महाराष्ट्र का पिछले एक महीने का हाल देखें, तो ऐसा लगता है कि भारत की संसदीय व्यवस्था में कुछ बुनियादी फेरबदल करने की जरूरत है। इस देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव तो पहले ही गैरजमीनी मुद्दों को उठाकर, लोगों को भड़काकर, खरीद-बेचकर, और पैसों की ताकत पर लड़कर सदन तक पहुंचने वाले हो गए थे। यह सब कुछ अब और भी ऊंचे, या नीचे, दर्जे का होने लगा है। लेकिन इसके साथ-साथ अब जीते हुए विधायकों, जीते हुए गठबंधन, जीती हुई पार्टियों को जिस तरह से जोडऩा और तोडऩा चल रहा है, जिस तरह से घोड़ों को बदनाम करते हुए हार्स ट्रेडिंग जैसा शब्द बदनाम सांसदों और विधायकों की मंडी के लिए इस्तेमाल हो रहा है, वह एक बड़े आमूलचूल फेरबदल की मांग कर रहा है। अब देश की जनता की नजरों में यहां की बनने वाली सरकारें सिवाय हिकारत के किसी और का सामान नहीं हैं। अब लोग इतने लतीफे और इतने कार्टून बना-बनाकर चारों तरफ फैला रहे हैं कि वह लोकतंत्र से उनके मोहभंग का एक बड़ा सुबूत भी है। ऐसी हालत में देश के संविधान को जिंदा रखने में भरोसा रखने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि कैसे यह काम किया जा सकता है। इस देश ने पिछले दो-तीन चुनावों में जिस दर्जे की तिकड़मों को देखा है, उनकी कोई कल्पना संविधान बनाने वालों ने शायद की नहीं होगी, और इसीलिए संविधान में इन तिकड़मों से बचने का कोई जरिया नहीं है। जब जुर्म से ही सदन तक जाने का रास्ता बनने लगा है, तो उस रास्ते को बंद करके कोई दूसरा रास्ता बनाना चाहिए, या नहीं? आज जिस तरह से सरकार बनाने के पहले ही आसमान छूती हुई भ्रष्ट खरीद-बिक्री हो रही है, उससे यह तो जाहिर है ही कि सरकार बनने के बाद इस लागत को कैसे निकाला जाएगा, और जनता के हक कहां-कहां कुचले जाएंगे। आज भारत की संसदीय चुनाव व्यवस्था पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है, और कस्तूरबा गांधी के मरने के वक्त जिस पेनिसिलिन के इंजेक्शन को गांधी ने उन्हें लगने नहीं दिया था, उस इंजेक्शन से आज की भारतीय लोकतंत्र की बीमारी ठीक होते दिख नहीं रही है। तब से अब तक एंटीबायोटिक की कई पीढिय़ां आकर चली गई हैं, और भारतीय लोकतंत्र को भी उससे उबरना होगा, आगे बढऩा होगा, और बचाव के लिए नई दवाईयां या नए इलाज को ढूंढना होगा।
भारत में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव जिस तरह आज पैसों, और जुर्म के काले पैसों, टैक्स की चोरी के पैसों, और भ्रष्टाचार के पैसों का खेल हो गया है, उसे देखते हुए इसका इलाज ढूंढना होगा। आज जिस तरह धर्म और जाति के भड़कावे पर चुनाव लड़े जा रहे हैं, जिस तरह सदनों में पहुंचे हुए लोग नफरत फैलाने को अपना पेशा बना चुके हैं, उसे भी रोकने और खत्म करने के लिए कोई इलाज ढूंढना होगा। फिर चुनाव के दौरान का वक्त, चुनाव के बाद सरकार बनाने का तरीका और वक्त, और दलबदल कानून का फायदा उठाते हुए थोक में दलबदल करवाने की आम हो चली तकनीक को खत्म करने की कोई दवाई ढूंढनी होगी। आज कितने ऐसे चुनाव हैं, और कितनी ऐसी सरकारें हैं जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे लोकतंत्र के रास्ते चुनकर आई हैं, और लोकतांत्रिक हैं? यह सिलसिला तोडऩा होगा ठीक उसी तरह जिस तरह कैंसर से घिरी हुई किसी देह से कैंसर को खत्म करने के लिए दवा भी दी जाती है, रेडिएशन से भी इलाज होता है, और जरूरत पडऩे पर सर्जरी भी की जाती है। आज भारत की संसदीय निर्वाचन प्रणाली, और यहां की संसदीय व्यवस्था, ये दोनों ही ऐसे बुरे लाइलाज कैंसर की शिकार हैं कि इन्हें जिंदा रखने के लिए इन तीनों किस्मों के इलाज की जरूरत है, और इससे परे भी कुछ और तरह के इलाज की जरूरत पड़ सकती है। यह नौबत बहुत ही गंभीर है, और यह रास्ता लोकतंत्र को खत्म करके एक तानाशाही की तरफ जा सकता है, देश में अराजकता खड़ी कर सकता है, और देश को बेच देने जैसी नौबत भी ला सकता है। यह नौबत बुनियादी फेरबदल की मांग कर रही है, और सत्ता पर बैठे लोग चूंकि ऐसे किसी फेरबदल के हिमायती कभी नहीं होंगे इसलिए जनता के बीच से, छात्रों के आंदोलन से ही ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है। पिछले बरसों में दुनिया में जहां-जहां फेरबदल हुए हैं, वे व्यापक जनआंदोलनों और छात्र आंदोलनों के रास्ते से ही हुए हैं। क्या हिन्दुस्तान कोई उम्मीद कर सकता है ?
[दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय, 25 नवंबर]
[दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय, 25 नवंबर]