आदिवासियों को अशिक्षा के अन्धकार से बाहर धकेलता एक संत
"न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए"
[TODAY छत्तीसगढ़ ] / खादी के कुरते-पायजामे में लिपटे गौर वर्ण के 'दिल्ली वाले साब'... कौन नहीं जानता इस नाम को ! जिसने ये नाम नहीं सुना उसने फिर त्याग, समर्पण और इंसानियत की उस सजीव आत्मा के दीदार नहीं किये। जी हाँ, मैं जिक्र कर रहा हूँ उस 'दिल्ली वाले साब' का जिसने जीवन के 25 बरस से ज्यादा का समय सिर्फ आदिवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और मुलभुत जरूरतों को पूरा करने में लगा दिया। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा को देखकर यकायक किसी सूफी संत या दरवेश की याद तरोताजा हो जाती है। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा, आज वे उम्र के नौ दशक से ज्यादा का सफर पूरा कर चुकें हैं लेकिन आज भी उनके भीतर जिंदगी जीने का मकसद साफ़ दिखाई पड़ता है। वैसे तो ज़िंदा सब हैं, मगर जीने के मकसद कम ही लोगों के पास हैं। फिर जो जिंदगी मिली उसे सिर्फ अपने या अपनों के लिए गुजार देना शायद कोई लक्ष्य प्राप्ति नहीं। 'दिल्ली वाले साब' जिनका आज भी एक ही लक्ष्य है, बैगा आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में आगे आएं। वो लोग विकास की मुख्य धारा से जुड़ें ताकि समाज को एक नई पहचान मिल सके, हालांकि 25 बरस आदिवासियों के बीच रहकर इस लक्ष्य को काफी हद तक डॉक्टर साहब हासिल कर चुके हैं।

आदिवासियों के शैक्षणिक और सामाजिक उन्नति के साथ उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये डॉक्टर खैरा अपनी पूरी उर्जा झोंक चुके है। उन्होंने अपने प्रयास से वनग्राम छपरवा में साल 2008 में अभ्यारण्य शिक्षण समिति की नीव रखी जहां आस-पास के करीब 8 गाँवों के आदिवासी बच्चे शिक्षा की जलती अलख में उजाले की तलाश में जुटे हैं। खेल-खेल में पढाई, फिर झोले से खाने की चीजो को निकालकर गुरूजी सबको थोडा-थोडा हर रोज बाँटते है। जंगल में रहने वालो को आंवला,हर्रा,बहेरा और अन्य वनोषधि के अलावा फल-फूल के महत्व से रूबरू करवाना गुरूजी नही भूलते। जंगल में रहने वाले आदिवासी बच्चो के बीच शिक्षा की अनिवार्यता के मद्देनजर उनकी कोशिश होती है कि उन्हें आज के दौर और ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ प्रकृति की भी जानकारी मिले। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा का पिछले दो दशक से प्रयास है कि प्रत्येक आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षित होने के साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखें। डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासी आज भी विकास से कोसों दूर पाषाणयुग में जी रहे है। उन्हें सरकारें केवल वोट बैंक का हिस्सा मानती हैं, डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासियों को अब तब उनके मूल अधिकारों से वंचित रखा गया है। वैसे भी डॉक्टर खैरा की माने तो बीहड़ो में संवैधानिक मूल आधिकारो की बाते सिर्फ बेमानी लगती है। करीब 25 बरस से आदिवासियों के बीच रह रहे डॉक्टर खैरा मानते है की आदिवासी ही जंगलो की सुरक्षा कर सकते है लेकिन सरकारे और वन महकमा आदिवासियों को जंगल से विस्थापन के नाम पर बाहर खदेड़ रहा है। आदिवासियों की संस्कृति और सभ्यता को सरकारें शहरी परिवेश में ले जाकर ख़त्म करना चाहती हैं। खैर, डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा की निःस्वार्थ कोशिशे अनवरत जारी है।
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हमें मानवता को उन नैतिक जड़ों तक वापस ले जाना चाहिए जहाँ से अनुशाशन और स्वतंत्रता दोनों का उद्गम हो - सर्वपल्ली राधाकृष्णन
आज गूगल ने शिक्षक दिवस के ख़ास मौके पर एक एनिमेटेड डूडल डाला है जो हमें शिक्षा देता है की हम अपने गुरुओं का सदैव आदर करें, क्यूंकि हमारे जीवन का मूल आधार स्तम्भ 'शिक्षक' हैं।
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