मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय सोशल मीडिया पर लगातार घोर साम्प्रदायिक, भड़काऊ, और हिंसक बातें लिखते रहते हैं। लेकिन उनकी ताजा बात देश में हिंसा भड़काने की एक बड़ी वजह बन सकती है जिसमें भारतीय सेना के एक रिटायर्ड अफसर की अपील से अपनी सहमति जताते हुए उसे री-ट्वीट किया है जिसमें कहा गया है कि कश्मीर न जाएं, दो बरस अमरनाथ भी न जाएं, कश्मीर एम्पोरियम से कोई सामान न खरीदें, कश्मीरी फेरीवालों से कोई सामान न खरीदें, और हर कश्मीरी चीज का बहिष्कार करें।
तथागत रॉय राज्यपाल के संवैधानिक पद पर हैं, और संविधान की शपथ लेकर ऐशोआराम के इस ओहदे पर काबिज हैं, और इस संवैधानिक दर्जे की वजह से उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता है। लेकिन आज जब देश में जगह-जगह कश्मीरी छात्रों पर, कश्मीरी कारोबारियों पर, फेरीवालों पर हमले हो रहे हैं, तब भाजपा का यह नेता और राज्यपाल ऐसी हिंसक बात कहकर भी कुर्सी पर बना हुआ है। इसे लेकर देश में बहुत से लोग यह बात उठा रहे हैं कि राज्यपाल की ऐसी असंवैधानिक बात को लेकर राष्ट्रपति कब उन पर कार्रवाई करेंगे? संविधान के मुताबिक राज्यपाल राष्ट्रपति की मर्जी से नियुक्त होते हैं, और वे कब तक के लिए ही नियुक्त रहते हैं, जब तक राज्यपाल की मर्जी हो। लेकिन देश के बहुत से भाजपा-एनडीए विरोधी लोगों द्वारा की जा रही आलोचना के बीच आज एनडीए में भाजपा के एक सबसे पुराने साथी अकाली दल ने राज्यपाल से मांग की है कि वे तथागत रॉय के कश्मीर बहिष्कार की ट्वीट पर तुरंत कार्रवाई करें। इस पार्टी के सांसद और वरिष्ठ नेता नरेश गुजराल ने कहा है कि 1980 के दशक में सिक्ख समुदाय को पंजाब के आतंक की वजह से जिस तरह अलग-थलग किया गया था, उसका दुहराव आज कश्मीरियों के साथ नहीं होना चाहिए। गुजराल ने कहा कि कश्मीरी समुदाय के कुछ लोग आतंक में शामिल हो सकते हैं, और सरकार को उन पर कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पूरे कश्मीरी समुदाय का ही बहिष्कार कर दिया जाए। गुजराल का कहना है कि यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि तथागत रॉय जैसे लोग राज्यपाल बनाए गए हैं, ऐसे लोग हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों पर एक धब्बा हैं। उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच अघोषित युद्ध पंजाब में शुरू किया गया था, और यह डेढ़ दशक चलते रहा, जिसमें 40 हजार से अधिक बेकसूर जिंदगियां खत्म हुईं, लेकिन इससे भी बड़ा नुकसान तब हुआ जब पूरे सिक्ख समुदाय को शक की नजर से देखा गया, और 1984 के दंगों में उन्हें मारा गया। नरेश गुजराल ने राष्ट्रपति से कहा है कि तथागत रॉय की हिंसक बातों को देखकर तुरंत उन पर कार्रवाई की जानी चाहिए।
हम इस सिलसिले में जो कहना चाहते हैं, वह तकरीबन पूरे का पूरा उस एनडीए के एक सबसे पुराने और खांटी भागीदार अकाली दल ने कह दिया है इसलिए हम उन्हीं तर्कों को यहां दुहराना नहीं चाहते। लेकिन अगर राष्ट्रपति देश के ऐसे माहौल में न लोगों से खुद कोई अपील कर रहे हैं, न एक राज्यपाल द्वारा फैलाई जा रही भड़काऊ हिंसा पर कोई कार्रवाई कर रहे हैं, तो ऐसी चुप्पी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के इतिहास में अच्छी तरह दर्ज होने जा रही है। यह बात कोई दबी-छुपी नहीं है, और न ही चर्चा के लिए नाजायज है कि राष्ट्रपति देश के उस दलित समुदाय से आए हैं जो कि एक समुदाय के रूप में सैकड़ों बरस से हिन्दुस्तान में ऐसी ही हिंसा झेल रहा है, बहिष्कार झेल रहा है, सामाजिक छुआछूत झेल रहा है। एक दलित के रूप में उनकी समझ सामाजिक बहिष्कार की तकलीफ को समझने वाली होनी चाहिए, फिर चाहे वह एक दलित का बहिष्कार हो, किसी मुस्लिम का बहिष्कार हो, या किसी प्रदेश के व्यक्ति का बहिष्कार हो। राष्ट्रपति उस उत्तरप्रदेश के हैं जिसने मुम्बई में लंबे अरसे से शिवसेना के फतवों में बहिष्कार झेला है, और हिंसा झेली है। यह तमाम तजुर्बा राष्ट्रपति को देश में आज कश्मीरियों पर खतरा, और उन्हें हिफाजत देने की समझ देने वाला होना चाहिए। तथागत रॉय की साम्प्रदायिक और हिंसक बातों से केन्द्र की मोदी सरकार को कभी कोई परहेज नहीं रहा, और इसीलिए मेघालय के राजभवन से निकला नफरत का लावा सोशल मीडिया के रास्ते देश भर में फैलते रहता है। लेकिन अब पानी सिर के ऊपर निकल गया है, और अब भी अगर राष्ट्रपति चुप रहते हैं तो उसका यही मतलब होगा कि सत्ता और सुख पाने के बाद उनके भीतर का तमाम दलित-तजुर्बा भुलाया जा चुका है, और वे अपनी आज की संवैधानिक जिम्मेदारी से मुंह चुरा रहे हैं।