भटकना पड़ता है। शायद यही वजह रही है की पिछले साल महासमुंद इलाके के किसान और ग्रामीणों ने हाथियों से हो रहे नुकसान को लेकर एक बड़ा प्रदर्शन भी किया था।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि अब विभाग 'हाथी' के गले में घंटी बाँधने की कार्ययोजना को मूर्तरूप देने जा रहा है ताकि प्रभावित इलाकों में उनकी मौजूदगी की टनटनाहट लोगों को सुनाई पड़ सके। इसके पहले भी कइयों प्रयास किये गए। नुक्कड़ नाटक, जागरूकता फैलाने को लेकर कइयों आयोजन-प्रयोजन, कुमकी हाथियों की मदद, ड्रोन के जरिये हाथियों का लोकेशन, रेडियों पर हर रोज 'हमर हाथी-हमर गोठ' और क्रिकेटर विनोद कुंबले का सन्देश जन-जन तक फैलाया जा रहा है लेकिन ये सारे प्रयास सफेद हाथी ही साबित हुए । इस पुरे मामले में सिर्फ विभाग को जिम्मेदार ठहराना भी कुछ हद तक गलत होगा लेकिन हाथी को लेकर योजनाकारों की अब तक रणनीतियां गलत ही साबित हुई हैं।
कल महानदी के बीच में जिन हाथियों के झुण्ड की तस्वीरें मैं और मेरे दूसरे साथी खींच रहे थे उन्होंने उनकी उस बेचैनी को ना सिर्फ महसूस किया बल्कि मौके पर तमाशबीन बने ग्रामीणों से गुजारिश भी की कि वे हाथियों पर पटाखे जलाकर ना फेंके, ना ही उन्हें पत्थर या दूसरी किसी वस्तु से मारें। इस दौरान हम हाथियों के बीच करीब 3 घंटे रहे, मौके पर कोई भी विभागीय खैरख्वाह हमें दूर तलक नज़र नहीं आया। हाथियों के घर से जब तक इंसानी कौतुहल का शोर खत्म नहीं होगा, जब तक उनकी भूख-प्यास मिटने के पर्याप्त इंतजाम जंगल में मौजूद नहीं होंगे वे बार-बार गाँव और शहरी इलाकों की सरहदों तक आते रहेंगे। संघर्ष जारी है, आगे भी बना रहेगा ...
[तस्वीरें / महानदी से कल 14 अप्रैल 2019 को ली गई हैं ]