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बस्तर में बेकसूरों की थोक हत्याओं पर कार्रवाई का जिम्मा अब इस सरकार पर

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के वक्त से अब तक बस्तर से कमोबेश ऐसी शिकायतें आती रहीं कि पुलिस और बाकी सुरक्षा बलों के लोग बेकसूर आदिवासियों को मारते रहे हैं, उनके गांव जलाते रहे हैं, उन्हें छत्तीसगढ़ छोड़कर आन्ध्र जाने पर मजबूर करते रहे हैं, और आदिवासी लड़कियों-महिलाओं से बलात्कार करते रहे हैं। जब जो सरकार रही, उसके अफसरों ने ऐसी तमाम शिकायतों को नक्सली-आतंक में स्थानीय लोगों द्वारा की गई शिकायत करार दिया, और भाजपा के पिछले पन्द्रह बरस के राज में ऐसी बेतहाशा हिंसा देखी थी। उस पूरे दौर में हमने बार-बार हत्याओं के शौकीन पुलिस-अफसरों के बारे में लिखा था, लेकिन पिछली सरकार में ऐसे अफसरों को बचाने वाले इतने बड़े-बड़े अफसर थे, और बहुत से मौकों पर पूरी की पूरी सरकार ही बलात्कारी-हत्यारों को बचाने में जुट जाती थी, और इंसाफ के लिए लोग सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगाते रहते थे। आज इस चर्चा की जरूरत इसलिए है कि 2012 में बस्तर के बीजापुर के सारकेगुड़ा में हुई एक कथित मुठभेड़ में 17 आदिवासियों की मौतों पर बिठाए गए न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट का नतीजा कल सामने आया है जिसमें कहा गया है कि सीआरपीएफ और सुरक्षा बलों की एक मिलीजुली टीम ने इस इलाके में बैठक कर रहे गांव के लोगों पर एकतरफा हमला किया जिसमें इतने आदिवासी मारे गए थे।TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें 
 
रमन सरकार के कार्यकाल का यह भयानक मामला उस वक्त के अफसर लगातार भारी जोर लगाकर खारिज करते रहे, लेकिन इसे लेकर आरोपों का दबाव इतना अधिक था कि राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के एक जज की अध्यक्षता में जांच आयोग बनाया था, और उसकी रिपोर्ट बीती रात छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल के सामने पेश हुई। आयोग ने यह साफ-साफ लिखा है कि त्यौहार की तैयारी की बैठक कर रहे आदिवासियों ने कोई गोली नहीं चलाई थी, और सिर्फ पुलिस-सीआरपीएफ ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं जिससे मारे गए 17 आदिवासियों में से 7 तो नाबालिग भी थे। दर्जन भर ग्रामीण घायल भी हुए थे। आयोग ने यह भी पाया है कि मरने वालों के बदन पर गोलियों के अलावा मारपीट के निशान भी हैं, और यह काम सुरक्षा बलों के अलावा किसी का किया हुआ नहीं है।
आज जब छत्तीसगढ़ एक राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव की तैयारी में जुटा हुआ है, और इस राज्य के आदिवासी मंत्री अलग-अलग राज्यों में जाकर मंत्री-मुख्यमंत्रियों को न्यौता दे रहे हैं, तो यह सोचने की जरूरत है कि बेकसूर-निहत्थे आदिवासियों को बिना किसी उकसावे या भड़कावे के, बिना किसी खतरे या वजह के इस तरह घेरकर थोक में मार डालकर अगर राज्य की पुलिस या बाकी सुरक्षा बलों के लोग बच जाते हैं, तो आदिवासी-मौतों के ऐसे नाच वाले राज्य को आदिवासी नृत्य महोत्सव की मेजबानी का क्या हक हो सकता है? बस्तर में रमन राज में कुख्यात पुलिस अफसरों ने जिस बड़े पैमाने पर बेकसूरों पर हिंसा की, उन्हें मारा और उनकी औरतों के साथ बलात्कार किया या करवाया, उन सबको देखते हुए राज्य सरकार को ऐसे दर्जन भर बड़े मामलों में एक न्यायिक जांच शुरू करवानी चाहिए, और तब तक के लिए ऐसे कुख्यात अफसरों को सरकारी काम से अलग भी करना चाहिए। 
जनता को तो यह अच्छी तरह याद है कि आज के कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, उनके सलाहकार, उनकी पार्टी के दूसरे नेता रमन सरकार के हाथों अनगिनत बेकसूर मौतों के आरोप लगाते ही आए हैं। अब इस सरकार पर यह साफ-साफ जिम्मेदारी है कि न केवल इस जांच रिपोर्ट पर तुरंत कार्रवाई करे, बल्कि सत्ता की हिंसा के जिन दूसरे बड़े मामलों की जानकारी सार्वजनिक है, उनको भी तुरंत जांच के दायरे में लाया जाए। बेकसूर आदिवासियों की हत्या, उनसे बलात्कार, उनकी बेदखली से बस्तर में कभी भी नक्सल मौजूदगी खत्म नहीं होगी। बीते बरसों में पुलिस के मुजरिम-अफसरों ने इस सिलसिले को खूब बढ़ाया, और बहुत से लोगों का यह अंदाज है कि बस्तर में नक्सल-हिंसा के विकराल होने पर राज्य के बड़े-बड़े अफसरों की कमाई सैकड़ों गुना बढ़ जाती थी क्योंकि नक्सल मोर्चे पर भी खर्च होता था, खरीदी होती थी, और नक्सल इलाकों में निर्माण कार्यों पर कोई निगरानी नहीं रह पाती थी। लोगों को यह भी मालूम है कि बस्तर में बैठकर बड़े पुलिस अफसर वहां के हजारों करोड़ के टेंडर तय करते थे, और उनमें सैकड़ों करोड़ कमाते भी थे। ये सारी बातें भूपेश बघेल और उनकी पार्टी ने बहुत बार विधानसभा के भीतर और बाहर उठाई भी थीं, और अब जांच आयोग की रिपोर्ट के बाद सबकी निगाहें इस सरकार पर आ टिकी हैं। [दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय, 1 दिसंबर]
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