अभी कल महाराष्ट्र और हरियाणा राज्य मंत्रिमंडलों की बैठक हुई तो लोगों की नजरें उन पर लगी थीं कि क्या वे लोकसभा चुनावों के साथ अपने राज्यों के चुनाव करवाने के लिए विधानसभा भंग करेंगे? इनके साथ-साथ झारखंड में भी कुछ महीनों के भीतर ही चुनाव होने हैं, और इन तीनों ही राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। ऐसे में लोकसभा के साथ इन तीन राज्यों के चुनाव हो जाने से देश भर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, और उनकी भाजपा द्वारा लगातार चलाई जा रही एक बहस को ताकत मिलती कि संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए। देश में बहुत सी पार्टियां इसके खिलाफ भी हैं, और कई लोगों का यह मानना है कि मोदी देश में सबसे लोकप्रिय नेता हैं, उनकी वोट-अपील सबसे अधिक है इसलिए भी ऐसी कोशिश हो रही है कि संसदीय चुनावों के साथ-साथ राज्यों में भी भाजपा मोदी की लोकप्रियता को भुना सके।
सैद्धांतिक रूप से यह बात ठीक लगती है कि देश और प्रदेश एक साथ चुनावों से फारिग हो लें, और फिर अगले पांच बरस तक लुभावनी योजनाओं और घोषणाओं के दबाव से मुक्त रहें। आज बहुत से राज्यों में हर एक-दो बरस में कोई न कोई चुनाव रहता है, राज्य सरकारें न कोई कड़ी कार्रवाई कर पाती हैं, और न ही चुनावी घोषणाओं, चुनावी फैसलों के दबावों से मुक्त रह पाती हैं। इसलिए यह बात सही लगती है कि ऐसे चुनाव अगर एक साथ हो सकें, तो फिर सरकारें बेहतर काम कर सकेंगी। दूसरी तरफ ऐसी सोच के खिलाफ जो पार्टियां हैं, उनका मानना है कि इससे देश में एक ही विचारधारा या एक ही नेता के एकाधिकार की नौबत आएगी, और भारत के संसदीय लोकतंत्र के तहत देश के संघीय ढांचे में जिस विविधता की संभावना संविधान निर्माताओं ने रखी है, वह तहस-नहस हो जाएगी।
भाजपा के लिए यह एक बड़ा मौका था कि एक बरस के भीतर जिन तीन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, वहां की विधानसभाएं समय के पहले भंग हो जातीं, और समय के पहले बन जातीं। ऐसा पहले भी कई राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी ने जीत की अपनी संभावनाओं को देखते हुए किया भी है। इसलिए आज तो इन तीन भाजपाशासित राज्यों को ऐसा करना भी था क्योंकि इस चुनाव में उनके पास मोदी की शक्ल में भाजपा का आज सबसे लोकप्रिय नेता होने का दावा भी है, और जैसा कि मोदी सरकार और भाजपा का नारा है, नामुमकिन अब मुमकिन है, या मोदी है तो मुमकिन है। ऐसे में लगता है कि इन तीन राज्यों में मोदी के चलते भाजपा की एक बड़ी जीत अगले पांच बरस के लिए तय हो जाती, लेकिन इसके बावजूद इन राज्यों ने अपनी पार्टी की सोच को आगे क्यों नहीं बढ़ाया?
अब राजनीतिक विश्लेषक भाजपा के कड़ी पकड़ वाले इन राज्यों के इस रूख को देखकर यह अंदाज लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या इस बार के आम चुनावों में भाजपा को अपनी संभावनाएं उतनी मजबूत नहीं लग रही हैं जितनी सार्वजनिक रूप से पार्टी बताती है? क्या केन्द्र के साथ राज्यों के चुनावों में राज्यों की संभावना घटने की आशंका पार्टी को लग रही है? ये सवाल आज मीडिया के कई तबकों में उठ रहे हैं, और इनका जवाब तो आम चुनाव के नतीजों से ही मिल पाएगा।