हिन्दुस्तान में प्रचलित जुबान में बहुत से शब्द लोगों को हक और जिम्मेदारी का एहसास नहीं करने देते। कानून जिन्हें पब्लिक सर्वेंट कहता है, उनको सरकार की हिन्दी भाषा अधिकारी कहती है। नतीजा यह होता है कि सरकारी अफसरों के सिरों पर सारे वक्त उनके अधिकार चढ़े रहते हैं, और उनकी जिम्मेदारियां, यानी जनता के अधिकार, अफसरों के बूटों तले रहते हैं। कुछ ऐसा ही हाल वोट डालने की जिम्मेदारी का है। लोकतंत्र में अच्छी सरकार चाहने वाले लोगों के लिए वोट डालना एक जवाबदेही और जिम्मेदारी होनी चाहिए। लेकिन वोट के लिए हिन्दी में मतदान शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसका मतलब भी दान करना होता है। इसलिए दान, जो कि मर्जी से किया जा सकता है, और नहीं भी किया जा सकता है, वही हिन्दुस्तानी सोच पर हावी हो गया है। हालत यह है कि मतदान को अनिवार्य करने की बात करनी पड़ रही है क्योंकि वोट डालने के बजाय लोग घर बैठे रहते हैं, और आमतौर पर जीतने वाले उम्मीदवार के वोट भी, घर बैठे वोटरों की गिनती से कम रहते हैं। यानी जितने वोट पाकर कोई सांसद या विधायक बन जाते हैं, उससे अधिक वोट डलते ही नहीं। नतीजा यह होता है कि नालायक वोटरों के निकम्मेपन से हो सकता है कि एक नालायक जीत जाए, और काबिल उम्मीदवार हार जाए।
लोगों को याद होगा कि एक वक्त भारत में समाजवादी सोच के सबसे बड़े नेता राममनोहर लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करतीं। उनका यह कहना शायद इस सिलसिले में था कि संसद या विधानसभा अपना कार्यकाल पूरा करने के पहले दुबारा चुनाव में जाने की नौबत कई बार झेलती हैं, और लोग इसे चुनाव की मेहनत की बर्बादी मानते हैं। लोहिया का कहना था कि जरूरत पडऩे पर आ खड़े हुए ऐसे चुनाव में नुकसान नहीं है, क्योंकि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं कर सकतीं। लेकिन हिन्दुस्तान में वोट न डालने वाले एक तिहाई से अधिक वोटरों को क्या कहा जाए? इनको जिंदा गिना जाए, या मुर्दा कहा जाए? सोचने-समझने और महसूस करने वाली कौमें तो ऐसी होती हैं जो कि दो चुनावों के बीच भी बेसब्र हो जाती हैं, और ऐसी ही बेसब्री के लिए भारतीय लोकतंत्र में एक अधिकार जोडऩे की बात हो रही है, मांग हो रही है, चुने हुए प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने की। तो एक तरफ इस देश में राईट-टू-रीकॉल की चर्चा होती है, दूसरी तरफ हाथ में टीवी का रिमोट कंट्रोल लिए मौजूदा राईट (अधिकार) पर सोते हुए एक तिहाई से अधिक हिन्दुस्तानी वोटर हैं।
दरअसल दिक्कत जुबान की भी है। मतदान, रक्तदान, नेत्रदान, देहदान, जैसी बहुत सी सामाजिक जवाबदेही, और इंसानी जिम्मेदारी को एक दान का दर्जा देकर लोगों को इनकी तरफ से बेफिक्र कर दिया गया है। लोग अपने मरने के बाद अपने देह को, और मरने के पहले अपने खून को, इस तरह अपनी दौलत मान लेते हैं, मानो वे उन्हें कुदरत से खरीदकर लाए हों। कुदरत से मुफ्त में मिली देह को भी कुदरत की दुनियादारी में दुबारा लौटाने की सोच हिन्दुस्तान में नहीं है। इसी दुनिया से कमाई गई दौलत को भी समाजसेवा में लौटा देने की सोच हिन्दुस्तान में बहुत कम लोगों में है।
खैर, आज हम यहां पर बहुत दार्शनिक अंदाज में इस बात को बिखराना नहीं चाहते, और मुद्दे की बात पर आना चाहते हैं। जो लोग मतदान की जिम्मेदारी को दान करने का अधिकार मानते हैं, वे लोग सबसे खराब सरकार के हकदार खुद भी होते हैं, और अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए वे अपनी दौलत तो विरासत में छोड़ जाते हैं, घर-मकान तो बच्चों के नाम कर जाते हैं, लेकिन साथ-साथ एक घटिया लोकतंत्र की गारंटी भी अपनी अगली पीढिय़ों के नाम कर जाते हैं। वोट का दान न करना लोकतंत्र की इमारत में, चौखटों और बाकी लकडिय़ों में दीमक छोड़कर जाने जैसा है। ताजा भारतीय इतिहास में ऐसी अनगिनत दीमकें देश को खोखला करते सामने आ चुकी हैं। क्या हिन्दुस्तानी वोटर अपने बच्चों के लिए ऐसे मकान वसीयत में छोड़कर जाना चाहते हैं, जिसमें हर तरफ दीमक लगी हो?
आज यह मौका है कि पांच बरस में एक बार दीमकों का इलाज, वोटरों के हाथ है। आज भी जो अपने वारिसों को एक दीमकमुक्त मकान नहीं देंगे, वे मरने के बाद, ऊपर, स्वर्ग या नर्क में जहां कहीं भी, बैठे हुए अपनी पीढिय़ों को एक खोखले लोकतंत्र में तकलीफ पाते देखने की तकलीफ पाते रहेंगे। इसलिए लोगों को आज जिंदा रहने का, जिंदा होने का एक सुबूत देना होगा, और लाख-लाख वोट वाले चुनाव क्षेत्र में सौ-सौ वोटों के लिए साजिशें करने वाले लोगों को सबक सिखाने के लिए सामने आना होगा। यह नौबत वोट का हक रखने वालों के लिए शर्मनाक है, शर्मिंदगी की है कि उनके हाथ दीमक खत्म करने की दवा है, और दीमक है कि वह हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को हमेशा के लिए खोखली करती चल रही है। यह मतदान का अधिकार नहीं है, वोट देने की जिम्मेदारी है। और दुनिया में कोई भी अधिकार बिना जिम्मेदारी के नहीं आते। इसलिए हर वोटर को हर चुनाव में दीमक मारने निकलना चाहिए, जरा सा वक्त निकालना चाहिए, वरना कब इमारत खोखली होकर उन पर गिर पड़ेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं है।