देश के बहुत बड़े हिस्से में और कई प्रदेशों में कॉलेज के छात्रों के अलावा मुस्लिम और हिन्दू दोनों समुदायों के लोगों के साथ दूसरे धर्म-जातियों के लोग भी सडक़ों पर हैं। नागरिकता संशोधन और नागरिकता रजिस्टर, इन दोनों के खिलाफ जिस तरह का माहौल देश भर में दिख रहा है, वह शायद छह बरस की मोदी सरकार को पहली बार ही नसीब हुआ है। संसद में बाहुबल के चलते अपनी पसंद का कानून बना लेना एक अलग बात है लेकिन कम्युनिस्टों से लेकर हिन्दूवादी पार्टी शिवसेना तक, और एनडीए के साथी दल नीतीश कुमार के जेडीयू जैसे लोग अब नागरिकता विधेयक से अलग हो रहे हैं कि वे अपने राज्यों में इसे लागू नहीं करेंगे। कांग्रेस के मुख्यमंत्री पहले ही इसके खिलाफ बोल चुके हैं, पूरा उत्तर-पूर्व आंदोलन में झुलस रहा है, कई जगहों पर हालात बेकाबू हैं, और सरकार के कुछ मुंह यह बोलने में लगाए गए हैं कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का काम अभी शुरू नहीं हो रहा है, और लोगों को इससे दिक्कत नहीं होने दी जाएगी। कुल मिलाकर देश में केन्द्र सरकार के इन दो कानूनों को लेकर इतना बड़ा अविश्वास खड़ा हुआ है कि वह अभूतपूर्व है। दूसरी बात जो सरकार के लिए अधिक फिक्र की हो सकती है वह यह कि लोग इसकी दहशत से उबरकर अब झंडे-डंडे लेकर खड़े हैं, और संविधान के राज की मांग कर रहे हैं। यह पूरी नौबत एकदम ही अभूतपूर्व है, और एक कार्टूनिस्ट ने आज का सही नजारा दिखाया है कि देखने में अक्षम विपक्ष छात्रों की ऊंगली पकडक़र चल रहा है। छात्रों के आंदोलन को पप्पू या बबुआ कहकर खारिज करना मुमकिन नहीं होगा, और शायद इसीलिए झूठ की एक बड़ी जंग छेड़ दी गई है, जिस पर आज चर्चा होनी चाहिए।
पुराने वक्त से यह बात प्रचलन में है कि तस्वीर झूठ नहीं बोलती। बाद में जैसे-जैसे वीडियो का चलन बढ़ा तो लोगों को वीडियो पर तिलस्म सा भरोसा होने लगा कि जब एक तस्वीर झूठ नहीं बोलती तो वीडियो कैसे झूठ बोलेगा? लेकिन आज सोशल मीडिया देखें तो हिंसा की पुरानी तस्वीरें निकालकर, अड़ोस-पड़ोस के देशों के हिंसा के कुछ पुराने वीडियो निकालकर उन पर हिन्दुस्तानी शहरों के नाम चिपकाकर उन्हें फैलाया जा रहा है, और लोगों के नाम से बयान बनाकर उनको फैलाना तो और भी आसान है। कहने के लिए हिन्दुस्तान का सूचना तकनीक कानून देश के सबसे कड़े कानूनों में से है, लेकिन न तो उसका कोई असर दिखता, और न ही किसी को उसकी परवाह लगती। इक्का-दुक्का केस कहीं-कहीं पर दर्ज होते दिखते हैं, लेकिन किसी को सजा की कोई परवाह नहीं दिखती, और सोशल मीडिया का सबसे बड़ा इस्तेमाल नफरत और हिंसा फैलाने के लिए किया जा रहा है। एक दूसरी दिक्कत यह भी है कि यह काम कोई अनजाने में नहीं कर रहे हैं, जानते-बूझते बदनीयत से कर रहे हैं, और ऐसी जनचर्चा है कि नफरत का सैलाब फैलाने वाले इसका भुगतान भी पाते हैं।
आज जरूरत यह भी है कि सोशल मीडिया या और किसी जगह पर सोची-समझी साजिश के तहत अगर नफरत और हिंसा फैलाने का काम हो रहा है, तो कम से कम उन राज्यों में तो सरकारों को केन्द्र सरकार के बनाए कानून के तहत कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए जिन राज्यों में सरकारें नफरत फैलाने में हिस्सेदार नहीं हैं। यह न सिर्फ ऐसी राज्य सरकारों का अधिकार है, बल्कि उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी भी है। यह उन लोगों की भी सामाजिक जिम्मेदारी है जो दूसरों को नफरत फैलाने के लिए झूठी तस्वीरों और झूठे वीडियो का इस्तेमाल करते देख रहे हैं। ऐसा देखते हुए भी अगर दूसरे गैरनफरतजीवी लोग चुप रहेंगे, तो समाज में लगती आग से किसी दिन उनकी कुनबा भी जल सकता है। जब देश जलने-सुलगने लगता है, तो वह आग छांट-छांटकर नहीं फैलती, और महज छांटे हुए निशानों को नहीं जलाती। सोशल मीडिया और मीडिया पर झूठ फैलाने वालों का भांडाफोड़ करने के लिए देश में कुछ जिम्मेदार वेबसाईटें बड़े सीमित साधनों में काम कर रही हैं, और वे लगातार साजिश का भांडाफोड़ करती हैं। समाज के जिम्मेदार लोगों को ऐसे भांडाफोड़ को भी देख परखकर, सच पाए जाने पर उनको आगे बढ़ाने का काम करना चाहिए क्योंकि झूठ फैलाने में तो करोड़ों लोग लगे हैं, कुछ लाख लोग झूठ का भांडा फोडऩे में भी हाथ बंटाएं। कुल मिलाकर आज हिन्दुस्तान में एक बहुत बड़े तबके की झिझक पूरी तरह खत्म हो गई है, और बेशर्मी ने उनकी आत्मा पर ऐसा कब्जा कर लिया है कि नफरत और झूठ फैलाते उन्हें जरा भी हिचक नहीं लगती। लेकिन लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ऐसे लोगों के हवाले करके चुप बैठ जाना ठीक नहीं है। देश के तमाम जिम्मेदार लोगों को हर दिन थोड़ा सा वक्त निकालना होगा, और झूठे इतिहास, झूठे वर्तमान, और भविष्य को लेकर बेबुनियाद आशंकाओं की नफरत फैलाने वालों की हकीकत उजागर करनी होगी। हर जिम्मेदार व्यक्ति को पहले तो अपने परिवार, फिर अपने दोस्त, फिर दफ्तर या कारोबार के साथियों से बातचीत में सच और झूठ का फर्क बताना होगा, तभी आने वाली पीढिय़ां बिना नफरत और खतरे के जी सकेंगी।