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कैमरे की कलम: वर्दी, विवेक और व्यवस्था


इस पोस्ट में दिखाई दे रही तस्वीरें दो अलग-अलग मामलों की हैं, लेकिन संदेश एक ही है—कानून का मखौल। लाल घेरे में कल्पना वर्मा हैं, जबकि बाकी तीन तस्वीरें दंतेवाड़ा के बीच बाजार की हैं, जहाँ एक रिटायर्ड फौजी और पुलिस अफसर तोमेश वर्मा खुलेआम अपनी-अपनी ताकत का प्रदर्शन करते दिखते हैं। 
छत्तीसगढ़ में कुछ पुलिस अफसर इन दिनों सुर्खियों में हैं—वैसे इसमें नया कुछ भी नहीं है। फर्क सिर्फ इतना है कि सालों पुरानी बदरंग परंपरा को अब महकमे की नई पीढ़ी आगे बढ़ा रही है।

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा क्षेत्र में पुलिस अधिकारी (डीएसपी) तोमेश वर्मा पर हुआ प्राणघातक हमला महज एक आपराधिक घटना नहीं । यह उस गहरे और खतरनाक अविश्वास का संकेत था, जो पुलिस और जनता के बीच लगातार पनपता जा रहा है। यह मान लेना आसान होगा कि यह गुस्सा किसी एक घटना की उपज है, लेकिन सच्चाई कहीं अधिक असहज है। यह हमला उस सड़ांध का विस्फोट था, जो लंबे समय से वर्दी के भीतर पल रही है।

यह घटना वर्दी के पीछे छिपे उन बददिमाग चेहरों का आईना है, जिनकी करतूतों ने अब जनता के धैर्य की सीमा तोड़ दी है। गुस्सा अब सिर्फ बातचीत में नहीं, सड़कों पर पीछा करता दिखने लगा है। प्रदेश में कई पुलिस अधिकारी देह शोषण जैसे गंभीर आरोपों में जांच के घेरे में हैं। कहीं रिश्वतखोरी खुलेआम व्यवस्था का हिस्सा बन चुकी है, तो कहीं वर्दीधारी चेहरा देखकर कानून पर तिलक लगाने की परंपरा को ही धर्म मान चुके हैं।

 कुछ पुलिस अफसरों के कारण यहां कानून अब किताबों में नहीं, कंधों पर टंगे सितारों और जेब में भरी हैसियत से चलता है। वर्दी पहनते ही कुछ अफसर यह मान लेते हैं कि संविधान ने उन्हें नहीं, बल्कि संविधान ने खुद को उनके हवाले कर दिया है। लोकतंत्र में सबसे खतरनाक स्थिति वह नहीं होती जब अपराध बढ़ते हैं, बल्कि वह होती है जब अपराध सामान्य लगने लगते हैं। उससे भी खतरनाक तब होता है, जब कानून की रखवाली करने वाली वर्दी सवालों से ऊपर बैठ जाए। 

आज संकट अपराधियों का नहीं, अधिकार के नशे का है और यह नशा सबसे ज्यादा वहीं दिखाई देता है, जहां न्याय की पहली दस्तक होनी चाहिए। 

छत्तीसगढ़ में कुछ पुलिस अधिकारियों पर लगे देह शोषण, घूसखोरी और पद के दुरुपयोग जैसे आरोप कोई अपवाद नहीं हैं। देश के कई राज्यों में इसी तरह के मामले सामने आते रहे हैं। छत्तीसगढ़ की महिला डीएसपी कल्पना वर्मा पर होटल कारोबारी दीपक टंडन द्वारा लगाए गये करोड़ों रुपये की ठगी के आरोप हों या डीएसपी तोमेश वर्मा का हालिया मामला। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के DSP तोमेश वर्मा 19 दिसंबर को कोर्ट के काम से सुकमा से दंतेवाड़ा आए थे। जहां बीच शहर में दुर्ग जिले की रहने वाली एक महिला ने अपने पुरुष दोस्त रिटायर्ड फौजी रमाशंकर साहू के साथ मिलकर उन पर चाकू से वार कर दिया। अपुष्ट ख़बरें तो ये भी हैं कि इसके लिये महिला करीब 400 किलोमीटर सफर तय कर DSP को मारने दुर्ग से दंतेवाड़ा पहुंची थी। वारदात में शामिल ये वही महिला है जिसने करीब 1 साल पहले DSP तोमेश वर्मा पर रेप का आरोप लगाया था।  महिला का आरोप है कि वर्ष 2024 में दुर्ग जिले के मोहन नगर थाने में पदस्थापना के दौरान पुलिस अफसर तोमेश वर्मा ने घर में घुसकर उसके साथ दुष्कर्म व मारपीट की थी । मोहननगर थाने में पुलिस अफसर के खिलाफ FIR भी दर्ज है।  

कोई भी हमला अपराध है—इस पर कोई बहस नहीं। लेकिन हर अपराध की एक पृष्ठभूमि भी होती है और जब पृष्ठभूमि खुद अफसर के फैसलों से बनी हो, तो कटघरे में सिर्फ आरोपी नहीं, निर्णय भी खड़े होते हैं।

 आज ऐसे हालात हैं कि जिसके कंधों पर कानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी टंगी है, वही पुलिस अक्सर उस बोझ को सत्ता, सिफ़ारिश और सुविधा के तराज़ू पर तौलती नज़र आती है। थाने की चौखट पर न्याय नहीं, पहचान पूछी जाती है—नाम से पहले जाति, दर्द से पहले पहुँच और अपराध से पहले राजनीतिक समीकरण।

जनता के सवाल पुलिस को शोर लगते हैं, जबकि सत्ता की फुसफुसाहट आदेश बन जाती है। जिस हाथ को पीड़ित की ढाल बनना था, वही हाथ वसूली की रसीद थमा देता है। जिस वर्दी का रंग भरोसे का प्रतीक था, वह अब डर का पर्याय बन चुकी है। कानून की किताबें अलमारी में बंद हैं, और ज़मीर फ़ाइलों के नीचे दबा पड़ा है। थाने में सच की एंट्री मुश्किल है, लेकिन झूठ की FIR तुरंत दर्ज हो जाती है—बस सही जेब से निकलनी चाहिए। लोकतंत्र में वर्दी को सम्मान इसलिए मिलता है क्योंकि वह कानून की प्रतिनिधि मानी जाती है। लेकिन जब वही वर्दी कानून से भारी पड़ने लगे, तो सवाल केवल व्यवस्था पर नहीं, हमारी सामूहिक चुप्पी पर भी उठता है। 

आज सबसे असुरक्षित व्यक्ति अपराधी नहीं, बल्कि सवाल करने वाला नागरिक है। सवाल पूछते ही व्यवस्था चौकन्नी हो जाती है। कानून अचानक बहुत सक्रिय हो जाता है। धाराएं याद आने लगती हैं, नोटिस चलने लगते हैं, और नागरिक को अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाता है। लोकतंत्र में सवाल डर का कारण नहीं होते—डर तब होता है, जब जवाब देने की क्षमता खत्म हो जाए।

विडंबना यह है कि इसी ढांचे में हजारों ईमानदार पुलिस कर्मी भी काम कर रहे हैं। वे नियम मानते हैं, ड्यूटी निभाते हैं और भरोसा बचाने की कोशिश करते हैं। लेकिन उन्हें आगे रखने की जगह पीछे खड़ा कर दिया जाता है, ताकि तस्वीर “मैनेज” रहे। एक सड़ी मछली पूरे तालाब को न सिर्फ गंदा करती है बल्कि उसे बदनाम कर देती है । यह कटाक्ष किसी व्यक्ति, पद या संस्था के खिलाफ आरोप पत्र नहीं है। यह उस मानसिकता पर सवाल है, जिसने जवाबदेही को बोझ और सत्ता को अधिकार समझ लिया है। यह उस चुप्पी पर सवाल है, जो हर बार “प्रक्रिया” के नाम पर ओढ़ ली जाती है।

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