सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती द्वारा सरकारी खर्च पर बनवाई गई अपनी और अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की प्रतिमाओं का खर्च उनसे वसूलने का आदेश दिया है। दस बरस से एक जनहित याचिका चली आ रही थी जो कि सरकारी खर्च पर इन प्रतिमाओं को लगाने के खिलाफ थी। इन पर सैकड़ों करोड़ रूपए खर्च किए गए। उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में तो एक बहुत बड़ा उद्यान ही ऐसा बनाया गया था जिसमें बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी की विशाल प्रतिमाएं कतार में लगाई गई थीं। जब सपा के अखिलेश यादव की सरकार थी, तब एक जांच रिपोर्ट में कहा गया था कि लखनऊ, नोएडा, और ग्रेटर नोएडा में बनाए गए ऐसे उद्यानों पर करीब 6 हजार करोड़ रूपए खर्च किए गए थे, और साढ़े 5 हजार कर्मचारी रख-रखाव के लिए रखे गए थे। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने मायावती के वकील को कहा कि अपनी मुवक्किल से कह दे कि मूर्तियों पर हुए खर्च के पैसे वे सरकारी खजाने में जमा कराएं।
एक वक्त उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी मायावती को इस फिजूलखर्ची के लिए घेरते आई है, लेकिन अब इन दोनों के बीच एक चुनावी गठबंधन हो गया है, और अब बबुआ अपनी बुआ पर ऐसा कोई हमला करने से रहा। लोकतंत्र में अदालतों की जरूरत इसीलिए पड़ती है कि राजनीतिक दल तो एक-दूसरे के साथ कभी भी समझौते कर लेते हैं, और जनता को चूना लगाने में भागीदार हो जाते हैं। इसलिए वे जज ही ऐसे मौकों पर काम आते हैं जिनको कोई चुनाव नहीं लडऩा होता। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बरसों से ऐसी फिजूलखर्ची के खिलाफ लिखते चले आ रहे हैं, और सरकारी खर्च से किसी की भी प्रतिमा बनाने में ऐसा विशाल खर्च नहीं किया जाना चाहिए। अभी इसी उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बजट में सरयू तट पर राम प्रतिमा बनाने के लिए सौ करोड़ रूपए का प्रावधान किया है। देश ने अभी-अभी गुजरात में सरदार-प्रतिमा पर तीन हजार करोड़ का खर्च देखा है, और ऐसा ही हजारों करोड़ का खर्च महाराष्ट्र में समंदर के बीच शिवाजी स्मारक बनाने पर खर्च की तैयारी हो चुकी है। लेकिन इन सब बातों को एक साथ रखते हुए यह समझ लेना जरूरी है कि बाकी बातें तो समर्थकों और आस्थावान लोगों द्वारा की जा रही हैं, मायावती ने अपनी खुद की प्रतिमाएं, और अपने चुनाव चिन्ह की प्रतिमाएं अपनी जीते जी, अपने ही फैसले से लगवाई थीं, और इसलिए वे इसकी देनदार हैं।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का यह रूख अच्छा है, और यह सरकारी पैसों पर मनमानी और मनमर्जी के खिलाफ एक लोकतांत्रिक नजरिया भी बताता है। भारत में सरकारों को इस तरह की बर्बादी का कोई हक नहीं होना चाहिए, और किसी भी स्मारक पर, किसी प्रतीक पर, किसी महान व्यक्ति के सम्मान में खर्च की एक सीमा रहना जरूरी है। सरदार पटेल की प्रतिमा पर जनता के तीन हजार करोड़ रूपए लगाए गए, और नेहरू या गांधी की प्रतिमाओं पर कांग्रेस की सरकारें चाहतीं तो तीस हजार करोड़ भी बर्बाद कर सकती थीं। लोकतंत्र में ऐसी बुतपरस्ती खत्म होनी चाहिए जो जनता के पैसों से हो रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि मायावती की पार्टी के खाते से, उनकी निजी संपत्ति बेचकर, किसी भी तरह इन हजारों करोड़ की वसूली करवाए ताकि देश में बाकी नेताओं को भी एक सबक मिले। आम चुनावों के कुछ हफ्ते पहले इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐसा रूख कुछ लोगों को चुनावी इस्तेमाल के लिए एक अच्छा मुद्दा लग सकता है, लेकिन हम इसे चुनाव से जोड़कर नहीं देखते, और जब कभी ऐसा फैसला आए लोगों को उसके लिए तैयार रहना चाहिए, फिर चाहे नेताओं को ऐसे फैसले से नफा हो, या नुकसान हो। हमको यह नहीं लगता कि अदालत किसी तरह चुनावी माहौल को बनाने या बिगाडऩे के लिए इस मौके पर ऐसा फैसला दे रही है, या ऐसा आदेश दे रही है। बहुत से मामले रहते हैं जो आए दिन तय होते हैं, और उनका चुनावों से कुछ लेना-देना नहीं रहता। फिलहाल मायावती ने जनता के पैसों का हाथी के आकार का जो बेजा इस्तेमाल किया था, उसका भुगतान करने का यह समय आ गया है।