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[TODAY छत्तीसगढ़ ] /  आदिवासियों को अशिक्षा के अन्धकार से बाहर धकेलते उस संत पर आखिरकार सरकार की नज़र पड़ ही गई, पिछले दिनों सूबे की राजधानी से निकले सरकारी फरमान को तामील कराने कुछ प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारी ग्राम लमनी [अचानकमार टाइगर रिजर्व] पहुंचे। सरकार के उस खत में डाक्टर  पीडी खेरा के सम्मान का जिक्र था जो मुझ जैसे कइयों के लिए ख़ुशी के साथ गर्व की बात थी। पिछले तीन दशक से अचानकमार टाइगर रिजर्व के जंगल में वानप्रस्थ जीवन व्यतीत कर रहे डॉ पीडी खेरा को कल गाँधी जयंती के मौके पर राजधानी रायपुर में कार्यान्जलि पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार राज्य सरकार ने उन लोगों को देने की मंशा बनाई है जो समाज में अनुकरणीय कार्य करते हुए उसे एक नई दिशा दे रहे हैं। इस सम्मान पर पहला नाम डॉ पीडी खेरा का जुड़ा। मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह ने डॉ पीडी खेरा का सम्मान करते हुए उनके छपरवा स्कूल के लिए बीस लाख रूपये की राशि भी दी । इतना ही नहीं मुख्यमंत्री ने डॉ पीडी खेरा को आस्वस्त किया की वनांचल में उनके द्वारा जलाई गई शिक्षा की अलख का प्रकाशपुंज हमेशा जगमगाता रहेगा। उन्होंने मंच से ऐलान की डॉ पीडी खेरा का स्कुल अब राज्य सरकार की जिम्मेदारी होगी। उस स्कुल का संचालन राज्य का स्कुल शिक्षा विभाग करेगा जिसका आदेश जल्द ही उन तक पहुँच जायेगा। 
कौन हैं डाक्टर खैरा -
डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा, आज वे उम्र के नौ दशक से ज्यादा का सफर पूरा कर चुकें हैं लेकिन आज भी उनके भीतर जिंदगी जीने का मकसद साफ़ दिखाई पड़ता है। वैसे तो ज़िंदा सब हैं, मगर जीने के मकसद कम ही लोगों के पास हैं। फिर जो जिंदगी मिली उसे सिर्फ अपने या अपनों के लिए गुजार देना शायद कोई लक्ष्य प्राप्ति नहीं। 'दिल्ली वाले साब' जिनका आज भी एक ही लक्ष्य है, बैगा आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में आगे आएं। वो लोग विकास की मुख्य धारा से जुड़ें ताकि समाज को एक नई पहचान मिल सके, हालांकि 25 बरस आदिवासियों के बीच रहकर इस लक्ष्य को काफी हद तक डॉक्टर साहब हासिल कर चुके हैं। 
अचानकमार टाइगर रिजर्व के लमनी वन ग्राम को अपनी कर्मस्थली बना चुके डॉक्टर खैरा वानप्रस्थ जीवन जी रहें हैं। नब्बे के दशक में 'दिल्ली वाले साब' अति पिछड़े इस इलाके में आये, उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान को करीब से देखा-समझा। उन्होंने जंगल में जन्में और वहीँ ख़ाक हो जाने वाले आदिवासियों की पीड़ा महसूस की, उन्हें लगा सरकारें सिर्फ इनका विकास के नाम पर शोषण कर रहीं हैं। अशिक्षा के अन्धकार में जिंदगी बिना मकसद सिर्फ शोषण और तंगहाली का शिकार थी। डॉक्टर खैरा ने शुरुआत की, उन्होंने धीरे-धीरे आदिवासियों के बीच रहना सीखा, उनकी भाषा, उनकी जीवन शैली में वो घुलते चले गए। वैसे तो आदिवासियों के बीच जिंदगी को एक नई पहचान देने वाले डॉक्टर खैरा की निजी दास्ताँ कम संघर्षपूर्ण नही है। सन 1928 में लाहौर [पाकिस्तान] में जन्मे डॉक्टर खैरा की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा लाहौर में ही हुई। सन 1947 में भारत विभाजन का दंश झेल चुका डॉक्टर खैरा का परिवार दिल्ली आ गया। हिन्दू राव विश्विद्यालय दिल्ली से समाजशास्त्र में मास्टर डिग्री और 1971 में पीएचडी की उपाधि डॉक्टर खैरा ने हासिल की। दिल्ली विश्विद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप उन्होंने अपनी सेवाएं दी। इसी बीच सन 1965 में माता जी के निधन की खबर से डॉक्टर खैरा टूट गए, एकदम अकेले हो गए। माँ के गुजर जाने के बाद अविवाहित खैरा ने फिर जिन्दगी अकेले ही काटने की ठान ली। डॉक्टर खैरा पहली बार सन 1983 -1984 में दिल्ली विश्विद्यालय से समाजशास्त्र विभाग के छात्रों को लेकर मैकल पर्वत श्रृंखला से घिरे अचानकमार-लमनी के जंगलों में आये। यहा की सुरम्य वादियों की गूँज डॉक्टर खैरा के मन-मस्तिष्क में घर कर गई। वर्ष 1993 में सेवानिवृति के बाद डॉक्टर खैरा लमनी के जंगल में आकर अति पिछड़े आदिवासियों के बीच रहने की कोशिश में जुटे। शुरुवात के तीन बरस डॉक्टर खैरा के लिए बहुत कठिन थे, आदिवासियों के बीच एक ऐसी मानवकाया रहना शुरू कर चुकी थी जिसका मकसद, काम और बोली अशिक्षित आदिवासियों के लिए भिन्न थी। लेकिन यहाँ के आदिवासियों का भोलापन,उनकी संस्कृति में डॉक्टर खैरा धीरे-धीरे ऐसे घुले की बस यही के होकर रह गये। अब डॉक्टर खैरा वानप्रस्थी के रूप में आदिवासियों के साथ जंगल में जनचेतना का शंखनाद कर रहे है। 
आदिवासियों के शैक्षणिक और सामाजिक उन्नति के साथ उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये डॉक्टर खैरा अपनी पूरी उर्जा झोंक चुके है। उन्होंने अपने प्रयास से वनग्राम छपरवा में साल 2008 में अभ्यारण्य शिक्षण समिति की नीव रखी जहां आस-पास के करीब 8 गाँवों के आदिवासी बच्चे शिक्षा की जलती अलख में उजाले की तलाश में जुटे हैं। 
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