कल शांत न्यूजीलैंड की दो मस्जिदों पर जिस तरह नस्लवादी आतंकी हमले हुए, और करीब पचास लोगों को मार डाला गया, उससे वह देश तो हिल ही गया है, साथ-साथ गोरी दुनिया के बाकी देशों के लिए भी एक बड़ी फिक्र की बात आ खड़ी हुई है कि उनकी जमीन पर संपन्न और हथियारबंद गोरी बिरादरी के लोग अगर नस्लवादी हिंसा पर इस तरह उतारू हो जाएंगे तो क्या होगा? न सिर्फ गोरी दुनिया में, बल्कि दुनिया भर में किसी भी देश में जब तक आतंकी या उग्रवादी हिंसा अल्पसंख्यक करते हैं, तब तक तो उन पर निगरानी रखी जा सकती है, सावधानी बरती जा सकती है। लेकिन जब किसी देश की बहुसंख्यक आबादी साम्प्रदायिक या नस्लभेदी हिंसा पर उतारू हो जाए, तो फिर वहां तबाही की कोई सीमा नहीं रह जाती। और अमरीका में लगातार एक के बाद दूसरी शूटिंग की वारदातें देख-देखकर यह समझ पड़ता है कि लोगों के मन में नफरत कई वजहों से हो सकती है, जिनमें नस्लवाद से परे की कई निजी कुंठाएं भी हो सकती हैं। अमरीका में बहुत से छात्रों या भूतपूर्व छात्रों ने अपनी स्कूल में घुसकर भी लोगों को थोक में मारा है।
न्यूजीलैंड में कल हुई इस भयानक हिंसा के साथ यह बात भी जुड़ी हुई है कि मुस्लिमों से, बाहर से आकर न्यूजीलैंड में बसे हुए लोगों से नफरत करने वाला एक गोरा आदमी ऑटोमेटिक गन से लैस होकर, और अपने बदन पर कैमरा लगाकर, मस्जिद पर हमले और हत्याओं का जीवंत प्रसारण करते हुए जिस तरह लोगों को मारते चले गया, उससे यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि आगे की किसी हिंसा को, किसी भी तरह की हिंसा को, सुरक्षा कर्मचारी किस तरह रोक पाएंगे। दूसरी तरफ अमरीका जैसे देश में हथियार बनाने के कारखानों में लोगों को निजी हथियार रखने का बढ़ावा दे-देकर एक ऐसा माहौल पैदा कर दिया है जिसके चलते लोग कई-कई हथियार घर पर रखते हैं, और ऐसे हथियार भी रखते हैं जो कि किसी सेना के हमले की नौबत में ही आत्मरक्षा के लिए जरूरी हो सकते हैं। ऐसे बड़ी-बड़ी ऑटोमेटिक गन से लैस लोग विचलित होकर जब उबलते हुए लोगों को भूनते हैं, तो अमरीका कुछ पल के लिए हिलता है, और फिर हथियारों के कारोबारी ऐसी घटनाओं को भी बाकी लोगों को हथियार बेचने के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं।
लेकिन मुस्लिमों के खिलाफ गोरी दुनिया में यह नस्लभेदी हिंसक नफरत बहुत नई नहीं है। योरप में भी जगह-जगह ऐसे हमले हुए हैं, और अमरीका में भी। कुछ मुस्लिम देशों में बसे हुए आतंकी गिरोह जिस तरह बाकी दुनिया मेें आतंकी हमला करते हैं, उससे इस्लाम की दहशत फैली हुई है। ऐसे इस्लामोंफोबिया से प्रभावित लोग अपने देशों से मुस्लिम-प्रवासियों को भगाने के लिए ऐसी हिंसा के हिमायती रहते आए हैं, और उनमें से कुछ अधिक हिंसक लोग ऐसे हमले करते हैं। आज पूरी दुनिया में विकास के बावजूद, लोगों के पढ़े-लिखे होने के बावजूद, लोकतांत्रिक कानूनों की मजबूती के बावजूद ऐसी नस्लभेदी हिंसा जगह-जगह हो रही है। यह गिनती में अधिक नहीं है, लेकिन यह बात साफ है कि जब कभी ऐसी मौतें सामने आती हैं, उनसे हजार गुना अधिक संख्या में भेदभाव की ऐसी घटनाएं होती हैं जो कि पुलिस तक नहीं पहुंचतीं। हिन्दुस्तान में भी ऐसा ही होता है, कहीं मुस्लिमों के साथ, कहीं ईसाईयों के साथ, और कहीं दलित-आदिवासियों के साथ। अब धीरे-धीरे धर्म और जाति से परे प्रदेश को लेकर भी ऐसी हिंसा हिन्दुस्तान के भीतर ही होने लगी है, हिन्दुस्तानियों के साथ ही होने लगी है, जो लोग पैदाइशी हिन्दुस्तानी हैं उनके साथ भी होने लगी है। कुल मिलाकर मतलब यह है कि जब नफरत लोगों के भीतर घर कर जाती है, जब मिजाज में हिंसा आ जाती है, तो वह निशाने ढूंढने लगती हैं। पहले वे दूसरे देश के लोग, फिर वे दूसरे धर्म के लोग, फिर दूसरी जाति के लोग, दूसरे प्रदेशों के लोग ढूंढती हैं, और मारती हैं। ऐसी हिंसा को बढ़ावा देने वाले तमाम लोगों को यह सोचने की जरूरत है कि वे ऐसा करके अपनी अगली पीढ़ी को एक खतरे में डालने का काम भी कर रही हैं। न्यूजीलैंड में एक गोरे ने जो किया है, हो सकता है कि दुनिया के किसी दूसरे देश में कोई मुस्लिम संगठन किसी और गोरे समूह के साथ उसका हिसाब चुकता करे। इस बुरी नौबत का कोई आसान इलाज नहीं है, सिवाय नफरत घटाने के।