उत्तरप्रदेश के गंदी जुबान वाले समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने इस बार फिर सार्वजनिक जीवन की सीमाओं के पार छलांग लगाते हुए भाजपा उम्मीदवार जयप्रदा के खिलाफ एक गंदा बयान दिया है कि उनकी अंडरवियर खाकी है। इस बात को लिखे बिना यह बतला पाना नामुमकिन है कि इस बुजुर्ग नेता की समझ कैसी घटिया है, इसलिए इस लाईन को हम खबर और यहां पर लिख रहे हैं। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार की शिकार एक लड़की के खिलाफ बहुत ही भद्दी बात कहने पर आजम खान को नोटिस देकर बुलाया था, और अदालत में उनसे बिना शर्त माफी मंगवाई थी। उस वक्त भी हमने इसी जगह इस नेता के दिल-दिमाग और जुबान की गंदगी के खिलाफ लिखा था, और सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के पहले ही लिखकर यह सुझाया था कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को ऐसे बयान पर खुद होकर कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन किसी अदालत का कोई डर ऐसे नेताओं को दिख नहीं रहा है, और गंदी जुबान, झूठी जुबान, साम्प्रदायिक जुबान, और भड़काऊ, उकसाऊ, सभी किस्म की जुबानों के नमूने चुनाव के इस मौसम में सामने आ रहे हैं। बीते पांच बरसों में स्वच्छ भारत अभियान ने हिन्दुस्तान में जितनी सफाई नहीं की होगी, उससे अधिक गंदगी इस चुनाव का यह लंबा दौर फैला रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 'हम' वाले साम्प्रदायिक बयान से लेकर राहुल गांधी के अडवानी को जूता मारकर मंच से उतारने वाले बयान तक, कई किस्म के गंदे बयान सामने आए हैं, लेकिन आजम खान सरीखे लोग अश्लील बयान देने में अपना एकाधिकार कायम रखते हैं। इसी सिलसिले में यह नहीं भूलना चाहिए कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अली और बजरंग बली के बीच एक साम्प्रदायिक दंगल करवाने पर आमादा हैं, और वे यह होश भी खो बैठे हैं कि आज यूपी में किसी भी साम्प्रदायिक तनाव के लिए, और उस पर, मुख्यमंत्री की हैसियत से वे खुद जिम्मेदार रहेंगे।
अब ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में, खासकर चुनाव के मौसम में, चुनाव आयोग के आम नियम-कायदों की इज्जत गुठली जितनी भी नहीं रह गई है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी अदालत को खुद होकर दखल देना चाहिए, और चौबीस घंटे के भीतर ऐसे नेताओं को अदालत में पेश करवाना चाहिए, और इनमें से जिस-जिस के बयान जितने गंदे हों, उन्हें उतने ही दिन की कैद देकर चुनाव में और गंदगी फैलाने से रोकना चाहिए। चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट से ऊपर नहीं है, और यह किसी का हक नहीं है कि वे देश की हवा को इस कदर जहरीला करें कि लोग इस लोकतंत्र में रहने से डरने लगें, और अपने बच्चों के लिए इस लोकतंत्र को खतरनाक मानने लगें। जो लोग ऐसे खतरे का अहसास करते हैं, उनके लिए पिछले बरसों में गद्दारी का तमगा तो राष्ट्रवादी ताकतों ने ढालकर तैयार रखा ही है। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानी चुनाव यहां के लोगों, खासकर नेताओं, के भीतर से सैकड़ों पीढ़ी पहले की अलोकतांत्रिक हिंसा को उनके डीएनए से खींचकर बाहर निकाल लेते हैं, और लोग इस हद तक जुबानी-जुर्म पर आमादा रहते हैं कि मानो चुनाव के बाद नतीजे आने के दिन ही इस देश को खत्म हो जाना है, इसलिए नफरत का तमाम हिसाब उसके पहले ही निपटा लिया जाए, अपने मन की तमाम हिंसा को पहले बाहर निकाल लिया जाए, और अपनी हर किस्म की हैवानियत को कैमरों के सामने दर्ज करवा दिया जाए।
इस लोकतंत्र के जो चुनाव कहने के लिए सबसे बड़ी संसदीय-पंचायत बनाने जा रहे हैं, उस संसदीय परंपरा और मूल्यों के साथ बलात्कार करते हुए नेता उसकी देहरी तक पहुंचकर माथा टेकना चाहते हैं, और यह सोच एक से अधिक पार्टियों में, उनके दर्जनों नेताओं के सिर चढ़कर बोलती है। सुप्रीम कोर्ट को तुरंत ही इस नौबत को अपने काबू में लेना चाहिए, और ऐसे हर बकवासी मुंह को चुनाव निपट जाने तक जेल में डाल देना चाहिए। जब संसद अपने आपको बेहतर न बनाने, और लगातार घटिया बनाने की सुपारी उठा चुकी हो, जब मीडिया को ऐसी गंदगी में मजा आ रहा हो, तब सब कुछ अदालत के कंधों पर आकर टिका है। हिन्दुस्तान का चुनाव आयोग एक मशीनी पुर्जे से अधिक कुछ नहीं रह गया है, और यह नौबत अदालत के सीधे और तुरंत दखल देने की है।