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...कुछ अपनी मिसालों से सीखें, और कुछ विदेशी मिसालों से भी

हिन्दुस्तान अंग्रेजों का गुलाम रहा इसलिए आजाद होने के बाद भी यह देश अंग्रेजों के देश, उसकी भाषा, उसकी पोशाक और तहजीब से अधिक जुड़ा रहा। इसलिए वहां होने वाली खबरों पर हिन्दुस्तानियों का ध्यान अधिक जाता है। अभी वहां के एक पुराने और दुनिया के प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की खबर है कि एक कॉलेज के डाइनिंग हॉल में लगी हुई 17वीं सदी की एक महत्वपूर्ण पेंटिंग को हटा दिया गया क्योंकि उसमें मांस के बाजार का चित्रण था, और शाकाहारी छात्र-छात्राओं को उससे दिक्कत होती थी, खाते समय यह पेंटिंग देखना उनके लिए तकलीफ की बात थी।

लोकतंत्र में दुनिया की अलग-अलग सभ्यताएं एक-दूसरे से बहुत कुछ सीख भी सकती हैं। एक-दूसरे को किस तरह बर्दाश्त किया जाए, किस तरह एक-दूसरे का सम्मान किया जाए, यह बात जहां से भी सीखने मिले लोगों को सीखनी चाहिए। हिन्दुस्तान में बहुत से धर्मोँ और जातियों के लोग कभी धार्मिक स्थान पर पशु-पक्षियों की बलि देते थे, कभी रिहायशी इलाकों में भी जानवरों को काट देते थे, वह सब धीरे-धीरे कानून, या स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था के तहत कम होता गया, अब तकरीबन बंद सा हो गया है। सरकार से परे भी कुछ ऐसे निजी संस्थान रहे हैं जिन्होंने इस बात के लिए खासी आलोचना झेली कि वे अपने कर्मचारियों को दफ्तर की कैंटीन में मांसाहार नहीं करने देते। देश का एक प्रमुख अखबार, द हिन्दू, इस बात के लिए आलोचना का शिकार रहा, लेकिन उसने अपने शाकाहारी कर्मचारियों का ध्यान रखते हुए खाने के वक्त अरूचि पैदा न होने देने के लिए इस नियम को कड़ाई से लागू किया। 

शाकाहार के हिमायती लोगों का यह तर्क है कि मांसाहारी तो शाकाहार करते ही हैं, लेकिन शाकाहारी लोग मांसाहार नहीं करते। और खानपान का यह तरीका महज किसी जाति या धर्म से जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि प्राणियों के जीवन को लेकर इंसानों की सोच से भी जुड़ा हुआ है, और आमतौर पर जिन जाति-धर्मों के लोग मांसाहारी होते हैं, उनके बीच भी कई लोग अपनी पसंद से शाकाहारी हो जाते हैं। हिन्दुस्तान में अगर उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों में जाएं, जैसे मिजोरम में सौ फीसदी लोग मांसाहारी हैं, और वहां स्कूलों में दोपहर के भोजन में बिना गोश्त वाला कोई खाना नहीं बनता। और गोश्त भी ऐसे जानवरों का रहता है जिनमें से कोई किसी धर्म को मंजूर नहीं है, तो कोई किसी दूसरे धर्म को। लेकिन वहां की सरकारी स्कूलों में भी बिना मांसाहार के कोई खाना नहीं रहता, और वहां यह मुद्दा भी नहीं रहता क्योंकि शायद कोई भी शाकाहारी नहीं है। 
लेकिन इस मुद्दे पर आज चर्चा महज खानपान तक सीमित रखने का कोई इरादा नहीं है। जिंदगी के बाकी पहलुओं में भी लोगों के बीच फर्क रहता है, सोच का भी, रीति-रिवाज का भी, और भाषा-पहरावे का भी। हिन्दुस्तान में इन दिनों लोकतंत्र की शक्ल कुछ ऐसी दिखती है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा महज अपने हक और बाकियों की जिम्मेदारी की व्यवस्था चाहता है। जबकि सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी और बाकियों के हक के सम्मान से ही चलती है। हम हिन्दुस्तान की और किस्मों की बारीक मिसालों में जाना नहीं चाहते, लेकिन सभी धर्मों और जातियों के लोगों को, सभी संस्कृतियों और सोच के लोगों को दूसरों का सम्मान करना भी आना चाहिए, करना चाहिए। इसके बिना यह देश बहुत बुरे किस्म के टकराव का शिकार हो चुका है, और हिन्दुस्तान का नक्शा सूबों की सरहदों में तो वैसा ही दिख रहा है, लेकिन इन सरहदों के भीतर समाजों में नई सरहदें खड़ी होती जा रही हैं जो कि इस देश के न केवल मिजाज के खिलाफ हैं, बल्कि इस देश की जरूरतों के भी खिलाफ हैं। यह देश इंसानों के बीच की खाई और दीवारों के रहते हुए आगे बढ़ नहीं सकता, बल्कि वहीं के वहीं खड़ा भी नहीं रह सकता। हाल के बरसों में हिन्दुस्तान की चौपट हुई अर्थव्यवस्था से लोग समाज के इस विघटन को जोड़कर अभी शायद देख नहीं पा रहे हैं, लेकिन इन नई खाईयों ने दसियों लाख रोजगार खत्म किए हैं, दहशत खड़ी की है, और आर्थिक विकास की संभावनाओं को सीमित भी किया है। देश की संस्कृति, देश में सद्भाव, देश की एकता का अर्थव्यवस्था से भी रिश्ता रहता है, हालांकि उसे आंकड़ों में तुरत-फुरत तौला नहीं जा सकता। भारत के लोगों को देश के भीतर भी जगह-जगह से बर्दाश्त और सद्भावना की मिसालें मिलती हैं, और उनसे भी सीखना चाहिए, साथ-साथ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के इस मामले में जो सद्भावना देखने मिली है, उसको भी देखकर अपने आपको भी देखना चाहिए। 
[दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय, 22 नवंबर]
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