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सबसे निराला एक अखबार, पहला पन्ना एक संपादकीय भी है, और एक कार्टून भी..

कोलकाता के अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ ने पिछले कई बरसों से देश में सबसे आक्रामक अंदाज से कल्पनाशीलता भरे पहले पन्ने का जो सिलसिला चलाया है, उसने देश के अखबारनवीसों के बीच, और अखबारनवीसी के पैनेपन की समझ रखने वाले लोगों के बीच खासी तारीफ पाई है। खासकर पिछले पांच बरस में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले से अब तक उसने मोदी, उनकी सरकार, और उनकी पार्टी की विसंगतियों को, खामियों को, नाकामयाबियों को जैसी गजब की कल्पनाशीलता के साथ उठाया है, उससे टेलीग्राफ का पहला पन्ना कभी एक संपादकीय टिप्पणी जैसा दमदार हो गया, तो कभी किसी सबसे तीखे-तेजाबी कार्टून सरीखा हो गया, कभी वह देश के लोगों को सच के लिए उकसाने और भड़काने वाला हो गया, तो कभी वह शब्दों से खिलवाड़ करके भाषा से प्रेम रखने वाले लोगों के लिए मजे और आनंद का सामान हो गया। एक अखबार का पहला पन्ना अपने प्रयोगों से किस तरह खबरों में आ सकता है, यह टेलीग्राफ ने साबित किया है, और ऐसा करते हुए उसने महज कल्पनाशील रचनात्मकता का काम नहीं किया है, उसने लोगों को बुरी तरह झकझोर भी दिया है।  
मीडिया के लिए यह दौर खासा चुनौतीभरा है, खतरनाक है, और साथ-साथ संभावनाओंभरा भी है। देश के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा केन्द्र सरकार के दबावतले काम करते भी दिख रहा है, और कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा बिक गया है, और मोदी के साथ वह गोदी-मीडिया बनकर बैठ गया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मीडिया पर एक अघोषित सेंसरशिप लगी हुई है, और लोग अपनी आत्मा बेचने पर उतारू हैं, कुछ लोग राज्यसभा में जाने के लिए, तो कुछ अपने मीडिया-कारोबार के टैक्स-लफड़ों से निपटने के लिए, तो कुछ लोग किसी और किस्म की सरकारी रियायत पाने के लिए मोदी के साथ उस हद तक जुड़ गए हैं, जिससे काफी कम हद तक मीडिया का काफी बड़ा हिस्सा किसी भी सरकार से जुड़ ही जाता है। अब सवाल यह उठता है कि सत्ता और मीडिया का यह रिश्ता क्या इन पांच बरसों में मोदी ने एक फौलादी शिकंजे की तरह मजबूत कर लिया है? या फिर मीडिया ही अच्छे दाम पाकर अपनी आत्मा को बेचने पर उतारू हो गया है जिसके लिए वह हमेशा से ही आतुर रहता ही है? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिसके लिए महज मीडिया, या महज मोदी को अकेले कोसना ठीक नहीं है क्योंकि जब मीडिया खुद होकर सत्ता की मेहरबानियां पाने के लिए एक पैर पर कतार में खड़े रहता है, तो फिर उन मेहरबानियों का कुछ दाम तो चुकाना ही होता है। 
ऐसे माहौल के बीच टेलीग्राफ अखबार ने खबरों के पहले पन्ने का जैसा पैना इस्तेमाल किया है, वैसा शायद ही किसी और अखबार ने, शायद ही कभी हिन्दुस्तान में किया होगा। इस पूरे दौर में कुछ और अखबार भी रहे हैं जो कि अपने-अपने किस्म से अलग-अलग लड़ाईयां लड़ी हैं, और बाकी बहुत से लोगों का हौसला भी बढ़ाया है। आपातकाल चूंकि हिन्दुस्तान के इतिहास में मीडिया के सबसे ही बुरे दौर की शक्ल में दर्ज है, इसलिए जब भी किसी दूसरे दौर में मीडिया पर ज्यादती की बात करनी होती है तो लोग आपातकाल को गिनाने लगते हैं। लेकिन आज के हालात कुछ दूसरे के हैं। आज सरकार को घोषित आपातकाल की जरूरत नहीं पड़ती है, सरकार के काबू का बाजार-कारोबार अपने इश्तहारों के रास्ते मीडिया पर इतना दबाव डाल देता है, कि समाचार और विचार के उसके पन्ने, समाचारों और बहस के उसके टीवी प्रसारण, इन सबको अपनी औकात में रहना होता है, ताकि अगले महीने की तनख्वाह मिल सके। लेकिन यह बात जरूर है कि सरकार की मेहरबानी वाले मीडिया, और सरकार की नाराजगी झेलते मीडिया के बीच बाजार में बराबरी के मुकाबले की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है, और सरकार के खिलाफ तिरछे चलने वाले मीडिया के लिए बिना सेंसरशिप भी चलना मुश्किल हो जाता है। 
हिन्दुस्तान में आज बहुत से अच्छे टीवी समाचार चैनलों, और अच्छे अखबारों से जब धीरे-धीरे बड़ी कंपनियों के इश्तहार गायब होने लगते हैं, और बहुत छोटी-छोटी कंपनियों के बहुत आम सामानों के इश्तहार ही उनके पास बच जाते हैं, तो यह बात समझना कोई कठिन पहेली नहीं रह जाता कि बाजार किसके कहे, किसके इशारे, या किसका रूख भांपकर अपने इश्तहार तय कर रहा है। आज की यह पूरी बात टेलीग्राफ के आज के पहले पन्ने को लेकर शुरू हुई है जिस पर इस अखबार ने एक मुजरिम की तलाश वाला एक इश्तहार बनाकर सबसे ऊपर खबर की तरह छापा है जिसमेें अलग-अलग ऐतिहासिक 'जुर्म' गिनाकर नेहरू की तलाश की बात कही गई है, और मोदी की तस्वीर लगाई गई है कि नेहरू को ढूंढकर इस पुलिसवाले के हवाले करें। आज सोशल मीडिया पर सुबह से कोई तस्वीर अगर सबसे अधिक बार पोस्ट हो रही है तो वह यही तस्वीर है, और इस अखबार का रूख इसके पढऩे वाले लोगों को एक बेहतर मतदाता, एक बेहतर नागरिक बनाता है, यह तय है। इसके साथ-साथ देश के लोगों को यह भी सोचने की जरूरत है कि किसी जिम्मेदार या अच्छे अखबार के प्रति उनकी क्या जिम्मेदारी रहती है, रहनी चाहिए, और है ? 
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