सोशल मीडिया पर बड़े आक्रामक तरीके से मोदी का समर्थन करने वाले एक दक्षिण भारतीय कार्पोरेट कारोबारी ने लिखा है कि इस चुनाव में सोशल मीडिया चार-पांच फीसदी वोट इधर-उधर कर सकता है। आईटी सेक्टर के इस विशेषज्ञ का कहना है- 'पहली बार वोट देने जा रहे युवा मतदाताओं के लिए सोशल मीडिया ही सूचना का पहला जरिया है। इससे वे बहुत ज़्यादा प्रभावित होते हैं। ये ऐसा वर्ग है जो टीवी नहीं देखता। अखबार नहीं पढ़ता। बल्कि यूट्यूब पर जाता है। सोशल मीडिया के दूसरे प्लेटफॉर्म पर जाकर सूचनाएं हासिल करता है। ऐसे मतदाताओं में 40-50 फीसदी सोशल मीडिया पर चलने वाले अभियानों में या तो सक्रिय रूप से शामिल हैं या उनसे प्रभावित हैं। जाहिर तौर पर ये चुनाव को भी उसी हिसाब से प्रभावित करेंगे।'
यह बात बहुत फिक्र का सामान इसलिए है कि देश में कौन सी सरकार बनेगी इसका फैसला कई बार इससे कम वोटों से होता है और बहुत से ऐसे चुनावक्षेत्र रहते हैं जहां पर जीत-हार इससे कम वोटों से होती है। अब अगर पहली बार वोट डालने वाले लोग अखबारों को नहीं पढ़ते, किसी गंभीर चीज को नहीं पढ़ते, और सोशल मीडिया पर अमूमन गैरजिम्मेदारी से लिखी या पोस्ट की जानी वाली चीजों को, पढ़ी या गढ़ी हुई जानकारी को पढ़कर यह तबका अपना दिमाग बनाएगा, तो फिर देश में वह सरकार कैसी बनाएगा? एक दूसरी फिक्र की बात यह भी सामने आई है कि पहली बार वोट डालने वाले करोड़ों ऐसे वोटर इस बार रहेंगे जो कि अब तक बेरोजगारी का सामना कर भी नहीं कर पाए हैं, और जिन्होंने जिंदगी की इस हकीकत को देखा-समझा नहीं है। यह चुनाव इस मायने में भी दिलचस्प है कि इस सदी में पैदा होने वाले लोगों का यह पहला वोट रहने जा रहा है, जो कि बिना अधिक समझे-बूझे डलते दिख रहा है।
इसका मतलब यह है कि राजनीतिक दल इस जबर्दस्त तनाव और दबाव के बीच चुनाव प्रचार में लगे होंगे कि जिंदगी की असली तपन से अब तक तकरीबन अछूते रहे, मोबाइल-मोबाइक पीढ़ी के इन नौजवान वोटरों को कैसे प्रभावित किया जाए? लोकतंत्र की कड़वी हकीकत यही है कि अपनी सोच और अपने निशान की मार्केटिंग की किसी भी कानूनी और लोकतांत्रिक तकनीक से चुनाव-कानूनों को कोई परहेज नहीं है। ऐसे में मुफ्त में हासिल सोशल मीडिया अगर चार-पांच फीसदी वोटों को इधर-उधर कर सकता है, तो उसका एक मतलब यह भी है कि पार्टी और उम्मीदवार सड़कों पर घूमकर जो खर्च अब तक करते हैं, उसमें से बचाकर समय और रकम दोनों का कुछ हिस्सा सोशल मीडिया के लिए रख सकते हैं, और हो सकता है कि रख भी रहे हों।
ऐसे में राजनीतिक दलों और नेताओं के सामने अपने-आपको सोशल मीडिया-शिक्षित बनाने की एक बड़ी चुनौती भी मौजूद है। इसके साथ-साथ टेक्नॉलॉजी का एक बड़ा खतरा भी मौजूद है जिसके चलते रूस ने अपने घर बैठे अमरीकी चुनाव को प्रभावित किए ही, योरप के कुछ देशों के चुनाव भी उसने प्रभावित किए और अपनी मर्जी के उम्मीदवारों के जीतने की नौबत लाने का काम किया। यह चुनाव तो अब किसी नई रणनीति के लायक नहीं रह गया है, और 2019 के चुनाव की तरकीबें तो लगभग तय हो चुकी हैं, लेकिन यह तय है कि इसके बाद के चुनाव टेक्नॉलॉजी-अशिक्षित लोग नहीं जीत पाएंगे क्योंकि गंभीर कुछ भी पढ़कर अपना राजनीतिक शिक्षण करने वाली पीढ़ी अब एक्सपायर हो चुकी है। आने वाले तमाम पीढिय़ां गिनेचुने शब्दों में सबसे तीखी और पैनी, सही या गलत, सच या गढ़ी हुई बातों से प्रभावित होने वाली रहेगी। और लोगों को अभी से इसके लिए तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। परंपरागत मीडिया से चुनावी असर का कुछ हिस्सा यह नया पूरी तरह बेकाबू और बुरी तरह अराजक सोशल मीडिया ले चुका है, और उस हकीकत को समझना सबके लिए जरूरी है।