फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने दो दिन पहले जब ट्विटर पर लिखा कि वे एक नए रोल में सामने आने वाले हैं, तो लोगों ने आनन-फानन उनके भाजपा में शामिल होने, और चुनाव लडऩे की अटकल लगा ली। पिछले बरसों में अक्षय ने लगातार जिस तरह मोदी के उठाए हुए शौचालय जैसे मुद्दों से लेकर राष्ट्रवाद में फिट बैठने वाले मुद्दों तक पर बड़ी फिल्मों में काम किया, और अपनी एक ऐसी छवि बनाई जो कि भाजपा और राष्ट्रवाद के अनुकूल है, तो उनके ट्वीट से ऐसी अटकल स्वाभाविक ही थी। लेकिन हुआ कुछ और। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक ऐसा वीडियो इंटरव्यू लिया जो कि एक हिसाब से पूरी तरह गैरराजनीतिक था, मोदी की निजी जिंदगी, निजी पसंद-नापसंद के अनछुए मुद्दों को उघाडऩे वाला था, लेकिन साथ-साथ यह मोदी के भविष्य के सबसे नाजुक और महत्वपूर्ण राजनीतिक मौके पर लिया गया एक ऐसा इंटरव्यू था जो कि चुनाव प्रचार के उफान के बीच मानो लहरों पर सर्फिंग करता हुआ आया, और तमाम चैनलों और अखबारों पर छा गया। मोदी की छोटी-छोटी गैरराजनीतिक बातें लोककथाओं की तरह चर्चा में आईं, और फिर भक्तों की एक फौज ने उसके हिस्सों को बाकी देश तक फैला दिया। न तो अक्षय कुमार पत्रकार होने का दावा करते, न ही यह इंटरव्यू पत्रकारिता है, इसलिए यह महज प्रचार का एक ऐसा नमूना है जिसकी संभावना बाकी नेताओं और पार्टियों के सामने भी बनी हुई थी। यह अलग बात है कि मोदी ने जो जवाब दिए हैं, उनका सच-झूठ तलाशते हुए इस बार का यह चुनाव तो निपट ही जाएगा।
अब भारतीय लोकतंत्र की सीमाओं और संभावनाओं को देखें, तो इस इंटरव्यू में नाजायज क्या है? न तो अक्षय कुमार कोई पत्रकार हैं कि उन्होंने तीखे और पैने सवाल क्यों नहीं किए? न ही चुनाव के बीच ऐसे किसी इंटरव्यू पर कोई रोक है, और न ही बीते बरसों में अक्षय कुमार की शौचालय से लेकर सेना और जंग तक की छवि बनाने में कोई बात गलत है। दरअसल मोदी-शाह की अगुवाई में भाजपा ने अपने आपको छवि बनाने, ब्रांडिंग करने, प्रचार करने, मार्केटिंग करने की एक ऐसी शानदार मशीन बना लिया है कि देश की बाकी तमाम विपक्षी पार्टियां उस तरह से सोच भी नहीं पा रही हैं जब तक भाजपा असर डालकर आगे बढ़ चुकी होती है। भारतीय लोकतंत्र ऐसा लचीला है कि वह ऐसी तमाम कोशिशों को छूट देता है, यह एक अलग बात है कि चुनाव के दौरान मोदी और भाजपा इतने किस्म की नाजायज कोशिशों में लगे हुए हैं, और इन पर चुनाव आयोग को शिकायतें की गई हैं, और इन पर चुनाव आयोग मोटेतौर पर अनदेखी दिखा रहा है। एक पुरानी, और अलोकतांत्रिक कहावत है कि मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज होता है। इसी पर अमल करते हुए भारतीय चुनावों में भी सब कुछ जायज की तर्ज पर चुनाव प्रचार होता है, और भाजपा ने पिछले बरसों में टीवी सीरियलों से लेकर फिल्मों तक, मोदी के नाम पर शुरू किए गए नमो टीवी चैनल तक, और इस किस्म के कहने को गैरराजनीतिक, लेकिन राजनीतिक-चुनावी अग्निपरीक्षा के बीच ऐसे इंटरव्यू तक, भाजपा ने हर औजार-हथियार का गजब का इस्तेमाल किया है। हम पांच बरस पहले के चुनाव के ठीक पहले के ऐसे टीवी सीरियलों की बात उस वक्त भी उठा चुके हैं जो कि चुनावी वक्त पर हिन्दुस्तान के इतिहास में किसी धर्म के लोगों की ज्यादती की कहानी पर बनाए गए थे। और उनका प्रसारण पूरा होने का वक्त अनायास ही चुनाव के ठीक पहले का नहीं था। कहने के लिए कांग्रेस पार्टी की लीडरशिप भाजपा की लीडरशिप से एक पीढ़ी छोटी दिखती है, अधिक नौजवान दिखती है, लेकिन राजनीति के बाजारूकरण की तरकीबों और तकनीकों में वह मोदी-शाह के मुकाबले कहीं नहीं टिकती है।
जिस अंदाज में भारत के राजनीतिक दलों ने घोषित और अघोषित चंदा इकट्ठा किया है, जिस अंदाज में विदेशी और देशी प्रचार-विशेषज्ञों का इस्तेमाल किया है, जिस तरह चुनाव के मौके पर हर नाजुक मुद्दे को दुहा है, वह गजब का है, और ऐसा लगता है कि राजनीतिक खूबी और खामी से परे चुनावी जीत एक ऐसे मैनेजमेंट का खेल हो गया है जिसमें बाकी पार्टियां भाजपा को छू भी नहीं पा रही हैं। अब ऐसे में चुनावी नतीजे चाहे जो हों, वे भाजपा की तकनीक और तरकीब से बहुत हद तक प्रभावित रहेंगे यह तय है। अब भारतीय लोकतंत्र महज खरे और खोटे, अच्छे और बुरे, काबिल और नाकाबिल के बीच का चुनाव, असली और नकली मुद्दों के बीच का चुनाव नहीं रह गया है। यह चुनाव तो आधे से अधिक गुजर चुका है, और कुछ हफ्तों में नई सरकार का फैसला सामने आ जाएगा। लेकिन उसके बाद भी ऐसे कई चुनाव आगे आएंगे जिनमें इन तकनीकों और तरकीबों का दखल रहेगा ही रहेगा, और बढ़ता भी चलेगा।