मोदी सरकार ने जाते-जाते जो अंतरिम बजट पेश किया है, वह सबको खुश करने वाला है। आबादी के करीब 10 फीसदी, 12 करोड़ छोटे किसानों को हर बरस छह-छह हजार रूपए मिलेंगे। नौकरीपेशा उच्च-मध्य आय के लोगों को पांच लाख रूपए तक की आय टैक्समुक्त रहेगी, और उसके ऊपर की आय पर भी टैक्स रियायतें बढ़ाई गई हैं, और मकान, किराए, बैंक ब्याज इन सब पर भी छूट बढ़ाई गई है। कुल मिलाकर जिस तरह क्रिसमस के ठीक पहले सांता क्लाज गठरी में तोहफे लेकर आता है, उसी किस्म के तोहफे इस सरकार ने चुनाव के कुछ हफ्तों पहले घोषित किए हैं। लेकिन इसे दूसरी पार्टियों के प्रदेशों की चुनावी घोषणाओं, और चुनाव के बाद की घोषणाओं से मिलाकर भी देखना होगा। उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी ने साधू दिखने वाले हर किसी के लिए पेंशन की घोषणा की है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, और राजस्थान में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के पहले घोषणापत्र में किसान कर्जमाफी की बात कही थी, और वह आनन-फानन कर भी दी गई है। इसके बाद छत्तीसगढ़ प्रवास पर आए कांग्रेसाध्यक्ष राहुल गांधी ने किसान कर्जमुक्ति प्रमाणपत्र देते हुए यह घोषणा की कि केन्द्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार आने पर हर गरीब परिवार को एक न्यूनतम आय की गारंटी दी जाएगी। इसे एक बड़ा ऐतिहासिक कदम माना गया, और राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने हर गरीब परिवार के एक बेरोजगार के लिए एक मासिक भत्ते की घोषणा कर भी दी है।
दूसरी तरफ दुनिया के कई अर्थशास्त्री भारत की चुनावी-रियायती घोषणाओं को देश के दीर्घकालीन आर्थिक विकास के लिए एक चुनौती भी मान रहे हैं, और भारत की केन्द्र और प्रदेश सरकारों को सावधान भी कर रहे हैं। यह बात सही है कि रियायत और अनुदान का बोझ खासा बड़ा होता है, और भारत जैसे देश में जहां बेईमानी बहुत आम है, वहां पर अपात्र लोग भी गरीबों की रियायत को खाने के लिए अपनी गाडिय़ों में पहुंच जाते हैं। ऐसे में चुनाव से परे की एक संतुलित आर्थिक योजना में ढांचागत विकास, उद्योग-व्यापार के विकास, और गरीब तबके को जिंदा रहने और आगे बढऩे के लिए एक न्यूनतम जरूरी मदद, इन सबके बीच तालमेल बैठाना हो जाता है। लेकिन जब जीने और मरने का सवाल हो, जब सरकार में आने या विपक्ष में कुचल जाने का मुद्दा सामने खड़ा हो, तो फिर संतुलित आर्थिक फैसले गड़बड़ा भी जाते हैं। फिर भी आज की मोदी सरकार के बजट के 12 करोड़ किसानों को देश के किसान आंदोलनों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उनकी वजह से किसानों के मुद्दे राष्ट्रीय बहस में आए। इसके बाद उन्हें कांग्रेस पार्टी को धन्यवाद कहना चाहिए कि तीन राज्यों में किसान कर्जमुक्ति की घोषणा करके उन्होंने बाकी पार्टियों और बाकी सरकारों के सामने यह चुनौती रख दी कि वे इसे अनदेखा करके तो बताएं।
देश में एक तरफ जहां आर्थिक असमानता जंगल की आग की रफ्तार से आगे बढ़ रही है, वैसे में सबसे गरीब किसान, मजदूर, और बेरोजगार की फिक्र करने के लिए आज राजनीतिक दलों की बांह मरोड़ दी गई है, और तरह-तरह के आंदोलनों ने, तरह-तरह की चुनावी चुनौतियों ने हर किसी को मजबूर कर दिया है कि वे चुनाव चाहे अंबानी-अदानी से चंदा लेकर लड़ें, लेकिन देश की कमाई का एक हिस्सा गरीबों पर भी खर्च करना होगा। अब बजट का संतुलन और अर्थव्यवस्था का व्यापक नजरिया एक अलग मुद्दा रहा, लेकिन यह बात तय हो गई है कि चुनाव से परे भी अब हर राष्ट्रीय बहस में गरीब की एक जगह होगी ही होगी। केन्द्र सरकार के इस बजट को कोसने की वजहें शायद विपक्ष को भी न मिल पाएं क्योंकि ये कुछ महीनों का अंतरिम बजट है, और आम चुनाव में जीतकर आने वाली सरकार साल के बाकी महीनों के लिए बजट भी पेश करेगी, और इस बार की घोषणाओं को एक बार तौल भी लेगी। फिर भी जैसा कि भारतीय लोकतंत्र में चलते आ रहा है, एक बार घोषित रियायतें वापिस नहीं लौटतीं, और वे कायम रहती हैं, जारी रहती हैं। केन्द्र की एनडीए सरकार और उसके भागीदारों की राज्य सरकारों के अलावा दूसरी पार्टियों की राज्य सरकारों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि सबसे गरीब तबके को उसका एक न्यूनतम और जायज हक देने के साथ-साथ राज्य का विकास कैसे किया जाए।

