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सुप्रीम कोर्ट ने अपनी इज्जत बुरी तरह मिट्टी में मिला दी..

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर सेक्स-शोषण के आरोप लगाने वाली एक महिला मातहत की शिकायत की जांच सुप्रीम कोर्ट की जजों की कमेटी ने जिस अंदाज में करके उसे खारिज कर दिया है, वह हक्का-बक्का करने वाली बात है। इस मुद्दे पर हम पिछले दिनों इसी जगह पर दो बार लिख चुके हैं, और लिखने को कोई बुनियादी बात और बची नहीं है सिवाय इसके कि उसके बाद इस जांच की रिपोर्ट आ गई है जिसमें इन दिनों खासे फैशन में चल रही क्लीनचिट चीफ जस्टिस को भी दे दी गई है। यह अलग बात है कि आज दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के बाहर महिलाएं पोस्टर लेकर प्रदर्शन कर रही हैं, और इस पूरी जांच पर संदेह करते हुए इसका विरोध कर रही हैं। देश की जिस सबसे बड़ी अदालत से महिलाएं अपने हक के लिए इंसाफ की उम्मीद करती हैं, उसी अदालत में अपने मुखिया के आरोपों से घिर जाने पर जिस अंदाज में यह जांच की, जिस अंदाज में मुखिया को आरोपों से बरी किया, और शिकायतकर्ता महिला के खिलाफ अनर्गल आरोप लगाए, उन सबसे यह बात जाहिर हुई कि जब अपने पर जोखिम आता है, तो सुप्रीम कोर्ट सामूहिक रूप से अपने एक साथी, या मुखिया की इज्जत बचाने को बेइंसाफी पर उतारू हो सकता है, हुआ है। 
इस पूरे सिलसिले ने भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की इज्जत मिट्टी में मिला दी है। एक किसी मामूली से दफ्तर में भी अगर एक महिला सेक्स-शोषण का आरोप लगाती है, तो उसकी जांच के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ी लंबी-चौड़ी प्रक्रिया तय की हुई है, और जब यह शिकायत एक हलफनामे की कानूनी शक्ल में सामने आई, तो इसे कुचलने के लिए मुख्य न्यायाधीश ने पहले तो सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार से इसके खिलाफ बयान जारी करवाया, उसके बाद खुद इसकी सुनवाई शुरू की, और फिर खुद जजों की एक कमेटी छांटी जो कि इस मामले की तथाकथित सुनवाई करेगी। पूरी तरह से अविश्वसनीय और धुंध से घिरी हुई यह प्रक्रिया शुरू से ही मानो मुख्य न्यायाधीश को बचाने की नीयत से की जा रही थी, और कानून की हमारी मामूली समझ यह कहती है कि यह प्रक्रिया अपने-आपमें अदालत की एक गंभीर अवमानना थी, और मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ अदालत की अवमानना का एक मामला अलग से बनता है। और यह जाहिर है कि जिस तरह सुप्रीम कोर्ट की एक बहुत ही साख वाली महिला वकील, इंदिरा जयसिंह, ने जितने खुलकर इस क्लीनचिट का विरोध किया है, और जिस तरह कुछ महिला संगठन सड़कों पर हैं, हमारा ख्याल है कि इस क्लीनचिट से यह मामला खत्म होने वाला नहीं है, और यह लड़ाई आगे जाएगी, और मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई शिकायकर्ता महिला के हलफनामे के आने पर जितने संदेह से घिरे थे, आज वे इस क्लीनचिट के बावजूद उससे अधिक संदेह से घिर गए हैं। सुप्रीम कोर्ट की कमेटी में जिन जजों ने इस मामले की सुनवाई की है, उन्होंने ने भी इस महिला की आपत्ति के बावजूद उसे कानूनी मदद या कानूनी-इजाजत न देकर अपनी साख को घटाया है, और अपने नतीजों को संदेह से खुद ही घेर लिया है। यह पूरा सिलसिला भारी बेइंसाफी का दिखता है, और यह रिपोर्ट खारिज कर देने के लायक है, एक बाहरी जांच, निष्पक्ष जांच, कानूनी प्रक्रिया से जांच जरूरी है, और उसके बिना यह मामला ठंडा नहीं पड़ेगा। ऐसे संदेह से घिरा हुआ सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसले देगा, उनकी विश्वसनीयता भी सीमित रहेगी, कम रहेगी, या नहीं रहेगी। एक कामकाजी महिला ने देश में सबसे ऊपर के स्तर पर शोषण का जो एक मामला कानूनी प्रक्रिया से सामने रखा था, और अपने परिवार पर जितने किस्म के जुल्म की बात सामने रखी थी, वे सब एक तटस्थ जांच कमेटी के लायक बातें थीं, और सुप्रीम कोर्ट ने अपने मुखिया की अगुवाई में इन तमाम बातों की गंभीरता को निहायत नाजायज तरीके से खारिज किया, और इंसाफ की इज्जत मिट्टी में मिला दी है। आने वाले वक्त बताएगा कि इतिहास में दुनिया की इस एक सबसे बड़ी अदालत का यह रूख और यह रवैया बहुत बुरी तरह दर्ज होगा।
 [साभार - सम्पादकीय दैनिक छत्तीसगढ़, 7 मई 2019]

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