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                                                             - सत्यप्रकाश पांडेय - 
[TODAY छत्तीसगढ़ ] /  "ये वही जंगल है जहां मैं पैदा हुआ, पला-बढ़ा। इसकी उबड़-खाबड़ देह पर दौड़ता रहा, सैकड़ों बार गिरा पर इसने हमेशा संभाला-दुलार किया। इस मिटटी, इसकी कोख में पनप रही वनस्पतियों और पेड़-पौधों ने मुझसे कभी कुछ माँगा नहीं सिर्फ दिया ही है। इसके अनंत आँचल में समाये असंख्य जीव-जंतु मेरे सच्चे मित्र है। उनकी रक्षा के लिए मैं प्रतिबद्ध हूँ, शरीर पर खाकी रहे ना रहे लेकिन मैं जंगल और जंगल के जीव-जंतुओं को बचाने के लिए अपने प्राण भी दे दूँ तो शायद जंगल के ममत्व का कर्ज अदा नहीं कर सकूंगा "
                                                            इस दौर में ये पढ़कर आपको थोड़ा अटपटा लग रहा होगा, भ्रष्टाचार-बेईमानी और फरेब करने वालों की दौड़ में एक शख्स ऐसा भी है जिसे जंगल को माँ कहते हुए फक्र होता है। 'संदीप सिंह' ये नाम है उस वन अफसर का जो कहता 'मैं कौन हूँ .... मै उन अनाम वन सिपाहीयों में से एक वन का सिपाही हूँ जिसे कम ही लोग जानते-समझते हैं । मैंने और मेरे जैसे असंख्य सिपाहियों ने खाकी वर्दी पहन रखी है, उस प्रकृति माॅ के रक्षार्थ जो हम सभी जीवों की जननी है। वह प्रकृति माॅ जो पूरे विश्व की पालनहार है । एक सिपाही वर्दी पहनता है समाज और देश के रक्षार्थ, हम वन सिपाहीयों ने खाकी पहनी है विश्व रक्षार्थ । मैंने शपथ ली है कि मैं अपने कार्यकाल में ही नहीं अपितु जीवनकाल में इस प्रकृति माॅ की रक्षार्थ खड़े रहूँगा जिससे इस देश का ही नहीं अपितु विश्व का कल्याण हो, कयोकि हवा के रूप में वनों से जो प्राण वायु निकल कर बहती है वह  विश्व के कल्याण के लिए बहती हैं । 
                         'संदीप सिंह' अचानकमार टाइगर रिजर्व के सुरही रेंज के अफसर हैं, जंगल और जंगल के जानवरों के प्रति इनकी दीवानगी कहू तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी क्यूंकि इन्होने अपने दिमाग में लिखी बात को हाथ पर 'सेविंग वाइल्ड टाइगर्स' के रूप में गुदवा रखा है। शायद ही कोई ऐसा वन अफसर हो जो वन्य जीवन के प्रति अपने समर्पण भाव को शरीर के अंग पर ता-उम्र के लिए गुदवा ले। पूछने पर संदीप बताते हैं की पिता स्वर्गीय बैजनाथ सिंह जंगल विभाग के ही मुलाजिम थे, ये नौकरी उन्हें उनकी मृत्यु के बाद मिली है। चूँकि पिताजी वन महकमें का हिस्सा थे लिहाजा पैदा होने से लेकर आज तलक जंगल से बिछड़कर बाहर कहीं जाने का मौक़ा ही नहीं मिला। वो बताते हैं एक बार कोशिश की और मिलिट्री की सेवा ज्वाइन भी कर ली लेकिन जिंदगी को जंगल की कमी खलने लगी, कुछ महीनों के बाद मिलिट्री की सेवा छोड़कर घर लौट आये। 'संदीप सिंह' के पिता राज्य के बस्तर इलाके में पदस्थ रहे, संदीप ने उस जंगल में बचपन और जवानी बिताई है जो आज लाल आतंक का गढ़ माना जाता है। इन्होने 2004 में वन सेवा की शासकीय नौकरी ज्वाइन की, अपनी चौदह साल की सेवा में इस वन अफसर ने कई उतार-चढ़ाव भी देखे हैं ।  
                             

कांकेर में रहने वाले 'संदीप सिंह' कहते हैं की जंगल के सिस्टम को समझना बेहद जरूरी है, वन के दुश्मन दशकों से पर्यावरण और पुरे इको सिस्टम को बिगाड़ने में लगे हुए हैं लेकिन आज वन सेवा और उससे बाहर के असंख्य ऐसे वन योद्धा हैं जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कर्तव्य पथ पर अपने प्राणों की परवाह किये बगैर वन की रक्षा में मुस्तैद हैं।   हाथ पर गुदे 'सेविंग वाइल्ड टाईगर्स' के सवाल पर संदीप मुस्कुरा कर कहते हैं आज देश भर में बाघ संरक्षण के लिए प्रयास जारी हैं, उनकी लगातार कम होती संख्या निश्चित रूप से चिंता का विषय बनी हुई है। उन्होंने बताया की जंगल में रहने वाली आदिवासियों की विभिन्न जनजातियां शरीर पर अपनी-अपनी मान्यता और सभ्यता के अनुरूप गोदना गुदवाती है चूँकि मेरा जीवन भी जंगल की गोद में पला-बढ़ा है और परिवार ने जंगल के हर मिजाज को करीब से देखा समझा है लिहाजा मैंने हाथ पर उस बाघ को बचाने की अपील करता गोदना गुदवा रखा है जो मानव प्राणी के लिए ही ख़ास नहीं बल्कि इस प्रकृति के इको सिस्टम को संतुलित करने में सबसे अहम् भूमिका निभाता है। संदीप ने अपने जीवन के लक्ष्य को एकदम स्पष्ट रखा है, वन सेवा में रहते और वन सेवा के बाद भी सिर्फ और सिर्फ वन्य जीवन के लिए लड़ते रहना उनका मूल लक्ष्य है, इसके लिए चाहे जिस विषम परिस्थिति से गुजरना पड़े।   
इस वन योद्धा की बातों को सुनकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इंसान में अगर कर्तव्यनिष्ठा हो तो उसे अपने ऊपर पूरा विश्वास रहता है । वह कभी ऐसा नहीं सोचता कि दूसरे उसके बारे में क्या सोच रहे होंगे। वह तो बस अपने कार्य की गुणवत्ता को बड़ी सावधानी से कायम रखने की कोशिश करता है। मनुष्य की जिंदगी में बदलाव तभी मुमकिन है, जब वह पूरी तत्परता से हर काम को निबटाए। 

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