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कोरोना: गंगा किनारे रेत में दबाए गए शवों को परंपरा का हिस्सा बताना कितना सही ?

 
TODAY छत्तीसगढ़  / समीरात्मज मिश्र, बीबीसी / प्रयागराज में गंगा किनारे कुछ जगहों पर रेत में दफ़न सैकड़ों शवों की तस्वीरें और वीडियो जब देश-दुनिया में चर्चा का विषय बन चुके थे, इन सैकड़ों मौतों पर सवाल खड़े हो रहे थे तो पिछले हफ़्ते शहर में मौजूद राज्य सरकार के मंत्री महेंद्र प्रताप सिंह इसे 'प्रयागराज की पुरानी परंपरा' बताया.
प्रयागराज के श्रृंगवेरपुर धाम के पास गंगा किनारे क़रीब दो किलोमीटर की दूरी में महज़ एक महीने के भीतर इतने शव दफ़न कर दिए गए कि उन्हें गिनना मुश्किल हो गया. 


शवों को दफ़नाने में इतनी जल्दबाज़ी की गई कि शवों पर पड़े कफ़न बाहर दिख रहे थे. कुछ शवों में शरीर के कुछ अंग बाहर निकले थे जिन्हें जानवर नोंच रहे थे और शवों के ऊपर गिद्ध और कौवे मंडरा रहे थे.
यह स्थिति प्रयागराज के फ़ाफ़ामऊ, झूंसी, दारागंज और कुछ अन्य घाटों पर भी दिखी. इससे पहले, उन्नाव, फ़तेहपुर, कानपुर और रायबरेली में भी शव रेत में गड़े मिले थे. उससे पहले गंगा और यमुना नदियों में बड़ी संख्या में शव तैरते हुए मिले थे.


गांवों में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मौत कैसे हुई और ये शव किन गांवों के हैं और किन लोगों के हैं, इस पर अब तक रहस्य बना हुआ है.
प्रयागराज के ज़िलाधिकारी भानुचंद्र गोस्वामी कहते हैं कि ये शव मिले नहीं हैं बल्कि इन्हें लोगों ने स्वेच्छा से दफ़नाया है और ऐसा लंबे समय से यहां लोग करते आ रहे हैं.
उनके मुताबिक़, "यह नई बात नहीं है. यहां सभी लोग इसके बारे में जानते हैं. कुछ समुदायों में ये परंपरा है और कुछ लोग सांप इत्यादि के काटने से हुई मौत पर भी इसी तरह से शव दफ़न करते हैं. हालांकि हम लोग टीमें गठित करके लोगों को जागरूक कर रहे हैं कि वो शव को जलाने को ही प्राथमिकता दें ताकि प्रदूषण न फैले."
प्रशासनिक अधिकारियों के मुताबिक़, इससे पहले भी दफ़न किए गए शव गंगा किनारे देखे गए हैं. उन्नाव के ज़िलाधिकारी रवींद्र कुमार का भी कहना है कि बड़ी संख्या में रेत में मिले शवों की वजह पुरानी परंपरा ही रही है.
प्रयागराज में कुछ स्थानीय अख़बारों में दावा किया गया है कि साल 2018 में कुंभ की तैयारियों के दौरान भी इसी तरह की तस्वीरें श्रृंगवेरपुर धाम के आस-पास दिखी थीं और ऐसा कई बार हो चुका है.
लेकिन इस बात की विस्तृत पड़ताल करने पर पता चलता है कि उत्तर भारत में हिन्दू धर्म में ऐसी कोई परंपरा नहीं है कि शवों को दफ़नाया जाए, बल्कि ऐसा लोग या तो विशेष परिस्थितियों में हुई मौत के संदर्भ में करते हैं या फिर विवशता में. 
प्रयागराज के दारागंज में दाह संस्कार कराने वाले पुरोहित राजकुमार बताते हैं कि कई बार लोग शव लेकर आते हैं और रेत में दबाकर चले जाते हैं लेकिन ऐसा वही करते हैं जिनके पास दाह संस्कार कराने की क्षमता नहीं होती या फिर शव बच्चों के होते हैं.
राजकुमार बताते हैं, "कई बार ऐसा करते लोगों को देखा गया और उनसे बात की गई तो पता चला कि पैसों की कमी के कारण शव रेत में दफ़न कर रहे हैं. ऐसे लोगों की हम लोग भी मदद करते हैं कि वो शव को जलाएं. कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी हैं जो मदद करती हैं. अपनी मर्ज़ी से या परंपरा की वजह से तो कोई नहीं दफ़नाता."
उन्नाव में बक्सर घाट के बाहर अंतिम संस्कार से संबंधित सामान की बिक्री करने वाले दिनकर साहू इतनी बड़ी संख्या में दफ़न किए गए और गंगा नदी में मिले शवों की वजह कुछ इस तरह बताते हैं. 


वे कहते हैं, "श्मशान घाटों पर भीड़ और महंगी लकड़ी मिलने के कारण ग़रीब लोगों ने शवों को दफ़नाना शुरू कर दिया है. गंगा की रेती में घाटों से दूर कई बार शव दफ़नाए हुए दिख जाते हैं लेकिन हालाँकि आम तौर पर ऐसा नहीं होता है. जिन लोगों ने भी ऐसा किया है उन्होंने मजबूरी में ही किया होगा."
वहीं प्रयागराज के श्रृंगवेरपुर के पास कमालापुर गाँव के रहने वाले दिलीप कुमार बताते हैं कि पिछले क़रीब एक महीने से आस-पास के इलाक़ों के न जाने कितने लोग शव लेकर आए और गंगा की रेती में दबाकर चले गए. दिलीप कुमार कहते हैं कि आस-पास के कई गाँव वालों ने पुलिस वालों से इसकी कई बार शिकायत भी की लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई.

"परंपराएं दोनों ही हैं लेकिन उत्तम विधान दाह संस्कार है"

पिछले कुछ दिनों में यूपी के जिन जगहों से शवों को गंगा की रेती में दफ़नाने की ख़बरें आईं, वहाँ आस-पास रहने वाले कई लोगों से हमने बात की लेकिन ऐसा कोई परिवार नहीं मिला जिसने कहा हो कि उनके यहाँ यह परंपरा है.
कमालापुर गाँव के ही दलित समुदाय के एक व्यक्ति की पत्नी की 11 मई को 'खाँसी-बुख़ार' की वजह से मौत हो गई. उन लोगों ने शव को रेत में दफ़न किया. लेकिन उनका कहना था कि ऐसा 'अकाल मौत की वजह से किया गया, हमेशा नहीं करते.'
कोरोना संकट के दौरान शहरों में बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई और श्मशान घाटों और क़ब्रिस्तानों में अंतिम संस्कार के लिए लंबी लाइनें लगी रहीं. श्मशान घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए 12-12 घंटे तक लोगों को इंतज़ार करना पड़ा.
यही नहीं, कई जगहों पर लकड़ियों के दाम कई गुना बढ़ गए और श्मशान घाटों पर लकड़ियों की कमी पड़ गई. मौतें गाँवों में भी हुईं और ये समस्याएं गाँवों में भी थीं. नतीजा ये हुआ कि बहुत सारे लोग जो दाह संस्कार का ख़र्च वहन नहीं कर पाए, वो रेत में ही शव को दफ़ना कर चले गए या फिर नदियों में प्रवाहित कर गए.
प्रयागराज में दारागंज स्थित एक संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य डॉक्टर बाबूलाल मिश्र कहते हैं कि परंपराएं दोनों हैं लेकिन हिन्दू धर्मशास्त्रों में उत्तम विधान दाह संस्कार को ही बताया गया है और ज़्यादातर लोग इसी का पालन करते हैं.
 बातचीत में डॉक्टर मिश्र कहते हैं, "कुष्ठ रोग, क्षय रोग इत्यादि से जिनकी मौत होती है उनका दाह संस्कार नहीं होता क्योंकि ऐसा माना जाता है कि दाह करने वाले में भी वो रोग आ सकते हैं. इनके लिए या तो जलप्रवाह या भूमिसात करने की परंपरा है. इसके अलावा जिनका जनेऊ नहीं हुआ रहता उन्हें भी भूमिसात किया जाता है. और ये परंपरा पहले से चली आ रही हैं." 

"शव दफ़न करने का जाति से नहीं ग़रीबी से संबंध"

बाबूलाल मिश्र ये भी कहते हैं, "वर्तमान में दाह संस्कार इसलिए कठिन हो गया है क्योंकि यह महंगा है और उसके लिए ज़रूरी संसाधन का जिनके पास अभाव है वो सामान्य मौत में भी मजबूरी में गाड़ देते हैं. पुरानी परंपरा में यह भी था कि मृत शरीर को ऐसे ही नहीं गाड़ा जाता था बल्कि नमक इत्यादि डालकर गाड़ते थे ताकि शरीर गल जाए और उससे वातावरण दूषित न होने पाए."
स्थानीय लोगों के मुताबिक़, हिन्दू समाज में कुछ जातियों में ये परंपरा है कि वे शव को दफ़नाते हैं लेकिन डॉक्टर मिश्र इसे सिरे से ख़ारिज करते हैं. उनके मुताबिक़, "जातियों से इसका कोई संबंध नहीं है लेकिन ग़रीबी से संबंध ज़रूर है. आर्थिक विपन्नता के कारण दलित जातियों के कुछ लोग पहले ऐसा करते थे. जो ग़रीब हैं, वो अभी भी करते हैं लेकिन सक्षम लोग शवदाह ही करते हैं."
मिश्र कहते हैं कि कुछ अपवाद ज़रूर हैं, "विशेष परिस्थितियों के लिए विधान दिए गए हैं. संन्यासी का दाह संस्कार नहीं होता, उसे जलसंस्कार या फिर भूमिसात किया जाता है क्योंकि संन्यास जीवन में आने से पहले ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है." 

शैव संप्रदाय और कबीरपंथियों में शवों को दफ़नाने का रिवाज

जहां तक परंपरा का सवाल है तो समाजशास्त्री भी हिन्दू धर्म में, ख़ास तौर पर उत्तर भारत में दफ़नाने जैसी किसी परंपरा को नहीं मानते. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे अशोक कौल कहते हैं, "ऐसी किसी परंपरा का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, सिर्फ़ सुनी हुई बातें ही हैं. हिन्दू धर्म में यह कभी भी मुख्यधारा की संस्कृति नहीं रही है. दफ़नाने या जलाने का संबंध मज़हब के आधार पर ही रहा है, जाति के आधार पर नहीं."
हालाँकि हिन्दू धर्म में कुछ ख़ास पंथ के लोग, मसलन शैव संप्रदाय और कबीरपंथियों में शवों को दफ़नाने का रिवाज है लेकिन प्रोफ़ेसर अशोक कौल के मुताबिक़, 'ऐसे लोगों की संख्या पहले भी बहुत कम थी और आज तो न के बराबर है.' 


प्रयागराज में एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी साल 2018, साल 2019 और उससे पहले की भी कुछ तस्वीरों का हवाला देते हुए शव दफ़नाने को प्रचलित परंपरा बताते हैं लेकिन कई स्थानीय पत्रकारों और फ़ोटोग्राफ़रों की मानें तो दफ़न किए गए शव पहले मिले ज़रूर हैं लेकिन इतनी बड़ी संख्या में कभी नहीं मिले. प्रयागराज में वरिष्ठ फ़ोटोग्राफ़र राजेश कुमार सिंह अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ और फ़ोटो एजेंसी के लिए काम करते हैं.
राजेश कुमार सिंह बताते हैं, "शव दफ़नाए जाते हैं और हमने भी कई बार देखा है लेकिन साल 2018 में या फिर उससे पहले इतनी बड़ी संख्या में मुझे शव कभी नहीं दिखे. मैं साल 2019 में नमामि गंगे प्रोजेक्ट के लिए बिजनौर से बलिया की यात्रा कर रहा था. उस वक़्त मुझे कई जगहों पर गंगा किनारे रेत में शव दफ़न किए हुए मिले थे. श्रृंगवेरपुर में भी मिले थे. मैंने तस्वीरें भी खींची थीं. लेकिन अभी जितने शव मिले हैं, उतने तब नहीं थे."  


कई स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि साल 2018 में यदि इतने शव मिले होते तो स्थानीय मीडिया में ख़बरें भी छपी होतीं और फ़ोटोग्राफ़रों की नज़रों से भी न बचने पातीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. स्थानीय लोगों के मुताबिक इतनी बड़ी संख्या में शवों के दफ़नाने की सबसे बड़ी वजह गांवों में कोविड और अन्य बीमारियों से पिछले डेढ़-दो महीनों के भीतर हुई मौतें हैं.
उनके मुताबिक़, "बीमारी की वजह से हुई मौतों पर तमाम लोगों के परिजन चुपचाप गंगा किनारे रेत में शव दफ़ना गए ताकि उनसे किसी तरह की पूछताछ न हो. दूसरे, संसाधनों की कमी एक बड़ी वजह थी ही."
एसके यादव प्रयागराज में फ़ोटो जर्नलिस्ट के तौर पर पिछले क़रीब तीन दशक से सक्रिय हैं और इस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फ़ोटोग्राफ़ी विभाग में प्राध्यापक हैं. एसके यादव भी साल 2018 में इतनी बड़ी संख्या में शवों के मिलने या फिर उनकी तस्वीरें मीडिया में आने से वाक़िफ़ नहीं हैं.
वे कहते हैं, "गंगा किनारे क़ब्रिस्तान जैसा दृश्य कोई सामान्य बात नहीं है. ऐसी कोई तस्वीर सामने आए और वो ख़बर मीडिया में न दिखे, ऐसा हो नहीं सकता. अब यदि ऐसी तस्वीरें आ रही हैं तो निश्चित तौर पर इन तस्वीरों की जाँच होनी चाहिए कि ये उसी समय की हैं या फिर इन्हें मैनिपुलेट किया गया है. आजकल तो चाहे मोबाइल से तस्वीरें खींची जाएं या फिर कैमरे से, उसका पूरा विवरण पता चल जाता है."  

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