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अर्नब पर कानूनी कार्रवाई मौत की दावत न बनाएं ...

अंग्रेजी, और अब हिन्दी के भी, एक समाचार टीवी चैनल रिपब्लिक के मुखिया अर्नब गोस्वामी के खिलाफ दिल्ली में एक एफआईआर का हुक्म हुआ, तो सोशल मीडिया खुशी से झूम पड़ा। देश के सबसे बड़े कुछ पत्रकार भी पल भर में ट्वीट करने लगे कि यह बहुत अच्छा हुआ। मीडिया के किसी भी हिस्से की हमदर्दी अर्नब या उनके टीवी चैनल के साथ नहीं रही क्योंकि इतने बरसों में अर्नब ने भारतीय लोकतंत्र की अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बेजा इस्तेमाल करते हुए देश में दंगा और पड़ोसी पाकिस्तान से जंग छिड़वाने में कोई कसर नहीं रखी, जो-जो उनकी बहसों में उनसे असहमत रहें, उन्हें देश का गद्दार कहने में उन्होंने पल भर भी नहीं लगाया। उन्होंने मीडिया शब्द का जैसा भरपूर हमलावर और अन्यायपूर्ण इस्तेमाल किया, उसकी कोई मिसाल न पहले थी, न बाद में। नतीजा यह भी निकला था कि अर्नब को देखकर थके हुए लोग बाद में किसी दूसरे समाचार चैनल को देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए थे। जिस तरह राजनीति में सुब्रमण्यम स्वामी सोनिया परिवार के खिलाफ नफरत के अलावा और कुछ नहीं देख पाते, वैसा ही कुछ अर्नब ने देश के तमाम मोदी-विरोधियों, युद्धविरोधियों, और धर्मनिरपेक्षकों के साथ किया था। नतीजा यह निकला कि कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की मौत की चल रही पुलिस जांच के कागजात जब अर्नब के चैनल ने समाचार में इस्तेमाल किए, तो दिल्ली में उसे लेकर एक एफआईआर कायम हुई है, जुर्म दर्ज हुआ है। 
लेकिन किसी सरकारी कागजात को बिना इजाजत हासिल करके उसे इस्तेमाल करने को लेकर यह जुर्म तो कायम हो गया है, मीडिया के सभी गैरअर्नब लोग भी खुश हो गए हैं, लेकिन यह खुशी तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं है। अभी पिछले चार दिनों में ही दो बार देश के एक सबसे प्रतिष्ठित अखबार, द हिन्दू, ने जिस तरह रफाल सौदे से जुड़ी हुई रक्षा मंत्रालय की गोपनीय फाईलों के पन्नों के साथ रिपोर्ट छापी है, उन कागजात तक पहुंच भी राष्ट्रीय सुरक्षा का एक मामला है। हम पल भर के लिए भी यह नहीं सुझा रहे कि हिन्दू के खिलाफ भी कोई जुर्म दर्ज होना चाहिए, बल्कि यह बता रहे हैं कि अगर फाईलों तक मीडिया की पहुंच नहीं रहेगी, तो देश के सबसे बड़े अपराधों का भांडाफोड़ भी नहीं हो पाएगा। बहुत से मामले लोकतंत्र में इस तरह की लीक को लेकर ही सामने आ पाते हैं जिन कागजात को सूचना के अधिकार के तहत भी कोई हासिल नहीं कर सकते। इसलिए यह मीडिया को एक पेशे की तरह खुशी मनाने का मौका नहीं है, यह एक खतरनाक नौबत है, लेकिन लोग इसलिए खुश हैं कि मीडिया शब्द को एक बदनाम शब्द बनाने वाला, आज का शायद सबसे बुरा मीडियाकर्मी आज इसका शिकार हो रहा है। कल के दिन उत्तरप्रदेश की पुलिस किसी कुख्यात मुजरिम को फर्जी मुठभेड़ में मारेगी, तो भी उस मुजरिम से परेशान लोग ऐसी ही खुशी मनाएंगे, लेकिन ऐसी मुठभेड़-हत्या लोकतंत्र में लंबी दूरी तक किसी काम की नहीं रहती, वह बहुत से बेकसूरों के लिए खतरा ही खड़ा करती है। इसलिए एक बुरे के साथ कुछ बुरा होना अच्छी बात मान लेना हमेशा ही अच्छा नहीं हो सकता। मीडिया को अर्नब पर आज हो रही कानूनी कार्रवाई को पेशे पर मंडराने वाले एक खतरे की तरह देखना चाहिए, इसे किसी की मौत पर होने वाली दावत की तरह नहीं उड़ाना चाहिए। 
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