सोशल मीडिया पर चारों तरफ नफरत और अफवाहें तो फैलती ही हैं, लेकिन कुछ अच्छी बातें भी फैलती हैं, और जिस तरह लोग उन्हें आगे बढ़ाते हैं, उससे लगता है कि लोगों की दिलचस्पी महज गंदगी में नहीं है, अच्छी बातों में भी है। मध्यप्रदेश के ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के मुसाफिरों को पानी पिलाने वाली 92 बरस की एक महिला का वीडियो इंटरनेट पर चल रहा है जो कि एक समाचार चैनल की रिपोर्ट है। वे रोज रेलवे स्टेशन पहुंचकर आम मुसाफिरों को ट्रेन के डिब्बे की खिड़कियों से उनकी बोतलों में पानी देने के लिए प्लास्टिक की एक चाड़ी (फनल) लगाकर पानी डालती हैं।
यह बात छोटी सी है, लेकिन यह दूसरे लोगों को राह दिखाने वाली भी है। आज हिन्दुस्तान ऐसे करोड़ों नौजवानों से भरा हुआ है जो अपने आपको पढ़ा-लिखा कहते हैं और विपक्षी उन्हें बेरोजगार कहते हैं। मतलब यह कि उनके हाथ-पैर तो काम के लायक हैं, लेकिन उनके पास कोई काम नहीं है। ऐसे नौजवान आमतौर पर मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हैं, और किसी तरह वक्त काटते हैं। अब सवाल यह है कि यह देश जिस तरह करोड़ों बेघर, दसियों करोड़ बीमार, करोड़ों बुजुर्ग लोगों से भरा हुआ है, जहां पर फुटपाथी बच्चों को पढ़ाने से लेकर, सरकारी पौधों में पानी डालने तक, अस्पताल में स्ट्रैचर से लेकर व्हीलचेयर धकेलने तक के लिए सौ किस्म की मदद की जरूरत है। अब एक तरफ तो लोग खाली बैठे हैं, दूसरी ओर लोगों को मदद की जरूरत है। इन दो चीजों को मिलाकर एक ऐसा समाधान निकलता है जिसमें निठल्ले को जिंदगी में कुछ हासिल करने का मौका मिले, कुछ तजुर्बा मिले, कुछ तसल्ली मिले, और जरूरतमंदों को मदद भी मिले। लेकिन इस जरूरत और इस क्षमता के बीच तालमेल बिठाने का काम नहीं हो रहा है।
यूं तो देश भर में ऐसी समाजसेवा करने के लिए बहुत से संगठन चलते हैं, लेकिन समाजसेवा के नाम पर भी वे आत्मसेवा तक सीमित रह जाते हैं, और तरह-तरह से जुटाए गए दान का खुद पर इस्तेमाल करने का जरिया ढूंढते रहते हैं। ऐसे माहौल में ऐसी मिसालों की जरूरत है जिससे कि असंगठित नौजवान अपने आसपास कोई न कोई जरूरत तलाशें, और वहां अपनी अतिरिक्त, खाली पड़ी हुई क्षमता से सेवा करें, दूसरों की मदद करें। आज चुनाव के वक्त राजनीतिक दल इस बात को बहुत बड़ा मुद्दा बनाते हैं कि नौजवानों के वोट से सरकारें बनती और गिरती हैं, लेकिन चुनाव निपटने के तुरंत बाद ऐसे नौजवान खाली और बेरोजगार रह जाते हैं। फिर उनकी याद लोगों को अगले चुनाव के वक्त आती है। देश भर में ऐसे छोटे-छोटे स्थानीय प्रेरणास्रोत रहने चाहिए जो अपने आसपास के सौ-दो सौ या हजार-दो हजार लोगों को किसी नेक काम में लगाने का काम कर सकें। गिनने के लिए तो देश में नौजवानों की गिनती करके यह मान लिया जाता है कि हिन्दुस्तान के पास चीन के मुकाबले युवा कामकाजी फौज है, लेकिन यह नहीं देखा जाता कि जब तक यह फौज किसी उत्पादक काम में नहीं लगी है, जब तक वह अपने आपको बेहतर, अधिक उत्कृष्ट, और अधिक उत्पादक नहीं बना रही है, तब तक वह दूसरों के ही कुछ काम आ जाए, समाज का ही कुछ भला कर ले, धरती की ही कुछ सुध ले ले।
ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर 92 बरस की महिला जिस तरह दौड़-दौड़कर रेल मुसाफिरों को पानी देती है, उसे देखकर भी बाकी नौजवानों को शर्म न आए, तो फिर उनके जिंदा रहने का और क्या सुबूत हो सकता है? दुनिया के जितने महान समाज सेवक हुए हैं, उनमें से अधिकतर ने अपनी जवानी के दिनों में ही लोगों का भला करना शुरू किया, और तभी वे आगे बढ़ सके, मिसालें बन सके। आज हिन्दुस्तान की तमाम तकलीफों का समाधान यहां की खाली बैठी नौजवान पीढ़ी की क्षमता और ताकत के भीतर ही है, उससे कम ही है।

