कांग्रेस के भूतपूर्व, और भावी माने जाने वाले, अध्यक्ष राहुल गांधी ने कल अपनी पार्टी को बिना किसी वजह के एक ऐसी फजीहत में डाल दिया है जिससे देश में गठबंधन की राजनीति पटरी से उतरने का एक खतरा खड़ा हो सकता है। कल देश भर से कांग्रेस के लोग मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन के लिए दिल्ली में इक_ा थे। और सोनिया, मनमोहन, प्रियंका के साथ-साथ राहुल का भी भाषण हो रहा था। संसद के भीतर भाजपा की महिला सांसद जिस हमलावर तेवरों में राहुल से माफी की मांग कर रही हैं कि उन्होंने बलात्कार को लेकर जो कहा है वह नाजायज है। संसद के भीतर की उस बात का जवाब राहुल गांधी ने पार्टी के हाल के इस सबसे बड़े मंच पर दिया, और कहा कि वे माफी नहीं मांगेंगे। यह बात उनसे परे के देश के बहुत से पत्रकार भी लिख रहे थे कि मोदी की मंत्री स्मृति ईरानी ने लोकसभा में जिस हमलावर दस्ते की अगुवाई की, उस दस्ते ने राहुल की न कही हुई बातों को राहुल का कहा हुआ बताते हुए उनसे माफी की मांग की थी। बहुत से लोगों ने राहुल के बयान के वीडियो और स्मृति का लोकसभा के भीतर का राहुल का कहा हुआ बताते हुए एक बयान गिनाते हुए, स्मृति का हमलावर बयान दोनों दिखाया जिनमें जमीन आसमान का फर्क था। कई और लोगों ने बलात्कार पर मोदी का एक पुराना बयान भी पोस्ट किया है जिसमें वे वीडियो-कैमरे पर दिल्ली को भारत की रेप कैपिटल कहते हुए दिख रहे हैं। राहुल गांधी की बात सही थी कि उन्हें माफी मांगने की जरूरत नहीं है। लेकिन इस बात को अधिक जोर से कहने के लिए उन्होंने कहा- मेरा नाम राहुल गांधी है, राहुल सावरकर नहीं, मैं माफी नहीं मांगूगा।
इस बयान के मायने इसके शब्दों से अधिक साफ हैं। वे विनायक दामोदर सावरकर पर हमला कर रहे थे जिन्होंने शायद पौन दर्जन बार अंग्रेज सरकार से माफी मांगकर जेल से छूटने की कोशिश की थी, और अंग्रेजों से वफादारी की कस्में भी खाई थीं। ऐसे सावरकर को मोदी सरकार, या भाजपा भारतरत्न देने की घोषणा कर चुकी है, और देश में एक ऐसा हिन्दूवादी तबका है जो गोडसे के मंदिर बनाने के साथ-साथ सावरकर को भारतरत्न भी देना चाहता है। ऐसे में राहुल गांधी ने अगर सावरकर के बारे में खुलकर अपनी विचारधारा सामने रखी है, तो उसमें गलत कुछ नहीं है सिवाय इसके कि सावरकर को पूजनीय मानने वाली शिवसेना की पालकी ढोकर महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ-साथ कांग्रेस भी चल रही है। अब कहारों को पालकी पर विराजमान प्रतिमाओं के खिलाफ बोलने का कितना हक होना चाहिए, इसे लेकर सवाल उठ सकते हैं। और यही बात आज महाराष्ट्र के सत्तारूढ़ गठबंधन को लेकर हो रही है कि राहुल गांधी शायद शुरू से ही इस गठबंधन के खिलाफ थे, और पूरे वक्त उन्होंने अपने को इससे अछूता रखा था। लेकिन पार्टी के भीतर वे एक नेता हैं, और गठबंधन का फैसला पार्टी के दूसरे नेताओं ने किया है जिनमें राहुल की मां सोनिया गांधी भी शामिल हैं। ऐसे में अगर परिवार के भीतर इस गठबंधन पर एक गंभीर वैचारिक असहमति है, तो भी सार्वजनिक जीवन में एक गठबंधन की मर्यादा का सम्मान करना सभी भागीदारों की जिम्मेदारी रहती है। आज अगर शिवसेना गांधी या नेहरू के खिलाफ कोई बात कहे, और वह बात चाहे ऐतिहासिक रूप से सच भी हो, तो भी क्या वह गठबंधन के चलते एक जरूरी बात कही जाएगी?
राहुल गांधी के साथ आज दिक्कत यह है कि वे टीम के बाहर हो चुके खिलाड़ी की तरह स्टेडियम की दर्शकदीर्घा में तो बैठे हैं, लेकिन पार्टी के कल के इस सबसे बड़े कार्यक्रम में वे मंच पर पार्टी के नीति-निर्धारक और कर्णधार की तरह भी बोल रहे थे, और इसमें किसी को कोई शक भी नहीं है कि वे ही पार्टी के सर्वेसर्वा हो भी सकते हैं, होंगे ही। ऐसे में वे पार्टी के सब कुछ भी हैं, और पार्टी उनके लिए कुछ भी नहीं है। वे हाल के बरसों में पार्टी के इस सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक-गठबंधन के खिलाफ रहते हुए भी इस पर कुछ कहने से बच सकते थे, और खासकर तब तो इसकी कोई भी जरूरत नहीं थी जब कल के मोदी-विरोध में सावरकर मुद्दा ही नहीं था। ऐसे में सावरकर के नाम को इस अंदाज में बेजा इस्तेमाल करना जिससे कि गठबंधन का भागीदार बुरी तरह से आहत हो, एक पूरी तरह नाजायज और गैरजरूरी बयान था। कांग्रेस लीडरशिप की दिक्कत यह है कि वह आज अपने को राहुलसहित कहे,या राहुलरहित कहे?कहने को राहुल किसी ओहदे पर नहीं है, लेकिन वे मंच पर सब कुछ हैं। बिना जिम्मेदारियों के महज अधिकार ही अधिकार का यह सिलसिला भारत जैसी जटिल चुनावी राजनीति में, और खासकर मोदी-शाह के युग में, कांग्रेस का नुकसान छोड़ और कुछ नहीं कर रहा है। या तो राहुल गांधी पार्टी के भीतर अपनी असल जगह पर औपचारिक रूप से रहें, या फिर वे पार्टी लीडरशिप के आभामंडल से परे रहें, और बिना ओहदे वाले व्यक्ति की तरह शांत भी रहें। अगर शिवसेना से गठबंधन गलत है, और हमने इसी जगह इसे पहले ही दिन अटपटा और अप्राकृतिक भी लिखा था, तो राहुल कांग्रेस लीडरशिप के सामने अपनी बात रखे, न कि कांग्रेस लीडरशिप की तरह इस अंदाज में असहमति का हमला करें। कांग्रेस अपने आंतरिक अंतरविरोधों के दौर से गुजर रही है, और वह राहुल गांधी के मामले में कोई फैसला लेने की हालत में भी नहीं है। ऐसी नौबत में आज देश में तमाम जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने की दूसरी पार्टियों और सरकारों की कोशिशें मानो काफी न हों, राहुल ने कल से नंगे-भूखे, बीमार और कुपोषित लोगों के देश में सावरकर और शिवसेना के साथ असहमति का अकेला मुद्दा छेड़ दिया है। भाजपा भला और चाहती क्या है? राहुल गांधी को बाकी कांग्रेस पार्टी के साथ अपने संबंधों को लेकर एक पारदर्शी और औपचारिक व्यवस्था रखनी चाहिए, वरना लोग जिस तरह आरएसएस को बाहर से भाजपा सरकारों पर काबू रखने वाला संगठन कहते हैं, उसी तरह राहुल गांधी को बिना किसी पद के पार्टी का सब कुछ होने वाला कहेंगे। जब राहुल ने मनमोहन सरकार से असहमति रखते हुए उसके एक प्रस्तावित अध्यादेश को प्रेस क्लब जाकर मीडिया के सामने फाड़कर फेंक दिया था, तब की यादें ताजा हैं। लेकिन एक गठबंधन में रहते हुए भागीदार शिवसेना के पूजाघर से एक तस्वीर उठाकर उसे फाड़ देना न तो गंभीर काम रहा, न परिपक्व काम रहा, न ही उससे राहुल की बात को कोई वजन मिला। उनके भाषण लेखन अगर कोई हैं, तो उनको नौकरी से निकाला जाना चाहिए।

