Slider

जेएनयू पर चारों तरफ चर्चा के बीच अपने राज्य के विवि देखें?

इन दिनों देश में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय खबरों में सबसे अधिक बना हुआ है। जिन लोगों ने इसके कैम्पस को देखा नहीं है, उन्हें यह जानकर हैरानी हो सकती है कि पूरी दुनिया में भारत के सबसे अधिक चर्चित इस विश्वविद्यालय में दस हजार से भी कम छात्र-छात्रा हैं। उनकी गिनती कम है, लेकिन देश में सरकारी नौकरी के सबसे बड़े इम्तिहान, यूपीएससी, में कामयाबी पाने वालों में इसी एक विश्वविद्यालय के लोग सबसे अधिक रहते हैं। शिक्षा की उत्कृष्टता आकार पर हावी है, तमाम आंदोलनों के बावजूद यहां के छात्र-छात्राएं और रिसर्च स्कॉलर खुले दिमाग से पढ़ते हैं, काम करते हैं, वैचारिक सहमति-असहमति का सम्मान करते हैं, और अपनी सोच को विकसित करते हैं। जेएनयू का योगदान गिनती में कम है, लेकिन उत्कृष्टता में बहुत अधिक है। एक विश्वविद्यालय को ऐसा होना भी चाहिए कि उसकी पढ़ाई-लिखाई, वहां के शोधकार्य का विश्व के लिए कोई महत्व हो, और जहां के नौजवान एक विश्व दृष्टि रखने को विदेशी संस्कृति का हमला न मानें। जैसा कि किसी विश्वविद्यालय के नाम से ही जाहिर होता है, उसका नजरिया पूरे विश्व का होना चाहिए, वहां की पढ़ाई-लिखाई लोगों को बाहर देखने के काबिल भी बनाए, और बाहर की दुनिया को समझने के भी। वरना कमोबेश उसी किस्म की पढ़ाई तो किसी कॉलेज में भी हो सकती है, और विश्वविद्यालय में अलग से किसी अध्ययन केन्द्र की जरूरत ही क्यों होना चाहिए?
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में एक खबर आई कि रायगढ़ जिले में एक नया विश्वविद्यालय खुलने वाला है। पिछले दो बरस में ही दुर्ग में एक विश्वविद्यालय खोला गया। इस तरह अब राज्य में बस्तर संभाग के पास अपना एक विश्वविद्यालय है, रायपुर संभाग के पास एक, दुर्ग संभाग के पास एक, सरगुजा संभाग के पास एक, और बिलासपुर संभाग में अभी तो एक विश्वविद्यालय है, और दूसरे के खुलने की बात कही गई है। एक वक्त था जब मध्यप्रदेश भी नहीं बना था, और उस वक्त मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ का सारा इलाका सागर विश्वविद्यालय के तहत आता था। उच्च शिक्षा के लिए सरगुजा का बिहार और उत्तरप्रदेश को छूता हुआ इलाका भी सागर पर निर्भर करता था। बाद में कई विश्वविद्यालय बने, और छत्तीसगढ़ में कई निजी विश्वविद्यालय भी मुख्यमंत्री अजीत जोगी के कार्यकाल में बने, सुप्रीम कोर्ट से खारिज हुए, और फिर बाद में नए नियमों के तहत फिर से बने। आज अगर इस राज्य में विश्वविद्यालयों की गिनती करने बैठें, तो खासी मुश्किल होती है क्योंकि चिकित्सा शिक्षा के लिए अलग विश्वविद्यालय है, तकनीकी शिक्षा, कृषि शिक्षा, पत्रकारिता शिक्षा, के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालय हैं, और एक ओपन विश्वविद्यालय भी है, बिलासपुर में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय भी है, और केन्द्र सरकार के यहां शुरू हुए तीन संस्थान तो विश्वविद्यालय की बराबरी का दर्जा रखते ही हैं, आईआईएम, आईआईटी, और एम्स। करीब आधा दर्जन निजी विश्वविद्यालय भी इस राज्य में काम कर रहे हैं, और केन्द्र सरकार के इग्नू जैसे खुले विश्वविद्यालय से भी छत्तीसगढ़ से हजारों लोग पढ़ाई करते हैं, और इम्तिहान देते हैं। इन सबको मिलाकर एक विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं की औसत संख्या घटती चली गई है।
छत्तीसगढ़ में एक वक्त रविशंकर विश्वविद्यालय पहला था, और पूरे प्रदेश के कॉलेज छात्र-छात्राओं के इम्तिहान यहीं से होते थे, डिग्री यहीं से मिलती थी, और रायपुर में इस विश्वविद्यालय का अध्ययन केन्द्र था। बाद में अलग-अलग संभागीय विश्वविद्यालय बनते चले गए, और इस पहले अध्ययन केन्द्र से परे भी कई केन्द्र बन गए। यह याद रखने की जरूरत है कि छत्तीसगढ़ में सरकारी कॉलेजों में भी प्राध्यापकों के सैकड़ों पद खाली हैं, और विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की जितनी जगहें हैं, उन पर भी बहुत औसत दर्जे के ही प्राध्यापक दिखते हैं। पूरे राज्य के सारे विश्वविद्यालयों को मिला भी लें, तो भी ऐसे गिनती के भी प्राध्यापक नहीं हैं जिनकी लिखी हुई किताबें बाकी देश में भी कहीं कोर्स में चलती हों। गिने-चुने ऐसे प्राध्यापक हैं जिनकी की हुई, या करवाई हुई रिसर्च का कोई अंतरराष्ट्रीय सम्मान हुआ हो। बल्कि प्रदेश के अकेले विश्वविद्यालय अध्ययन केन्द्र में अध्ययन और शोधकार्य की, सुविधाओं और लाइब्रेरी-प्रयोगशाला की जो उत्कृष्टता थी, या हो सकती है, वह भी हर संभाग में खुले विश्वविद्यालयों की वजह से घट गई। न प्राध्यापक बहुत ऊंचे दर्जे के, और न ही वहां की सहूलियतें।
दरअसल इस राज्य में पिछले दशकों में क्षेत्रीय गौरव की भावना को पहले उकसाकर, और फिर उसे संतुष्ट करने के लिए विश्वविद्यालय खोले गए, क्षेत्रीय विश्वविद्यालय भी बनाए गए, और खास किस्म की शिक्षा के लिए भी। जहां पर छात्र-छात्राओं को सिर्फ विश्वविद्यालय के प्रशासनिक कामों से वास्ता पड़ता था, जहां सिर्फ एक प्रशासनिक दफ्तर से ऑनलाईन काम चल सकता था, वहां भी सैकड़ों करोड़ की लागत वाले, और करोड़ों रूपए महीने के खर्च वाले विश्वविद्यालय बना दिए गए। नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रीय तुष्टिकरण तो हो गया, लेकिन उत्कृष्टता घटती चली गई। हालत यह है कि इस राज्य के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में महज कुछ सौ छात्र-छात्राओं का दाखिला है, जिनमें से बहुत से दाखिले दूसरे प्रदेश से आकर दाखिला लेने वालों के सिर्फ कागजी दाखिले हैं। इतनी पढ़ाई तो प्रदेश के पहले विश्वविद्यालय के मातहत कॉलेजों में भी पत्रकारिता विभाग में हो सकती थी, इतना बड़ा सफेद हाथी खड़ा करने की जरूरत नहीं थी। 
प्रदेश के संभागों से अधिक क्षेत्रीय विश्वविद्यालय बन जाने के बाद अब बाकी संभागों में भी जिला स्तरों पर और विश्वविद्यालय खोले जा सकते हैं, और आखिर में जाकर प्रदेश में विश्वविद्यालयों का एक विश्वविद्यालय और खोला जा सकता है। गिनती और उत्कृष्टता का रिश्ता खत्म हो चुका है, और यही वजह है कि इस राज्य की उच्च शिक्षा देश में कहीं दर्ज नहीं होती। [दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय, 16 नवंबर]

© all rights reserved TODAY छत्तीसगढ़ 2018
todaychhattisgarhtcg@gmail.com