पश्चिम बंगाल में पहुंचने वाले भाजपा नेताओं के हेलीकॉप्टरों को इजाजत न मिलने की खबरें लगातार बनी हुई हैं, और कई जगहों पर भाजपा की आमसभा भी नहीं हो पाई है। यह बात भाजपा के आलोचकों को अच्छी लग सकती है, लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के बारे में यह भी याद रखने की जरूरत है कि पारे जैसी स्थिर चित्त वाली ममता भाजपा के गठबंधन में भी रह चुकी है, और ऐसी कोई नौबत दुबारा आने पर उनकी तोप का मुंह भाजपा के बजाय दूसरी पार्टियों की ओर भी घूम सकता है। लोकतंत्र में जिस बर्दाश्त की जरूरत होनी चाहिए, वह ममता बैनर्जी में बिल्कुल नहीं है। बंगाल की राजनीति के तेवर इतने आक्रामक हैं कि वे केन्द्र सररकार के साथ लगातार टकराव के हैं, प्रदेश के भीतर वाममोर्चे के खिलाफ हैं, भाजपा के खिलाफ तो हैं ही, और कांग्रेस के साथ अगर कोई सीधा टकराव आज ममता का नहीं दिख रहा है, तो वह सामने खड़े लोकसभा चुनाव में एक व्यापक गठबंधन बनाने की नीयत से है, कांग्रेस के साथ समविचारक होने की वजह से नहीं।
दरअसल भारत अब गठबंधन सरकारें ही देखने जा रहा है। पहले एनडीए की सरकार रही, उसके बाद दो सरकारें यूपीए की रहीं, और अभी एनडीए की सरकार कार्यकाल पूरा करने जा रही है। ऐसे में जाहिर है कि क्षेत्रीय पार्टियों का वजन गठबंधन में खासा रहेगा, जो कि आज भी है। लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि एनडीए-यूपीए के तीन कार्यकाल के बाद देश की जनता ने बीजेपी को इतने वोट दिए थे कि मौजूदा एनडीए सरकार किसी भी और पार्टी के बिना अकेले भाजपा की भी बन सकती थी। अभी बंगाल में ममता बैनर्जी के जो तेवर भाजपा से लेकर सीबीआई तक के लिए दिख रहे हैं, और जिस तरह से वे अगले संभावित गठबंधन में एक बड़ी संभावना बनकर उभर रही है, ऐसे में देश उनको गौर से देख भी रहा है। मोदी की खामियां अपनी जगह है, लेकिन जब ममता बैनर्जी या मायावती की बात आती है, तो लोगों के बीच यह सुगबुगाहट भी होती है कि क्या ऐसे हमलावर तेवरों और अस्थिर चित्त वाले नेताओं को देश का प्रधानमंत्री बनाना ठीक होगा? ऐसे में मोदी को बिना मेहनत घर बैठे ही स्थिरता की एक साख मिल जाती है, और वह विपक्षी गठबंधन की संभावना को कम भी करती है।
लोकतंत्र में किसी नेता या पार्टी का पूरा मिजाज ही लोकतांत्रिक होना जरूरी है, वरना उनकी संभावनाएं सीमित रहती हैं। इसके खिलाफ केवल ऐसी नौबत में तर्क काम करता है जब मोदी जैसा नेता हो जो कि पार्टी से और किसी चुनाव से भी बड़ा साबित हो रहा हो। विपक्ष के गठबंधन की साख भी उसके अलग-अलग नेताओं के मिजाज और उनके कामकाज के हिसाब से ही बनेगी, इसलिए ऐसे तमाम गठबंधनों को अपने भागीदारों के भ्रष्टाचार, उनकी सनक, उनकी नफरत, इन सब पर काबू पाना चाहिए। और यह बात महज विपक्षी गठबंधन पर लागू नहीं होती है, आज देश में सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में शिवसेना एक ऐसी पार्टी है जो पिछले बरसों में लगातार केन्द्र सरकार, एनडीए, मोदी, और भाजपा के फैसलों को लेकर सार्वजनिक रूप से हमले करते आई है। गठबंधन के धर्म में महज सीटों का बंटवारा काफी नहीं हो सकता, लोगों को एक-दूसरे की साख को भी बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए। भाजपा का जो लोग विरोध करना चाहते हैं, उनको भी यह बात समझना चाहिए कि ममता बैनर्जी जैसे तेवरों का बंगाल के बाहर अधिक सम्मान भी नहीं होता क्योंकि लोग देश को चलाने वाले नेताओं के मिजाज में एक स्थायित्व भी देखना चाहते हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों को राज्य में उतरने न देकर, या उनकी सभाओं की इजाजत न देकर ममता बैनर्जी उन्हें अधिक महत्व दे रही हैं, और आने वाले चुनावों में ममता और उनके साथियों को इसका दाम भी चुकाना पड़ सकता है।

