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मामलों से लदे सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसी बारीकियों का वक्त ?

महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार के समय से डांस बार पर रोक लगाने की जो नीयत शुरू हुई थी, वह वहां पर अब भाजपा-शिवसेना सरकार के चलते हुए भी उसी तरह जारी है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट एक से अधिक बार इस मामले में फैसला दे चुका है, और डांस बार शुरू करने के अदालती आदेश के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार ने कानून बनाने जैसा काम भी किया ताकि उसे लागू न करना पड़े। अभी कल सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला सामने आया है उसमें एक बार फिर डांस बार को इजाजत दी गई है, और कुछ किस्म की बंदिशें लगाई गई हैं जो कि सरकारी तर्क को मानना भी है, और डांस बार चलाने वाले लोगों के तर्क को मानना भी है। अदालत ने यह रोक लगाई है कि लोग डांसरों पर नोट नहीं लुटा सकेंगे, लेकिन उन्हें टिप दे सकेंगे। दूसरी तरफ महाराष्ट्र सरकार की इस बात को अदालत ने खारिज कर दिया कि डांस बार के भीतर कैमरे लगाए जाएंगे, और पास के थाने में टीवी स्क्रीन पर उनकी रिकॉर्डिंग को देखा जा सकेगा। अदालत ने इसे निजता के खिलाफ माना, और इसकी इजाजत नहीं दी। दूसरी तरफ डांस देखते हुए शराब पीने की छूट दी गई है। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने डांस बार को कानूनी माना, उन्हें चलाने की छूट दी, और नोट लुटाने पर रोक जैसी कुछ छोटी-मोटी बंदिशें जरूर लगाई हैं। 
अब इस रोक की बात करें, तो लगता है कि हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट के पास आखिर वक्त कितना है कि वह डांस बार में डांस करती वयस्क महिला पर वयस्क लोगों द्वारा नोट लुटाने या उन्हें टिप देने में फर्क कर रहा है? सोशल मीडिया पर आए दिन ऐसे वीडियो तैरते हैं जिनमें उत्तर भारत के किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में बहुत ही कम कपड़ों में नाचती हुई किसी लड़की या महिला पर वहां के कोई नेता नोट लुटा रहे हैं। यह भारत के एक बड़े हिस्से की संस्कृति है। इससे परे कव्वाली के जितने सार्वजनिक कार्यक्रम होते हैं, उनमें यह एक सांस्कृतिक हिस्सा ही है कि लोग कोई शेर पसंद आने पर चलकर-जाकर स्टेज के पास खड़े होकर कव्वाल या कव्वालन को नोट देते जाते हैं। कुछ कार्यक्रमों में तो यह एक मजेदार नजारा रहता है कि नोटों से लबालब प्रशंसक सामने खड़े रहते हैं, और एक-एक कर खासी देर तक नोट देते जाते हैं। गुजरात और राजस्थान के ऐसे बहुत से वीडियो सामने आते हैं जिनमें किसी कीर्तन या धार्मिक संगीत के आयोजन में लोग खड़े होकर नोट लुटाते हैं, और आखिर में ऐसे आंकड़े भी आते हैं कि एक आयोजन में किस तरह दसियों लाख रूपए इक_े हुए, और उन्हें समाज सेवा के किस काम में लगाया गया। इससे परे सड़कों पर निकलती बारातों में देखा जा सकता है कि किस तरह दूल्हे पर से नोट उतारे जाते हैं, या लुटाए जाते हैं। और तो और हिन्दुओं में जब अर्थी निकलती है, तो उसके ऊपर से भी सिक्के लुटाए जाते हैं, और शवयात्रा के साथ-साथ गरीब बच्चे दौड़-दौड़कर उन सिक्कों को उठाते दिखना एक आम बात है। 
अब सवाल यह है कि वयस्क मनोरंजन की एक रोजी-रोटी में लगी हुई महिला को अगर उस पर लुटाए गए कुछ नोट मिल जाएं, तो इस पर सुप्रीम कोर्ट को कोई दिक्कत आखिर क्यों होनी चाहिए? अगर देश की मुद्रा को इस तरह हवा में उछालना मुद्रा का अपमान है, तो फिर वह कीर्तनों पर भी लागू करने लायक रोक है, महज डांस बार पर क्यों? सुप्रीम कोर्ट का फैसला मोटे तौर पर एक अच्छा फैसला है जो लोगों की वयस्क मनोरंजन की जरूरतों को मान्यता देता है, और ऐसे मनोरंजन से महिलाओं को रोजी-रोटी कमाने को भी। लेकिन फिजूल की छोटी-छोटी बातों में सुप्रीम कोर्ट को नहीं जाना चाहिए, और मोहब्बत या खुदा के नाम पर होने वाली कव्वाली में, ईश्वर के नाम पर होने वाले कीर्तन में नोटों को लुटाना या थमाना अगर जायज है, तो डांस बार से मजदूरी कमाने वाली महिला के लिए वैसी बख्शीश क्यों नाजायज होनी चाहिए? 
हम पिछले बरसों में कई बार महाराष्ट्र की डांस-बार-रोक के खिलाफ लिख चुके थे, और यह भी कहा था कि इस तरह दसियों हजार महिलाओं से सुरक्षित मनोरंजन का यह रोजगार छीनकर महाराष्ट्र सरकार ने किस तरह उनको देह बेचने के धंधे की तरफ धकेला था। अब सुप्रीम कोर्ट की कई बार की दखल के बाद इस सरकारी बददिमागी को खत्म मानना चाहिए जो कि कांग्रेस सरकार से लेकर भाजपा-शिवसेना सरकार तक जारी है। वयस्क मनोरंजन की जरूरत को मानने से इंकार करना एक पाखंड से परे कुछ नहीं है, और इक्कीसवीं सदी में भी सरकारी पाखंड को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट की दखल का जरूरी होना निहायत शर्मिंदगी की बात है, और लोकतंत्र में परिपक्वता की कमी की बात भी है। इस देश के इतिहास में सदियों से नृत्यांगनाओं के रोजगार की परंपरा रही है, और यह आज की वयस्क मनोरंजन की जरूरत भी है। 

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