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महाराष्ट्र के गठबंधन से हुई शुरूआत बाकी देश में भी...

अब जब महाराष्ट्र में एक सरकार बनना तय हो गया है, और अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहने और मानने वाली कांग्रेस पार्टी एक घोर हिन्दूवादी शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रही है, और इन दोनों के बीच में महाराष्ट्र के सबसे बड़े नेता शरद पवार की पार्टी, एनसीपी, गठबंधन की बुनियाद है, तो कई सवाल खड़े हो रहे हैं। शरद पवार के भतीजे और दो दिन उपमुख्यमंत्री रहे अजित पवार को लेकर ये सवाल खड़े ही हुए हैं कि उन पर भ्रष्टाचार की जितनी तोहमतें लगी हैं उनका क्या होगा? दूसरी तरफ यह खबर भी दिलचस्प थी कि दो दिन के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस के रहते हुए महाराष्ट्र के भ्रष्टाचार निवारण ब्यूरो ने अजित पवार के खिलाफ दर्ज बहुत से मामले वापस ले लिए थे। अब नई गठबंधन सरकार इस फैसले को जारी रखकर अजित पवार को मुकदमों से बचा भी सकती है और यह कह भी सकती है कि यह तो भाजपा के मुख्यमंत्री के लिए गए फैसले हैं। लेकिन देश भर में जो बुनियादी सवाल उठ रहे हैं, वे धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता को लेकर हैं। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने बाबरी मस्जिद को गिराने की पूरी जिम्मेदारी और पूरी वाहवाही खुद होकर ली थी, और उस वक्त देश में कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार थी जिसे कि मस्जिद के ढांचे की हिफाजत न कर पाने का जिम्मेदार माना गया था। वक्त ऐसा बदला है कि ये दोनों पार्टियां आज महाराष्ट्र की सरकार में एक होने जा रही हैं। शायद ऐसे ही वक्त के लिए यह कहा जाता है कि राजनीति में हैरान कर देने वाले हमबिस्तर होते हैं, और राजनीति में कभी नहीं शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा को दो दिन के लिए सरकार में आने का मौका मिला इसलिए था कि एनसीपी-शिवसेना-कांग्रेस को गठबंधन की बुनियाद तय करने में वक्त लग रहा था। सार्वजनिक रूप से जो कहा गया है उसके मुताबिक तीनों पार्टियां मिलकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार कर रही थीं, और उसमें वक्त लगना जायज था। राजनीति के विश्लेषक वैसे भी कर्नाटक में कांग्रेस की गठबंधन सरकार के ताजा इतिहास को गिनाते हुए महाराष्ट्र को लेकर अपनी आशंकाएं बता रहे हैं, और ऐसे में यह समझना जरूरी है कि कांग्रेस को गठबंधन तोडऩे वाली पार्टी की अपनी छवि से उबरना भी होगा। लेकिन एक दिलचस्प बात यह है कि शरद पवार की शक्ल में महाराष्ट्र में इस गठबंधन के एक इतने बड़े नेता मौजूद हैं जो कि कांग्रेस की आज की अध्यक्ष सोनिया गांधी के भरोसे के हैं, और जिनकी उद्धव ठाकरे पर भी खासी पकड़ है। ऐसे में पवार की शक्ल में एक ऐसी धुरी मौजूद है जिसके इर्द-गिर्द इन तीनों पार्टियों के टकराव या सरकार के कई मुद्दे सुलझ सकते हैं, और शायद सुलझ भी जाएंगे। पवार इस उम्र और ऐसी सेहत में भी न सिर्फ अपनी पार्टी, बल्कि इस गठबंधन की बाकी पार्टियों पर भी जितना वजन रखते हैं, वह इस गठबंधन सरकार की लंबी जिंदगी में मददगार बात हो सकती है।

महाराष्ट्र को लेकर कांग्रेस और शिवसेना दोनों पर बहुत से तंज कसे जा सकते हैं, और हम भी उसका मजा ले ही रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि जनता ने जब एक ऐसा मिलाजुला फैसला दिया था, और सत्तारूढ़ चले आ रहे गठबंधन के भीतर गंभीर मतभेद थे, जिन्हें कि कोई सुलझा नहीं पा रहा था, तो वैसे में दो ही विकल्प थे। या तो प्रदेश फिर से एक चुनाव में जाता, जिससे कि कोई हल निकलने की गारंटी नहीं दिख रही थी, और दूसरी बात प्रदेश की पार्टियां मिलकर कोई संभावना खड़ी करतीं। आज महाराष्ट्र का गठबंधन ऐसी ही तीन पार्टियों की संभावना लेकर सामने आया है, और इसे साम्प्रदायिकता के मुद्दों को अलग रखकर एक अच्छी सरकार चलाना चाहिए ताकि देश में बाकी प्रदेशों में भी क्षेत्रीय दल और राष्ट्रीय दल मिलकर बेहतर विकल्प बन सकें। अभी दो दिनों से भारत के प्रदेशों पर काबिज पार्टियों का जो नक्शा चारों तरफ फैल रहा है वह दिलचस्प है कि किस तरह भाजपा का कब्जा सिमटा है, और गैरभाजपाई कब्जा बढ़ा है। यह बात तय है कि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इस बात को लेकर फिक्रमंद होगा, लेकिन यह बात भी तय है कि पिछले पांच-छह बरस में भाजपा की अगुवाई में चल रही मोदी सरकार ने पूरे देश की जनता को निराश करने के बहुत सारे फैसले और बहुत सारे काम सामने रखे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र का यह गैरभाजपाई-गैरएनडीए गठबंधन बाकी देश के लिए एक शुरूआत हो सकता है, और लोकतंत्र की सेहत के लिए ऐसी संभावनाएं हमेशा ही जनता के सामने रहनी चाहिए। 
[दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय, 27 नवंबर]
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