कश्मीर में सीआरपीएफ पर हुए आतंकी हमले में करीब 40 जवानों की शहादत के बाद हिन्दुस्तान में लोग जितने सदमे में हैं, उससे अधिक गुस्से में भी हैं। जनता के ऐसे जख्मों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि आतंक के सौदागरों के खात्मे का समय, स्थान, और तरीका तय करने के लिए सेना को पूरी छूट दे दी गई है। दूसरी तरफ सीआरपीएफ की एक चेतावनी अखबारी सुर्खियों में है कि न भूलेंगे, न माफ करेंगे, बदला लेंगे। सीआरपीएफ ने इस बात को ट्वीटर पर लिखा है कि इस हमले का बदला लिया जाएगा। इसके साथ-साथ यह बात जोड़कर देखने की जरूरत है कि भारत के प्रधानमंत्री ने पड़ोसी देश पाकिस्तान का जिक्र इस सिलसिले में किया है और सरकार ने पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा वापिस ले लिया है। भारत सरकार के मंत्रियों ने यह भी कहा है कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान की जमीन के इस्तेमाल के सुबूत सरकार के पास हैं।
देश विचलित है, और ऐसे में मौका किसी तर्क या बहस का नहीं रहता है। कांग्रेसाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अपने पहले बयान में ही खुलकर साफ-साफ कह दिया है कि उनकी पार्टी पूरी तरह सरकार के साथ है। देश की जनता में से बहुत से मुखर लोग लगातार यह मांग कर रहे हैं कि सरकार पाकिस्तान पर फौजी कार्रवाई करे। भाजपा के सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने फतवा जारी किया है कि भारत फौजी कार्रवाई करके पाकिस्तान के चार टुकड़े कर दे। ऐसे में भारत सरकार के ऊपर एक बहुत बड़ी जवाबदेही आ जाती है कि वह क्या करे। देश के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा मुर्गा लड़ाई देखने के लिए जुटे तमाशबीनों सरीखी हिंसा में डूबकर जंग के फतवे दे रहा है, क्योंकि उन सबके स्टूडियो सरहद से हजार किलोमीटर से अधिक दूर हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे कार्टून भी तैर रहे हैं जो बता रहे हैं कि जंग के फतवे देने वालों के घर फौज उन्हें साथ लेने पहुंची तो वे किस तरह छुपकर बैठ गए हैं।
आज देश की तकलीफ के बीच भी दो बातों पर सोचने की जरूरत है, और यह जरूरत इसलिए है कि लोकतंत्र में बुरे वक्त पर भी अच्छी समझ कायम रखना जरूरी होता है। लोकतंत्र टुकड़ों में नहीं पनपता, और उससे उम्मीद की जाती है कि वह मजबूत लोकतांत्रिक परंपराएं छोड़कर भी जाए। ऐसे में प्रधानमंत्री की यह बात कुछ अटपटी है कि आतंक के सौदागरों के खात्मे का समय, स्थान, और तरीका तय करने के लिए सेना को पूरी छूट दे दी गई है। जब भारत सरकार जाहिर तौर पर आतंक के सौदागरों को पाकिस्तान में होने की बात कह रही है, तो क्या पाकिस्तान पर फौजी कार्रवाई का समय, और उसका तरीका तय करना सेना पर छोड़ा जा सकता है? लोकतंत्र में सेना का ऐसा किरदार कब से होने लगा कि वह इस किस्म की फैसले भी करने लगे जो कि सिर्फ निर्वाचित सरकार का अधिकार भी है, और उस पर जिम्मा भी है। भावनात्मक रूप से कही गई बात अलग होती है, लेकिन जब एक लोकतंत्र का प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी सरकार की नीति बता रहा है, तो सेना को ऐसी अलोकतांत्रिक छूट नहीं दी जा सकती जो कि उसके दायरे के बाहर की है। भारत में सेना निर्वाचित सरकार के मातहत काम करने, और उसी से हुक्म लेने के मुताबिक बनाई गई है। ऐसी सेना को फैसले लेने का काम नहीं दिया जाना चाहिए, और दिया भी नहीं जा सकता। लेकिन मानो प्रधानमंत्री के इस बयान को ही आगे बढ़ाते हुए सीआरपीएफ ने यह ट्वीट किया, न भूलेंगे, न माफ करेंगे, बदला लेंगे।
जैसा कि कश्मीर के इस ताजा हमले में जाहिर है कि आत्मघाती हमलावर आतंकी कश्मीरी नौजवान था और जैसा कि खबरों में आया है वह लोगों को यह बताते रहता था कि सुरक्षा बलों ने उसके बचपन में उससे सड़क पर नाक रगड़वाई थी। उसी वक्त से उसके मन में कोई नाराजगी या नफरत पनप रही होगी, जो कि आज कश्मीर के हजारों नौजवानों के मन में दिखती है। इस नफरत के जायज या नाजायज होने पर हम यहां नहीं जा रहे, लेकिन इतना जरूर देख रहे हैं कि कश्मीर के कई नौजवान पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के प्रभाव में आकर, वहां जाकर ट्रेनिंग लेकर लौटकर भारतीय कब्जे वाले कश्मीर में हिंसा कर रहे हैं। ऐसे में भारत के भीतर काम करने के लिए बनी सुरक्षा एजेंसी सीआरपीएफ जो कुछ करेगी वह देश के भीतर ही करेगी, वह सरहद पार करके पाकिस्तान जाकर तो आतंकी संगठनों से निपट नहीं सकती। ऐसे में वह भारतीय जमीन पर बदला आखिर किससे लेगी? हमलावर आतंकी तो अपने आपको मारकर ही बाकी लोगों को मार पाया। उसके और तो कोई घोषित साथी ऐसे हैं नहीं जिनसे सीआरपीएफ बदला निकाल सके। फिर भारत का कानून इस बात की भी इजाजत नहीं देता कि देश के भीतर काम करने के लिए बनी सुरक्षा एजेंसियां अपने स्तर पर बदला तय करें, और लोगों को मारें। लोगों को मारना उसी हालत में कानूनी है जब वे सुरक्षा बलों के लिए खतरा बन जाएं, या जिन्हें पहले से देखते ही मारने के कोई हुक्म हो चुके हों। भारत में ऐसे हुक्म का भी कोई प्रावधान याद नहीं पड़ता है सिवाय इसके कि फर्जी मुठभेड़ में लोगों को मार दिया जाए।
आज सवाल इस बड़ी शहादत के जिम्मेदार लोगों को सजा देने तक सीमित नहीं है। आज देश के सामने बड़ा सवाल यह भी है कि इस सजा से परे, और इसके बाद, कश्मीर को कैसे देश की मूलधारा के साथ रखा जाए। ऐसे में सीआरपीएफ कश्मीर में तैनात रहते हुए अगर बदला लेने की बात कहेगी, तो कश्मीर के लोगों को लगेगा कि उनमें से किससे यह बदला लिया जाएगा? यह प्रदेश पहले ही बाकी देश से अलग-थलग पड़ते जा रहा है, और यहां पर अभी तक लोगों के एक बड़े तबके के बीच यह ऐतिहासिक वायदा याद किया जाता है कि कश्मीरी लोगों को जनमत संग्रह से यह तय करने का हक मिलेगा कि वे भारत के साथ रहेंगे, पाकिस्तान के साथ जाएंगे, या एक आजाद मुल्क बनेंगे। कई ऐतिहासिक कारणों से यह जनमत संग्रह टाल दिया गया है, और वह एक लंबी चर्चा का अलग ही मुद्दा है। लेकिन इसका जिक्र इसलिए जरूरी है कि ऐसे माहौल वाले प्रदेश को देश के साथ बनाए रखने के लिए कश्मीर में जिस माहौल की जरूरत है, वह माहौल प्रधानमंत्री या सीआरपीएफ के ऐसे बयानों से बनने वाला नहीं है, बिगडऩे वाला ही है। कश्मीर में आज के गवर्नर, सतपाल मलिक, अधिक समझदारी की बात करते दिखते हैं, और इस हमले से परे वे कई चीजों को सुधारने की कोशिश भी कर रहे थे। वे कश्मीरी लोगों की भावनाओं को समझकर उनको जोडऩे की बात कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ दिल्ली से आतंक को तोडऩे के नाम पर कश्मीरी जनता के दिलों को ही तोडऩे की जो बातें चल रही हैं, वे ठीक नहीं हैं। पाकिस्तान से निपटने के लिए सेना को फैसला लेने की ऐसी खुली छूट भी ठीक नहीं है, और सीआरपीएफ का बदला लेने का इरादा भी ठीक नहीं है। लोकतंत्र जानवरों की लड़ाई की तरह बिना कायदों का काम नहीं है, उसे बहुत बर्दाश्त करने वाला रहना पड़ता है, और लोकतंत्र में बदला नहीं लिया जाता, संतुलित कार्रवाई की जाती है, फौज को फैसला नहीं लेने दिया जाता, फौज को हुक्म दिया जाता है। जख्मों के बीच समझदारी की बात कड़वी लग सकती है, लेकिन ऐसे जख्मों के भरने के पहले ही जब कार्रवाई की उम्मीद की जा रही है, तो समझदारी की बात की यह चर्चा भी आज जख्मों के बीच ही जरूरी है। यह याद रखने की जरूरत है कि आतंक के इस बार के हमलावर महज पाकिस्तान में बैठे लोग नहीं हैं, इसमें सीधे-सीधे हिन्दुस्तानी खुद भी शामिल हैं, और यह बात हिन्दुस्तान की सरकार के लिए अधिक फिक्र की, अधिक सोचने की, और अधिक संतुलित कार्रवाई की है। यह याद रखना चाहिए कि दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग की हिफाजत का जिम्मा भी इसी सीआरपीएफ पर है, और कश्मीर में जगह-जगह सीआरपीएफ ही तैनात है। बात महज कश्मीरियों की नहीं है, कश्मीर के लोगों के बीच तैनात इन जवानों की भी है जो कि बदला लेने के फतवों के बीच वहां शायद खुद भी पूरी तरह हिफाजत से नहीं रह सकते। दूसरी तरफ यह बात भी याद रखना है कि बदला लेने के ऐसे फतवों को देश भर में बिखरे हुए साम्प्रदायिक लोग जगह-जगह कश्मीरी छात्रों के खिलाफ भी इस्तेमाल करते हैं। अभी-अभी खबर आ रही है कि बिहार में छोटे-छोटे कश्मीरी कपड़ा-कारोबारियों की कच्ची दुकानों पर नौजवान हमले कर रहे हैं।