दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हिन्दुस्तान में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर जितने सवाल उठते हैं, उनमें से तकरीबन तमाम सवाल आज इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को लेकर हैं। अभी लंदन में हैकरों के एक कार्यक्रम में एक हैकर ने दावा किया कि 2014 का भारतीय आम चुनाव ईवीएम की हैकिंग से जीता गया था। इसे लेकर भारत में राजनीतिक बयानबाजी फिर शुरू हो गई है क्योंकि लोग अपनी हार को इस मशीन पर थोपते हैं, और अपनी जीत का सेहरा अपने माथे बांधते हैं। हमने पहले भी इसी जगह इस मुद्दे पर लिखा था कि जिस एक चुनाव में उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का सफाया हुआ, उसकी तोहमत ईवीएम पर लगी, और दूसरी तरफ उसी चुनाव में पंजाब में भाजपा-अकाली हारे, और कांग्रेस की सरकार बनी, तो सेहरा पंजा निशान पर बंधा। ऐसे में यह लगता है कि क्या चुनाव आयोग को इस ईवीएम को लेकर किए जा रहे सवाल एक आखिरी बार पूरी तरह से निपटा नहीं देने चाहिए? खासकर तब जब भारत का चुनाव आयोग दुनिया के कई देशों में जाकर चुनाव करवाता है, और उसकी साख देश से ज्यादा अच्छी देश के बाहर है। ऐसे में ईवीएम को लेकर विवादों को निपटारा इसलिए भी हो जाना चाहिए कि दुनिया के एक सबसे बड़े और विकसित देश अमरीका में कम्प्यूटरों से जुड़े हुए तमाम कारोबार हिन्दुस्तानियों के हुनर से भी चलते हैं, और ऐसे में इस देश के भीतर इतने बड़े एक सार्वजनिक मुद्दे का निपटारा इस देश के आईआईटी जैसे संस्थान नहीं कर पा रहे हैं।
लोकतंत्र में जनता का भरोसा एक बड़ा मुद्दा रहता है। जब दुनिया के सबसे विकसित देशों में चुनाव कागज के वोट से होते हैं, तब हिन्दुस्तान कई चुनाव मशीनों से करवा चुका है, और सबसे कम पढ़े-लिखे लोग, पूरी तरह अनपढ़ लोग भी मशीनों पर वोट डालना सीख गए हैं। जब ईवीएम के खिलाफ देश की अलग-अलग कई अदालतों में कई कोशिशें हो चुकी हैं, तो चुनाव आयोग को खुद होकर देश की सबसे उत्कृष्ट कुछ आईआईटी के हवाले अपनी मशीनें करनी चाहिए ताकि वहां से यह खुलासा हो सके कि क्या इन मशीनों में कोई गड़बड़ी की जा सकती है? या फिर यह महज हारने के आसार वाले लोगों का एक आसरा है? देश में आज दसियों लाख ईवीएम साधारण निगरानी में पूरे पांच साल पड़ी रहती हैं, और महज चुनाव के वक्त उसकी हिफाजत की लोगों को याद आती है। देश में सरकारों में बैठे हुए लोग जितने तरह के जुर्म करते हैं, उसमें किसी ने यह नहीं सोचा होगा कि इन मशीनों से छेडख़ानी करके देखी जाए, ऐसा असंभव है। यह बात तय लगती है कि किसी न किसी सरकार के तहत ऐसी मशीनों को कलेक्टरों की निगरानी से हासिल करके उनमें तकनीकी छेड़छाड़ करके देखा जा चुका होगा, और अगर छेड़छाड़ मुमकिन होती तो फिर कोई एक पार्टी पचास बरस के लिए लोकतंत्र पर काबिज हो जाती। ऐसे में जनता के बीच भरोसा कायम करने के लिए चुनाव आयोग को आईआईटी के सामने यह तकनीकी चुनौती रखनी चाहिए कि क्या इस मशीन में छेडख़ानी हो सकती है? राजनीतिक दलों का अफसरों और आयोग पर अविश्वास इतना है कि छत्तीसगढ़ में एक जिले में बंदूकों की निगरानी में सीलबंद कमरों में रखी ईवीएम की निगरानी करते हुए बाहर खुले में ठंड में ठिठुरते एक विपक्षी कार्यकर्ता की मौत भी हो गई। पूरे प्रदेश में हर जिले में विपक्ष के लोग निगरानी करते थक नहीं रहे हैं। और तो और भाजपा के एक बड़े नेता, और एक वक्त के प्रवक्ता जीवीएल नरसिंहराव ने एक पूरी की पूरी किताब, डेमोक्रेसी एट रिस्क, लिख डाली थी जिसमें उन्होंने ईवीएम को पूरी तरह अविश्वसनीय और लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था। आज उनकी पार्टी ईवीएम की सबसे बड़ी तरफदार हो गई है, ठीक वैसे ही जैसे कल तक भाजपा को आधार कार्ड में खामियां ही खामियां दिखती थीं, और अब खूबियां ही खूबियां दिखती हैं। इसलिए एक बार देश को इस विवाद से छुटकारा पा लेना चाहिए। हमारी आईआईटी से निकले हुए लोग आज अमरीका की सबसे बड़ी कंपनियों के मुखिया हैं, इसलिए इन शिक्षण संस्थानों की क्षमता कम आंकना ठीक नहीं है। जिस देश में ऐसे संस्थान हो वहां पर ऐसा अविश्वास और ऐसा असमंजस रहना देश की साख के भी खिलाफ है। इसलिए चुनाव आयोग को ईवीएम मशीनें एक सवाल और एक चुनौती के साथ आईआईटी को दे देना चाहिए, और अगर आयोग खुद होकर ऐसा न करे तो किसी याचिका पर, या उसके बिना भी सुप्रीम कोर्ट ऐसा कर सकता है, उसे ऐसा करना चाहिए। 
