कश्मीर में सीआरपीएफ पर हुए हमले में चूंकि एक दर्जन अलग-अलग प्रदेशों से आए हुए जवानों की एक साथ शहादत हुई है, इसलिए इन तमाम जगहों से बड़े गमगीन माहौल में ताबूतों के पहुंचने और अंतिम संस्कार होने की दिल दहलाती तस्वीरें आ रही हैं। इसके साथ-साथ यह भी आ रहा है कि किस प्रदेश ने अपने प्रदेश के शहीद के परिवार के लिए कितनी मदद मंजूर की है। यह मदद 25 लाख रूपए से लेकर एक करोड़ रूपए तक अलग-अलग प्रदेशों में अब तक देखने में आई है। किसी किस्म की राहत या मुआवजे के ऐसे कई दूसरे मामलों पर भी हम पहले लिख चुके हैं कि देश में एक किस्म की रीति-नीति रहनी चाहिए।
इसमें एक दिक्कत यह आती है कि किसी को राहत देना राज्य सरकार का अपना विशेषाधिकार रहता है। केन्द्र सरकार जिसे चाहे उसे मदद दे सकती है, और उससे परे राज्य सरकारें भी ऐसा कर सकती हैं, करती हैं। शहादत से परे भी कई बार कोई प्राकृतिक या मानवनिर्मित हादसा इतना बड़ा होता है कि उस पर केन्द्र या राज्य सरकारें, या दोनों ही, सहायता घोषित करती हैं, और देती हैं। लेकिन जब किसी एक आतंकी हमले में एक ही सुरक्षा बल के लोग एक साथ मारे जा रहे हैं, और अलग-अलग राज्य सरकारें अपने राज्य में अपनी क्षमता या अपनी नीति के मुताबिक अलग-अलग रकम की मदद कर रही हैं, तो यह फर्क खटकता है। उत्तरप्रदेश से गया हुआ जवान शहीद हो तो उसे एक करोड़, और झारखंड से गया हुआ शहीद हो तो उसे 25 लाख जैसा फर्क राज्यों का विशेषाधिकार तो है, लेकिन यह देखने-सुनने में भी अच्छा नहीं लगता है। इसलिए हमने इसी कॉलम में एक बार पहले भी यह सुझाया था कि सहायता, राहत, या मुआवजा की रकम को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एक आम सहमति बननी चाहिए, ताकि इंसानी जान की अलग-अलग कीमत लगाने जैसी तस्वीर न बने। इसी के साथ जुड़ी हुई एक दूसरी बात यह है कि सड़क हादसों में या रेल हादसे में जब कोई एक-दो लोग मरते हैं, तो किसी राहत की घोषणा नहीं होती। लेकिन जब किसी एक हादसे में बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं, तो उनमें से हर किसी के लिए राहत राशि की घोषणा होती है। सरकारी नियमों और कानून के मुताबिक जहां सरकार की जिम्मेदारी बनती है, वहां मुआवजा देना तो ठीक है, और वह तो हर किसी को बराबरी से मिलता है, लेकिन राहत या सहायता तो हादसे में मारे गए 25 लोगों को अगर मिल रही है, तो वह एक को भी मिलनी चाहिए। इससे जुड़ी हुई एक और बात यह भी है कि किसी भी तरह की राहत या सहायता लोगों को जरूरत के मुताबिक मिलनी चाहिए। जो संपन्न तबके के लोग हैं, उनको किसी हादसे के बाद भी क्यों कोई राहत मिलनी चाहिए? कानूनी मुआवजा अलग है, उसके लिए नियम-कानून बने हुए हैं, लेकिन जनता के पैसों से जब राहत या सहायता दी जाती है, तो वह परिवार की जरूरत को देखते हुए ही दी जानी चाहिए। अभी सीआरपीएफ के जो जवान मारे गए हैं, वे बहुत ही जूनियर कर्मचारी हैं, और उनका परिवार ऐसी राहत का हकदार हैं। लेकिन यहां पर सवाल यह भी आता है कि इन जवानों के परिवारों को सीआरपीएफ के नियमों के मुताबिक मुआवजा तो मिलना ही है, उसके बाद उन्हें जो राहत दी जा रही है, वैसी ही राहत किसी एक अकेले सिपाही या सैनिक की मौत होने पर भी क्यों नहीं दी जाती?
इसलिए दिल दहलाने वाली बड़ी खबरों से प्रभावित होकर आनन-फानन बड़ी-बड़ी राहत की घोषणा के बजाय केन्द्र और राज्य सरकारों को यह करना चाहिए कि एक न्यायसंगत, और तर्कसंगत तरीके से मुआवजा, राहत, या सहायता की राष्ट्रीय नीति मिलकर तय करें, और खबरों से उफनती भावनाओं को राहत राशि कम या अधिक करने का मौका न दें। दूसरी बात यह कि देश के मोर्चे पर या राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों में काम करते हुए शहादत पर परिवार को मिलने वाली मदद ऐसी न रहे कि एक प्रदेश दूसरे से आगे बढ़कर वाहवाही पाने के लिए कुछ करे। पूरा देश एक सरीखा रहना चाहिए, और राज्यों को एक समान बर्ताव करने के लिए एक नीति राष्ट्रीय स्तर पर बनानी चाहिए।