दिल्ली के लोकसभा चुनाव में एक भूतपूर्व क्रिकेटर गौतम गंभीर भाजपा के उम्मीदवार हैं, और उन पर आम आदमी पार्टी ने यह आरोप लगाया है कि उन्होंने आप उम्मीदवार एक महिला के चाल-चलन पर बहुत ओछी और गंदी बातें लिखकर उसका पर्चा बंटवाया है। ऐसा एक पर्चा आप ने प्रेस कांफ्रेंस में पेश भी किया है। दूसरी तरफ गौतम गंभीर ने इसके जवाब में कहा है कि अगर इसके पीछे उनका हाथ साबित हो जाए तो वे अपनी उम्मीदवारी से, चुनाव मैदान से हट जाएंगे। इस पर्चे की हकीकत चाहे जो हो, कम से कम दो दिग्गज क्रिकेट खिलाड़ी गौतम गंभीर के साथ आए हैं कि वे उन्हें बीस बरस से जानते हैं, और उनके मन में महिलाओं के लिए जो सम्मान उन्होंने देखा है, उसके चलते यह मुमकिन नहीं लगता कि वे ऐसा पर्चा बंटवाएंगे। दूसरी तरफ दिल्ली में जिस कांग्रेस को आम आदमी पार्टी ने बेदखल किया था, उस कांग्रेस की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे, भूतपूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने कहा है कि गौतम गंभीर ऐसी गिरी हरकत नहीं कर सकते।
कुछ ऐसा ही समर्थन केंद्रीय मंत्री अरूण जेटली ने सेक्स-शोषण के आरोपों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का किया था, और सुप्रीम कोर्ट के कुछ दूसरे वकीलों ने भी सीजेआई का बचाव किया था। छत्तीसगढ़ के लोग इस बात को भूल गए हैं कि जिस दिन आसाराम पर एक नाबालिग छात्रा ने बलात्कार का आरोप लगाया था, और जिस दिन जुर्म दर्ज हुआ था, या गिरफ्तारी हुई थी, उस दिन छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने सार्वजनिक बयान दिया था कि यह एक हिंदू संत को बदनाम करने की राजनीतिक साजिश है। अब सवाल यह उठता है कि एक नाबालिग छात्रा के आरोप को बिना किसी जांच के राजनीतिक साजिश करार देना क्या उस नाबालिग लड़की के खिलाफ लांछन लगाना नहीं है? लेकिन सार्वजनिक जीवन ऐसी मिसालों से भरा पड़ा है जिनमें लोगों के खिलाफ बेबुनियाद आरोप ऐसी लापरवाही से लगाए जाते हैं जिन्हें साबित करना नामुमकिन रहता है।
दिल्ली के इस ताजा पर्चे को लेकर ही बात करें, तो ऐसे गुमनाम पर्चे को लेकर कोई यह कहे कि उसके खिलाफ किसी ने ऐसा पर्चा बंटवाया है, तो वह तो समझ में आने लायक बात है। लेकिन ऐसे पर्चे को लेकर कोई भी पार्टी या नेता जब किसी पार्टी या नेता पर आरोप लगाते हैं, तो उनसे उसकी बुनियाद भी पूछना चाहिए। मीडिया अगर महज हरकारे की तरह एक के बयान दूसरों तक, और दूसरे के बयान तीसरे तक पहुंचाते रहे, तो उसकी अपनी जिम्मेदारी कहां चली जाती है? न तो ऐसे आरोप किसी के नाम लेकर लगाने पर उसकी खबर बिना सवालों के छापनी चाहिए, और न ही किसी को मिलने वाले चरित्र प्रमाणपत्र को महत्व देना चाहिए। पहली बार पकड़ाने के पहले तक तो हर बलात्कारी गैरमुजरिम ही दिखते रहता है। ऐसे कोई भी आरोप या बयान सामने आने पर मीडिया को न सिर्फ उन पर सवाल करने चाहिए, बल्कि बयानों के साथ अपने सवाल भी छापने चाहिए। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होते चल रहा है कि मीडिया अपने सवालों को भी लोगों के सामने रखे। सवाल जवाबों के मुकाबले कभी कम मायने नहीं रखते, और अक्सर ही सवालों के साथ आने पर ही वे जवाब मायने रखते हैं जो कि सवालों के जवाब में कहे गए हैं।