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[TODAY छत्तीसगढ़] / विलुप्त होते गिद्धों समेत 140 प्रजातियों के पक्षियों को पनाह देने वाला "गिधवा' आज अपनी बेबसी पर आंसू बहाता नज़र आ रहा है। तालाब और बाँध सुख गए, लोगों को याद नहीं कब जलाशय को पानी से भरा हुआ देखा था।  हाँ ग्रामीणों को इतना जरूर याद है की गाँव में कभी रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े आकार के विदेशी पक्षी आया करते थे, अब नहीं आते। गिधवा गांव और उसके आसपास का हिस्सा छत्तीसगढ़ की पहली बर्ड्स सेंचुरी के रूप में अपनी पहचान बनाएगा, कुछ बरस पहले तक ये उम्मीद ज़िंदा थी अब दूर तक रौशनी की कोई किरण नज़र नहीं आती। पक्षियों के सरक्षण के लिए शुरू हुआ काम तीन साल पहले ही बंद हो चुका है। जलाशय में पानी भरने के लिए किये गए बोर सालों पहले सुख गए।
एक वक्त था जब बेमेतरा जिले के नवागढ़ ब्लॉक के ग्राम गिधवा का जलाशय और गांव के तालाब फरवरी तक मेहमान पक्षियों से गुलजार रहा करते थे । आज न जलाशय में पानी है, न पक्षी हैं। गिधवा पिछले तीन साल से जलसंकट की स्थिति से जूझ रहा है, पानी के संकट से संघर्षरत ग्रामीण बताते हैं जलस्तर इतना नीचे गिर गया है कि 500 फीट में भी पानी नहीं निकलता। ग्राम गिधवा निवासी दिलीप कुमार बताते हैं कि गाँव के जलाशय में चार  साल पहले तक विभिन्न प्रजातियों के विदेशी पक्षी आया करते थे, गाँव का माहौल उन विदेशी परिंदों से गुलजार रहा करता था । उन्होंने बताया की गाँव का माहौल उनको इतना रास आया कि लगभग 50 एकड़ रकबे के गिधवा जलाशय में कई पक्षियों ने स्थाई डेरा ही बना लिया था । गांव के तालाब के अलावा पड़ोस के गांव कूंरा व मेहना के तालाब तक घूमने के बाद रात गिधवा में बिताने वाले पक्षी अब जलसंकट की वजह से ना जाने कौन से देश चले गए हैं ।
 बेमेतरा जिले के गिधवा गांव को प्रदेश की उन 51 जगहों में सबसे ज्यादा उपयुक्त पाया गया था, जहां प्रवासी पक्षी आते हैं। राज्य वन अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान के पक्षी विशेषज्ञों ने अलग-अलग ऋतुओं में सात बार गिधवा का जायजा लिया और हरी झंडी के साथ फिजिबिलिटी रिपोर्ट तत्कालीन पीसीसीएफ को सौंपी गई थी ।
बर्ड्स सेंचुरी बनाने की पहल गिधवा के उन ग्रामीणों ने की थी, जो वर्षों से इन पक्षियों की हिफाजत कर रहे हैं। गिधवा नांदघाट से आठ किमी दूर मुंगेली रोड पर है। यहां 51 एकड़ में फैले 400 वर्ष पुराने तालाब के अलावा करीब 200 एकड़ के जलभराव वाला गिधवा जलाशय है जो अब सुख चुका है । यह क्षेत्र प्रवासी पक्षियों का अघोषित अभयारण्य माना जाता था । सर्दियों की दस्तक के साथ अक्टूबर से मार्च के बीच यहां साइबेरिया, बर्मा और बांग्लादेश से पहुँचने वाले पक्षी सालों से इस तरफ नहीं आये । जानकार बताते हैं जलाशय की मछलियां, गांव की नम भूमि और जैव विविधता उन्हें काफी आकर्षित करती थी ।
गिधवा के जीवन बंजारे ने बताया कि गांव में पक्षी विहार बनाने की खबर पांच साल पहले मिली थी,  काम भी शुरू हुआ लेकिन कुछ समय बाद ही सब कुछ वीरान सा दिखाई पड़ने लगा। काम अधूरा पड़ा है, सूखे बोर और जलाशय की सुध लेने वाला कोई नहीं है। उन्होंने कहा कोई अफसर गाँव में झाँकने तक नहीं आता। अफसरों की उदासीनता और जलसंकट से जूझते  जीवन बंजारे को यकीन हो चला है अब गिधवा कभी भी पक्षियों के कोलाहल से आबाद नहीं हो सकेगा।
 एक उम्मीद जो टूट गई - 
एसएफआरटीआई ने अक्टूबर 2012 में 'छत्तीसगढ़ के प्रवासी पक्षी  एक अध्ययन' परियोजना की शुरुआत की। इस परियोजना के तहत राज्य की 52 जलाशय और तालाबों का सर्वेक्षण किया गया। वहीं पक्षी प्रेमियों सहित कई संस्थाओं से पक्षियों के संबंध में पूरी जानकारी जुटाई गई। सर्वेक्षण में गिधवा बांध को पक्षी विहार बनाए जाने को लेकर यहां की मिट्टी और वानस्पतिक स्थिति की जानकारी ली गई। सर्वेक्षण टीम ने पीपल, बरगद, पलास, बबूल के पेड़-पौधे और पानी को पक्षी विहार के लिए काफी बेहतर पाया। सर्वेक्षण में यह भी पता चला कि प्रवासी पक्षियों के लिए मछली की अच्छी आपूर्ति भी हो सकती है। यह क्षेत्र प्रवासी पक्षियों का अघोषित अभयारण्य माना जाता था । यही वजह है कि एसएफआरटीआई ने गिधवा को पक्षी विहार बनाने का फैसला लिया जो आज तलक अधर में पड़ा हुआ है। पक्षी विहार बनने से गिधवा एक बड़ा पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित होने की उम्मीद जताई गई थी। जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। गिधवा में 140 प्रकार के पक्षियों का अनूठा संसार कभी मुख्य आकर्षण का केंद्र हुआ करता था । इनमें जलीय और थलीय दोनों ही प्रकार के पक्षी शामिल हैं। इको टूरिज्म के विकास और स्थानीय रोजगार की दृष्टि से गिधवा को बर्ड्स सेंचुरी के लिए उपयुक्त पाया गया लेकिन आज हालात ये हैं की गिधवा बाँध और तालाब दोनों सूखे पड़े हैं, अधिकाँश हिस्से को खेत बनाकर ग्रामीण खेती कर रहें हैं। 
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