Slider

आओ, दिल्ली आगजनी पर हाथ तापें, और श्मशान-वैराग्य की कुछ बातें भी कर लें...

दिल्ली के घने कारोबारी इलाके में छोटी-छोटी फैक्ट्रियों वाली एक इमारत में आग लगी, और कुछ ही देर में 43 मौतें हो चुकी हैं। इस इलाके में पुरानी इमारतों में छोटे-छोटे से कारखाने भी चलते हैं, और उनमें मेहनत करने वाले प्रवासी मजदूर वहीं पर सो भी जाते हैं। आग लगी तो मौतें दम घुटने से अधिक हुईं। अब तक हिन्दुस्तान के लोग बांग्लादेश में ही रिहायशी फैक्ट्रियों में ऐसी आगजनी में थोक में मौतें पढ़ते थे, लेकिन देश की राजधानी में यह हादसा बहुत सी बातों पर सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। 
जिस शहर में केन्द्र सरकार बसती है, सुप्रीम कोर्ट और संसद जहां चलती हैं, जहां पर सीमित अधिकारों वाली एक राज्य सरकार भी है, और जहां पर म्युनिसिपलें भी राज्य सरकारों जैसे अधिकार रखती हैं, जहां पर पुलिस केन्द्र सरकार के मातहत है, वहां पर इतनी-इतनी सरकारों के रहते हुए भी घनी बस्तियों में ऐसे कारखाने हैं, और ये कारखाने मजदूरों का डेरा भी हैं। जाहिर है कि ऐसे हादसे का इलाका न तो औद्योगिक सुरक्षा के नियमों को मान रहा था, न ही कोई मजदूर कानून वहां लागू किए गए थे, और तो और प्लास्टिक कारखानों के ऐसे ज्वलनशील इलाके में फायरब्रिगेड को पहुंचने तक में दिक्कत थी। दरअसल दिल्ली के बाहर से जाने वाले लोग दिल्ली का महज व्यवस्थित और अच्छा इलाका देखकर लौट आते हैं जहां पर कि दिल्ली की ताकत बसती है, जो कि सैलानियों को दिखाने वाला हाथी दांत है। लेकिन ऐसे इलाकों से परे  दिल्ली की गरीब बस्तियों में बिना बुनियादी सहूलियतों के, बिना न्यूनतम हिफाजत के, कारोबार चलता है, कारखाने चलते हैं, और देश भर से आए हुए बेबस मजदूर वहां बंधुआ मजदूरों की तरह काम करते हैं, और जिंदा रहते हैं। लोगों को पता नहीं यह बात याद भी होगी या नहीं कि इसी दिल्ली में अभी कुछ बरस पहले बड़ी संख्या में नाबालिग बंधुआ मजदूरों को रिहा कराया गया था। 
लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसे हाल और बुरे होने जा रहे हैं क्योंकि केन्द्र सरकार पूंजीनिवेश को लाने के लिए, आज मंदी के शिकार कारोबारियों को राहत देने के लिए हर किस्म के मजदूर कानून में फेरबदल कर रही है जिनमें मजदूरों के हक और भी काट दिए जाएंगे। हिन्दुस्तान में एक तो तीन बरस पहले की नोटबंदी से ही बहुत से कारोबार और छोटे कारखाने उबर नहीं पाए थे, और बहुत बुरी बेरोजगारी झेल रहे थे, अब मौजूदा मंदी और जनता की खपत में भारी गिरावट ने छोटे-बड़े कारखानों को बंद कर दिया है, और बाकी भी मंदी और बंदी की तरफ बढ़ रहे हैं। ऐसे में मौजूदा कामचलाऊ ढांचों में जो कारखाने चल रहे हैं, उन्हें व्यवस्थित और सुरक्षित होने में जब तक सरकारी योजनाबद्ध मदद नहीं मिलेगी, वे ठीक से चल भी नहीं पाएंगे। आज हकीकत यह है कि सारे मजदूर कानूनों और सारी औद्योगिक सुरक्षा पर अमल करने के साथ, न्यूनतम मजदूरी और निर्धारित सहूलियतें देने के साथ बहुत से कारखाने और कारोबार चल भी नहीं सकते। केन्द्र सरकार ने हाल ही में बड़ी-बड़ी कंपनियों को टैक्स-रियायत दी है, लेकिन असंगठित क्षेत्र के छोटे कारोबार अब भी संगठित कारोबार की बराबरी करने की हालत में नहीं हैं। ऐसे में केन्द्र और राज्य सरकारों को ऐसी औद्योगिक नीति की जरूरत है जो कि रोजगार देने वाले कारखानों को एक सुरक्षित योजना उपलब्ध करा सकें, और रिहायशी इलाकों की फैक्ट्रियां वहां जा सकें। दिल्ली जैसे दम घुट रहे शहर से वैसे भी गैरजरूरी निर्माण ईकाईयां बाहर ले जानी चाहिए जहां मजदूरों को इंसानों की तरह रहने का मौका भी मिले, और दिल्ली पर से बोझ घटे, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।
बात महज दिल्ली की नहीं है, देश के अधिकतर हिस्सों में छोटे कारखाने इसी तरह से नियम-कायदों के खिलाफ चल रहे हैं, और आज देश की जो आर्थिक स्थिति है, उसमें यह भी हो सकता है कि सारे नियम-कायदे लाद दिए जाएं तो वे चल भी न पाएं। पश्चिम के देश आज बांग्लादेश को जिस तरह सस्ती मजदूरी का टापू बनाकर चल रहे हैं, उसका पश्चिम में ही जागरूक समुदाय में विरोध हो रहा है। लेकिन भारत में सस्ती फसल, सस्ती मजदूरी के खिलाफ किसी तरह की जागरूकता नहीं है, और लोग इतने, और ऐसे रोजगार को भी गरीबों पर अहसान मानकर चलते हैं। दिल्ली की यह ताजा आगजनी अधिक मौतों की वजह से इससे जुड़े हुए कई मुद्दों पर सोचने को मजबूर तो कर रही है, लेकिन कुल मिलाकर ये बातें श्मशान-वैराग्य की बातों की तरह कल तक आई-गई हो जाएंगी, बेबस मजदूर खतरों में इसी तरह खपेंगे, और जिंदा रहने की कोशिश करेंगे, सरकारों की नीतियों बड़े कारखानेदारों को बढ़ावा देंगी, और दिल्ली शहर केन्द्र, राज्य, और म्युनिसिपल के मिले-जुले काबू में इसी तरह खतरे में जिएगा।  
© all rights reserved TODAY छत्तीसगढ़ 2018
todaychhattisgarhtcg@gmail.com