मुखिया यूं तो तीन शब्दों का छोटा सा संगठन है, लेकिन मुखिया की चिंताएं बहुत बड़ी होती हैं| मुखिया एक छाते की तरह होता है, जो बारिश में पूरे परिवार पर तन जाता है | मुखिया तूफ़ान में उम्मीद की नाव होता है, जिसमें परिवार बचा रहता है| जिस मुखिया के साथ उसका परिवार एकजुट होकर हर दुःख दर्द में खड़ा रहता है, वह परिवार एक मिसाल बनकर रह जाता है | लेकिन दुखों की बारिश में छाते की तरह तना कोई मुखिया तब बहुत उदास और हैरान होता है, जब सुखों की धूप में मदमस्त परिवार के लोग उसे भूलकर खुले आकाश में लोप हो जाते हैं, परंतु एक ज़िम्मेदार मुखिया अगली बारिश के लिए चिंतित रहता है| मैं आपका ध्यान हिमाचल प्रदेश सचिवालय सेवाएं संगठन के अध्यक्ष संजीव शर्मा की तरफ आकर्षित करना चाहता हूँ |
(हिमाचल के एक नौजवान नेता संजीव शर्मा के लिए प्रकाश बादल 'खामखा' की आदरांजलि)
मैं कौन.. आप सभी लोग जानते हैं.. मैं खामखा.. खामखा का मतलब तो आप जानते ही होंगे.... संजीव शर्मा को मैं अधिक समय से नहीं जानता.. लेकिन थोड़े समय में बहुत अधिक जान गया हूँ.... एक नौजवान नेता.. जिसे सचिवालय के कर्मचारियों ने बार-बार आकर कहा.. की सरकार के समक्ष आवाज़ उठाए.... संजीव शर्मा ने सबसे पहले अपनी ज़िम्मेदारी का परिचय देते हुए एक अद्भुत पहल की कि वो प्रदेश के मुख्यमंत्री के समक्ष शपथ लेंगे कि कर्मचारी हितों में वो सरकार और सचिवालय के कर्मचारियों बीच एक सशक्त पुल बनाएंगे.. एक खुशी का माहौल था.. एक तरफ नव निर्वाचित मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू थे, जिहोंने ओपीएस लागू कर हिमाचल के कर्मचारियों को प्रफुल्लित किया था, दूसरी तरफ संजीव शर्मा अपने अनुभवों और संकल्पों के साथ कर्मचारियों का प्रतिनिधत्व करते हुए खड़े | आर्थिक संकट की बात कहकर यह पहली बार हुआ था कि कर्मचारियों ने अपने लंबित डीए की घोषणा न होने के बाद भी निराशा महसूस नहीं की, क्योंकि सरकारी वित्तीय बोझ को कर्मचारी बखूबी समझ सकते थे | संजीव शर्मा एक ज़िम्मेदार मुखिया की तरह डटे रहे | लगभग पच्चीस वर्षों की सरकारी नौकरी में कर्मचारी संगठनों को अपनी मांगों और वर्चस्व के लिए लड़ते हुए देखा है | लेकिन समय के साथ-साथ महत्वाकांक्षी और दिशाविहीन होते कर्मचारी संगठनों के बीच संजीव शर्मा को किसी उम्मीद की तरह देखा जा सकता है,निर्भय और निष्कपट होकर अपने परिवार के दुःख दर्द को बयान करते हुए | एक तरफ कुकरमुत्तों की तरह अपने-अपने स्वार्थों के लिए बन रहे संगठन हैं, जो मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे हैं, दूसरी ओर कर्मचारियों के हक़ हुकूक के लिए चिंतित संजीव शर्मा | अब नेता कौन है, यह आप तय करें| मैं सचिवालय सेवाएं संगठन या सचिवालय के सभी संगठनों में सिर्फ संजीव का नाम इसलिए ले रहा हूँ कि एक अध्यक्ष में पूरा संगठन समाहित होता है, और एक सजग संगठन की शक्ति को एक कुशल अध्यक्ष ही कार्यान्वित कर सकता है | इसलिए जब मैं संजीव शर्मा का नाम लूं तो सचिवायल के सभी कर्मचारी और सचिवालय के सभी संगठन खुद को इसमें शामिल समझें | मुख्यमंत्री के चक्कर काटते नेताओं और कुकरमुत्तों की तरह बनते कर्मचारी संगठनों से क्या ये सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर उनका एजेंडा क्या है | अगर उनका एजेंडा वही है जो संजीव शर्मा का एजेंडा है, तो वो एक नया संगठन बनाने के बजाए संजीव शर्मा के साथ क्यों नहीं जुड़ जाते |
हिमाचल में गठित दो-तीन कर्मचारी महासंघों का गठन किस आधार पर हो रहा है ? एक कर्मचारी संगठन दूसरे से बात क्यों नहीं करता और सबका एक ही अध्यक्ष क्यों नहीं होता | मतलब सीधा है, सत्तासीन सरकार के आगे-पीछे घूमने की ललक रखने वाले तथाकथित कर्मचारी नेता अपना स्वार्थ तो साध सकते हैं परंतु कर्मचारियों की आवाज़ नहीं बन पाते | मैं मुद्दे की बात पर आता हूँ | सचिवायल के प्रांगण का वो बूढा पेड़ (शायद चिनार का पेड़) सभी सुखों-दुखों का गवाह है, उस आन्दोलन के बिगुल का भी गवाह क्यों नहीं होगा.. जिसकी शुरूआत संजीव शर्मा की दहाड़ से हुई थी. इस दहाड़ में पूरा सचिवालय शामिल था.. एक कोने से दूसरे कोने तक कर्मचारियों का सैलाब | सब संजीव की वाहवाही कर रहे थे | यह भी पहली बार हुआ था कि सचिवालय के कर्मचारियों ने एक और पहल कर दी कि दो-दो तीन तीन कर्मचारी महासंघों की स्वघोषणा के वावजूद एक भी महासंघ कर्मचारियों की समस्याओं को लेकर मुखर नहीं हुआ तो संजीव ने सचिवालय से प्रदेश भर के कर्मचारियों की आवाज़ उठाई | यह एक नेता की दूरदर्शिता का प्रमाण है कि कर्मचारी सचिवालय का हो या किसी दूर दराज क्षेत्र का, कर्मचारी, कर्मचारी होता है। दूसरी ओर कर्मचारियों में परम्परागत तरीके से फूट डालने की नीयत लिए सरकार की तरफ से केवल उन्हीं संगठनों को बुलाया जाना, जो कहीं भी किसी विरोध में नहीं थे, भी यह स्पष्ट करता है कि कर्मचारियों को अलग-अलग टुकड़ों में बांटा जा रहा है | बावजूद इसके संजीव बेपरवाह डटे रहे.. कर्मचारियों के लिए चिंतन उनके चेहरे पर स्पष्ट देखा जा सकता है |
कोई कर्मचारी संगठन इतना हौसला नहीं कर सका कि अकेले राजाओं और वजीरों के भालों के बीच में दहाड़ते संजीव के साथ खड़ा हो | परन्तु संजीव अकेला खड़ा रहा और वजीरों और राजाओं के भाले बेअसर होकर लौट गए।| सचिवालय कर्मचारियों की भी दाद देनी होगी कि चट्टान की तरह सामने खड़े रहे और सरकार को गुमराह कर रहे वजीरों को तुरंत प्रभाव से एक-एक करके फिजूलखर्ची कम करने के आदेश करने पड़े| कमर्चारियों में असंतोष पैदा करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए गए.. कर्मचारियों को उकसाने के लिए कई तरह की भड़काऊ टिप्पणियाँ की गईं, ताकि संजीव और उसकी टीम के खिलाफ प्रिविलेज मोशन जैसी दमनकारी भभकी से न केवल संजीव को, बल्कि पूरे कर्मचारियों को डराया जा सके | परन्तु संजीव नाम का अर्थ खंगालने पर पता चला कि संजीव उसी कुम्भ राशि से सम्बन्ध रखने वाला ऊर्जावान नौजवान है, जिसके अराध्य देव शनि और हनुमान हैं... शनि और हनुमान जहाँ संजीव में साहस और शौर्य भरते हैं, वहीं यह भी ज्ञात रहे कि शास्त्रों के अनुसार संजीव नाम का संचालन सूर्य के सातवें ग्रह यूरेनस द्वारा किया जाता है | ऐसे में जहाँ संजीव को शनि और हनुमान की शक्तियां क्रांतिकारी बनाती हैं, वहीं यूरेनस का परिसंचालन उन्हें शीतल, शांत, सूझ-बूझ और ठहराव से भर देता है | इसी का प्रमाण है की संजीव के हौसले ने कर्मचारियों को वो हक़ एक महीने में ही दिला दिए, जिन्हें सरकार 6 मास में देने की बात कह रही थी | इस का श्रेय संजीव को कोई दे न दे, एक कर्मचारी के नाते मैं तो अपना सर झुका कर उन्हें देता हूँ | प्रदेश के मुख्यमत्री श्री सुखविंदर सुक्खू जहाँ कर्मचारियों के दुःख दर्द को समझने वाले प्रतीत होते दिखाई दिए, वहीं संजीव से उनके द्वारा दूरी बनाने का कारण समझ नहीं आया। क्या माननीय मुख्यमंत्री उस शपथ ग्रहण कार्यक्रम को भी भूल बैठे जहां संजीव ने मुख्यमंत्री से आशीष लिया था? बताया यह भी जाता है कि मुख्यमंत्री के करीब बैठी शीर्ष लेकिन कमज़ोर नौकरशाही सरकार को गुमराह करने और खुद की मौज मनवाने में सफल तो रही है, लेकिन कर्मचारियों के हकों को लेकर इस लचर नौकरशाही ने मुख्यमंत्री की आंखों में मात्र धूल झोंकी है..
मुझे लगता है कि प्रदेश की नौकरशाही में ओंकार शर्मा जैसे ख्रांट तेज तर्रार और उन जैसे अनेक कतारबद्ध प्रशासनिक अधिकारियों को मोर्चे पर न लाया जाना भी इस दयनीय स्थिति का एक मुख्य कारण हो सकता है | ( मैं ओंकार शर्मा को न तो व्यक्तिगत तौर पर जानता, न ही मैं उनसे सहानुभूति रखता हूँ, लेकिन उनके कामों और प्रशासनिक कार्यकुशलता का अवलोकन ज़रूर करता रहा हूँ ) विषय से न भटकता हुआ मैं सफलता के उन्माद में मस्त संजीव शर्मा की टीम को 15 अक्टूबर को उसी बूढ़े पेड़ के नीचे देख रहा था, जहाँ जनरल हाउस में उपस्थित न होकर अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे सचिवालय के आधे कर्मचारी 4 प्रतिशत डीए मिलने को लेकर ऐसी टिप्पणी कर रहे थे कि ‘चलो कुछ तो मिला’ लेकिन सचिवालय का वो प्रांगण खाली था, जहाँ आन्दोलन के पहले दिन पाँव धरने की जगह भी नहीं थी और सीटियों और नारों की गूंज के कारण बूढ़े पेड़ ने अपने कानों पर उंगलियां रख दीं थी और वह बुजुर्ग इस सारे प्रकरण का सशक्त गवाह बना लेकिन यह बूढा पेड़ संजीव को शीतल छाया का आशीर्वाद देता रहा। कर्मचारियों की निराशाजनक उपस्थिति के बाद संजीव की दहाड़ अब उनकी आवाज़ में नहीं उनकी आँखों में चमक रही थी | खुद की नौकरी पर प्रिविलेज मोशन जैसी सख्त सज़ा के मंडराते ग्रहण के बावजूद लाखों पेंशनरों और कर्मचारियों की झोली में खुशी भरने वाले संजीव शर्मा को अकेला छोड़ देने की बजाए उन्हें बचाए रखने तथा और ताकतवर बनाने की ज़रुरत है | मैं संजीव का कद्रदान इसलिए भी हो गया कि उनकी शेर जैसी आँखों के पिछले कोर में अपने परिवार और बच्चों के भविष्य की चिंता भी है, परंतु वो बेफिक्र और बिंदास होकर कर्मचारियों के हकों के लिए लड़ रहे हैं.. बूढ़े चिनार के साथ l ऐसे नेता का साथ हम बेशक छोड़ दें.. लेकिन ईश्वर हमेशा ऐसे जुझारू के साथ रहता है...... संजीव शर्मा तक मेरी शुभकामनाएं पहुंचे और मेरी यह अनुभूति भी कि वो एक ज़िम्मेदार मुखिया हैं.. और उन्होंने अपनी भूमिका को बड़ी ज़िम्मेदारी और हौसले के साथ निभाया है... मुझे संजीव शर्मा के अध्यक्ष होने पर गर्व है, मैं भी ऐसा ही बनना चाहता हूं । मुझे संजीव इकबाल साजिद साहब के इस शेर की तरह लगते हैं :- सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा