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मीडिया के अच्छे हिस्से की इज्जत बनाए रखने यह सिलसिला खत्म होना जरूरी

मध्यप्रदेश के इंदौर से एक खबर आ रही है कि वहां एक भांडाफोड़ अखबार निकालने वाले जीतू सोनी नाम के आदमी की इमारतों और होटल को तोडऩे का काम चल रहा है। पिछले कई दिनों से यह अखबार मध्यप्रदेश के चर्चित हनी ट्रैप सेक्स-वीडियो की बातों को छाप रहा था, और उसके होटल, शराबखाने, नाचघर, और अखबार के दफ्तर पर पुलिस ने लगातार छापे मारे, और उसके बेटे को गिरफ्तार भी किया। ऐसी खबरें आईं कि बाप-बेटे के होटल और बार में नाच-गाने के लिए बंगाल-असम से लाई गई दर्जनों महिलाओं को कैद करके रखा गया था, और उनको मजदूरी भी नहीं मिलती थी। अब पुलिस के साथ-साथ म्युनिसिपल और दूसरे विभाग भी इसके कारोबार पर टूट पड़े हैं। लोगों को थोड़ी सी हैरानी यह हो रही है कि इतने किस्म के अवैध कहे जा रहे कारोबार और निर्माण पर कार्रवाई की नौबत उस समय आई, जब सेक्स-सीडी की खबरें छपने लगीं। हैरानी की एक और बात यह है कि हनी ट्रैप मामले में मध्यप्रदेश की पिछली भाजपा सरकार के मंत्री-अफसर फंसे हुए बताए जा रहे हैं, लेकिन यह कार्रवाई आज प्रदेश की कांग्रेस सरकार कर रही है। 
इन खबरों को देखें तो यह लगता है कि इतने किस्म के विवादास्पद और गैरकानूनी काम लंबे समय से चलने के लिए क्या एक अखबार की आड़ काफी थी? वैसे तो अखबारों की आड़ लेकर बहुत किस्म के गलत और गैरकानूनी काम जगह-जगह पर होते आए हैं, और अब इस आड़ में अखबार के साथ-साथ टीवी चैनल या न्यूज पोर्टल और जुड़ गए हैं। खबरों की आड़ में सौ किस्म के दूसरे धंधे होने लगे हैं, जो कि पहले कम चलते थे, अब बढ़ चले हैं, बढ़ चुके हैं। मीडिया की ताकत का इस्तेमाल करके अवैध कब्जे, अवैध निर्माण, अवैध कारोबार बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया है कि अब मीडिया मालिक युवतियों को कैद में रखकर डांस बार चलाने लगे हैं, और उससे कमाई करने लगे हैं। देश में कई जगहों पर टीवी चैनलों के नाम पर लोगों की रिकॉर्डिंग करके उनको ब्लैकमेल करने के बहुत से मामले सामने आए हैं, और ऐसे धंधों का विरोध करने के लिए मीडिया का कोई संगठन या प्रकाशकों की कोई संस्था नहीं रह गई है। 
लोगों को याद होगा कि एक समय श्रमजीवी पत्रकार आंदोलन देश में बहुत मजबूत था, और वह पत्रकारों के कानूनी अधिकारों के लिए लडऩे के साथ-साथ पत्रकारिता के नीति-सिद्धांतों के लिए भी लड़ता था। उस वक्त पूरे देश में एक मजबूत मजदूर आंदोलन के रूप में श्रमजीवी पत्रकार संघ जाना जाता था, और उसका बड़ा सम्मान भी था। अब धीरे-धीरे बड़े पत्रकार अखबारों या टीवी चैनलों पर सिर्फ ठेके के मजदूरों की तरह काम करते हैं, और नियमित कर्मचारी जैसा वेतन का सिलसिला मीडिया के बहुत से हिस्से में खत्म हो गया है। ठेके के बड़े-बड़े पत्रकार किसी संगठन या आंदोलन का हिस्सा नहीं रह गए, और देश में मजदूर कानूनों की हिफाजत में किसी सरकार की दिलचस्पी नहीं रह गई, इसलिए लड़ते-लड़ते श्रमजीवी पत्रकार संघ खत्म हो गए। नतीजा यह हुआ कि पत्रकारिता में ईमानदारी की बात उठना भी बंद हो गई, और अब इंदौर-मध्यप्रदेश के बाहर के हमारे जैसे बहुत से लोगों को यह पहली बार पता लगा कि अखबार के पीछे डांस बार चल रहा था, और ऐसे धंधे हो रहे थे। 
मध्यप्रदेश में पन्द्रह बरस तक चली भाजपा सरकार की जानकारी में भी यह सब रहा होगा, लेकिन ऐसी किसी कार्रवाई की बात पता नहीं चली थी। अब सेक्स की खबरों और उसकी रिकॉर्डिंग के भांडाफोड़ के बाद ऐसी कार्रवाई सत्ता के लिए कई किस्म के शक भी खड़े करती है कि क्या कुछ खास किस्म की रिकॉर्डिंग के लिए ये छापे मारे गए? क्योंकि अब तक की इस भांडाफोड़ अखबारनवीसी का शिकार तो पिछली सरकार के ताकतवर लोग थे। खैर, सरकार की नीयत जो भी हो, पत्रकारिता के नाम पर चलने वाले ऐसे धंधों का खत्म होना ही एक नियति होनी चाहिए। यह और जल्दी होती, तो और बेहतर होता। पत्रकारिता में काम करने वाले लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि मीडिया मालिकों के ऐसे हाल के चलते वे अपने पेशे की इज्जत बनाए रखने के लिए क्या कर सकते हैं? क्योंकि अब कुछ हजार रूपए में एक न्यूज पोर्टल शुरू करने के बाद कोई भी व्यक्ति अपने आपको मीडिया कह सकते हैं, और कालेधंधे कर सकते हैं। मीडिया के अच्छे हिस्से की इज्जत बनाए रखने के लिए यह सिलसिला खत्म होना जरूरी है। (दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय 5 दिसंबर)
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