मैंने कभी सोचा भी नहीं था हिमाचल को इतना करीब से देखने और जानने का मौक़ा मिलेगा। मैं हिमाचल के कुछ हिस्सों में दशकों पहले जा चुका हूँ लेकिन उस वक्त फोटोग्राफी की तीसरी आँख मेरे साथ नहीं हुआ करती थी। उस दौर में देखे गए हिमाचल और आज की यात्रा में जमीन आसमान का फर्क महसूस होता है। हिमाचल का चप्पा चप्पा अपने भीतर खूबसूरती समेटे हुए है, इस राज्य का इतिहास सीधे देवताओं के करीब ले जाता है। हिमाचल यात्रा के दौरान मुझे मेरे मार्गदर्शक और जानकारी मुहैया कराने वाले साथी प्रकाश बादल ने मसरुर रॉक कट टेम्पल के बारे में जानकारी दी और बताया की एक विशाल चट्टान को तराशकर एकाश्म मंदिर बनाया गया है, हालांकि यहां पर्यटक दूसरे इलाकों की तुलना में कम आते हैं।
मसरुर रॉक कट टेम्पल या हिमालय पिरामिड कांगड़ा घाटी में मस्सर (या मसरूर) में स्थित एक जटिल मंदिर है, जो भारत के हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा शहर से 40 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। अब इसे 'ठाकुरवाड़ा' के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है "वैष्णव मंदिर"। यह शास्त्रीय भारतीय स्थापत्य शैली की शिखर (टॉवर की स्थापना) शैली में 6.8 वीं शताब्दियों के लिए कला इतिहासकारों द्वारा दिनांकित, अखंड पत्थर के काटने वाले मंदिरों का एक परिसर है। इस तरह की स्थापत्य शैली भारत के उत्तरी भाग के लिए अद्वितीय है, जबकि पश्चिमी और दक्षिणी भारत में कई जगह हैं जहां कई स्थानों पर ऐसे रॉक-कट स्ट्रक्चर मौजूद हैं। इस मंदिर के सामने मस्सर झील है जो मंदिरों का आंशिक प्रतिबिंब दर्शाती है। एक पौराणिक कथा के अनुसार इसके निर्माण के कारण महाभारत में जब पांडवों को राज्य से निकाला गया था तब पांडवों उस दौरान यहाँ निवास करते थे।
मंदिर परिसर एक चट्टानी पहाड़ पर है,जिस पर एक एक पत्थरो की एक सारणी बनाई गई है जो महबलीपुरम, एलोरा और धर्मनगर गुफाओं के अखंड मंदिरो के समान है। इस परिसर के केंद्रीय मंदिर, जिसे ठाकुरद्वार कहा जाता है। पूर्व में स्थित इस मंदिर में राम, लक्ष्मण और सीता (काले पत्थर से बनी) की मूर्तियां है।
मसरुर रॉक कट टेम्पल, जिसे हिमालय पिरामिड भी कहा जाता है, कांगड़ा घाटी के रोलिंग स्थलाकृति में स्थित मंदिरों का एक जटिल स्वरुप देहरा गोपीपुर तहसील में स्थित है । यह धर्मशाला से करीब 35 किलोमीटर दूर है। मंदिर परिसर तक पहुँचने के लिए लन्ज के निकट पीर बिंदली के पास लगभग 2 किलोमीटर की दुरी तक सड़क बनाई गई है। पंजाब और इसकी अधीनस्थ इकाइयों में पाए जाने वाली प्राचीन वस्तुओं के आधार पर 1875 ईस्वी में मंदिर परिसर की पहली पहचान हुई थी। संरचनाओं के विशाल आकार को ध्यान में रखते हुए यह माना जाता था कि इस क्षेत्र के प्रमुख शासकों ने मंदिर बनवाया था। मंदिर परिसर के आसपास का क्षेत्र भी कई गुफाओं और अवशेषों के लिए जाना जाता था, जिसमें बड़े बस्तियों का संकेत है। यह तर्क के द्वारा स्थापित किया गया है कि 8 वीं शताब्दी के दौरान जालंधर के राजा मैसूर में मैदानी इलाकों (वर्तमान पंजाब के मैदानों) से चले गए और यहां उनकी राजधानी स्थापित की।
इतिहासकारों की राय है कि मंदिर को हिंदू धर्म के शैवती विश्वासों के लिए समर्पण के रूप में बनाया गया था (मुख्य मंदिर और अन्य आसपास के मंदिरों के लिंटल्स पर देखी गई बड़ी संख्या में शैवाइट की छवियों से)। लेकिन मध्य युग के दौरान कुछ चरणों में, शासकों के धार्मिक विश्वासों में बदलाव हुआ और लोगों ने वैष्णववादी हिंदू धर्म के विश्वासों को अपनाया, जैसा कि राम, लक्ष्मण और सीता की प्रतिमाओं को मंदिर के मुख्य परिसर में देखा गया। 1905 के भूकंप के दौरान, मंदिर परिसर को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ था। मंदिरों का बहुत बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था। एक लोकप्रिय कथा के अनुसार, महाभारत के पांडवों ने अपने राज्य से निर्वासन के दौरान यहां रहने की बात की और इस मंदिर का निर्माण किया। हालांकि इस मामले में इतिहासकारों की अपनी-अपनी राय है।
अब इस धरोहर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने संरक्षित इमारत घोषित कर दी है लेकिन यहां सुरक्षा और इतिहास से सीधा सम्ब्नध रखने वाली इस धरोहर को सहेजने के कोई भी पुख्ता इंतज़ामात नहीं हैं। इतिहास के इस समृद्ध पन्ने को करीब से पढ़कर मैं और प्रकाश बादल जी आगे को बढ़ गए। मेरे मंतव्य से इस धरोहर को सहेजकर रखने की जरूरत है क्यूंकि आने वाली पीढ़ियां हमारे हजारों साल पुराने गौरव को इसी माध्यम से देखेंगी।