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अयोध्या में मध्यस्थता की सुप्रीम कोर्ट की कोशिश साख खो बैठी है क्योंकि..

सुप्रीम कोर्ट ने दशकों से चले आ रहे अयोध्या विवाद में एक नई शुरुआत करते हुए तीन मध्यस्थ तैनात किए हैं जो कि अदालत से बाहर बैठकर अगले कुछ हफ्तों में इसे सुलझाने की कोशिश करेंगे। ऐन चुनाव के वक्त के इन हफ्तों में ही होने वाली यह मध्यस्थता चुनावों को कैसे प्रभावित करेगी, यह अंदाज लगाना अभी मुश्किल है। दूसरी बात यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस कार्रवाई को मीडिया से परे रखने को कहा है, लेकिन दुनिया का तजुर्बा यही है कि जब-जब कोई बात मीडिया से परे रखी जाती है, तब-तब अफवाहें पनपने और फैलने का खतरा बढ़ जाता है। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से झूठ और अफवाह फैलाने के लिए परंपरागत मीडिया की किसी को जरूरत रह भी नहीं गई है। लेकिन इससे परे की एक और बात भी है जो सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर हैरान करती है। अदालत ने जो तीन मध्यस्थ बनाए हैं उसमें एक रिटायर्ड मुस्लिम जज हैं, एक रिटायर्ड हिन्दू पेशेवर कानूनी मध्यस्थ हैं, और तीसरा नाम आर्ट ऑफ लिविंग के चर्चित और विवादास्पद गुरू, स्वघोषित श्रीश्री रविशंकर का है। हैरानी इस बात पर है कि पिछले बरसों में रविशंकर ने खुलकर एक खास राजनीतिक दल की मदद करने वाले बयान दिए, उसके विरोधी दल की सरकारों के भ्रष्टाचार पर ही सीमित निशाने वाली सर्जिकल स्ट्राईक की, अपने खुद के आश्रम वाले प्रदेश और शहर में भाजपा की सरकार के बड़े चर्चित भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह भी नहीं खोला। हिन्दू धर्म से जुड़े हुए आध्यात्म के साथ-साथ वे एक हिन्दूवादी पार्टी से गहरे संबंधों के लिए जाने जाते हैं, और ऐसे में उनका चुना जाना बड़ा अटपटा फैसला है। लोगों को याद होगा कि रविशंकर ने जिस अंदाज में दिल्ली की यमुना के किनारे नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से टकराव लेते हुए, उसे चुनौती देते हुए, उसके हुक्म को पांवोंतले कुचलते हुए अपना कार्यक्रम किया था, जिसमें यमुना के तट को बर्बाद किया था, जिस पर उन्हें एक बड़ा जुर्माना सुनाया गया था, और उन्होंने एक बागी तेवर सामने रखा था कि वे चाहे जेल चले जाएं, वे जुर्माना नहीं पटाएंगे। और अब ऐसे रविशंकर को मध्यस्थ बनाकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पसंद की विश्वसनीयता को मिट्टी में मिला दिया है। यह नाम दूर तक विवाद खड़ा करेगा, और इस नाम से पूरी तरह बचना चाहिए था। आज जब देश अगले कुछ हफ्तों में चुनावों में जा रहा है, आज-कल में ही चुनाव की घोषणा होने जा रही है, तब एक पार्टी से गहरे रिश्ते रखने वाले ऐसे हिन्दू-आध्यात्मिक नेता को मध्यस्थ मनोनीत करके सुप्रीम कोर्ट ने एक गलत पसंद की है, और हो सकता है कि इसके लिए उसे आगे जाकर अफसोस भी करना पड़े। 
अभी जब हम इस बात को लिख ही रहे हैं, उसके बीच ही यह खबर आने लगी है कि अयोध्या विवाद के एक पक्ष, निर्मोही अखाड़ा के महंत सीताराम दास ने रविशंकर को मध्यस्थ बनाने का विरोध किया है, और कहा है कि राम मंदिर पर राजनीति नहीं कानूनी समाधान चाहिए। दूसरी तरफ एक मुस्लिम पार्टी के अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी इस नाम पर हैरानी जाहिर करते हुए कहा है कि वे राम मंदिर पर पहले बयान दे चुके हैं, उसके बाद उन्हें कैसे मध्यस्थ बनाया गया है? इन दो बयानों के अलावा इंटरनेट पर कुछ गंभीर समाचार-विचार वेबसाईटों ने भी सुप्रीम कोर्ट की इस पसंद पर हैरानी जाहिर की है और याद दिलाया है कि वे इस विवाद पर पहले से अपने विचार सामने रख चुके हैं, और यह बात कह चुके हैं कि मुस्लिमों को सद्भावना के एक कदम के रूप में अयोध्या पर से अपना दावा छोड़ देना चाहिए, क्योंकि अयोध्या मुस्लिमों की आस्था का प्रतीक नहीं है। रविशंकर ने हाल के बरसों में यह बयान दिया था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला जिस पक्ष के खिलाफ जाएगा, वह पक्ष उग्रवाद की तरफ बढ़ जाएगा, और हिन्दुस्तान में सीरिया और मध्य-पूर्व जैसी (गृह युद्ध सरीखी) नौबत आ जाएगी। 
आज जब हिन्दुस्तान के इस सबसे नाजुक अदालती मामले को निपटाने की उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से की जा रही थी, तो सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा विवादास्पद मध्यस्थ-दल बनाया है जिसमें तीन में से एक की तटस्थता शून्य है, और उसका एक पक्ष के लिए पूर्वाग्रह हाल के बरसों में मीडिया में अच्छी तरह दर्ज है। मध्यस्थता की यह कोशिश ऐसा लगता है कि शुरू होने के पहले ही साख खो बैठी है, फिर भी आने वाले दिनों में क्या होता है यह देखना है। 
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