छत्तीसगढ़ के म्युनिसिपल चुनावों के नतीजे अभी आ ही रहे हैं, और उनका रूख इतना मिलाजुला है कि कांगे्रस और भाजपा में से कौन कितने आगे है, यह अंदाज लगाना मुश्किल है। पिछले पन्द्रह बरस भाजपा प्रदेश में सरकार चला रही थी, और कांगे्रस पार्टी राजधानी रायपुर सहित बहुत से शहरों-कस्बों में म्युनिसिपलों पर काबिज थी। इसलिए अगर स्थानीय शहरी संस्थाओं के इस चुनाव में सत्ता के खिलाफ नाराजगी की बात की जाए, तो वह दोनों ही पार्टियों के खिलाफ रही होगी, और राज्य में इस मतदान के ठीक पहले प्रदेश की भूपेश बघेल सरकार का एक साल भी पूरा हुआ था, इसलिए उस सत्ता से भी अगर किसी की कोई नाराजगी रही होगी, तो वह भी इस चुनाव में निकली होगी। ये चुनाव महज वार्ड स्तर के हुए हैं, और निगम-पालिका के मुखिया का सीधा चुनाव नहीं हुआ है और पार्षद ही उन्हें चुनेंगे। लेकिन एक बात जो खुलकर दिख रही है वह यह कि वार्ड के चुनाव में भी तकरीबन सभी जगह इन्हीं दोनों पार्टियों का बोलबाला रहा है, और निर्दलीय उम्मीदवार बहुत ही कम संख्या में जीते हैं। ऐसा भी नहीं हो सकता कि कोई निर्दलीय उम्मीदवार अच्छे न रहे हों, लेकिन यह जाहिर है कि इन दोनों पार्टियों के अपने समर्पित और समर्थक वोट मायने रखते हैं, और उन्हीं से जीत-हार हुई है। आज शाम तक सभी निगम, पालिका, और नगर पंचायतों की तस्वीर साफ हो जाएगी, और उसके बाद शायद कुछ ही जगहों पर जोड़-तोड़ की जरूरत पड़े, अधिकतर जगहों पर पार्टियां स्पष्ट बहुमत के साथ महापौर और अध्यक्ष चुन पाएंगी।
स्थानीय संस्थाओं में अगर कुछ और छोटी पार्टियों के भी अधिक लोग जीते होते, निर्दलीय अधिक संख्या में जीते होते, तो वह म्युनिसिपल के भीतर जनहित के बेहतर फैसले लेने के लिए एक अच्छी बात होती। जब किसी एक पार्टी का बड़ा बहुमत स्थानीय संस्था में हो जाता है, तो उसके फैसलों में मनमानी अधिक होने लगती है। स्थानीय संस्थाओं की लीडरशिप, और उनकी भूमिका प्रदेश सरकार और उसके मुखिया की जिम्मेदारियों से अलग होती हैं, और ऐसे में म्युनिसिपलों में एक बेहतर संतुलन बना रहना अच्छी बात होती। छत्तीसगढ़ में पिछले दो दशक में म्युनिसिपलों में सबसे बड़ी दिलचस्पी करोड़ों से लेकर सैकड़ों करोड़ तक के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट बनाने में दिखाई है जिनमें भारी भ्रष्टाचार की गुंजाइश थी, और वैसे आरोप भी लगते थे। दूसरी तरफ शहरों को बेहतर बनाने के लिए बड़े खर्च के बिना भी जो काम हो सकते थे, उनमें दिलचस्पी बहुत कम रही क्योंकि लोगों की कमाई उसमें नहीं रहती। अब जब स्थानीय संस्थाएं दुबारा काम शुरू करने वाली हैं, दोनों ही पार्टियों के अपने स्थानीय निर्वाचित नेताओं की सोच को बेहतर बनाने की भी जरूरत है ताकि जमीन के हर टुकड़े को दुहने की कोशिश न हो, शहरों को कांक्रीट का जंगल न बनाया जाए, बची-खुची खुली जगह को खुला रखने की दरियादिली भी सीखी जाए। यह बात हमारा कहना आसान है, राजनीति और सत्ता में ऐसा करना बड़ा मुश्किल है। लेकिन इस मौके पर हम शहरी विकास, इंजीनियरिंग, और आर्किटेक्चर के जानकार लोगों से भी अपील करते हैं कि म्युनिसिपलों की नई सत्ता के पहले दिन से ही इन संस्थाओं की घोषणाओं और योजनाओं को तकनीकी आधार पर जनकल्याण की कसौटी पर कसें, और सार्वजनिक बहस छेड़ें। जो तकनीकी विशेषज्ञ हैं, वे ही अगर चुप रह जाएंगे तो उनका ज्ञान समाज के किसी काम का नहीं रह जाएगा। स्थानीय संस्थाओं को हम और अधिक अधिकार देने के हिमायती हैं, लेकिन उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों को अधिक हद तक सरकारी और सार्वजनिक रूप से तय करने के भी हिमायती हैं। जिम्मेदारियों के बिना, जवाबदेही के बिना महज अधिकार बढ़ाने का काम नहीं हो सकता, और सबसे बड़ी बात यह कि जनता का काम वोट डालने के बाद पांच बरस खत्म नहीं हो जाते। जनता को अपने पार्षदों और अपने महापौर-अध्यक्षों से लगातार सवाल पूछने होंगे, तभी स्थानीय विकास हो सकेगा। फिलहाल स्थानीय संस्थाओं के अगले पांच बरस के लिए सभी को शुभकामनाएं।