उत्तरप्रदेश में कल गोडसे के समर्थकों ने गांधी के एक पोस्टर के पीछे खून जैसा कुछ भरकर एक गुब्बारा रखा, और उसके बाद भगवाधारी एक महिला सहित कुछ लोगों ने गोली मारकर गांधी का सीना चीरा, और लहू बहने का आनंद लिया। यह महिला भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं के साथ पहले दिखती आई है, और देश में आज सिर उठा रहे गोडसेवाद की एक नई झंडाबरदार है। जगह-जगह गोडसे की प्रतिमा, उसके मंदिर, उसके नाम के चौराहे बनाने की जिद चल रही है, और हिन्दू महासभा जैसे संगठन लगातार इस काम में लगे हैं कि गांधी को एक खलनायक की तरह, और मौत का ही हकदार साबित करते हुए उसकी मौत पर जश्न मनाएं, और गोडसे को महान देशभक्त साबित करें। आने वाले कुछ बरसों में अगर देश का यही रूख रहा, तो अगले बरस 26 जनवरी के मौके पर गोडसे को भारतरत्न देने की मांग भी सामने आ सकती है।
लेकिन गांधी की यादों के साथ ऐसे सुलूक से न तो गांधी को फिक्र करने की जरूरत है, न ही उन लोगों को फिक्र करनी चाहिए जो कि गांधी को चाहते हैं। गांधी उस बीज की तरह थे जिसे दफन किया गया तो वह अंकुर बनकर निकला, और फिर विशाल वृक्ष में तब्दील हो गया। गांधी की ऐसी हत्या न हुई होती, तो दुनिया गांधी को महज जन्म के लिए याद रखती, लेकिन अब उनके कत्ल की हर सालगिरह यह याद दिलाती है कि इसी दुनिया में, इसी हिन्दुस्तान में, और इसी हिन्दू समाज में ऐसे लोग हैं जो कि गांधी के कत्ल पर गौरव करते हैं, उसका जलसा मनाते हैं, और गांधी को मौत का एक जायज हकदार मानते हैं। दूसरी तरफ गोडसे को महिमामंडित करने का काम दुनिया में कोई नया नहीं है। आज भी योरप के कई देशों में, और अमरीका में ऐसे संगठन काम करते हैं जो कि हिटलर की नस्लवादी, कत्लवादी नीतियों को एक बार फिर जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं। वे हिटलर की औलादों की तरह उसके निशानों को लेकर दुनिया की दूसरी तमाम नस्लों को खराब और कमजोर नस्ल साबित करते हुए हिंसा को बढ़ाने में, नफरत को फैलाने में लगे हुए हैं, और हिन्दुस्तान के गोडसेवादी लोग ठीक उन्हीं के रक्त संबंधी भाई-बहन हैं।
और गांधी की सोच हिन्दुस्तान में किसी चुनावी इस्तेमाल की न रह गई होती, अगर आज उनके पोस्टर और पुतले को इस तरह की गोली मारकर, उनका लहू बहाने का मजा नहीं लिया गया होता। यह सोच देश के बाकी लोगों को सम्हलने का एक मौका दे रही है कि देश में किस तरह की विचारधारा को बढ़ाने का, किस तरह के माहौल को इजाजत देने का क्या नतीजा होता है। आज अगर यह हरकत न हुई होती, तो लोग गोडसे को याद भी नहीं करते, और उसकी हिंसा, उसके जुर्म किताबों में दफन रहते। लेकिन आज हिन्दुस्तान में लोगों के सामने एक साफ-साफ पसंद का मौका आकर खड़ा हो गया है कि उन्हें गांधीवादी छांटना है, या गोडसेवादी। हो सकता है कि कुछ लोगों को जिन्हें गांधी का लहू बहते देखने का मजा नहीं मिला था, उन्हें इस नाटकीय नजारे में लहू जैसा कुछ बहते देखने का मजा मिला हो, लेकिन हमारा भरोसा हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक आबादी की अमन-पसंद पर है, जिन्हें इस नजारे से तकलीफ हुई होगी, और हम उम्मीद करते हैं कि इस तकलीफ को वे चुनाव तक याद भी रखेंगे।