Slider

ऐसा लचीला लोकतंत्र दुनिया में कहीं नहीं...

राजनीति बड़ी अजीब जोडिय़ां बनाती है। और खासकर हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में यह दूसरे देशों के मुकाबले अधिक हैरतअंगेज दर्जे का सिलसिला है। अमरीका या ब्रिटेन में दलबदल, या दलों का विचित्र, अस्वाभाविक, अप्राकृतिक गठबंधन सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन हिन्दुस्तान में हर चुनाव के पहले के छह महीने इतिहास के कई किस्म के गठबंधन दर्ज करते हैं। अब आज ही जैसे उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के चुनाव क्षेत्र मैनपुरी में बसपा की मुखिया मायावती प्रचार करने को पहुंचीं, तो करीब चौथाई सदी बाद ये दोनों नेता एक मंच पर एक साथ नजर आए। इसके पहले उत्तरप्रदेश में एक कुख्यात रेस्ट हाऊस कांड हुआ था जिसमें मायावती के साथ मुलायम के मवालियों ने बदसलूकी की थी, और उसके बाद दोनों पार्टियों के बीच रिश्ते सांप-नेवले सरीखे हो गए थे। पिछले बरस जब मुलायम के विरोध के बावजूद अब पार्टी सम्हाल रहे बेटे अखिलेश यादव ने मायावती से गठजोड़ किया था तो खुद मुलायम को ऐसे दिन का अंदाज नहीं था कि मायावती उनके लिए वोट मांगने उनकी सीट पर आएंगी, और वे मंच से कहेंगे कि वे इस अहसान को कभी नहीं भूलेंगे। कुल मिलाकर भाजपा के खिलाफ ये दो पार्टियां आज जिस तरह मिलकर उत्तरप्रदेश में चुनाव लड़ रही हैं, वे पिछले चुनाव की कटुता के ठीक खिलाफ है, और इन दोनों पार्टियों के सामाजिक समीकरण के हिसाब से ठीक भी है। इन दोनों की जमीन पिछड़ों, दलितों, और अल्पसंख्यकों के बीच है, और इन वोटों के बंटने से यूपी में योगीराज आ गया था, जो हो सकता है कि लोकसभा चुनाव में शिकस्त पाए। 
लेकिन दूसरी तरफ दिल्ली में एक दूसरे मामले में कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने पार्टी के तमाम पदों से, और सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया है क्योंकि उत्तरप्रदेश में उनके साथ बदसलूकी के बाद निलंबित पार्टी के कुछ नेताओं को चुनाव के इस मौके पर पार्टी में वापिस ले लिया गया है। यह बात गिनाते हुए प्रियंका ने कांग्रेस छोड़ दी, और आज शिवसेना में शामिल हो गई हैं। अब कांग्रेस और शिवसेना में भला ऐसा क्या हो सकता है कि प्रवक्ता जैसे वैचारिक जिम्मेदारी वाले ओहदे की महिला एक पार्टी छोड़ दूसरे में जाए! कांग्रेस और शिवसेना के सारे मूल्य एक-दूसरे के खिलाफ हैं, रीति-नीति एक-दूसरे के खिलाफ है, और साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर दोनों आमने-सामने हैं। ऐसे में महज एक बात इन दोनों पार्टियों में एक सरीखी है कि इनका इतिहास, वर्तमान, और भविष्य, एक-एक कुनबे की लीडरशिप पर टिके हुए हैं। लेकिन जो प्रियंका चतुर्वेदी पिछले दस बरस से लगातार साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलती आ रही थीं, वे अब शिवसेना की जुबान बोलेंगी! खैर, भारतीय लोकतंत्र में ऐसा होते रहता है क्योंकि लंबे समय तक शिवसेना की तेजाबी जुबान बोलने वाले संजय निरूपम उस पार्टी को छोड़कर सीधे कांग्रेस में आए थे। 
हिन्दुस्तान की राजनीति का राष्ट्रीय और प्रादेशिक इतिहास ऐसे ही दलबदल से, गठबंधन और चुनावी तालमेल से भरा हुआ है। अब कल का दिन ही देखें, तो अभी दो हफ्ते पहले तक भाजपा के सांसद रहे शत्रुघ्न सिन्हा पहले तो कांग्रेस में आए, और कल वे सपा में गई अपनी पत्नी का चुनाव प्रचार करने के लिए कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ मंच पर पहुंच गए। वे खुद पटना से कांग्रेस उम्मीदवार हैं, और अपनी पत्नी के अलावा वे समाजवादी-परिवार के अखिलेश-डिम्पल के लिए भी प्रचार करने जाने को तैयार हैं। भारतीय लोकतंत्र का यह लचीलापन दूसरे बहुत से देशों में देखने नहीं मिलता, जहां पर दलबदल और दिलबदल इतना आम नहीं है। लेकिन हिन्दुस्तानी वोटर भी इस किस्म से खाल बदल-बदलकर आने वाले उम्मीदवारों को देखने के आदी हैं, और वे इन्हीं के बीच से अपनी पसंद तय करने की खूबी भी रखते हैं। 
हम पहले भी लिखते आए हैं कि राजनीति की गंदगी को कम करने के लिए चुनाव के आधे या एक बरस पहले से दलबदल पर ऐसी रोक लगनी चाहिए कि इन महीनों में पार्टी बदलने वाले नई पार्टी से उम्मीदवार न बन सकें। लेकिन अपनी राजनीतिक निष्ठा को आधी रात सबसे बड़ी बोली बोलने वाले के हाथ नीलाम करने पर उतारू नेता क्या कभी ऐसा चुनाव सुधार होने देंगे? 
© all rights reserved TODAY छत्तीसगढ़ 2018
todaychhattisgarhtcg@gmail.com