बिलासपुर। TODAY छत्तीसगढ़ / सुबह का समय था। बिलासपुर की सड़कों पर सरदार पटेल की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में “यूनिटी मार्च” की तैयारी चरम पर थी। मां काली मंदिर परिसर झंडों, बैनरों और नारों से गूंज रहा था। मंच पर एक ही संदेश लिखा था — “एकता में शक्ति है।”
लेकिन जैसे ही रैली की शुरुआत हुई, उस एकता की परिभाषा मानो मंच पर ही बदल गई। केंद्रीय मंत्री तोखन साहू के नेतृत्व में निकली रैली का उद्देश्य था—समरसता और संगठन की ताकत का प्रदर्शन। पर पहले पंक्ति में स्थान को लेकर ही सियासी खींचतान खुलकर सामने आ गई।
प्रदेश मंत्री हर्षिता पांडे और बेलतरा विधायक सुशांत शुक्ला के बीच यह टकराव अचानक नहीं था; यह उन दबे स्वरूप विवादों का प्रत्यक्ष रूप था जो लंबे समय से संगठन के भीतर चल रहे हैं। जैसे ही दोनों नेता “फर्स्ट लाइन” में स्थान लेने पहुंचे, बहस शुरू हुई—“प्रोटोकॉल” और “वरिष्ठता” के हवाले दिए गए, लेकिन बात जल्द ही शालीनता की सीमा पार कर गई।
भीड़ हैरान थी — जो रैली “एकता” के नाम पर निकली थी, वही क्षण भर में “दावेदारी” और “प्रतिष्ठा” की होड़ में बदल गई। कुछ कार्यकर्ता हंसते नजर आए, कुछ असहज हो उठे। वरिष्ठ नेता धरमलाल कौशिक और अन्य दिग्गजों को आगे आकर समझाइश देनी पड़ी। स्थिति संभल तो गई, मगर जो दृश्य सामने आया, उसने पार्टी के भीतर के अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया।
बिलासपुर की धूप में बैनर अब भी “एकता” का संदेश दे रहे थे, पर लोगों की नजरें नेताओं की चाल और चेहरों के हावभाव पर टिक गईं। जो मंच संगठन की मजबूती का प्रतीक बनना था, वहीं असहमति की झलक ने एक अनकहा प्रश्न छोड़ दिया — “क्या एकता केवल नारों तक सीमित रह गई है?”
