TRAVELLING STORY लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
TRAVELLING STORY लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

'देवप्रयाग' जहां से 'गंगा' का उद्भव हुआ ...

[TODAY छत्तीसगढ़ ] / देवप्रयाग भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित एक नगर एवं प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। यह अलकनंदा तथा भागीरथी नदियों के संगम पर स्थित है। इसी संगम स्थल के बाद इस नदी को पहली बार 'गंगा' के नाम से जाना जाता है। यहाँ श्री रघुनाथ जी का मंदिर है, जहाँ हिंदू तीर्थयात्री भारत के कोने कोने से आते हैं। देवप्रयाग अलकनंदा और भागीरथी नदियों के संगम पर बसा है। यहीं से दोनों नदियों की सम्मिलित धारा 'गंगा' कहलाती है। यह टेहरी से 18 मील दक्षिण-दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित है। प्राचीन हिंदू मंदिर के कारण इस तीर्थस्थान का विशेष महत्व है। संगम पर होने के कारण तीर्थराज प्रयाग की भाँति ही इसका भी नामकरण हुआ है।
देवप्रयाग समुद्र सतह से 1500 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है और निकटवर्ती शहर ऋषिकेश से सड़क मार्ग द्वारा 70 किमी० पर है। यह स्थान उत्तराखण्ड राज्य के पंच प्रयागों में से एक माना जाता है। इसके अलावा इसके बारे में कहा जाता है कि जब राजा भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतरने को राजी कर लिया तो 33 करोड़ देवी-देवता भी गंगा के साथ स्वर्ग से उतरे। तब उन्होंने अपना आवास देवप्रयाग में बनाया जो गंगा की जन्म भूमि है। भागीरथी और अलकनंदा के संगम के बाद यही से पवित्र नदी गंगा का उद्भव हुआ है। यहीं पहली बार यह नदी गंगा के नाम से जानी जाती है। अलकनंदा नदी उत्तराखंड के सतोपंथ और भागीरथ कारक हिमनदों से निकलकर इस प्रयाग को पहुंचती है। नदी का प्रमुख जलस्रोत गौमुख में गंगोत्री हिमनद के अंत से तथा कुछ अंश खाटलिंग हिमनद से निकलता है। 
गढ़वाल क्षेत्र में मान्यतानुसार भगीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। यहां के मुख्य आकर्षण में संगम के अलावा एक शिव मंदिर तथा रघुनाथ मंदिर हैं जिनमें रघुनाथ मंदिर द्रविड शैली से निर्मित है। देवप्रयाग प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण है। यहां का सौन्दर्य अद्वितीय है। निकटवर्ती डंडा नागराज मंदिर और चंद्रवदनी मंदिर भी दर्शनीय हैं। देवप्रयाग को 'सुदर्शन क्षेत्र' भी कहा जाता है। यहां कौवे दिखायी नहीं देते, जो की एक आश्चर्य की बात है। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें 
रामायण में लंका विजय उपरांत भगवान राम के वापस लौटने पर जब एक धोबी ने माता सीता की पवित्रता पर संदेह किया, तो उन्होंने सीताजी का त्याग करने का मन बनाया और लक्ष्मण जी को सीताजी को वन में छोड़ आने को कहा। तब लक्ष्मण जी सीता जी को उत्तराखण्ड देवभूमि के ऋर्षिकेश से आगे तपोवन में छोड़कर चले गये। जिस स्थान पर लक्ष्मण जी ने सीता को विदा किया था वह स्थान देव प्रयाग के निकट ही 4 किलोमीटर आगे पुराने बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है। तब से इस गांव का नाम सीता विदा पड़ गया और निकट ही सीताजी ने अपने आवास हेतु कुटिया बनायी थी, जिसे अब सीता कुटी या सीता सैंण भी कहा जाता है। यहां के लोग कालान्तर में इस स्थान को छोड़कर यहां से काफी ऊपर जाकर बस गये और यहां के बावुलकर लोग सीता जी की मूर्ति को अपने गांव मुछियाली ले गये। वहां पर सीता जी का मंदिर बनाकर आज भी पूजा पाठ होता है। बास में सीता जी यहाम से बाल्मीकि ऋर्षि के आश्रम आधुनिक कोट महादेव चली गईं। त्रेता युग में रावण भ्राताओं का वध करने के पश्चात कुछ वर्ष अयोध्या में राज्य करके राम ब्रह्म हत्या के दोष निवारणार्थ सीता जी, लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग में अलकनन्दा भागीरथी के संगम पर तपस्या करने आये थे। इसका उल्लेख केदारखण्ड में आता है। उसके अनुसार जहां गंगा जी का अलकनन्दा से संगम हुआ है और सीता-लक्ष्मण सहित श्री रामचन्द्र जी निवास करते हैं। देवप्रयाग के उस तीर्थ के समान न तो कोई तीर्थ हुआ और न होगा। इसमें दशरथात्मज रामचन्द्र जी का लक्ष्मण सहित देवप्रयाग आने का उल्लेख भी मिलता है तथा रामचन्द्र जी के देवप्रयाग आने और विश्वेश्वर लिंग की स्थापना करने का उल्लेख है।
देवप्रयाग से आगे श्रीनगर में रामचन्द्र जी द्वारा प्रतिदिन सहस्त्र कमल पुष्पों से कमलेश्वर महादेव जी की पूजा करने का वर्णन आता है। रामायण में सीता जी के दूसरे वनवास के समय में रामचन्द्र जी के आदेशानुसार लक्ष्मण द्वारा सीता जी को ऋषियों के तपोवन में छोड़ आने का वर्णन मिलता है। गढ़वाल में आज भी दो स्थानों का नाम तपोवन है एक जोशीमठ से सात मील उत्तर में नीति मार्ग पर तथा दूसरा ऋषिकेश के निकट तपोवन है। केदारखण्ड में रामचन्द्र जी का सीता और लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग पधारने का वर्णन मिलता है।

दुनिया का अकेला मंदिर जहां गणेशजी का पूरा परिवार है

प्रथम पूज्य गणेशजी के दुनिया में कई मंदिर हैं। दोनों पत्नियों, रिद्धि और सिद्धी के साथ वाली भी उनकी कई प्रतिमाएं हैं, लेकिन गुजरात में एक मंदिर ऐसा है, जहां उनका पूरा परिवार है। पूरा परिवार यानि दोनों पत्नियां- रिद्धि-सिद्धी, पुत्री- मां संतोषी, दोनों पुत्र - शुभ और लाभ, दोनों पोते - क्षेम और कुशल। जानिए इनके बारे में -
गुजरात के बनासकांठा जिले में अम्बाजी तीर्थ है। यहां मां अम्बा का भव्य प्राचीन मंदिर है। इसी मंदिर के परिसर में स्थित है सहकुटुंब सिद्धि विनायक मंदिर। यहां गणेशजी अपने पूरे परिवार के साथ विराजे हैं। मंदिर के पुजारी मुकेश भाई के मुताबिक, यह दुनिया में इकलौता मंदिर है, जहां गणेशजी की सहकुटुंब पूजा होती है।
ऐसा है गणेशजी का पूरा परिवार - 
शास्त्रों में उल्लेख है कि भगवान गणेश का शरीर विशालकाय और मुंह की जगह हाथी का मुख लगा हुआ था तो कोई कन्या उनसे विवाह को तैयार न थी। इस पर भगवान गणेश बिगड़ गये और अपने वाहन मूषक को समस्त देवी-देवताओं के विवाह में विघ्न डालने का आदेश दिया।
अब जहां भी विवाह होता, वहां मूषक पहुंच जाते और विघ्न डाल देते। तंग आकर देवताओं ने भगवान ब्रह्मा से कोई उपाय करने की गुहार लगाई तब ब्रह्मा ने दो कन्याओं, रिद्धि और सिद्धी का सृजन किया और गणेशजी से उनका विवाह करवाया। इस तरह बुद्धि और विवेक की देवी रिद्धि और सफलता की देवी सिद्धी का विवाह गणेश जी से हुआ जिनसे शुभ और लाभ नामक दो पुत्र भी हुए। धर्म ग्रंथों में कहीं-कहीं मां संतोषी को गणेशजी की बेटी बताया गया है, जिसका प्रमाण यहां मिलता है। साथ ही गणेशजी के दो पोते - क्षेमे और कुशल भी यहां विराजे हैं।  साभार - अरविन्द दुबे, नईदुनिया  


मंडोर गार्डन, जोधपुर : राजपूत वैभव का प्रतीक

वर्षों से जोधपुर राजपुताना वैभव का केन्द्र रहा है। जिसके प्रमाण आज भी जोधपुर शहर से लगे अनेक स्थानों पर प्राचीन इमारतों के रूप में मिल जाते हैं। जोधपुर से 9 किलोमीटर की दूरी पर एक ऐतिहासिक स्थान मौजूद है जिसको मंडोर गार्डन के नाम से पुकारा जाता है। इसी के नाम पर एक ट्रैन का नाम भी रखा गया है-मंडोर एक्सप्रेस जोकि दिल्ली से जोधपुर के लिए चलती है। मैंने भी जोधपुर पहुंचने के लिए इसी ट्रेन का रिजर्वेशन करवाया था। यह ट्रैन शाम को पुरानी दिल्ली से चलती है और सुबह सात बजे जोधपुर पहुंचा देती है। 
मण्डोर का प्राचीन नाम ‘माण्डवपुर’ था। जोधपुर से पहले मंडोर ही जोधपुर रियासत की राजधानी हुआ करता था। राव जोधा ने मंडोर को असुरक्षित मानकर सुरक्षा के लिहाज से चिड़िया कूट पर्वत पर मेहरानगढ़ फोर्ट का निर्माण कर अपने नाम से जोधपुर को बसाया था तथा इसे मारवाड़ की राजधानी बनाया। वर्तमान में मंडोर दुर्ग के भग्नावशेष ही बाकी हैं, जो बौद्ध स्थापत्य शैली के आधार पर बने हैं। इस दुर्ग में बड़े-बड़े प्रस्तरों को बिना किसी मसाले की सहायता से जोड़ा गया था। 
A symbol of royal grandeur – Mandore garden, Jodhpur
मैंने अपने होटल के मैनेजर से यहां से जुड़ी कुछ जानकारियां जुटाईं। जोधपुर के आसपास ही कई देखने लायक ऐतिहासिक स्थल हैं जिसमे मंडोर अपनी स्थापत्य कला के कारण दूर-दूर तक मशहूर है। मंडोर गार्डन जोधपुर शहर से पांच मील दूर उत्तर दिशा में पथरीली चट्टानों पर थोड़े ऊंचे स्थान पर बना है।
ऐसा कहा जाता है कि मंडोर परिहार राजाओं का गढ़ था। सैकड़ों सालों तक यहां से परिहार राजाओं ने सम्पूर्ण मारवाड़ पर अपना राज किया। चुंडाजी राठौर की शादी परिहार राजकुमारी से होने पर मंडोर उन्हें दहेज में मिला तब से परिहार राजाओं की इस प्राचीन राजधानी पर राठौर शासकों का राज हो गया। मन्डोर मारवाड की पुरानी राजधानी रही है| 
यहां के स्थानीय लोग यह भी मानते हैं कि मन्डोर रावण की ससुराल था। शायद रावण की पटरानी का नाम मन्दोद्री होने के कारण से ही इस जगह का नाम मंडोर पड़ा. यह बात यहां एक दंत कथा की तरह प्रचलित है। लेकिन इस बात का कोई ठोस प्रमाण मौजूद नहीं है। 
Majestic tomb inside the devals (cenotaphs) of Maharaja Shri Jaswant Singh
मण्डोर स्थित दुर्ग देवल, देवताओं की राल, जनाना, उद्धान, संग्रहालय, महल तथा अजीत पोल दर्शनीय स्थल हैं। मंडोर गार्डन एक विशाल उद्धान है। जिसे सुंदरता प्रदान करने के लिए कृत्रिम नहरों से सजाया गया है। जिसमें ‘अजीत पोल’, ‘देवताओं की साल’ व ‘वीरों का दालान’, मंदिर, बावड़ी, ‘जनाना महल’, ‘एक थम्बा महल’, नहर, झील व जोधपुर के विभिन्न महाराजाओं के समाधि स्मारक बने है. लाल पत्थर की बनी यह विशाल इमारतें स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं। इस उद्धान में देशी-विदेशी पर्यटको की भीड़ लगी रहती है। यह गार्डन पर्यटकों के लिए सुबह आठ से शाम आठ बजे तक खुला रहता है।
जोधपुर और आसपास के स्थान घूमने का सबसे अच्छा साधन है यहां चलने वाले टेम्पो। आप थोड़ी बार्गेनिंग करके पूरे दिन के लिए टेम्पो वाले को घुमाने के लिए तय कर सकते हैं। मैंने भी टेम्पो को पूरे दिन के लिए तय कर लिया। मैं टेम्पो में बैठ कर मंडोर गार्डन पहुंची। यहां काफी लोग आते हैं। आप खाने पीने का सामान गार्डन के गेट से खरीद कर अंदर ले जा सकते हैं। पर थोड़ी सावधानी ज़रूरी है। यहां पर बड़े-बड़े लंगूर रहते हैं जोकि खाना छीन कर भाग जाते हैं। इस जगह को देखने से पहले यहां के इतिहास के बारे में थोड़ी जानकारी ज़रूरी है। यहां का इतिहास जो थोड़ा बहुत मुझे यहां के लोगों से पता चला है। मैं आपके साथ साझा करती हूं। 
मंडोर गार्डन का इतिहास - 
उद्धान में बनी कलात्मक भवनों का निर्माण जोधपुर के महाराजा अजीत सिंह व उनके पुत्र महाराजा अभय सिंह के शासन काल के समय सन् 1714 से 1749 ई. के बीच हुआ था। उसके पश्चात् जोधपुर के विभिन्न राजाओं ने इस उद्धान की मरम्मत आदि करवाई और समय समय पर इसे आधुनिक ढंग से सजाया और इसका विस्तार किया। आजकल यह सरकारी अवहेलना और भ्रष्टाचार की मार झेल रहा है। इस स्थान के रख रखाव पर ध्यान दिया जाना बहुत ज़रूरी है। रखरखाव की कमी से पानी की नहर कचरे से भर चुकी है। जिसे देख कर मुझे काफी अफ़सोस हुआ। 
Rajput were the great patrons of art & architecture and Mandore garden was taken cared by the different clans
यह स्मारक पूरे राजस्थान में पाई जाने वाली राजपूत राजाओं की समाधि स्थलों से थोड़ा अलग हैं। जहां अन्य जगहों पर समाधि के रूप में विशाल छतरियों का निर्माण करवाया जाता रहा है। वहीँ जोधपुर के राजपूत राजाओं ने इन समाधि स्थलों को छतरी के आकर में न बनाकर ऊंचे चबूतरों पर विशाल मंदिर के आकर में बनवाया।
मंडोर उद्धान के मध्य भाग में दक्षिण से उत्तर की ओर एक ही पंक्ति में जोधपुर के महाराजाओं के समाधि स्मारक ऊंची पत्थर की कुर्सियों पर बने हैं, जिनकी स्थापत्य कला में हिन्दू स्थापत्य कला के साथ मुस्लिम स्थापत्य कला का उत्कृष्ट समन्वय देखा जा सकता है। जहां एक ओर राजाओं की समाधि स्थल ऊंचे पत्थरों पर मंदिर के आकार के बने हुए हैं वहीं रानियों के समाधि स्थल छतरियों के आकर के बने हुए हैं। यहां पत्थरों पर की हुई नक्कारशी देखने लायक है। यहां मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं। यह समाधि स्थल बाहर से जितने विशाल हैं अंदर से भी उतने ही सजाए गए हैं। गहरे ऊंचे नक्कार्शीदार गुम्बद, पत्थरों पर उकेरी हुई मूर्तियों वाले खम्बे और दीवारें उस समय के लोगों की कला प्रेमी होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। 
Mandore garden the Ancient Kingdom of Parihar Rajputs
इनमें महाराजा अजीत सिंह का स्मारक सबसे विशाल है। यह उद्धान रोक्स पर बनाया गया था। उसके बावजूद यहां पर पर्याप्त हरयाली नज़र आती है। लाल पत्थरों की एकरूपता को खत्म करने के लिए यहां हरयाली का विशेष ध्यान रखा गया था जिसके लिए उद्धान के बीचों बीच से नहर निकाली गई थी। स्मारकों के पास ही एक फव्वारों से सुसज्जित नहर के अवशेष हैं, इन्हें देख कर लगता है कि कभी यह नहर नागादडी झील से शुरू होकर उद्धान के मुख्य दरवाजे तक आती होगी तो कितनी सुन्दर और कितनी सजीली दिखती होगी। नागादडी झील का निर्माण कार्य मंडोर के नागवंशियों ने कराया था, जिस पर महाराजा अजीत सिंह व महाराजा अभय सिंह के शासन काल में बांध का निर्माण कराया गया था।
यहां एक हॉल ऑफ हीरों भी है। जहां चट्टान पर उकेर कर दीवार में तराशी हुई आकृतियां हैं जो हिन्दु देवी-देवतीओं का प्रतिनिधित्व करती है। अपने ऊंची चट्टानी चबूतरों के साथ, अपने आकर्षक बगीचों के कारण यह प्रचलित पिकनिक स्थल बन गया है। मैंने उधान में घूमते-घूमते अजीत पोल, ‘देवताओं की साल’, ‘वीरों का दालान’, मंदिर, बावड़ी, ‘जनाना महल’, ‘एक थम्बा महल’, नहर, झील व जोधपुर के विभिन्न महाराजाओं के स्मारक देखे। मंडोर गार्डन को तसल्ली से देखने के लिए कमसे कम आधा दिन तो लग ही जाता है। इसलिए यहां के लिए समय निकाल कर आएं। क्यूंकि यहां चलना अधिक पड़ता है इसलिए आरामदेह जूते पहन कर आएं और तेज़ धूप से बचने के लिए स्कार्फ या छतरी साथ लाएं। 
जोधपुर कैसे पहुँचें?
जोधपुर शहर का अपने हवाई अड्डा और रेलवे स्टेशन हैं जो प्रमुख भारतीय शहरों से अच्छी तरह से जुड़े हैं। नई दिल्ली का इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा निकटतम अंतरराष्ट्रीय एयरबेस है। पर्यटक जयपुर, दिल्ली, जैसलमेर, बीकानेर, आगरा, अहमदाबाद, अजमेर, उदयपुर, और आगरा से बसों द्वारा भी यहां तक पहुंच सकते हैं।
कब जाएं?
इस क्षेत्र में वर्ष भर एक गर्म और शुष्क जलवायु बनी रहती है। ग्रीष्मकाल, मानसून और सर्दियां यहां के प्रमुख मौसम हैं। जोधपुर की यात्रा का सबसे अच्छा समय अक्टूबर के महीने से शुरू होकर और फरवरी तक रहता है।
कहां ठहरें?
मंडोर से जोधपुर 8 किलोमीटर दूर है। इसलिए ठहरने के लिए जोधपुर एक अच्छा विकल्प है। जोधपुर में ठहरने के हर बजट के होटल हैं। अगर आप राजस्थानी संस्कृति और ब्लू सिटी का फील लेने जोधपुर जा रहे हैं तो ओल्ड सिटी में ही रुकें। यह स्टेशन से ज़्यादा दूर नहीं है। विदेशों से आए सैलानी यहां ओल्ड ब्लू सिटी में बड़े चाव से रुकते हैं। ब्लू सिटी मेहरानगढ़ फोर्ट के दामन में बसा पुराना शहर है। जहां कई होटल और होम स्टे मिल जाते हैं। पर यहां ठहरने के लिए पहले से बुकिंग करवालें क्यूंकि विदेशियों में ब्लू सिटी का अत्यधिक क्रेज़ होने के कारण यह वर्ष भर भरे रहते हैं।
कितने दिन के लिए जाएं?
जोधपुर और उसके आसपास के स्थान सुकून से देखने के लिए कमसे कम 3-4 दिन का समय रखें।
फिर मिलेंगे दोस्तों, अगले पड़ाव में राजस्थान के कुछ अनछुए पहलुओं के साथ, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये.  - डा० कायनात क़ाज़ी

'आमीन' ने दिखाई फ्लेमिंगो की दुनिया

                         
फ्लेमिंगो जिसे हिंदी में राजहंस भी कहा जाता है, ये गुजरात राज्य का राजकीय पक्षी है। इन दिनों गुजरात के नलसरोवर और कच्छ जिले में इन पक्षियों की तादात देखकर मुझे काफी आश्चर्य हुआ । मैंने पिछले दिनों गुजरात के नलसरोवर में फ्लेमिंगों यानी राजहंस की दोनों प्रजातियों को कैमरे में कैद किया। यहां मैंने आमीन नाम के गाइड से संपर्क किया जिसने मुझे फ्लेमिंगोस की दुनिया को काफी करीब से दिखाया । एक नजरी आंकलन के मुताबिक ग्रेटर फ्लेमिंगो और लेजर फ्लेमिंगो की फिलहाल नलसरोवर में मौजूदा संख्या 20 हजार से अधिक है। ग्रेटर फ्लेमिंगो लेजर फ्लेमिंगो से आकार में छोटा होता है और गुलाबी रंग का दिखाई पड़ता है। इसकी चोंच भी भिन्न होती है। सुर्ख गुलाबी रंग की चोंच और ऊँचे कद का ग्रेटर फ्लेमिंगो अपनी खूबसूरती के लिए विश्व-विख्यात है। 


लेज़र फ्लेमिंगो, फ्लेमिंगो की सबसे छोटी प्रजाति है, हालांकि यह सबसे अधिक मानक द्वारा एक लंबा और बड़ा पक्षी है। प्रजातियों का वजन 1.2 से 2.7 किलो (2.6 से 6.0 पाउंड) हो सकता है। खड़ी ऊंचाई लगभग 80 से 90 सेमी (31 से 35 इंच) है। कुल लंबाई (चोंच से पूंछ) और पंख पंख 90 डिग्री से 105 सेमी (35 से 41 इंच) तक माप की समान सीमा में हैं। 
जल निकायों के पास फ्लेमिंगो झुंड की उपस्थिति ऋणात्मक क्षारीय पानी का संकेत है जो सिंचाई के उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं है। हालांकि नीले और हरे रंग के रंग में, शैवाल में प्रकाश संश्लेषक रंग होते हैं जो पक्षी को अपने गुलाबी रंग देते हैं। उनके गहरे बिल छोटे खाद्य पदार्थों को छानने के लिए विशेष है। इतना ही नहीं गुजरात का कच्छ जिला पूरे देश में इनके प्रजनन का एक मात्र स्थान है। कच्छ डेजर्ट वन्यजीव अभयारण्य, गुजरात के महान रण में स्थित है, इसे फरवरी 1986 में एक अभयारण्य घोषित किया गया था। यह 0.5 से 1.5 मीटर की दूरी के बीच औसत पानी की गहराई वाले सबसे बड़े मौसमी खारा जलीय स्थानों में से एक है। हर साल अक्टूबर-नवंबर तक, बारिश का पानी सूख जाता है और पूरा क्षेत्र खारा रेगिस्तान में बदल जाता है। अभयारण्य में विभिन्न प्रकार के पानी के पक्षियों और स्तनधारी वन्य जीवों का ठिकाना है। यह एक खारा रेगिस्तान है जहां विश्व के प्रसिद्ध फ्लेमिंगो सिटी में हजारों से अधिक फ्लेमिंगो का घोंसला हैं, जो कि रान की मिट्टी के फ्लैटों में स्थित है । यह एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां फ्लेमिंगो नियमित रूप से नस्ल को इकट्ठा करते हैं। 
 - सत्यप्रकाश पांडेय 

देव-भूमि दर्शन, सोलंग घाटी










देश-दुनिया में देवभूमि के नाम से लोकप्रिय हिमाचल प्रदेश को मैंने 10 दिन की यात्रा में काफी करीब से देखा और समझने की कोशिश की। 12 जिलों में सिमटे इस खूबसूरत प्रदेश में मेरे सारथी रहे प्रकाश बादल जी, जो हिमाचल के कण-कण से वाकिफ हैं उन्होंने मुझे करीब से देवताओं की धरती पर भ्रमण करवाया । प्रकाश जी की जन्मभूमि और कर्म भूमि देवताओं की भूमि हिमाचल ही है। देवताओं से ख़ास सरोकार ना रखने वाले प्रकाश बादल जी के विशेष आग्रह पर मैंने छत्तीसगढ़ से हिमाचल का रुख 8 मई को किया। 9 मई से 19 मई तक हम हिमाचल के हर उस हिस्से में पहुंचे जहां तक पहुंचना संभव था, रोहतांग का रास्ता अभी बंद है इसलिए देवभूमि में गुलाबा हमारा आखरी ठिकाना था। इस यात्रा में मैंने शिमला से हिमाचल की खूबसूरती को निहारना शुरू किया। शिमला, बीर-बिलिंग, खज्जियार, डलहौजी, धर्मशाला, पालमपुर, चम्बा, मंडी, कुल्लू-मनाली, सोलंग समेत हम कई इलाकों में पहुंचे। हर जगह की अपनी खूबसूरती है, अलग मिजाज है और अगल इतिहास है। यहां प्यार है, अपनापन है, धर्म-कला के साथ पहाड़ी संगीत की एक अलग मिठास है जो देश के नक्शे में हिमाचल को एकदम अलग बनाती है। हिमाचल यात्रा को मैं आप तक कई किश्तों में पहुँचाऊँगा ताकि आप मेरी नज़र से देवभूमि को ज्यादा करीब से देख सकें। ये राज्य आने वाले पर्यटकों के लिए स्वर्ग है यहां की हरियाली, बर्फ से ढंकी हुई चोटियां, बर्फीले ग्लेशियर, मनमोहक झीलें आने वाले किसी भी पर्यटक का मन मोहने के लिए काफी है। देव-भूमि दर्शन के इस क्रम में शुरुवात आज मैं सोलंग घाटी से करने जा रहा हूँ। 

सोलंग घाटी, ये मनाली के समीप स्थित वो पर्यटन स्थल है जिसे देखकर हिमाचल प्रदेश पहुंचे देश-दुनिया के सैलानी हतप्रभ रह जाते हैं। यह हिमाचल प्रदेश के कुल्लू घाटी के शीर्ष पर स्थित एक ओर घाटी है, भारत रोहतांग दर्रा के रास्ते पर सहारा शहर मनाली के 14 किमी उत्तर-पश्चिम में स्थित है । करीब 300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह घाटी पर्यटकों के कौतूहल को अनायास ही बढ़ा देती है। इस घाटी को स्‍नो प्‍वांइट के नाम से भी जाना जाता है। यह व्‍यास कुंड और सोलांग के बीच में ही स्थित है। सर्दियों के दौरान पर्यटक यहां आयोजित होने वाली स्किईंग प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। यह प्रतियोगिता सर्दियों के दौरान विंटर स्किईंग फेस्टिवल के नाम से हर साल आयोजित की जाती है। यहां आकर पर्यटक पैरालाइडिंग, जारॅविंग और घुड़सवारी का लुत्‍फ भी उठाते हैं। यहां भगवान शिव का एक मंदिर भी है । यह मंदिर पहाडी की चोटी पर स्थित है जिसमें साल में हजारों पर्यटक पहुँचते हैं और दर्शन करते हैं। सोलंग नाला (घाटी) शब्द सोलंग (आसपास के गांव) और नाला (पानी की धारा) के संयोजन से बना है। 

हिमाचल प्रदेश, भारत के उत्तर में स्थित राज्य है जो अपनी खूबसूरती, प्रकृति और शांत वातावरण के कारण हर साल पूरी दुनिया के लाखों पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। यहाँ पर्यटन तेजी से बढ़ रहे उद्योगों में से एक है और यही कारण है की प्रतिवर्ष राज्य की आय में भी भारी इजाफा हो रहा है। राज्य के पर्यटन में आये तेज उछाल के चलते यहां बीते कुछ वर्षो में होटल और रिसार्ट में बढोत्तरी हुई है जो राज्य की प्रगति और विकास के लिए एक अच्छा संकेत है।

मसरूर का एकाश्म मंदिर, इतिहास का एक समृद्ध पन्ना

मैंने कभी सोचा भी नहीं था हिमाचल को इतना करीब से देखने और जानने का मौक़ा मिलेगा। मैं हिमाचल के कुछ हिस्सों में दशकों पहले जा चुका हूँ लेकिन उस वक्त फोटोग्राफी की तीसरी आँख मेरे साथ नहीं हुआ करती थी। उस दौर में देखे गए हिमाचल और आज की यात्रा में जमीन आसमान का फर्क महसूस होता है। हिमाचल का चप्पा चप्पा अपने भीतर खूबसूरती समेटे हुए है, इस राज्य का इतिहास सीधे देवताओं के करीब ले जाता है। हिमाचल यात्रा के दौरान मुझे मेरे मार्गदर्शक और जानकारी मुहैया कराने वाले साथी प्रकाश बादल ने मसरुर रॉक कट टेम्पल के बारे में जानकारी दी और बताया की एक विशाल चट्टान को तराशकर एकाश्म मंदिर बनाया गया है, हालांकि यहां पर्यटक दूसरे इलाकों की तुलना में कम आते हैं। 
मसरुर रॉक कट टेम्पल या हिमालय पिरामिड कांगड़ा घाटी में मस्सर (या मसरूर) में स्थित एक जटिल मंदिर है, जो भारत के हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा शहर से 40 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। अब इसे 'ठाकुरवाड़ा' के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है "वैष्णव मंदिर"। यह शास्त्रीय भारतीय स्थापत्य शैली की शिखर (टॉवर की स्थापना) शैली में 6.8 वीं शताब्दियों के लिए कला इतिहासकारों द्वारा दिनांकित, अखंड पत्थर के काटने वाले मंदिरों का एक परिसर है। इस तरह की स्थापत्य शैली भारत के उत्तरी भाग के लिए अद्वितीय है, जबकि पश्चिमी और दक्षिणी भारत में कई जगह हैं जहां कई स्थानों पर ऐसे रॉक-कट स्ट्रक्चर मौजूद हैं। इस मंदिर के सामने मस्सर झील है जो मंदिरों का आंशिक प्रतिबिंब दर्शाती है। एक पौराणिक कथा के अनुसार इसके निर्माण के कारण महाभारत में जब पांडवों को राज्य से निकाला गया था तब पांडवों उस दौरान यहाँ निवास करते थे।
मंदिर परिसर एक चट्टानी पहाड़ पर है,जिस पर एक एक पत्थरो की एक सारणी बनाई गई है जो महबलीपुरम, एलोरा और धर्मनगर गुफाओं के अखंड मंदिरो के समान है। इस परिसर के केंद्रीय मंदिर, जिसे ठाकुरद्वार कहा जाता है। पूर्व में स्थित इस मंदिर में राम, लक्ष्मण और सीता (काले पत्थर से बनी) की मूर्तियां है।
मसरुर रॉक कट टेम्पल, जिसे हिमालय पिरामिड भी कहा जाता है, कांगड़ा घाटी के रोलिंग स्थलाकृति में स्थित मंदिरों का एक जटिल स्वरुप देहरा गोपीपुर तहसील में स्थित है । यह धर्मशाला से करीब 35 किलोमीटर दूर है। मंदिर परिसर तक पहुँचने के लिए लन्ज के निकट पीर बिंदली के पास लगभग 2 किलोमीटर की दुरी तक सड़क बनाई गई है। पंजाब और इसकी अधीनस्थ इकाइयों में पाए जाने वाली प्राचीन वस्तुओं के आधार पर 1875 ईस्वी में मंदिर परिसर की पहली पहचान हुई थी। संरचनाओं के विशाल आकार को ध्यान में रखते हुए यह माना जाता था कि इस क्षेत्र के प्रमुख शासकों ने मंदिर बनवाया था। मंदिर परिसर के आसपास का क्षेत्र भी कई गुफाओं और अवशेषों के लिए जाना जाता था, जिसमें बड़े बस्तियों का संकेत है। यह तर्क के द्वारा स्थापित किया गया है कि 8 वीं शताब्दी के दौरान जालंधर के राजा मैसूर में मैदानी इलाकों (वर्तमान पंजाब के मैदानों) से चले गए और यहां उनकी राजधानी स्थापित की। 
इतिहासकारों की राय है कि मंदिर को हिंदू धर्म के शैवती विश्वासों के लिए समर्पण के रूप में बनाया गया था (मुख्य मंदिर और अन्य आसपास के मंदिरों के लिंटल्स पर देखी गई बड़ी संख्या में शैवाइट की छवियों से)। लेकिन मध्य युग के दौरान कुछ चरणों में, शासकों के धार्मिक विश्वासों में बदलाव हुआ और लोगों ने वैष्णववादी हिंदू धर्म के विश्वासों को अपनाया, जैसा कि राम, लक्ष्मण और सीता की प्रतिमाओं को मंदिर के मुख्य परिसर में देखा गया। 1905 के भूकंप के दौरान, मंदिर परिसर को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ था। मंदिरों का बहुत बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था। एक लोकप्रिय कथा के अनुसार, महाभारत के पांडवों ने अपने राज्य से निर्वासन के दौरान यहां रहने की बात की और इस मंदिर का निर्माण किया। हालांकि इस मामले में इतिहासकारों की अपनी-अपनी राय है।
अब इस धरोहर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने संरक्षित इमारत घोषित कर दी है लेकिन यहां सुरक्षा और इतिहास से सीधा सम्ब्नध रखने वाली इस धरोहर को सहेजने के कोई भी पुख्ता इंतज़ामात नहीं हैं। इतिहास के इस समृद्ध पन्ने को करीब से पढ़कर मैं और प्रकाश बादल जी आगे को बढ़ गए। मेरे मंतव्य से इस धरोहर को सहेजकर रखने की जरूरत है क्यूंकि आने वाली पीढ़ियां हमारे हजारों साल पुराने गौरव को इसी माध्यम से देखेंगी। 
आहा ! देवभूमि ..... सत्यप्रकाश पांडेय 

खज्जियार - भारत का मिनी 'स्वीटजरलैंड'

नैसर्गिक खूबसूरती से घिरे हिमाचल प्रदेश की सुंदरता और मनोरमता केवल शिमला, मनाली और धर्मशाला को देखकर पूरी नहीं होती बल्कि इस प्रदेश में खज्जियार भी है जो हिमाचल का एक अत्यंत सुन्दर और लुभावनी जगह है। हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में दिल्ली से 570 किलोमीटर दूर और डलहौज़ी से 24 किमी दूर स्थित खज्जियार देश के नक़्शे में  "मिनी स्विटजरलैंड" का गौरव हासिल किये हुए है।  अपनी यात्रा के दौरान मैं अपने सारथि प्रकाश बादल जी के साथ देश के  "मिनी स्विटजरलैंड" भी पहुंचा।

 यहाँ खजियार झील और काफी बड़ा हरा-भरा मैदान है जो सैलानियों के आकर्षण का बड़ा केंद्र है।  यह जगह चारो ओर से हरियाली की चादर से ढकी हुई है। सैकड़ो फुट ऊँचे देवदार के पेड़ हवा में नाचते-झूमते सैलानियों के आगमन पर खुशियां बिखेरते हैं। खज्जियार को देखकर  "मिनी स्विटजरलैंड" की झलक आँखों के सामने होती है। यहां डलहौजी से बकरीटा हिल्स के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। जब आप कालाटोप  खजियार अभयारण्य की ओर जाते हैं, तो आप लकड़मंडी को देख सकेंगे। थोड़ा सा आगे को  बढ़ते हैं तो आँखों के सामने खजियार का मैदान दिखाई देता है। जिसमें एक अत्यंत सुंदर झील दिखाई देती हैं। यह जगह शाहरुख खान, काजोल और रानी मुखर्जी स्टार्स की फ़िल्म "कुछ कुछ होता है“ सहित कई बॉलीवुड फिल्मों का एक हिस्सा रही है। खज्जियार झील, खज्जी  नाग मंदिर की मूर्ति से सम्बन्धित होने के कारण एक पवित्र झील मानी जाती है। खजियार झील डलहौज़ी से लगभग 20 किमी पर स्थित है और यह 5000 वर्ग गज के क्षेत्र में फैली हुई है।  खजियार  मैदान समुद्र तल से 1950 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और अपना दिन अपने मित्रों और प्रियजनों के साथ बिताने के लिए एक लोकप्रिय स्थान है। यदि आप खजियार मैदान पर खड़े हैं, तो आप कैलाश पर्वत की झलक देख सकते हैं, ऐसा माना  जाता है कि कैलाश पर्वत भगवान शिव का घर है और वह वहां रहा करते थे। 

यहाँ खज्जी नाग मंदिर है जिसका निर्माण 12 शताब्दी  में किया गया था। यह मंदिर झील के नजदीक स्थित है और हिमाचल प्रदेश के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है। इस मंदिर में महाभारत युग के कई प्रमाण उल्लेखित हैं। यह मंदिर सुंदर चंबा जिले में स्थित है। खजजी नाग मंदिर का निर्माण 10 वीं सदी में शुरू हुआ और यह मंदिर हिंदू और मुस्लिम वास्तुकला का मिश्रण दर्शाता है। इस खूबसूरत मंदिर के कक्षों को लकड़ी से बनाया गया है और अंदरूनी देवी हिडिम्बा के साथ भगवान शिव की मूर्तियां हैं।खजियार गांव अपने खूबसूरत और छोटे गांवों जैसे रोटा, लाडी आदि के लिए लोकप्रिय है जो ढलानों के पास स्थित हैं। 

 खज्जियार गांव में आकाश चूमते देवदार जंगलों के भीतर ये छोटे-छोटे गांव खज्जियार मैदान के काफी निकट हैं। ओक और शंकुधारी पेड़ों के बीच में स्थित, कालाटोप  वन्यजीव अभ्यारण्य 19.63 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस सुंदर अभयारण्य में हिरण, सीरव, जैक, तेंदुए, काला भालू, जंगली बिल्ली, हिमालयी काला मार्टन और अन्य वन्य प्रजातियां हैं। जब आप अभयारण्य में जाते है तो आप भी कई खतरनाक जानवरों और पक्षियों को देख सकेंगे। यह अभयारण्य डलहौज़ी और खज्जियार के बीच स्थित है। कैलाश पर्वत के घेरे में स्थित खज्जियार को देखने के बाद वहां से लौटने का मन नहीं होता। यहां लाखो सैलानी हर साल आते हैं और कई-कई दिनों तक  "मिनी स्विटजरलैंड" के अहसाह को करीब से महसूस करते हैं। हम भी यहां दो दिन रहे फिर हिमाचल के दूसरे हिस्से की खूबसूरती को निहारने निकल पड़े।    - सत्यप्रकाश पांडेय 

© all rights reserved TODAY छत्तीसगढ़ 2018
todaychhattisgarhtcg@gmail.com